रामगढ़
भुवाली से भीमताल की ओर कुछ दूर चलने पर बायीं तरफ का रास्ता रामगढ़ की ओर मुड़ जाता है। यह मार्ग सुन्दर है। इस भुवाली - मुक्तेश्वर मोटर-मार्ग कहते हैं। कुछ ही देर में २३०० मीटर की ऊँचाई वाले 'गागर' नामक स्थान पर जब यात्रीगण पहुँचते हैं तो उन्हें हिमालय के दिव्य दर्शन होते हैं। 'गागर' नामक पर्वत क्षेत्र में 'गर्गाचार्य' ने तपस्या की थी, इसीलिए इस स्थान का नाम 'गर्गाचार्य' से अपभ्रंश होकर 'गागर' हो गया। 'गागर' की इस चोटी पर गर्गेश्वर महादेव का एक पुराना मन्दिर है। 'शिवरात्रि' के दिन यहाँ पर शिवभक्तों का एक विशाल मेला लगता है।
'गागर' से मल्ला रामगढ़ केवल ३ कि.मी. की दूरी पर समुद्रतल से १७८९ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नैनीताल से केवल २५ कि.मी. की दूरी पर रामगढ़ के फलों का यह अनोखा क्षेत्र बसा हुआ है। कुमाऊँ क्षेत्र में सबसे अधिक फलों का उत्पादन भुवाली - रामगढ़ के आसपास के क्षेत्रों में होता है। इस क्षेत्र में अनेक प्रकार के फल पाये जाते हैं। बर्फ पड़ने के बाद सबसे पहले ग्रीन स्वीट सेब और सबसे बाद में पकने वाला हरा पिछौला सेब होता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में डिलिशियस, गोल्डन किंग, फैनी और जोनाथन जाति के श्रेष्ठ वर्ग के सेब भी होते हैं। आडू यहाँ का सर्वोत्तम फल है। तोतापरी, हिल्सअर्ली और गौला कि का आडू यहाँ बहुत पैदा किया जाता है। इसी तरह खुमानियों की भी मोकपार्क व गौला कि बेहतर ढ़ंग से पैदा की जाती है। पुलम तो यहाँ का विशेष फल हो गया है। ग्रीन गोज जाति के पुलम यहाँ बहुत पैदा किया जाते हैं।
रामगढ़, जहाँ अपने फलों के लिए विख्यात है, वहाँ यह अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए भी प्रसिद्ध है। हिमालय का विराट सौन्दर्य यहां से साफ-साफ दिखाई देता है। रामगढ़ की पर्वत चोटी पर जो बंगला है, उसी में एक बार विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर आकर ठहरे थे। उन्होंने यहाँ से जो हिमालय का दृश्य देका तो मुग्ध हो गए और कई दिनों तक हिमालय के दर्शन इृसी स्थान पर बैठकर करते रहे। उनकी याद में बंगला आज भी 'टैगोर टॉप' के नाम से जाना जाता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को भी रामगढ़ बहुत पसन्द था। कहते हैं आचार्य नरेन्द्रदेव ने बी अपने 'बौद्ध दर्शन' नामक विख्यात ग्रन्थ को अन्तिम रुप यहीं आकर दिया था। साहित्यकारों को यह स्थान सदैव अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। स्व. महादेवी वर्मा, जो आधुनिक हिन्दी साहित्य की मीरा कहलाती हैं, को तो रामगढ़ भाया कि वे सदैव ग्रीष्म ॠतु में यहीं आकर रहती थीं। उन्होंने अपना एक छोटा सा मकान भी यहाँ बनवा लिया था। आज भी यह भवन रामगढ़-मुक्तेश्वर मोटर मार्ग के बायीं ओर बस स्टेशन के पीछे वाली पहाड़ी पर वृक्षों के बीच देखा जा सकता है। जीवन के अन्तिम दिनों में वे पहाड़ पर नहीं आ सकती थीं। अत: उन्होंने मृत्यु से कुछ पहले इस मकान को बेचा था। परन्तु उनकी आत्मा सदैव इस अंचल में आने के लिए सदैव तत्पर रहती थी। ऐसे ही अनेक ज्ञात और अज्ञात साहित्य - प्रेमी हैं, जिन्हें रामगढ़ प्यारा लगा था और बहुत से ऐसे प्रकृति - प्रेमी हैं जो बिना नाम बताए और बिना अपना परिचय दिए भी इन पहाड़ियों में विचरम करते रहते हैं।
मुक्तेश्वर
रामगढ़ मल्ला से रामगढ़ तल्ला लगभग १० कि.मी. है। रामगढ़ मल्ला से ही मुक्तेश्वर जाने वाली सड़क नीचे घाटी में दिखाई देती है। यह घाटी भी सुन्दर है। नैनीताल से मुक्तेश्वर ५१.५ कि.मी. है।
मुक्तेश्वर कुमाऊँ का बहुत पुराना नगर है। सन् १९०१ ई. में यहाँ पशु-चिकित्सा का एक संस्थान खुला था। यह संस्थान अब काफी बढ़ गया है। कुमाऊँ अंचल में मुक्तेश्वर की घाटी अपने सौन्दर्य के लिए विख्यात है। देश-विदेश के पर्यटक यहाँ गर्मियों में अधिक संख्या में आते हैं। ठण्ड के मौसम में यहाँ बर्फीली हवाएँ चलती हैं। पर्यटकों के लिए यहाँ पर पर्याप्त सुविधा है। देशी-विदेशी पर्यटक भीमताल, नोकुचियाताल, सातताल, रामगढ़ आदि स्थानों को देखने के साथ-साथ मुक्तेश्वर (२२८६ मीटर) के रमणीय अंचल को देखना नहीं भूलते।
नैनीताल से तराइ -भाबर : खुर्पाताल
तराई-भाबर की ओर जैसे ही हम चलते हैं तो हमें कालढूँगी मार्ग पर नैनीताल से ६ कि.मी. की दूरी पर समुद्र की सतह से १६३५ मीटर की ऊँचाई पर खुपंताल मिलता है। इस ताल के तीनों ओर पहाड़ियाँ हैं, इसकी सुन्दरता इसके गहरे रंग के पानी के कारण और भी बढ़ जाती है। इसमें छोटी-छोटी मछलियाँ प्रचुर मात्रा में मिलती है। यदि कोई शौकीन इन मछलियों को पकड़ना चाहे तो अपने रुमाल की मदद से भी पकड़ सकता है।
इस ताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पर्वतों के दृश्य बहुत सुन्दर लगते हैं। यहाँ की प्राकृतिक छटा और सीढ़ीनुमा खेतों का सौन्दर्य सैलानियों के मन को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।
काशीपुर
खुर्पीताल से कालढूँगी मार्ग होते हुए काशीपुर को एक सीधा मार्ग चला जाता है। काशीपुर नैनीताल जिले का एक प्रसिद्ध नगर है, और मुरादाबाद व लालकुआँ से रेल द्वारा जुड़ा है। नैनीताल से यहाँ निरन्तर बसें आती रहती हैं। कुमाऊँ के राजाओं का यह एक मुख्य केन्द्र था। तराई - भाबर में जो भी वसूली होती थी उसका सूबेदार काशीपुर में ही रहता था।
चीनी यात्री हृवेनसांग ने भी इस स्थान का वर्णन किया था। उन्होंने इस स्थान का उल्लेख 'गोविशाण' नाम से किया था प्राचीन समय से ही काशीपुर का अपना भौगोलिक, सांस्कृतिक व धार्मिक महत्व रहा है।
कालाढूँगी/हल्द्वानी से काशीपुर मोटर-मार्ग में काशीपुर शहर से लगभग ६ कि.मी. पहले देवी का एक काफी पुराना मन्दिर है यहाँ पर चैत्र मास में चैती मेला विशेष रुप से लगता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं तथा अपनी मनौतियाँ मनाते और माँगते हैं। देवी के दर्शन करने के लिए यहाँ काफी भीड़ उमड़ पड़ती है।
द्रोणा सागर :
चैती मेला स्थल से काशीपुर की ओर २ किलोमीटर आगे नगर से लगभग जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण ताल द्रोण सागर है। पांडवों से इस ताल का सम्बन्ध बताया जाता है कि गुरु द्रोण ने यहीं रहकर अपने शिष्यों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी थी। ताल के किनारे एक पक्के टीले पर गुरु द्रोण की एक प्रतिमा है, ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण से यह विशिष्ट पर्यटन स्थल है।
गिरीताल
काशीपुर शहर से रामनगर की ओर तीन किलोमीटर चलने के बाद दाहिनी ओर एक ताल है, जिसके निकट चामुण्डा का भव्य मन्दिर है। इस ताल को गिरिताल के नाम से जाना जाता है। धार्मिक दृष्टि से इस ताल की विशेष महत्ता है, प्रत्येक पर्व पर यहाँ दूर-दूर से यात्री आते हैं। इस ताल से लगा हुआ शिव मन्दिर तथा संतोषी माता का मन्दिर है जिसकी बहुत मान्यता है। काशीपुर में नागनाथ मन्दिर, मनसा देवी का मन्दिर भी धार्मिक दृष्टि से आए हुए यात्री का दिल मोह लेते हैं।
काशीपुर नगर अब औद्योगिक नगर हो गया है, यहाँ सैकड़ों छोटे-बड़े उद्योग लगे हैं जिससे सारा इलाका समृद्धशाली हो गया है। काशीपुर के इलाके में बड़े-बड़े किसान, जिनके आधुनिक कृषि संयंत्रों से सुसज्जित बड़े-बड़े कृषि फार्म है, खेती की दृष्टि से यह इलाका काफी उपजाऊ है।
पर्यटन की दृष्टि से भी काशीपुर का काफी महत्व है। यहाँ के गिरिताल नामक ताल के किनारे पर्यटन आवास--गृह का निर्माण किया गया है। यहाँ दूर-दूर से देशी-विदेशी पर्यटक आकर रुकते हैं।