सभ्यता
धारचूला की संस्कृति मिश्रित है। और भोटिया संस्कृति ने प्रत्येक समुदाय में इस स्थल की अलौकिक संस्कृति में योगदान किया। सदियों से धारचूला ने भोटिया तथा भक्तों, साधुओं एवं संतों की बड़ी संख्या की मेजवानी की है, जो कैलाश-मानसरोवर की यात्रा करते हुए यहां रूकते थे।
धारचूला परंपरा से व्यापारिक शहर रहा है तथा जब तिब्बत के साथ व्यापार शिखर पर था शहर में बड़ी संख्या में भोटिया व्यापारी आते थे जो यहां अपना माल बेचने तथा आवश्यक सामग्रियों की खरीद कर तिब्बत लौट जाते। भोटिया जाति के लोग, पर्वतों पर अपना घर बर्फ से ढके जाने पर इसे ग्रीष्मकालीन पड़ाव बना लेते। परंतु वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध के बाद यह व्यापारीक धंधा बंद हो गया तथा कई भोटिया लोग धारचूला एवं इसके आस-पास आकर बस गये। रंग भोटिया जनजाति के अलावा धारचूला में काफी बड़ी आबादी कुमाऊंनी ब्राह्मणों एंव राजपूतों की भी है।
ध्यौला एवं कंगदाली जैसे प्रमुख त्योहारों के साथ स्यांगथांगा पूजन, स्मीमीधुनो (आत्म पूजन), माटी पूजा, तथा नबू-सामो तथा वार्षिक कांडा-उत्सव जैसे छोटे त्योहार भी मनाये जाते हैं।
कांगदाली उत्सव के पीछे एक बालक की किंवदन्ती है कि उसने अपने फोड़े पर कांगदाली जड़ी की जड़ का लेप लगाया और वह मर गया। क्रोधित होकर उसकी विधवा मां ने जड़ी को शापित कर दिया तथा रंग महिलाओं को आदेश दिया कि वे कांगदाली पौधे की जड़ को उखाड़ फेंके जब वह पूर्ण रूप से खिला हो, जो 12 वर्ष में एक बार होता है। दूसरी कथानुसार कांगदाली उत्सव उन महिलाओं की याद में मनाया जाता है जिन्होंने वर्ष 1841 में लद्दाख से आक्रमण होने पर जोरावर की सेना को पीछे ढकेल दिया था। उन महिलाओं ने उन कांगदाली झाड़ियों का समूल नाश कर दिया जिसके पीछे शत्रु छिपे थे, जो पीछे हट गये।
उत्सव का आरंभ जौ एवं मोथी के आटे से बने एक शिवलिंग की पूजा से होता है। प्रत्येक परिवार यह पूजा करता है जो अंत में एक समुदाय मोज में परिवर्तित हो जाता है। परंपरागत परिधानों में स्त्री-पुरुष प्रत्येक गांव के एक निर्धारित पेड़ के पास इकट्ठा होकर एक ध्वज फहराते हैं।
ध्वज वाहक के पीछे एक जुलुस बन जाता है जो कंगदाली पौधे की ओर बढ़ता है। महिलाएं इसका नेतृत्व करती हैं। प्रत्येक के हाथ में रील होता है, जो दरी बनाने का एक उपकरण होता हैं तथा इससे वे खिले पौधों पर जोरों से आक्रमण करती हैं। उनके पीछे ढाल-तलवारों से लैस बच्चे एवं पुरूष रहते हैं। विजय नृत्य तथा झाड़ी के उखड़ जाने के बाद उत्सव समाप्त होता है।
वर्ष 1999 में अंतिम बार कंगदाली खिला था और वह वर्ष 2011 में इसके फिर खिलने पर अगला उत्सव होगा।
संगीत एवं नृत्य
अपने आवासीय स्थल की निर्जनता एवं सुदृढ़ता के कारण इस क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा को नृत्य एवं संगीत के द्वारा सुरक्षित रखना संभव हो पाया है। अधिकांश गीत एवं नृत्य धार्मिक प्रकृति के है या फिर लोगों की पारंपरिक जीवनशैली से संबद्ध हैं।
प्रत्येक समारोह में लोकगीत एवं लोकनृत्य होते हैं। समारोह में उपस्थित होने के लिए विभिन्न देवताओं का आह्वान भक्तिपरक गीत या जग्गर गान द्वारा होता है। इसके अलावा चांचरी जैसे समूह-गान एवं नृत्य का मनोरंजक नृत्य होता है, जिसमें पुरुष एवं महिलाएं दोनों भाग लेते हैं।
हुरकिया बोल कृषि से संबद्ध होता है जो प्रमुखतः धान के पौधे का सामूहिक रूप से रोपने तथा घास-पातों को निकालते समय होता है। एक हुरकिया हरका बजाकर स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में भक्ति-गीत गाता है तथा अच्छी फसल के लिए उनका आशीर्वाद मांगता है, जबकि खेतों में काम करती महिलाएं गाना गाती हैं।
चोलिया युद्धकला का नृत्य होता है जो विवादों तथा मेलों के अवसर पर किया जाता है। दो या उससे अधिक लोग एक हाथ में ढाल एवं दूसरे हाथ में तलवार लिए आक्रमण तथा बचाव की मुद्रा पेश करते हैं और ढोल, दोमौ, रणसिंघे तथा तुरही की तरंगों पर थिरकते हैं।
यह क्षेत्र स्थानीय लोक साहित्य की परंपरा का धनी है जो स्थानीय/राष्ट्रीय घटनाओं, नायक नायिकओं के बहादुरी के कारनामों तथा प्रकृति के विभिन्न पहलुओं से संबद्ध होते हैं। गीतों का संबंध, पृथ्वी के सृजन, देवी-देवताओं के कारनामों तथा स्थानीय वंशों/चरित्रों तथा रामायण एवं महाभारत के चरित्रों से रहता है। सामान्यतः यह गीत स्थानीय इतिहास की घटनाओं पर आधारित होते हैं तथा भाड़ाऊ गान सामूहिक कृषि कार्यों के दौरान होता है एवं अन्य गीत विभिन्न सामाजिक तथा सांस्कृतिक उत्सवों के दौरान होते है। इसी प्रकार शौका जैसे भोटिया जनजाति का अपना लोकगीत एक नृत्य होता है। उन्हें सामान्यतः उत्सवों तथा सामाजिक, सांस्कृतिक समारोहों के दौरान पेश किया जाता है।
बोली जाने वाली भाषाएं
भारतीय-नेपाली (कुमाऊंनी-नेपाली) तथा हिंदी। रंग भोटियों की अपनी भाषा है जो तिब्बती भाषा से अलग है तथा एक स्थानीय बोली है, जिसकी कोई लिखित लिपि नहीं है।
वास्तुकला
धारचूला के पुराने घर, जो कुछ बच रहे हैं, वे दो-मंजिले भवन हैं, पर मैदानों के एक-मंजिले घरों से अधिक ऊंचे नहीं होते हैं। 10 से 15 मी मीटर मोटे पत्थर की दीवारों एवं स्लेट की छतों से निर्मित इन मकानों में उनके आवासीय क्षेत्र तक पहुंच एक संकरे लकड़ीनुमा सीढ़ियों से होता है। निचले घरों में मवेशियों को पहले रखा जाता था पर अब वे भंडार घर हैं। आजकल इनकी जगह संगमरमरी फर्शों के साथ ईंटों एवं सीमेंन्ट से निर्मित घर बन रहे हैं।