Author Topic: Sri Nagar: A Religious Place - श्री क्षेत्र: श्रीनगर  (Read 29065 times)

पंकज सिंह महर

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साथियो,
पौड़ी जनपद में समुद्र तल से १७०० फिट की ऊंचाई पर स्थित श्रीनगर को पौराणिक ग्रन्थों में श्री क्षेत्र कहा जाता है। इस टोपिक के अन्तर्गत हम इस पौराणिक स्थान के बारे में चर्चा करेंगे।

     इसे महाभारत काल में कुलिन्द जनपद के नाम से भी जाना जाता था, यहां का राजा सुबाहु था और हिमालय को प्रस्थान करते समय उसने पांडवों का स्वागत किया था। महर्षि नारद का मोहभंग भी विष्णु जी ने यहीं पर किया था, इसी के निकट महेन्द्र और अग्निकील पर्वत हैं, जहां से इन्द्र का रथ अर्जुन को लेकर स्वर्ग गया था। अग्नि पर्वत के शिखर पर पुराणों में प्रसिद्ध अष्टावक्र मंदिर भी है।
     स्कन्द पुराण केदार खण्ड के उल्लेखानुसार श्री क्षेत्र की स्थिति यहां कोलासुर नामक एक मायावी कौल की निवास स्थली होने के कारण बड़ी भयावह थी। इच्छानुसार रुप बदलने में सिद्धह्स्त कोलासुर के आतंक से जनता को भयमुक्त करने के लिये उसके वध का निर्णय कर एक बार राजा सत्यसंघ ने उफल्डा की चट्टान से विशाल पाषाण शिला निकालकर अलकनन्दा के बांये तट पर रखी और श्री विद्या की आराधना हेतु उस पर श्री यंत्र की स्थापना की। बाद में श्री यंत्र सिद्धि कर राजा सत्यसंघ ने राजेश्वरी देवी से प्राप्त खड्ग से कोलासुर का संहार किया। कोलासुर वध के बाद उसका सिर और धड़ उत्तर पूर्व दिशा में फेंका गया, जहां तक उसके अंग गिरे वहां तक का क्षेत्र श्री यंत्र के कारण "श्री क्षेत्र" कहलाया।
      ऎसा कहा जाता है कि देवासुर संग्राम के बाद असुरों के संहारक श्री यंत्र को जहां भी रखा जाता, वहां रक्तपात हो जाता। इससे परेशान और चिंतित देवताओं ने ऋषि-मुनियों से सलाह कर इस यंत्र को मध्य हिमालय के बियाबान श्री क्षेत्र में रखवा दिया। लेकिन इसके बाद भी किसी भूले-भटके की इस ओर नजर पड़ने मात्र से फ़्ग वह काल का ग्रास बन जाता था। जब आदिगुरु शंकराचार्य बद्रीनाथ की स्थापना के बाद श्रीनगर पहुंचे तो स्थानीय निवासियों ने उनसे इस समस्या से निजात दिलाने की प्रार्थना की। आदिगुरु ने अपने तपोबल से इस यंत्र को उल्टा कर अलकनन्दा में समाहित कर दिया, जिसके बाद से इस तरह की घटनायें बंद हो गईं।

पंकज सिंह महर

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हिन्दुओं के पौराणिक लेखों में इसे श्री क्षेत्र कहा गया है जो भगवान शिव की पसंद है। किंवदन्ती है कि महाराज सत्यसंग को गहरी तपस्या के बाद श्री विद्या का वरदान मिला जिसके बाद उन्होंने कोलासुर राक्षस का वध किया। एक यज्ञ का आयोजन कर वैदिक परंपरानुसार शहर की पुनर्स्थापना की। श्री विद्या की प्राप्ति ने इसे तत्कालीन नाम श्रीपुर दिया। प्राचीन भारत में यह सामान्य था कि शहरों के नामों के पहले श्री शब्द लगाये जांय क्योंकि यह लक्ष्मी का परिचायक है, जो धन की देवी है।
वर्तमान नाम श्रीनगर एक विशाल पत्थर पर खीचें श्रीयंत्र से लिया गया माना जा सकता है। जब तक श्रीयंत्र को प्रार्थनाओं से तुष्ट किया जाता रहा तब तक शहर में खुशहाली थी। जब लोगों ने इसे पूजना बंद कर दिया तो यह द्रोही हो गया। जो भी इस पर नजर डालता वह तत्काल मर जाता और कहा जाता है कि इस प्रकार 1,000 लोगों की मृत्यु यहां हुई। वर्तमान 8वीं सदी में हिन्दु धर्मोद्धार के क्रम में जब आदी शंकराचार्य श्रीनगर आये तब उन्होंने श्री यंत्र को ऊपर से नीचे घुमा दिया तथा इसे अलकनंदा नदी में फेंक दिया। यह आज भी नदी में ही है तथा लोग बताते हैं कि यह 50 वर्ष पहले तक जल के स्तर से ऊपर दिखाई देता था। इस क्षेत्र को श्री यंत्र टापू कहा जाता है।

श्रीनगर वह जगह है जहां आदि शंकराचार्य को देवी की शक्ति का भान हुआ। कहा जाता है कि दस्त के कारण वे बहुत कमजोर हो गये तथा पानी मांगा। एक सुंदर महिला पानी लेकर उनके सामने आई और उनसे पूछा कि उनके वेदान्त का ज्ञान उनके शरीर को सबल बनाने में क्यों असमर्थ है तथा क्या उनका शरीर शक्ति के बिना कार्य करता है। उसी समय से वे शक्ति एवं देवी की पूजा करने लगे।

श्रीनगर से संबद्ध एक और रूचिपूर्ण एवं जटिल रहस्य है जो नारद मुनि एवं उनके मायाजाल में फंसने से संबंधित है। माना जाता है कि भगवान शिव गोपेश्वर में समाधिस्थ थे तो उनकी समाधि में कामदेव द्वारा विघ्न डाला गया और क्रोधित होकर उन्होंने उसे भस्म कर दिया। अपनी पत्नी सती से बिछुड़ने के बाद समाधिस्थ भगवान शिव की समाधि को भंग करने के लिये कामदेव को सभी देवताओं ने मिलकर भेजा था क्योंकि भयंकर राक्षस ताड़कासूर को केवल भगवान शिव का पुत्र ही वध कर सकता था। देवताओं की इच्छा थी कि भगवान शिव फिर से विवाह करें ताकि वे पुत्र का सृजन कर सकें (इस बीच उमा के रूप में सती का पुनर्जन्म हो चुका था)। कामदेव को नष्ट करते हुए भगवान शिव ने उसे शापित किया कि गोपेश्वर में तप करने वाले को उसका हाव-भाव प्रभावित नहीं कर सकेगा। त्रेता युग में भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध के रूप में पुनर्जन्म लेकर कामदेव का अपनी पत्नी के साथ पुनर्मिलन हुआ।..........

पंकज सिंह महर

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.........इसे बिना जाने ही नारद मुनि ने गोपेश्वर में अपनी तपस्या पूरी की और घमंडी हो गये। उन्होंने भगवान विष्णु के सामने आत्म प्रशंसा की तो भगवान विष्णु ने उन्हें पाठ पढ़ाना चाहा क्योंकि उन्हें उस पृष्ठभूमि का ज्ञान था। आज जहां श्रीनगर अवस्थित है उस जगह भगवान विष्णु ने एक स्वर्ग रूपी नगर का सृजन किया तथा अपनी पत्नी को एक सुंदर स्त्री के रूप में अपना स्वयंवर आयोजित करने को राजी कर लिया। नारद मुनि ने पत्नी पाने का निश्चय कर किया। उन्होंने भगवान विष्णु से एक सुंदर शरीर उधार लिया और स्वयंवर में जा पहुंचे। जब लक्ष्मी ने उनकी ओर नहीं देखा तो वे परेशान हुए और तब उन्हें भान हुआ कि भगवान विष्णु ने उन्हें अपने एक अवतार बानर का चेहरा दे दिया था। वे क्रोधित होकर भगवान विष्णु को शाप दिया कि जैसे वे (नारद) दांपत्य सुख से वंचित हुए है, वैसे ही भगवान विष्णु भी हों (इसलिये भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता के बिना ही काफी दिन व्यतीत किया) जब उन्हें गोपेश्वर तथा भगवान शिव के बारे में बताया गया तो वे पश्चाताप में डूब गये और भगवान शिव से कहा कि बानर ही उन्हें अपनी पत्नी से मिलायेंगे। बानर सेना ने ही सीता को फिर पाने एवं रावण से युद्ध करने में भगवान राम की सहायता की थी।

महाभारत युग में श्रीनगर राजा सुबाहु के राज्य की राजधानी थी तथा वन पर्व के दौरान गंधमर्दन पर्वत के रास्ते पाण्डवों ने सुबाहु का आतिथ्य ग्रहण किया था।

पंकज सिंह महर

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महाभारत काल में, यह राजा सुबाहु के राज्य की राजधानी थी तथा माना जाता है कि अपने वाण पर्व के दौरान गंधमर्दन पर्वत के रास्ते पांडवों को सुबाहु का आतिथ्य मिला था। वर्तमान नाम श्रीनगर श्री यंत्र से विकसित हुआ हो सकता है जो एक विशाल पत्थर पर अंकित है जिसकी बलि वेदी पर देवों को प्रसन्न करने मानवों की बलि दी जाती होगी। वर्तमान 8वीं सदी के दौरान हिंदू धर्म के पुनरूद्धार के क्रम में आदि शंकराचार्य ने इस प्रक्रिया का विरोध कर इसे रोक दिया तथा और इस पत्थर के चट्टान को अलकनंदा में डाल दिया जो आज भी वहां हैं।

पंकज सिंह महर

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श्रीनगर का इतिहास

उत्तराखंड के इतिहास पर एक स्थानीय इतिहासकार तथा कई पुस्तकों के लेखक एस.पी. नैथानी के अनुसार श्रीनगर के विपरीत अलकनंदा के किनारे रानीहाट के बर्तनों, हड्डियों एवं अवशेषों से पता चलता है कि 3,000 वर्ष पहले श्रीनगर एक सुसभ्य स्थल था जहां लोग शिकार के हथियार बनाना जानते थे तथा जो खेती करते थे एवं बर्तनों में खाना पकाते थे।
मध्य युग में गढ़वाल पर पंवार वंश का शासन था और इसके 37वें शासक अजय पाल ने ही श्रीनगर को राजधानी बनाया था। अजय पाल एक अवयस्क राजा था जिसने चांदपुर गढ़ी में शासन किया जैसा श्री. नैथानी बताते हैं। कुमाऊं के चंद शासकों से पराजय के बाद उसने श्रीनगर से 5 किलोमीटर दूर देवलगढ़ के गोरखपंथी गुरू सत्यनाथ के एक शिष्य के रूप में शरण ली। उन्होंने उसे अपनी राजधानी श्रीनगर में बनाने की सलाह दी। श्रीनगर के चयन का दूसरा कारण अलकनंदा की चौड़ी घाटी की स्थिति था। नैथानी के अनुसार वहां एक प्राचीन दक्षिण काली का मंदिर था तथा तत्कालीन मंदिर के पुजारी ने भविष्यवाणी की थी कि श्रीनगर में बहुत लोग आयेंगे इतने लोग कि उनके लिए दाल छौकने के लिये एक टन हींग की आवश्यकता होगी। भविष्यवाणी सच साबित हुई तथा अजय पाल के अधीन श्रीनगर उन्नतशील शहर बन गया जिसने यहां वर्ष 1493-1547 के बीच शासन किया तथा अपने अधीन 52 प्रमुख स्थलों को एकीकृत किया। उस समय गढ़वाल राज्य का विस्तार तराई के कंखल (हरिद्वार) एवं सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) तक हुआ। उनकी मृत्यु के बाद उसके कई वंशजों ने यहां शासन किया।

पंकज सिंह महर

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वर्ष 1517 से 1803 तक पंवार राजाओं की राजधानी श्रीनगर थी और इस वंश के 17 राजाओं ने यहीं से शासन किया। अजयपाल के बाद सहज पाल एवं बलभद्र शाह ने इस शहर एवं राजमहल को संवारने का प्रयास किया, पर राजा मान शाह वास्तव में इस शहर को प्रभावशाली बनाने में सफल हुआ।
यद्यपि स्थायी तौर पर श्रीनगर तथा कुमाऊं के राजाओं के बीच झड़पे होती रही, पर दोनों पहाड़ी राज्यों को मैदानी ताकतों के अधीन कभी भी न होने का गौरव प्राप्त था। वास्तव में शाहजहां के समय यह कहा गया कि पहाड़ी राज्यों पर विजय पाना सबसे कठिन था।
     इतिहास के आधार पर श्रीनगर हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है क्योंकि यह बद्रीनाथ एवं केदारनाथ के धार्मिक स्थलों के मार्ग में आता है। बहुसंख्यक तीर्थयात्री इस शहर से गुजरते हुए यहां अल्पकालीन विश्राम के लिये रूकते रहे हैं। फिर भी नैथानी बताते हैं कि श्रीनगर के राजा ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि साधु-संतों तथा आमंत्रित आगंतुकों को छोड़कर अन्य तीर्थयात्री शहर के बाहर से ही जयें क्योंकि उस समय हैजा का वास्तविक खतरा था। गढ़वाल में एक पुरानी कहावत थी कि अगर हरिद्वार में हैजा है तो वह 6 दिनों में बद्रीनाथ में फैलने का समय होता था (अंग्रेज भी हैजा को नियंत्रित करने में असमर्थ रहे तथा कई लोगों द्वारा इस रोग के विस्तार को रोकने के लिये घरों को जला दिया जाता था तथा लोगों को घरों को छोड़कर जंगल भागना पड़ता था)।
     वर्ष 1803 से नेपाल के गोरखा शासकों का शासन (1803-1815) यहां शुरू हुआ। समय पाकर गढ़वाल के राजा ने गोरखों को भगाने के लिये अंग्रेजों से संपर्क किया, जिसके बाद वर्ष 1816 के संगौली संधि के अनुसार गढ़वाल को दो भागों में बांटा गया जिसमें श्रीनगर क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन हो गया। इसके बाद गढ़वाल के राजा ने अलकनंदा पार कर टिहरी में अपनी नयी राजधानी बसायी। श्रीनगर ब्रिटिश गढ़वाल के रूप में वर्ष 1840 तक मुख्यालय बना रहा तत्पश्चात इसे 30 किलोमीटर दूर पौड़ी ले जाया गया। वर्ष 1894 में श्रीनगर को अधिक विभीषिका के सामना करना पड़ा, जब गोहना झील में उफान के कारण भयंकर बाढ़ आई। श्रीनगर में कुछ भी नहीं बचा। वर्ष 1895 में ए के पो द्वारा निर्मित मास्टर प्लान के अनुसार वर्तमान स्थल पर श्रीनगर का पुनर्स्थापन हुआ। वर्तमान एवं नये श्रीनगर का नक्शा जयपुर के अनुसार बना जो चौपड़-बोर्ड के समान दिखता है जहां एक-दूसरे के ऊपर गुजरते हुए दो रास्ते बने हैं। नये श्रीनगर के मुहल्लों एवं मंदिरों के वही नाम हैं जो पहले थे जैसा कि विश्वविद्यालय के एक इतिहासकार डॉ दिनेश प्रसाद सकलानी बताते हैं।

पंकज सिंह महर

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श्रीनगर का पुराना चित्र

हिमालयन गजेटियर (वोल्युम III, भाग II ) वर्ष 1882 में ई.टी. एटकिंस के अनुसार कहा जाता है कि कभी शहर की जनसंख्या काफी थी तथा यह वर्तमान से कही अधिक विस्तृत था। परंतु अंग्रेजी शासन के आ जाने से कई वर्ष पहले इसका एक-तिहाई भाग अलकनंदा की बाढ़ में बह गया तथा वर्ष 1803 से यह स्थान राजा का आवास नहीं रहा जब प्रद्युम्न शाह को हटा दिया गया जो बाद में गोरखों के साथ देहरा के युद्ध में मारे गये। इसी वर्ष एक भूकंप ने इसे इतना अधिक तबाह कर दिया कि जब वर्ष 1808 में रैपर यहां आये तो पांच में से एक ही घर में लोग थे। बाकी सब मलवों का ढेर था। वर्ष 1819 के मूरक्राफ्ट के दौरे तक यहां कुछ मोटे सूती एवं ऊनी छालटियां के घर ही निर्मित थे और वे बताते हैं कि यह तब तक वर्ष 1803 के जलप्लावन तथा बाद के भूकंप से उबर नहीं पाया था, मात्र आधे मील की एक गली बची रही थी। वर्ष 1910 में (ब्रिटिश गढ़वाल, ए गजेटियर वोल्युम XXXVI) एच.जी. वाल्टन बताता है, “पुराना शहर जो कभी गढ़वाल की राजधानी तथा राजाओं का निवास हुआ करता था उसका अब अस्तित्व नहीं है। वर्ष 1894 में गोहना की बाढ़ ने इसे बहा दिया और पुराने स्थल के थोड़े अवशेषों के अलावा यहां कुछ भी नहीं है। आज जहां यह है, वहां खेती होती है तथा नया शहर काफी ऊंचा बसा है जो पुराने स्थल से पांच फलांग उत्तर-पूर्व है।”
      श्रीनगर के लोगों की भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में गहरी जुड़ाव थी तथा वर्ष 1930 के दशक के मध्य यहां जवाहर लाल नेहरू एवं विजयलक्ष्मी पंडित जैसे नेताओं का आगमन हुआ था।

भारत की स्वाधीनता के बाद श्रीनगर, उत्तर प्रदेश का एक भाग बना और अब यह वर्ष 2000 में निर्मित उत्तरांचल राज्य का हिस्सा बना, जिसका बाद में उत्तराखंड नाम पड़ा।

पंकज सिंह महर

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श्रीनगर में अलकनन्दा नदी

पंकज सिंह महर

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गढ़वाल के 17 पंवार राजाओं का आवास होने के नाते श्रीनगर एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक तथा प्रशासनिक केंद्र रहा है। यही वह जगह है जहां निपुण चित्रकार मौलाराम के अधीन चित्रकारी स्कूल विकसित हुआ। यहां के पुराने राजमहलों में गढ़वाली पुरातत्व के सर्वोत्तम उदाहरण मौजूद हैं तथा यहां राजाओं ने कला को प्रोत्साहित एवं विकसित किया। आज उसी वैधता को यह शहर आगे बढ़ाता है और ज्ञान का प्रमुख स्थल बना है, जहां गढ़वाल विश्वविद्यालय स्थित है।
राजा ने दो भिन्न धार्मिक परंपराओं का पालन किया जिनमें पहला सात्विक (देवी पूजा) तथा दूसरा नाथ उपासना (गोपेश्वरनाथ की परंपरा) था। दूसरा पंथ भक्ति परंपरा के रूप में हिमालय के क्षेत्रों में द्रुत गति से फैला। कहा जाता है कि अजय पाल स्वयं ही प्रसिद्ध गोरखपंथी सत्यनाथ का शिष्य था। उसके एकमात्र प्रतिद्वंदी कुमाऊं राजाओं के गुरू थे और प्राय: ही इन दोनों राज्यों के बीच शक्ति संघर्ष हुआ करता था। हिमाचली राजाओं तथा मुगल साम्राज्य के साथ लगातार तनाव, वैमनस्य एवं षडयंत्र राजदरबार के जीवन का एक भाग था।

फिर भी पंवार दरबार ही वह स्थान था जहां कला विकसित हुआ। अपने समय में सर्वाधिक सुसंस्कृत शहर के रूप में श्रीनगर शहर भक्तों, तीर्थयात्रियों, कलाकारों एवं लेखकों के लिए अनावरोधित आकर्षण का श्रोत था। भरत एवं मेधाकर जैसे कवियों ने अपनी पुस्तक रामायण प्रदीप की रचना की। श्रीनगर के एक अग्रणी लेखक एवं इतिहासकार धर्मानंद उन्नियाल पथिक के अनुसार वर्ष 1664-1718 के बीच राजा फतेह शाह का शासन श्रीनगर का स्वर्ण युग था। भूषण, जटाधर मिश्र एवं रतन जैसे कवियों एवं बुद्धजीवियों ने सदस्य के रूप में फतेह शाह के दरबार की शोभा बढ़ाई जिन्होंने अपने लेखों में श्रीनगर का वर्णन किया। एक अन्य लेखक मतिराम ने छछंदसार पिंगल में फतेह शाह की प्रशंसा की तथा मौला राम के पिता तथा दरबार के चित्रकार मंगत राम का जिक्र किया। मौला राम (वर्ष 1743-1833), वास्तव में श्रीनगर का सर्वाधिक विख्यात कलाकार एवं कवि था पर पंडित दिवाकर मैथानी, राजगुरू, पंडित हरिदत्त नौटियाल, पंडित ऊर्विदत्त डंगवाल, पंडित गोविन्द राम घिलदियाल, लीलानंद कोटनाला, अंबा शायर तथा अलतनाथ सूरी जैसे प्रमुख व्यक्तियों का भी समान योगदान है।

श्रीनगर में सभी प्रकार की कलाओं को समर्थन मिला। पत्थर नक्काशी के निपुण सृजक कारीगरों, शास्त्रीय हिन्दुस्तानी गायकों एवं नर्तकों तथा अंबा जैसे शायरों को भी समर्थन मिला। श्रीनगर के होली समारोह में ये कलाकार प्रसिद्ध हैं।

अंग्रेजों के शासनकाल में श्रीनगर ने कई अंग्रेजों को भारतीय जीवन शैली अपनाते देखा। नवोब कहे जाने वाले ऐसे लोगों ने जीवन के आनंद को प्राप्त किया लेकिन नये अंग्रेज सैनिकों द्वारा इन्हें पतनोन्मुख मानकर हेय दृष्टि से देखा जाता था।

पंकज सिंह महर

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ई.टी. एटकिंसन (दी हिमालयन गजेटियर, वोल्युम भाग II वर्ष 1982) के अनुसार श्रीनगर का निर्माण प्रमुख पथ पर हुआ है जो प्रमुख बाजार भी है। वह कहता है “घर छोटे पत्थरों से बने हैं और सामान्यतः दो-मंजिले होते हैं तथा छतें ढालुवां होती है जो स्लेटों से ढंके रहते हैं। नीचे की मंजिल भंडारों या दूकानों के लिये होता है और परिवार उपरी मंजिल पर रहता है। घरों में लकड़ी का इस्तेमाल काफी होता है जहां दीवालों का एक भाग तथा गुंबजी बरामदा तिहारी तथा दंडयाली लकड़ी से निर्मित होते हैं। संपन्न वर्ग के घरों में मात्र एक संकीर्ण बाल्कनी की विशेषता होती है।”

सच तो यह है कि एटकिंसन, राजा अजय पाल के राजमहल की वास्तुकला से प्रभावित दिखता है जिसके बारे में वह कहता है, “राजा अजय पाल का राजमहल कभी वास्तुकला का प्रभावी प्रदर्शन एवं विस्तार रहा होगा क्योंकि इसके अवशेष अब भी कुछ एकड़ जमीन पर हैं। यह काले पत्थरों के बड़े टुकड़ों से मसालों से निर्मित है जिसके तीन उत्तम मुहाने हैं और ये सब चार मंजिले हैं जिसमें आगे तक पोर्टिको विस्तृत है जिस के नीचे के भाग में मूर्त्तियों की सजावट है। यह शैली किसी विशेष स्कूल का नहीं लगता। कहा जाता है कि इसके निर्माण में जो भी लकड़ी का काम हुआ हो उसका कोई प्रमाण उसमें नहीं मिलता जो अब बचे हैं तथा जालीदार खिड़किया भी पत्थर की हैं जबकि एकमात्र बचा द्वार पत्थरों से खुदा है जो वास्तव में लकड़ी जैसा ही लगता है। ये दरबाजा बहुत बड़ा एवं भारी होता है तथा इसे यथास्थान डालने में काफी श्रम लगा होगा।”

वह यह भी बताता है कि राजमहल से नदी तक एक भूमिगत रास्ता भी है जो महिलाओं के लिये नदी में स्नान करने के लिए बनाया गया होगा। “इस कार्य को अंजाम देने के लिए जरूरी आभियांत्रिकी कठिनाइयां महत्वपूर्ण रही होगीं क्योंकि एक चट्टानी रिज (टीला) अब भी मौजूद है पर इसके निर्मित होने में कोई संदेह नहीं है क्योंकि चैनल का अवशेष अब भी यहां है।” आज, फिर भी कमलेश्वर मंदिर या केशोराय मठ जैसे सिर्फ पुराने मंदिरों में इसके ऐश्वर्य की कुछ झलक देखी जा सकती है। एक छत के पत्थरों से निर्मित भवन की पुरानी शैली देखी जा सकती है। दुख की बात यह है कि अधिकांश भवन आधुनिक वास्तुकला के अनुसार ही बने हैं जो करीब-करीब उत्तर-भारत जैसे ही हैं जो कंक्रीट एवं सीमेंट से बने हैं।

वाल्टन के अनुसार वर्ष 1901 की जनगणना के अनुसार यहां की जनसंख्या 2,091 है जिसमें ब्राह्मण, राजपूत, जैन, अग्रवाल, बनिया, सुनार तथा कुछ मुसलमान भी शामिल हैं। वह बताता है कि व्यापारी मुख्यतः नजीबाबाद से कार्य करते हैं जहां से वे कपड़े, गुड़ तथा अन्य व्यापारिक वस्तुएं प्राप्त करते हैं।

एटकिंस बताता है कि श्रीनगर के वासी अधिक पुराने एवं जिले के अधिक महत्वपुर्ण परिवारों के हैं जिनमें कई सरकारी कर्मचारी हैं, इर्द-गिर्द के मंदिरों के पूजारी हैं तथा बनिये हैं जो नजीबाबाद से आकर यहां बस गये। जब अजय पाल ने श्रीनगर में अपना राजदरबार बनाया तो वह सरोलाओं एवं गंगरिसों जैसे उच्च कुल के ब्रांह्मणों को भी ले आया। राजदरबार में ठाकुरों, भंडारियों, नेगियों एवं कठैतों की श्रेणी के राजपूत भी शामिल थे। वास्तव में जातियों का नामकरण दो तरीकों से हुआ, लोगों की पेशानुसार (नेगी सैनिक हुआ करते तथा भंडारी- भंडार नियंत्रक) या फिर अपने गांव के नाम से।

 

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