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Darchula- A Cultural Confluence

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पंकज सिंह महर:
पौराणिक
धारचूला को कैलाश-मानसरोवर यात्रा का प्रवेश द्वार माना जाता है तथा इस क्षेत्र को सदैव ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त क्षेत्र माना गया है। कई प्राचीन मुनियों ने इसे अपनी तपोस्थली, बनाया जिनमें व्यासमुनि सर्वाधिक विख्यात थे। वास्तव में, इस शहर का नाम भी मुनि की किंवदन्ती से ही जुड़ा हुआ है। धारचूला दो शब्दों से बना है "धार" या किनारा/पर्वत एवं चूला या चुल्हा या स्टोव। कहा जाता है कि जब व्यास मुनि अपना भोजन पकाते थे तो धारचूला के इर्द-गिर्द तीन पर्वतों के बीच अपना चुल्हा जलाते थे और इसीलिये यह नाम पड़ा।

कहा जाता है कि पांडव भी अपनी 14 वर्ष के वनवास की अवधि में यहां आये थे।

इससे संबद्ध एक अन्य पौराणिक कथा कंगदाली उत्सव से जुड़ी है, जो शौका या रंग भोटिया लोगों द्वारा मनाया जाता है एवं जिनका धारचूला में सबसे बड़ा आवास है। कथा है कि अपने फोड़े पर एक बालक ने कंग-दाली झाड़ी की जड़ों के लेप का इस्तेमाल किया और उसकी मृत्यु हो गयी। क्रोधित होकर उसकी मां ने जड़ी को शापित किया तथा शौका-महिलाओं को आदेश दिया कि वे कंग-दाली पौधे की जड़ों को उखाड़ फेंकें, जब वह पूर्ण-रूप से पल्लवित हो, जो 12 वर्षों में एक बार होता है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

I have also heard a lot about Dharchula. I think it is the border area between INdia and Nepal.

पंकज सिंह महर:
सभ्यता

धारचूला की संस्कृति मिश्रित है। और भोटिया संस्कृति ने प्रत्येक समुदाय में इस स्थल की अलौकिक संस्कृति में योगदान किया। सदियों से धारचूला ने भोटिया तथा भक्तों, साधुओं एवं संतों की बड़ी संख्या की मेजवानी की है, जो कैलाश-मानसरोवर की यात्रा करते हुए यहां रूकते थे।

धारचूला परंपरा से व्यापारिक शहर रहा है तथा जब तिब्बत के साथ व्यापार शिखर पर था शहर में बड़ी संख्या में भोटिया व्यापारी आते थे जो यहां अपना माल बेचने तथा आवश्यक सामग्रियों की खरीद कर तिब्बत लौट जाते। भोटिया जाति के लोग, पर्वतों पर अपना घर बर्फ से ढके जाने पर इसे ग्रीष्मकालीन पड़ाव बना लेते। परंतु वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध के बाद यह व्यापारीक धंधा बंद हो गया तथा कई भोटिया लोग धारचूला एवं इसके आस-पास आकर बस गये। रंग भोटिया जनजाति के अलावा धारचूला में काफी बड़ी आबादी कुमाऊंनी ब्राह्मणों एंव राजपूतों की भी है।

ध्यौला एवं कंगदाली जैसे प्रमुख त्योहारों के साथ स्यांगथांगा पूजन, स्मीमीधुनो (आत्म पूजन), माटी पूजा, तथा नबू-सामो तथा वार्षिक कांडा-उत्सव जैसे छोटे त्योहार भी मनाये जाते हैं।

कांगदाली उत्सव के पीछे एक बालक की किंवदन्ती है कि उसने अपने फोड़े पर कांगदाली जड़ी की जड़ का लेप लगाया और वह मर गया। क्रोधित होकर उसकी विधवा मां ने जड़ी को शापित कर दिया तथा रंग महिलाओं को आदेश दिया कि वे कांगदाली पौधे की जड़ को उखाड़ फेंके जब वह पूर्ण रूप से खिला हो, जो 12 वर्ष में एक बार होता है। दूसरी कथानुसार कांगदाली उत्सव उन महिलाओं की याद में मनाया जाता है जिन्होंने वर्ष 1841 में लद्दाख से आक्रमण होने पर जोरावर की सेना को पीछे ढकेल दिया था। उन महिलाओं ने उन कांगदाली झाड़ियों का समूल नाश कर दिया जिसके पीछे शत्रु छिपे थे, जो पीछे हट गये।

उत्सव का आरंभ जौ एवं मोथी के आटे से बने एक शिवलिंग की पूजा से होता है। प्रत्येक परिवार यह पूजा करता है जो अंत में एक समुदाय मोज में परिवर्तित हो जाता है। परंपरागत परिधानों में स्त्री-पुरुष प्रत्येक गांव के एक निर्धारित पेड़ के पास इकट्ठा होकर एक ध्वज फहराते हैं।

ध्वज वाहक के पीछे एक जुलुस बन जाता है जो कंगदाली पौधे की ओर बढ़ता है। महिलाएं इसका नेतृत्व करती हैं। प्रत्येक के हाथ में रील होता है, जो दरी बनाने का एक उपकरण होता हैं तथा इससे वे खिले पौधों पर जोरों से आक्रमण करती हैं। उनके पीछे ढाल-तलवारों से लैस बच्चे एवं पुरूष रहते हैं। विजय नृत्य तथा झाड़ी के उखड़ जाने के बाद उत्सव समाप्त होता है।

वर्ष 1999 में अंतिम बार कंगदाली खिला था और वह वर्ष 2011 में इसके फिर खिलने पर अगला उत्सव होगा।

संगीत एवं नृत्य

अपने आवासीय स्थल की निर्जनता एवं सुदृढ़ता के कारण इस क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा को नृत्य एवं संगीत के द्वारा सुरक्षित रखना संभव हो पाया है। अधिकांश गीत एवं नृत्य धार्मिक प्रकृति के है या फिर लोगों की पारंपरिक जीवनशैली से संबद्ध हैं।

प्रत्येक समारोह में लोकगीत एवं लोकनृत्य होते हैं। समारोह में उपस्थित होने के लिए विभिन्न देवताओं का आह्वान भक्तिपरक गीत या जग्गर गान द्वारा होता है। इसके अलावा चांचरी जैसे समूह-गान एवं नृत्य का मनोरंजक नृत्य होता है, जिसमें पुरुष एवं महिलाएं दोनों भाग लेते हैं।

हुरकिया बोल कृषि से संबद्ध होता है जो प्रमुखतः धान के पौधे का सामूहिक रूप से रोपने तथा घास-पातों को निकालते समय होता है। एक हुरकिया हरका बजाकर स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में भक्ति-गीत गाता है तथा अच्छी फसल के लिए उनका आशीर्वाद मांगता है, जबकि खेतों में काम करती महिलाएं गाना गाती हैं।

चोलिया युद्धकला का नृत्य होता है जो विवादों तथा मेलों के अवसर पर किया जाता है। दो या उससे अधिक लोग एक हाथ में ढाल एवं दूसरे हाथ में तलवार लिए आक्रमण तथा बचाव की मुद्रा पेश करते हैं और ढोल, दोमौ, रणसिंघे तथा तुरही की तरंगों पर थिरकते हैं।

यह क्षेत्र स्थानीय लोक साहित्य की परंपरा का धनी है जो स्थानीय/राष्ट्रीय घटनाओं, नायक नायिकओं के बहादुरी के कारनामों तथा प्रकृति के विभिन्न पहलुओं से संबद्ध होते हैं। गीतों का संबंध, पृथ्वी के सृजन, देवी-देवताओं के कारनामों तथा स्थानीय वंशों/चरित्रों तथा रामायण एवं महाभारत के चरित्रों से रहता है। सामान्यतः यह गीत स्थानीय इतिहास की घटनाओं पर आधारित होते हैं तथा भाड़ाऊ गान सामूहिक कृषि कार्यों के दौरान होता है एवं अन्य गीत विभिन्न सामाजिक तथा सांस्कृतिक उत्सवों के दौरान होते है। इसी प्रकार शौका जैसे भोटिया जनजाति का अपना लोकगीत एक नृत्य होता है। उन्हें सामान्यतः उत्सवों तथा सामाजिक, सांस्कृतिक समारोहों के दौरान पेश किया जाता है।

बोली जाने वाली भाषाएं

भारतीय-नेपाली (कुमाऊंनी-नेपाली) तथा हिंदी। रंग भोटियों की अपनी भाषा है जो तिब्बती भाषा से अलग है तथा एक स्थानीय बोली है, जिसकी कोई लिखित लिपि नहीं है।

वास्तुकला

धारचूला के पुराने घर, जो कुछ बच रहे हैं, वे दो-मंजिले भवन हैं, पर मैदानों के एक-मंजिले घरों से अधिक ऊंचे नहीं होते हैं। 10 से 15 मी मीटर मोटे पत्थर की दीवारों एवं स्लेट की छतों से निर्मित इन मकानों में उनके आवासीय क्षेत्र तक पहुंच एक संकरे लकड़ीनुमा सीढ़ियों से होता है। निचले घरों में मवेशियों को पहले रखा जाता था पर अब वे भंडार घर हैं। आजकल इनकी जगह संगमरमरी फर्शों के साथ ईंटों एवं सीमेंन्ट से निर्मित घर बन रहे हैं।

पंकज सिंह महर:
समुदाय

काली नदी के इस खास क्षेत्र में धारचूला व्यापार एवं आबादी का केंद्र है। रंग भोटिया एवं कुमाऊंनी लोगों के अलावा यहां की आबादी में शामिल है भारतीय सेना तथा अर्द्धसैनिक इकाइयां जो यहां अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के लिए तैनात है या फिर दरमा घाटी में निर्मित हो रहे जल-विद्युत बांध में नियोजित कुछ यूरोपीय एवं कोरियाई लोग।

परंपरागत रूप से धारचूला रंग भोटिया लोगों का ग्रीष्मकालीन घर तथा हिमालय-पार व्यापारिक केंद्र थी। इस क्षेत्र के सभी भोटिया समुदायों के लिये जाड़ों में प्रव्रजन की विशिष्ट परंपरा है। इस दौरान वे एक दूसरे के निकट संपर्क में आये तथा वैवाहिक बंधनों में बंध गये। इस प्रव्रजन-पथ पर बसे गांवों के संपर्क में भी वे आये। इससे प्रभावित तथा एक साथ तिब्बती वौद्धों, बोनों तथा हिन्दू धर्मों का पालन करते हुए रंगों का वौद्ध मठों में धार्मिक कार्यकलापों तथा समारोहों को पूरा करने के लिए लामाओं में विश्वास होता है। वे लोसार की तरह तिब्बती उत्सव मनाते है तथा गबलादेव जैसे चेतन हिन्दू देवता की पूजा भी करते हैं। घरों के बाहर स्थानीय धारच्यो नाम का बौद्ध-पूजा-पताका फहराता है।

परंपरागत रूप से वे भेड़-पालन एवं व्यापार में संलग्न होते हैं, जो वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध से पहले तक यहां के उन्नत व्यापार का भाग होता था। उस समय धारचूला कताई, बुनाई तथा ऊन को प्राकृतिक रंग देने तथा परंपरागत पोशाकों के तैयार करने का केंद्र हुआ करता था। कई परिवार रंगने की कला की निपुणता के आधार पर पहचान रखते थे और इस व्यवसाय में शामिल थे। महिलायें अपने परंपरागत परिधान च्यूगबाला की बारीक शैली के कठिनाईपूर्ण सुंदर वस्त्रों के निर्माण में संलग्न कर लेती थीं, साथ ही वे पुरुषों के पोशाक रंगों को भी तैयार करती थीं। इन शैलियों (कलाओं) का ज्ञान एवं दक्षता मौखिक रूप से एक पीड़ी से अगली पीड़ी तक चलती रहती।

वर्ष 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद इस क्षेत्र के जीवन में पूर्ण बदलाव आ गया है। पहले यहां के प्राय: सभी समुदाय तिब्बत के साथ व्यापार एवं उससे संबद्ध कार्यों तथा भेड़-पालन पर निर्भर होते थे। वर्ष 1962 के बाद उन्हें जीविका के लिए अन्य साधनों की खोज करनी पड़ी। साक्षरता बढ़ी और जो शिक्षित हुए वे बेहतर रोजगार की तलाश में मैदानों में अन्यत्र जाने लगे। वे पुरानी परंपरा को त्याग कर जीविका की ओर उन्मुख हुए जो अपेक्षाकृत सहज एवं कम शारीरिक परिश्रम का हो। इसमें क्षेत्र के नक्शे को ही बदल डाला। स्थानीय निवासी अब केवल पूजा के लिए ही गांव आते हैं जिसमें पितृ-पूजन, नवपात्र एवं शिवपत्री तथा शिवजी समारोह शामिल हैं और इस प्रकार उनका संपर्क अपनी जड़ों से बना रहता है।

धारचूला के लोग जोशीले एवं मित्रवत् होते हैं तथा नोकसम में रंग के व्यवहार में निपुण होते हैं जो सर्वाधिक अजनबी को अतिथि तथा अतिथियों को परिवार मानना होता है।

पंकज सिंह महर:

पर्यावरण
    तिब्बत की सीमा पर धारचूला अंतिम तहसील-शहर है जो पिथौरागढ़ जिले का एक अनुमंडल है। इसके आस-पास ऊंचे पहाड़ है तथा यह काली नदी के किनारे अवस्थित है। यह कैलाश-मानसरोवर यात्रा का आधार पड़ाव है। इस स्थान की मनमोहक सुंदरता है तथा इसके पर्वत-शिखरों पर जाड़ों के अधिकांश समय बर्फ जमा रहती है। यहां नेपाल एवं भारत के बीच की प्राकृतिक सीमा नदी काली है। यह शहर तिब्बतीय सीमा पर भारत एवं नेपाल में बंटा है। शहर का भारतीय इलाका धारचूला है जबकि नेपाली भाग को दारचुला कहते हैं।

पैड़-पौधे
धारचूला प्रायः एक बंजर स्थान में अवस्थित है, यद्यपि शहर के इर्द-गिर्द पहाड़ों पर देवदार के घने जंगल हैं। स्थानीय उपलब्ध झाड़ियों में लाल-रेशम कपास तथा कंगदाली पौधे शामिल हैं, जिनका बैंगनी स्वरूप 12 वर्षों में एक बार खिलता है, जिसे स्थानीय रूप से एक पर्व के जरिए मनाया जाता है।
जीव-जंतु
इस क्षेत्र का सर्वाधिक सामान्य जीव सर्वव्यापी याक है, जिसे जुप्पों कहते हैं। इसके अलावा चीते, काले भालू, कस्तूरी मृग, बर्फीली मुर्गे, तहर मोनाल, तीता एवं चकोर आस-पास के क्षेत्रों में पाये जाते हैं।
 
 

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