Author Topic: Ukhimath,Guptkashi-उखीमठ गुप्तकाशी, मह्रिषी दयानंद का बैराग्य स्थान उत्तराखंड  (Read 15596 times)



Devbhoomi,Uttarakhand

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Here's a shot of the smaller temple, to Shiva as Ardhanarishvara ("half-woman").  Portraying Shiva as both male and female graphically illustrates how God transcends the opposites and limitations that define human life.

  The architectural style is similar to the other temple, but on a smaller scale, with a low entry hall (the doorway is at most 5 feet tall), a tower at the back over the primary image, which is covered by a wood-framed, tin roofed cap.  It is also painted, but far more simply than the Gupt Kashi temple--some bands of color around the doorway, decorations on the supports for the roof, and red-painted roofs.

  The painted tin drip edges are VERY characteristic of traditional mountain architecture, and one often finds these long strips cut in decorative shapes and patterns.

In front of the temple sits a large cast metal statue of Nandi the bull, Shiva's animal associate.  A statue of Nandi is often found outside Shiva temples, and Nandi's image always faces toward the Shiva image, as a visible sign of his devotion to Shiva.



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   Here's a side shot of this magnificent image, complete with a swastika drawn in sandalwood paste (made by rubbing some sandalwood on a wet stone--it not only smells good, but is also believed to have cooling properties).

Indian travelers see a lot of swastikas, a traditional Hindu symbol associated with good fortune and well-being--very different than the evil of Hitler's National Socialists.

 The arms on Hindu swastikas always point clockwise (the auspicious direction), and usually aligned to be vertical and horizontal--unlike the Nazi symbol, in which the arms ran at 45 degree angles).



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मह्रिषी दयानंद ने क्या किया उखीमठ गुप्तकाशी में

गुप्तकाशी से एक ब्रह्मचारी और दो पहाड़ी साधु मेरे साथ आए हम सब जने टिहरी में आए वहां बहुत साधु और राजपण्डितों से समागम हुआ | वहां एक पण्डित ने मुझे और ब्रह्मचारी को अपने घर में भोजन के लिये निमंत्रण दिया | समय पर उसका एक मनुष्य बुलाने को आया | तब मैं और ब्रह्मचारी उसके घर भोजन करने को गये |

जब उसके घर के द्वार में घुस करके देखा तो एक ब्राह्मण मांस को काटता था उसको देखकर जब भीतर गये तब बहुत से पण्डितों को एक सिमियाने के भीतर बैठे देखे और वहां बकरे का मांस, चमड़ा और सिर देख के पीछे लौटे | पण्डित देख के बोला कि आइये | तब मैंने उत्तर दिया कि आप अपना काम कीजिये | हम बाहर जाते हैं | ऐसा कह कर अपने स्थान पर चले आये | तब पण्डित भी हमको बुलाने आया |

 उनसे मैने कहा कि तुम सूखा अन्न भेज दो | हमारा ब्रह्मचारी बना लेगा | पण्डित बोले कि आपके लिये तो सब पदार्थ बनाये हैं | मैंने उनसे कहा कि आपके घर में मुझसे भोजन कदापि न किया जावेगा | क्योंकि आप लोग मांसाहारी हैं | और मुझको मांस देखने से घृणा आती है | फिर पण्डित ने अन्न भेज दिया | पीछे वहां कुछ दिन ठहर कर पण्डितों से पूछा कि इस पहाड़ देश में कौन कौन से शास्त्र के ग्रन्थ देखने को मिलते हैं |

 मैं देखना चाहता हूँ | तब उन्होंने कहा कि व्याकरण, काव्य कोष, ज्योतिष और तन्त्र ग्रंथ बहुत मिलते हैं | तब मैंने कहा कि और ग्रन्थ तो मैंने देखे हैं परन्तु तन्त्र ग्रंथ देखना चाहता हूँ | तब उन्होंने छोटे बड़े ग्रन्थ मुझको दिये | मैंने देखे तो बहुत भ्रष्टाचार की बातें उनमें देखीं कि माता, कन्या, भगिनि, चमारी, चांडाली, आदि से संगम करना, नग्न करके पूजना | मद्य, मांस, मच्छी, मुद्रा अर्थात ब्राह्मण से लेके चांडाल पर्यन्त एकत्र भोजन करना और उक्त स्त्रियों से मैथुन करना इन पाँच मकारों से मुक्ति का होना आदि लेख उनमें देख के चित्त को खेद हुआ कि जिनने ये ग्रंथ बनाये हैं वे कैसे नष्टबुद्धि थे |

 फिर वहां से श्रीनगर को जाके केदारघाट पर मन्दिर में ठहरे और वहां भी तन्त्र ग्रन्थों का देखना और पण्डितों से इस विषय में संवाद होता रहा | इतने में एक गंगागिरि साधू जो कि सब दिन पहाड़ में ही रहता था उससे भेंट हुई और योग विषय में कुछ बातचीत होने से विदित हुआ कि वह साधु अच्छा है | कई बार उससे बातें हुईं | मैने उससे पूछा उसने उत्तर दिया, उसने मुझसे पूछा उसका उत्तर मैंने दिया | दोनो प्रसन्न होकर दो महीने तक वहां रहे | जब वर्षा ऋतु आई तब आगे रुद्रप्रयागादि देखता हुआ अगस्त मुनि के स्थान पर पहुँच कर उसके उत्तर पहाड़ पर एक शिवपुरी स्थान है वहां जाकर चार महीने निवास करके पीछे उन साधु और ब्रह्मचारी को वहां छोड़ के अकेला केदार की और चलता हुआ गुप्त काशी में पहुँचा |

 वहां कुछ दिन रह कर वहां से आगे चल के त्रियुगीनारायण का स्थान और गौरीकुण्ड देखता हुआ भीम गुफा देख कर थोड़े ही दिनों में केदार में पहुँच कर निवास किया, वहां कई एक साधु पण्डे और केदार के पुजारी जङ्गम मत के थे [फुट नोट - यह कौन सा मत है, हम नहीं जानते | अथवा यहां पाठ भ्रष्ट हुआ है] उनसे समागम हुआ तब तक पाँच छः दिन के पीछे वे साधु और ब्रह्मचारी भी वहां आ गये | वहां का सब चरित्र देखा | फिर इच्छा हुई कि इन बर्फ के पहाड़ों में भी कुछ घूम के देखें कि कोई साधु महात्मा रहता है कि नहीं परन्तु मार्ग कठिन और उन पहाड़ों में अतिशीत भी है | वहां के निवासियों से भी पूछा कि इन पहाड़ों में कोई साधु महात्मा रहता है वा नहीं |उन्होंने कहा कि कोई नहीं |

 फिर, वहां 20 बीस [दिन] रहकर पीछे को अकेला ही लौटा क्योंकि वह ब्रह्मचारी और साधु दो दिन रह कर शीत से घभरा के प्रथम ही चले गये थे | फिर मैं वहां से चल के तुङ्गनाथ के पहाड़ पर चढ़ गया | उसका मंदिर पुजारी बहुत सी मूर्ति आदि की सब लीला को देखकर तीसरे प्रहर वहां नीचे को उतरा | बीच में से दो मार्ग थे एक पश्चिम को और एक पश्चिम और दक्षिण के बीच को जाता था जो जङ्गली मार्ग था मैं उसमें चढ़ गया | आगे दूर जाकर देखा तो जंगल पहाड़ और बहुत गहरा सूखा नाला है उसमें मार्ग बन्द हो रहा है |

विचारा कि जो पहाड़ पर चढ़े तो रात हो जावेगा पहाड़ का मार्ग कठिन है वहां पहुँच नहीं सकता | ऐसा विचार उस नाले में बड़ी कठिनता से घास और वृक्षों को पकड़ पकड़ नीचे उतर कर नाले के किनारे पर चढ़ कर देखा तो पहाड़ और जङ्गल है कहीं भी मार्ग नहीं | तब तक सूर्य्य अस्त होने को आया विचारा कि जो रात हो जावेगी तो यहाँ जल अग्नि कुछ भी नहीं है फिर क्या करेंगे ऐसा विचार कर आगे को बढ़ा जङ्गल में चलते अनेक ठोकर और काँटे लगे शरीर के वस्त्र भी फट गये |

बड़ी कठिनता से पहाड़ के पार उतरा तब सड़क मिला | और अँधेरा भी हो गया | फिर सड़क-सड़क चल के एक स्थान मिला वहीं के लोगों से पूछा कि यह कहाँ की सड़क है कहा कि ओखी मठ का | फिर वहाँ रात्रि को रह कर क्रम से गुप्त काशी आया वहाँ थोड़ा ठहर कर ओखी मठ में जाकर उसमें ठहर के देखा तो बड़ी भारी पोप लीला [वा] बड़े भारी कारखाने |

 वहाँ के महन्त ने कहा कि तुम हमारे चेले हो जाओ यहाँ रहो, लाखों के कारखाने तुम्हारे हो जावेंगे मेरे पीछे तुम्हीं महन्त होंगे | मैने उनको उत्तर दिया कि सुनो ऐसी मेरी इच्छा होती तो अपने माता, पिता, बंधु, कुटुम्ब, और घर आदि ही क्यों छोड़ता क्या तुम्हारा स्थान और तुम उनसे भी अधिक हो सकते हो | मैंने जिसलिये सब छोड़े हैं वह बात तुम्हारे पास किंचिन्मात्र भी नहीं है उसने पूछा कि कह क्या बात है |

 मैंने उत्तर दिया कि सत्य विद्या, योग, मुक्ति और अपने आत्मा का पवित्रता आदि गुणों से धर्म्मात्मतापूर्वक उन्नति करना है | तब महन्त ने कहा कि अच्छा तुम कुछ दिन यहाँ रहो | मैंने उनको कुछ उत्तर न दिया और प्रातःकाल उठ के मार्ग में चल के जोशी मठ को पहुँच के वहाँ के दक्षिणी शास्त्री और संन्यासी थे उनसे मिलकर वहाँ ठहरा |


http://www.aryasamaj.org/newsite/node/449





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One unusual feature is that the temple entrance is on the side of the building, after which one turns right to get to the main image (under the highest, unpainted tower).

  In most temples in the Himalayas the entrance is at the back, so that one has a direct line of sight to the primary deity.

The building at the far right is a school, and the young man in the yellow dhoti one of the students (there were groups of students doing lessons and other things).



 

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