गुप्तकाशी में कोई सिनेमा हॉल या मनोरंजन की जगह नहीं है। पूरा कस्बा जल्दी सो जाता है और जल्दी उठ जाता है। सुबह छह बजे ताजातरीन बारिश से हरी-भरी पहाड़ियां सूर्य की रोशनी में जगमगा उठती हैं। हवा स्वच्छ है। मुझे बताया गया कि यहां मौसम पूरे वर्ष सुहावना रहता है। दूसरी पहाड़ी पर ओखीमठ अभी भी धुंधलके में छिपा हुआ है।
गुप्तकाशी का सौंदर्य अभी भी बैरक जैसी दिखने वाली इमारतों से खराब नहीं हुआ है, जो कई विकसित हो रहे पहाड़ी कस्बों में खड़ी हो रही हैं। पुराने दोमंजिले मकान पत्थर के बने हुए हैं, जिनके ऊपर भूरे स्लेट की छतें हैं। वहां के लोगों में से एक हमें गुप्तकाशी के प्रसिद्ध मंदिर में ले जाता है। बनारस की तरह वहां विश्वनाथ और दो धाराओं (भूमिगत धारा) के रूप मंे शिव की पूजा होती है।
यह दोनों धाराएं पवित्र यमुना और भगीरथी की प्रतीक हैं। इसी मंदिर की वजह से इस जगह का नाम गुप्तकाशी पड़ा है - छिपा हुआ बनारस। उस कस्बे और उसके आसपास के क्षेत्रों में ढेर सारे शिवलिंग हैं। वहां रहने वाले लोग कहते हैं - जितने कंकर, उतने शंकर। वहां की पवित्रता को व्यक्त करने के लिए यह एक जन कहावत बन गई है।
मैं इस नदी तक फिर लौटकर आऊंगा। इस नदी ने मेरे हृदय को अपने मोहपाश में बांध लिया है। और उसी तरह इस नदी तट पर रहने वाले यहां के उदार और भाईचारे से भरे हुए लोगों ने मेरा दिल जीत लिया है