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Sri Nagar: A Religious Place - श्री क्षेत्र: श्रीनगर

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पंकज सिंह महर:
साथियो,
पौड़ी जनपद में समुद्र तल से १७०० फिट की ऊंचाई पर स्थित श्रीनगर को पौराणिक ग्रन्थों में श्री क्षेत्र कहा जाता है। इस टोपिक के अन्तर्गत हम इस पौराणिक स्थान के बारे में चर्चा करेंगे।

     इसे महाभारत काल में कुलिन्द जनपद के नाम से भी जाना जाता था, यहां का राजा सुबाहु था और हिमालय को प्रस्थान करते समय उसने पांडवों का स्वागत किया था। महर्षि नारद का मोहभंग भी विष्णु जी ने यहीं पर किया था, इसी के निकट महेन्द्र और अग्निकील पर्वत हैं, जहां से इन्द्र का रथ अर्जुन को लेकर स्वर्ग गया था। अग्नि पर्वत के शिखर पर पुराणों में प्रसिद्ध अष्टावक्र मंदिर भी है।
     स्कन्द पुराण केदार खण्ड के उल्लेखानुसार श्री क्षेत्र की स्थिति यहां कोलासुर नामक एक मायावी कौल की निवास स्थली होने के कारण बड़ी भयावह थी। इच्छानुसार रुप बदलने में सिद्धह्स्त कोलासुर के आतंक से जनता को भयमुक्त करने के लिये उसके वध का निर्णय कर एक बार राजा सत्यसंघ ने उफल्डा की चट्टान से विशाल पाषाण शिला निकालकर अलकनन्दा के बांये तट पर रखी और श्री विद्या की आराधना हेतु उस पर श्री यंत्र की स्थापना की। बाद में श्री यंत्र सिद्धि कर राजा सत्यसंघ ने राजेश्वरी देवी से प्राप्त खड्ग से कोलासुर का संहार किया। कोलासुर वध के बाद उसका सिर और धड़ उत्तर पूर्व दिशा में फेंका गया, जहां तक उसके अंग गिरे वहां तक का क्षेत्र श्री यंत्र के कारण "श्री क्षेत्र" कहलाया।
      ऎसा कहा जाता है कि देवासुर संग्राम के बाद असुरों के संहारक श्री यंत्र को जहां भी रखा जाता, वहां रक्तपात हो जाता। इससे परेशान और चिंतित देवताओं ने ऋषि-मुनियों से सलाह कर इस यंत्र को मध्य हिमालय के बियाबान श्री क्षेत्र में रखवा दिया। लेकिन इसके बाद भी किसी भूले-भटके की इस ओर नजर पड़ने मात्र से फ़्ग वह काल का ग्रास बन जाता था। जब आदिगुरु शंकराचार्य बद्रीनाथ की स्थापना के बाद श्रीनगर पहुंचे तो स्थानीय निवासियों ने उनसे इस समस्या से निजात दिलाने की प्रार्थना की। आदिगुरु ने अपने तपोबल से इस यंत्र को उल्टा कर अलकनन्दा में समाहित कर दिया, जिसके बाद से इस तरह की घटनायें बंद हो गईं।

पंकज सिंह महर:
हिन्दुओं के पौराणिक लेखों में इसे श्री क्षेत्र कहा गया है जो भगवान शिव की पसंद है। किंवदन्ती है कि महाराज सत्यसंग को गहरी तपस्या के बाद श्री विद्या का वरदान मिला जिसके बाद उन्होंने कोलासुर राक्षस का वध किया। एक यज्ञ का आयोजन कर वैदिक परंपरानुसार शहर की पुनर्स्थापना की। श्री विद्या की प्राप्ति ने इसे तत्कालीन नाम श्रीपुर दिया। प्राचीन भारत में यह सामान्य था कि शहरों के नामों के पहले श्री शब्द लगाये जांय क्योंकि यह लक्ष्मी का परिचायक है, जो धन की देवी है।
वर्तमान नाम श्रीनगर एक विशाल पत्थर पर खीचें श्रीयंत्र से लिया गया माना जा सकता है। जब तक श्रीयंत्र को प्रार्थनाओं से तुष्ट किया जाता रहा तब तक शहर में खुशहाली थी। जब लोगों ने इसे पूजना बंद कर दिया तो यह द्रोही हो गया। जो भी इस पर नजर डालता वह तत्काल मर जाता और कहा जाता है कि इस प्रकार 1,000 लोगों की मृत्यु यहां हुई। वर्तमान 8वीं सदी में हिन्दु धर्मोद्धार के क्रम में जब आदी शंकराचार्य श्रीनगर आये तब उन्होंने श्री यंत्र को ऊपर से नीचे घुमा दिया तथा इसे अलकनंदा नदी में फेंक दिया। यह आज भी नदी में ही है तथा लोग बताते हैं कि यह 50 वर्ष पहले तक जल के स्तर से ऊपर दिखाई देता था। इस क्षेत्र को श्री यंत्र टापू कहा जाता है।

श्रीनगर वह जगह है जहां आदि शंकराचार्य को देवी की शक्ति का भान हुआ। कहा जाता है कि दस्त के कारण वे बहुत कमजोर हो गये तथा पानी मांगा। एक सुंदर महिला पानी लेकर उनके सामने आई और उनसे पूछा कि उनके वेदान्त का ज्ञान उनके शरीर को सबल बनाने में क्यों असमर्थ है तथा क्या उनका शरीर शक्ति के बिना कार्य करता है। उसी समय से वे शक्ति एवं देवी की पूजा करने लगे।

श्रीनगर से संबद्ध एक और रूचिपूर्ण एवं जटिल रहस्य है जो नारद मुनि एवं उनके मायाजाल में फंसने से संबंधित है। माना जाता है कि भगवान शिव गोपेश्वर में समाधिस्थ थे तो उनकी समाधि में कामदेव द्वारा विघ्न डाला गया और क्रोधित होकर उन्होंने उसे भस्म कर दिया। अपनी पत्नी सती से बिछुड़ने के बाद समाधिस्थ भगवान शिव की समाधि को भंग करने के लिये कामदेव को सभी देवताओं ने मिलकर भेजा था क्योंकि भयंकर राक्षस ताड़कासूर को केवल भगवान शिव का पुत्र ही वध कर सकता था। देवताओं की इच्छा थी कि भगवान शिव फिर से विवाह करें ताकि वे पुत्र का सृजन कर सकें (इस बीच उमा के रूप में सती का पुनर्जन्म हो चुका था)। कामदेव को नष्ट करते हुए भगवान शिव ने उसे शापित किया कि गोपेश्वर में तप करने वाले को उसका हाव-भाव प्रभावित नहीं कर सकेगा। त्रेता युग में भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध के रूप में पुनर्जन्म लेकर कामदेव का अपनी पत्नी के साथ पुनर्मिलन हुआ।..........

पंकज सिंह महर:
.........इसे बिना जाने ही नारद मुनि ने गोपेश्वर में अपनी तपस्या पूरी की और घमंडी हो गये। उन्होंने भगवान विष्णु के सामने आत्म प्रशंसा की तो भगवान विष्णु ने उन्हें पाठ पढ़ाना चाहा क्योंकि उन्हें उस पृष्ठभूमि का ज्ञान था। आज जहां श्रीनगर अवस्थित है उस जगह भगवान विष्णु ने एक स्वर्ग रूपी नगर का सृजन किया तथा अपनी पत्नी को एक सुंदर स्त्री के रूप में अपना स्वयंवर आयोजित करने को राजी कर लिया। नारद मुनि ने पत्नी पाने का निश्चय कर किया। उन्होंने भगवान विष्णु से एक सुंदर शरीर उधार लिया और स्वयंवर में जा पहुंचे। जब लक्ष्मी ने उनकी ओर नहीं देखा तो वे परेशान हुए और तब उन्हें भान हुआ कि भगवान विष्णु ने उन्हें अपने एक अवतार बानर का चेहरा दे दिया था। वे क्रोधित होकर भगवान विष्णु को शाप दिया कि जैसे वे (नारद) दांपत्य सुख से वंचित हुए है, वैसे ही भगवान विष्णु भी हों (इसलिये भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता के बिना ही काफी दिन व्यतीत किया) जब उन्हें गोपेश्वर तथा भगवान शिव के बारे में बताया गया तो वे पश्चाताप में डूब गये और भगवान शिव से कहा कि बानर ही उन्हें अपनी पत्नी से मिलायेंगे। बानर सेना ने ही सीता को फिर पाने एवं रावण से युद्ध करने में भगवान राम की सहायता की थी।

महाभारत युग में श्रीनगर राजा सुबाहु के राज्य की राजधानी थी तथा वन पर्व के दौरान गंधमर्दन पर्वत के रास्ते पाण्डवों ने सुबाहु का आतिथ्य ग्रहण किया था।

पंकज सिंह महर:
महाभारत काल में, यह राजा सुबाहु के राज्य की राजधानी थी तथा माना जाता है कि अपने वाण पर्व के दौरान गंधमर्दन पर्वत के रास्ते पांडवों को सुबाहु का आतिथ्य मिला था। वर्तमान नाम श्रीनगर श्री यंत्र से विकसित हुआ हो सकता है जो एक विशाल पत्थर पर अंकित है जिसकी बलि वेदी पर देवों को प्रसन्न करने मानवों की बलि दी जाती होगी। वर्तमान 8वीं सदी के दौरान हिंदू धर्म के पुनरूद्धार के क्रम में आदि शंकराचार्य ने इस प्रक्रिया का विरोध कर इसे रोक दिया तथा और इस पत्थर के चट्टान को अलकनंदा में डाल दिया जो आज भी वहां हैं।

पंकज सिंह महर:
श्रीनगर का इतिहास

उत्तराखंड के इतिहास पर एक स्थानीय इतिहासकार तथा कई पुस्तकों के लेखक एस.पी. नैथानी के अनुसार श्रीनगर के विपरीत अलकनंदा के किनारे रानीहाट के बर्तनों, हड्डियों एवं अवशेषों से पता चलता है कि 3,000 वर्ष पहले श्रीनगर एक सुसभ्य स्थल था जहां लोग शिकार के हथियार बनाना जानते थे तथा जो खेती करते थे एवं बर्तनों में खाना पकाते थे।
मध्य युग में गढ़वाल पर पंवार वंश का शासन था और इसके 37वें शासक अजय पाल ने ही श्रीनगर को राजधानी बनाया था। अजय पाल एक अवयस्क राजा था जिसने चांदपुर गढ़ी में शासन किया जैसा श्री. नैथानी बताते हैं। कुमाऊं के चंद शासकों से पराजय के बाद उसने श्रीनगर से 5 किलोमीटर दूर देवलगढ़ के गोरखपंथी गुरू सत्यनाथ के एक शिष्य के रूप में शरण ली। उन्होंने उसे अपनी राजधानी श्रीनगर में बनाने की सलाह दी। श्रीनगर के चयन का दूसरा कारण अलकनंदा की चौड़ी घाटी की स्थिति था। नैथानी के अनुसार वहां एक प्राचीन दक्षिण काली का मंदिर था तथा तत्कालीन मंदिर के पुजारी ने भविष्यवाणी की थी कि श्रीनगर में बहुत लोग आयेंगे इतने लोग कि उनके लिए दाल छौकने के लिये एक टन हींग की आवश्यकता होगी। भविष्यवाणी सच साबित हुई तथा अजय पाल के अधीन श्रीनगर उन्नतशील शहर बन गया जिसने यहां वर्ष 1493-1547 के बीच शासन किया तथा अपने अधीन 52 प्रमुख स्थलों को एकीकृत किया। उस समय गढ़वाल राज्य का विस्तार तराई के कंखल (हरिद्वार) एवं सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) तक हुआ। उनकी मृत्यु के बाद उसके कई वंशजों ने यहां शासन किया।

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