Author Topic: Details Of Tourist Places - उत्तराखंड के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों का विवरण  (Read 67905 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: POPULAR TOURIST DESTINATION OF UTTARAKHAND WITH DETAILS !!!!
« Reply #50 on: November 05, 2007, 04:51:42 PM »
Crank's Ridge

The pine-covered Kalimath, known as Crank’s Ridge or Hippie Hill, is located on the way to Kasar Devi temple near Almora, Uttarakhand, India, a quaint Kathmanduesque town and the ancient capital of Kumaon. It is considered a great spot for spending long hours in quiet solitude, as it has a magnificent view of the Himalayas. Kasar Devi is a temple near Almora where Swami Vivekananda once came to meditate in the late 19th century.

The ridge begame a haunt for bohemian artists, writers and spiritual seekers in the 1920s and 30s, including W. Y. Evans-Wentz, Lama Angarika Govinda (both notable western Tibetan Buddhists), Earl Brewster, an American artist, author John Blofeld and Danish mystic Alfred Sorensen. In the 1960s and 70s, luminaries of the counter-culture made pilgrimages to the ridge to visit these established inhabitants. Allen Ginsberg, Timothy Leary, Richard Alpert and R. D. Laing visited Lama Govinda. And in the mid-seventies Alfred ‘Sunyata’ Sorensen was taken to San Francisco by the Alan Watts society.

A cult destination, it now has a small community of backpackers and ex-hippies settled there ever since the place gained the reputation of being a Power Centre during the hippie hey-days. This reputation is due to the alleged gap in the Van Allen Belt above the ridge, a perception arguably strengthened by the free and easy availability of hemp on the slopes.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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« Reply #51 on: November 07, 2007, 04:36:55 PM »
Dakpathar
Located at the foothills of Shivalik, on the banks of river Yamuna, Dakpathar is the newly developed recreation center of GMVN. It is a tourist complex with spacious lawns & gardens with a full standard size swimming pool, where facilities for coaching are available.
 


Water Sport Resort

Asan Barrage : 11 km. from Dakpathar, GMVN offers water sport facilities here which include water skiing, sailing, boating, kayaking, canoeing and hovercraft ride.

Kalsi

6 kms. From Dakpathar enroute Chakrata on the banks of the confluence of two rivers, Tons & Yamuna. Here exists an Ashokan edict inscribed on a sizable rock and preserved by the Archaeological Survey of India.

Lakha Mandal

Past Yamuna bridge, Lakha Mandal is 80 km. on Kalsi-Yamunotri road. Scattered here are hundreds of idols of archaeological importance. According to a legend, the Kauravas made a shellac house here and conspired to burn the Pandavas alive.

Paonta Sahib

16 kms. From Dakpathar across the Yamuna river is Paonta Sahib. Here on the bank of Yamuna river is the Gurudwara of Guru Gobind Singh Ji Devotees and tourists come here in large numbers to worship and see the beauty of the place.

 



Rail
Nearest railhead is Dehradun, 45 kms.

Road
Well connected by a motorable road to all major cities of India. Dehradun (45 kms.), Chandigarh (140 km.) & Delhi (300 km.).

 



GMVN Tourist Rest House, Private Hotels, Guest House (Irrigation Bungalow)
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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« Reply #52 on: November 07, 2007, 04:37:58 PM »


Chila

Chila wildlife sanctuary, a haven for animal watchers is just 8 kms. from Haridwar and 21 kms.f rom Rishikesh. Located on the banks of the Ganga river in the heart of Shivalik hills, Chila is a part of the famous Rajaji National Park. The fauna species include elephants, spotted deer, stag deer, blue bull, wild boar, fox, porcupine, jungle fowls and peacocks. Beside these, migratory birds are also seen on the river Ganga.


A Wildlife Sanctuary

 
 Accessibility

Rail
Nearest railhead is Haridwar, 8 km.

Road
Well connected by a motorable road - Haridwar (8 km.) Rishikesh (21 km.) & Delhi (208 km.)

 
 
Activities of Interest

Wild animal/bird watching and photography on elephant back. Pleasure walks in the jungle. Picnic at Chila beach (1.5 kms.).

 
 


Rishikesh
A visit to the great pilgrim center of Rishikesh (21 km. from Chila) which is located on the banks of holy Ganga, amidst tranquil surroundings is a highly rejuvenating experience for both the nature lover and the spiritually guided mind.

Kaudiyala
The rafter's camp developed by GMVN is just 62 kms. From Chila. It provides an excellent opportunity for river rafting & water sports.

Haridwar
Perched on the edge of time along the banks of the holy river Ganga, Haridwar, the foremost on every traditional Hindu pilgrims itinerary, is just 8 km. from Chila.

 


GMVN Tourist Bungalow, GMVN Gujar Huts, Irrigation Rest House, Forest Rest House.
 

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Re: POPULAR TOURIST DESTINATION OF UTTARAKHAND WITH DETAILS !!!!
« Reply #53 on: November 08, 2007, 05:13:28 PM »

बड़कोट

नगर का दृश्य
ऐतिहासिक रूप से टिहरी रियासत का एक भाग, बड़कोट, पौराणिकता के आधार पर अपना मूल त्रेता युग के राजा सहस्रबाहू एवं पांडवों से मानता है। शेष गढ़वाल की संस्कृति से इस शहर की संस्कृति भिन्न है तथा महाभारत के नायकों का लोगों की कल्पना पर प्रबल प्रभाव है। बड़कोट की एक अलग पहचान यहां का वातावरणीय सौंदर्य है जिसकी पृष्ठ भूमि में विशाल बंदरपूंछ पर्वत श्रेणी तथा घने देवदार वनों के बीच-बीच चबूतरी खेतों के खुले मैदान भी हैं। बड़कोट के स्थानीय आकर्षणों में शामिल है कुछ ऐतिहासिक स्थल तथा इस शहर से यात्रा करने पर आप सांस्कृतिक भिन्नता के रवाँई क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं। बड़कोट को यमुनोत्री की यात्रा पर आधार स्थल समझा जाता है, पर कुछ समय इस शांत सुंदर शहर में बिताने योग्य है।

बड़कोट की पौराणिकता से संबंधित दो भिन्न विचार धाराएं स्थानीय रूप से प्रचलित हैं। एक का मत है कि महाभारत युग में बड़कोट राजा सहस्रबाहु के राज्य की राजधानी थी। हजार बाहुओं के समान शक्ति रखने वाला सहस्रबाहु अपना दरबार एक सपाट भूमि पर लगाता था (वर्तमान बड़कोट गांव में) और बड़कोट शहर का नाम इसी से हुआ है बड़ा दरबार अर्थात बड़कोट। माना जाता है कि पांडवों ने वन पर्व के दौरान गंधमर्दन पर्वत पर जाते समय सहस्रबाहु का आतिथ्य स्वीकार किया गया था। यहां के कई कुंडों एवं मंदिरों का निर्माण पांडवों द्वारा हुआ, ऐसा माना जाता है।
एक अन्य मत का दृढ़ विश्वास है कि बड़कोट मूल रूप से जमदग्नि मुनि और उनके पुत्र परशुराम की भूमि रही थी। कहा जाता है वास्तव में सहस्रबाहु दक्षिण में शासन करता था और चार धामों की यात्रा के लिये ही वह उत्तर आया था। उसका विवाह जमदग्नि मुनि की पत्नी रेणुका की बहन बेनुका से हुआ था।

स्वयं भगवान विष्णु के एक अवतार जमदग्नि मुनि के चौथे पुत्र परशुराम को भगवान राम ने 21 बार क्षत्रियों के विनाश करने के लिये पश्चाताप करने की सलाह दी। इसलिये वे हिमालय के उत्तर आ गये और अपना शेष जीवन उस क्षेत्र में तप एवं पूजा करते बिताया, जो अब बड़कोट है। इस क्षेत्र के मंदिरों एवं कुंडों का श्रेय उन्हें ही जाता है इस मतानुसार इस क्षेत्र में 21 कुंडों का निर्माण उनके द्वारा हुआ।

यह मत यह बताता है कि पांडव स्वर्ग जाते हुए स्वर्गारोहिणी यात्रा के दौरान यहां आये थे जो इस बात से प्रमाणित होता है कि यहां के लोगों की कल्पना में पांडवों, कौरवों एवं महाभारत का बड़ा महत्त्व है। वास्तव में, ऐसा माना जाता है कि पांडवों ने अपने शास्त्रास्त्र उसी जगह गाड़ दिए थे, जहां अब शहर को नया बनाया जा रहा है। गड़े शास्त्रास्त्रों की अनुमानित छोटी जगह को घेरने के बाद ही बस-पड़ाव की योजना बनायी गयी।

यह तथ्य मौजूद है कि रवाँई एवं बड़कोट के लोग अपनी वंश परंपरा पांडवों (महाभारत के नायक पांच भाई, जिन्होंने एक ही स्त्री द्रोपदी से विवाह रचाया था) से जोड़ते हैं उस क्षेत्र के गांवों में मूल रूप से निर्वाहित प्राचीन परंपराओं में से एक है बहुपतित्व की प्रथा जिसमें कई पतियों को रखने का रिवाज है।




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Re: POPULAR TOURIST DESTINATION OF UTTARAKHAND WITH DETAILS !!!!
« Reply #54 on: November 08, 2007, 05:14:55 PM »

बड़कोट

प्राचीन काल में, युमना की घाटी, रवाँई, जहां बड़कोट स्थित है, वह भारी हिमपात के कारण उत्तरकाशी के शेष क्षेत्रों से पूरी तरह कटा हुआ था। टोंस नदी के पार पश्चिम की ओर हिमाचल था तथा दक्षिण की ओर की भूमि पर अंग्रेजों का अधिकार था। इसलिये, रवाँई के लोगों का शेष गढ़वाल से बहुत कम संपर्क था जिसके कारण यहां एक बिल्कुल भिन्न संस्कृति एवं भाषा का विकास हुआ; एक ऐसी संस्कृति जो गढ़वाली तथा जौनसारी का मिश्रण है।
रवाँई के लोग अपनी जन्म परंपरा महाभारत के प्रसिद्ध पांडवों एवं कौरवों से जोड़ते है। फलस्वरूप यह भारत के उन थोड़े क्षेत्रों में से एक है जहां भातृव्रत बहुपतित्व की प्रथा है जिसके अनुसार एक ही स्त्री से कई भाईयों के विवाह रचाने की प्रथा होती है। इस प्रथा को जारी रखने के कई कारण बताये जाते है जिनमें शामिल हैं बच्चों के जैविक योग्यता में बहुपतित्व का बढ़ावा, महिलाओं की अपेक्षा विवाह योग्य पुरूषों की अधिक उपलब्धता समाज में बहुपतित्व प्रथा का आर्थिक लाभ एवं महाभारत में स्थापित बहुपतित्व परंपरा का निर्वाह करना। इनमें सबसे मान्य तर्क यह तथ्य है कि औरतों की घटती उपलब्धता के साथ अपनी भूमि संपदा को बचाकर रखने का परिवार के पास आदर्श तरीका है बहुपतित्व की प्रथा। भूमि विभाजन से निपटने से भाईयों को एक समान पत्नी के साथ विवाह द्वारा एक साथ रखा जाता है।

बड़कोट के अधिकांश लोगों के लिये बहुपतित्व प्रथा जीवन का एक स्वभाविक तरीका है। वर्तमान पीढ़ी से पहले बहुपतित्व का निर्वाह एक तथ्य था तथा वर्तमान पीढ़ी के कई लोग इसे स्वभाविक मानते है कि उनकी एक माता और कई पिता होते हैं। अब यह प्रथा बड़कोट जैसे शहरी ईलाकों से समाप्त हो रही है, पर आस-पास के गांवों में इसका प्रचलन जारी है।

इस स्थान की सुदुरता ने यह सुनिश्चित किया कि एक ऐसी संस्कृति का विकास हो जो शेष गढ़वाल की अधिक रूढ़िवादी संस्कृति से कुछ अलग रहे। पुनर्विवाह एवं तलाक के बारे में लोगों का अधिक नैमितिक सोच है और प्राय: ही समुदाय के बुजुर्ग एक महिला को छूट दे देते हैं कि अगर वह अपने विवाह से संतुष्ट नहीं हो तो अन्य पुरूष के साथ जा सकती है। परिवार की समस्याओं का समाधान समुदाय की सहायता से कर लिया जाता है, एक विस्तृत जाति परिवार की बिरादरी द्वारा एक साथ कुल पुरोहित (बिरादरी की कुल देवता का पुजारी) के साथ बैठते हुए जो संकटग्रस्त परिवार को समस्या के निदान का तरीका बताता है। समस्या का समाधान कुल देवता के सक्रिय योगदान से किया जाता है, जिसका प्रतिनिधित्व कुल-पुरोहित करता है।

सांस्कृतिक रूप से रवाँई के लोग हैं हर त्यौहार को मनाते है, खासकर महिलाएं, इन समारोहों की नाभीय बिंदु होती है। वर्ष के प्रत्येक महीने में समारोह होते हैं। पूस सामान्यत: जनवरी में गांव में हर परिवार एक भेड़ या बकरे को काटता है तथा शेष गांव वालों को एक भोज पर निमंत्रण देता है एवं गांव के बाहर ब्याही पुत्रियों के पास भोजन भेजता है। इसके फलानुसार उस महीने प्रत्येक परिवार केवल एक ही बार खाना पकाता है। बचे मांस को एक साथ पिरोकर लटका कर घर में सुखाया जाता है। अगले महीने माघ में इन मांस की लड़ों को उतारकर पकाया जाता है और इसमें गांव के बाहर व्याही बेटियों को भोज में निमंत्रित किया जाता है, जिसे भाईदूज कहते हैं। फागुन में बुआई के लिये खेत तैयार करने का एक दिन तय किया जाता है जब संपूर्ण समुदाय एक साथ यह कार्य प्रारंभ करता है। इस अवसर के साथ ही संगीत एवं गीत गाये जाते हैं तथा परंपरागत बाजगी ढोल बजाकर लोगों को प्रोत्साहित करते है।

चैत के महीने में संक्रांति का समारोह मनाया जाता है जिसे यहां पापरी संक्रांति कहते हैं तथा चावल के आटे की बनी पूरियों का पकवान बेटियों के घर भेजा जाता है। अगले महीने बैसाखी का समारोह और जेठ महीने में राजा बौख नाग मेला होता है। राजा बौख नाग बड़कोट के इर्द-गिर्द 45 गांवों का प्रधान देवता है एवं उनकी डोली एक जुलुस में प्रत्येक गांव से गुजरती है। अषाढ़ का अर्थ है अगली फसल की बुआई, जिसे भी एक साथ संगीत सहित एक संप्रदाय की तरह किया जाता है।

भगवन कृष्ण का जन्मदिन जन्माष्टमी सावन में मनाया जाता है तथा भादो में दुर्गा का मेला होता है। असोज (आश्विन) फसल काटने का अवसर ले आता है एवं दीपावली कार्तिक में मनाया जाता है। अगले महीने इस क्षेत्र के लोग मंगसीर दीपावली के नाम की एक अन्य दीवाली मनाते हैं।

एक स्थानीय कहावत में कोई आश्चर्य नहीं है जो रवाँई के लोगों का जीवन के प्रति प्रेम, इसकी प्राकृतिक सुंदरता एवं आकर्षक महिलाएं आकर्षण का संक्षिप्त विवरण पेश करता है कि जो जायेगा रवाईन, वह बैठेगा घर जवांई।

बोली की भाषाएं
रवाल्टी, (केवल बड़कोट एवं नौ-गांव में बोली जाने वाली गढ़वाली का एक बदला स्वरूप), हिन्दी एवं अल्पज्ञान की अंग्रेजी।

नृत्य एवं गीत
गीत एवं नृत्य क्योंकि खासकर रवाँई के लोग प्रत्येक अवसर का समारोह पूर्वक मनाते हैं, छोटा हो या बड़ा और वर्ष भर संगीत एवं नृत्य का सिलसिला चलता रहता है। गीतों एवं नृत्यों के साथ ढोल एवं नगाड़े भी होते हैं, जिन्हें परंपरागत बाजगी बजाते हैं। गीतों एवं नृत्यों की गहरी जड़े संप्रदाय के जीवन-चक्र, खेतिहर जीवन, प्रकृति तथा धर्म में व्याप्त होती हैं।

रासो वह गीत एवं नृत्य होता है जो प्राचीन काल के स्थानीय नायकों एवं नायिकाओं का समारोह होता है या फिर उन लोगों का भी जिन्होंने हाल के दिनों में अच्छे एवं बहादुरी के कारनामे किये हैं। रासो में पुरूष एवं महिलाएं दोनों नाचते हैं, जिसके चक्राकार रूप में पुरूष एवं महिलाएं अपनी बाहे एक दूसरे के कमर पर रखने से जुड़े रहते हैं। केवल पुरूषों का रास नृत्य तलवार या खुखरी के टेक से किया जाता है।

जागर  एवं पांडव नृत्य अधिक धार्मिक प्रकृति के होते हैं। कुल (परिवार), इश्ट (आवास-भूमि) एवं ग्राम देवी तथा देवताओं की प्रतिमाओं से संप्रदाय का संबंध गहरा एवं निकट का होता है। प्रत्येक अवसर पर ये स्थानीय देवी–देवता ही हैं जो लोगों को समर्थन देती हैं।





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« Reply #55 on: November 10, 2007, 04:00:31 PM »

नाम : डॉ धर्मेन्द्र भट्ट स्पोर्ट्स स्टेडियम
पता : जिला खेलकूद कार्यालय, पिथौरागढ़
दूरभाष : 05964-225606
सम्पर्क व्यक्ति : जिला खेलकूद कार्यालय, पिथौरागढ़
स्थापना : वर्ष 1993 में



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« Reply #56 on: November 10, 2007, 04:18:33 PM »
MUSSORIE
 

Think hill stations, think Mussoorie. One of the oldest hill stations established by the Britishers, Mussoorie is very popular with tourists for its foggy hills and cool winds.  Located in the Garhwal hills at an altitude of 2,000 m, Mussoorie is spread on a 15 km-long saw-toothed ridge 34 km north (and uphill) of Dehra Dun. It commands a breathtaking view of the extensive Himalayan snow ranges in the north-east and the Doon Valley in the south. Mussoorie was discovered by an adventurous military officer, Captain Young, in 1827. It has everything one expects from a typical hill station - scintillating views of the valleys below, snow-capped mountains, a Mall, a skating rink and wonderful swirling mists..
 
 
  HOW TO REACH
By Air - Indian Airlines has five flights a week from Delhi to the Jolly Grant Airport. Airport: Jolly Grant is the nearest functioning airport, at a distance of 59 km.

By Rail - Dehra Dun is connected to major cities with super-fast trains such as the Mussoorie Express, the Bombay Doon Express, Calcutta-Howrah-Doon Express and Gorakhpur-Doon Express. The Shatabdi Express leaves New Delhi every day except Thursdays. Railway station: Dehra Dun, 34 km away, serves as the railhead for Mussoorie.

By Road - There are several buses from Delhi to this hill station, both private and state-run. From Dehra Dun to Mussoorie, one can hire cabs or take any of the buses plying from just outside the Dehra Dun Railway Station. If travelling from Jammu, Saharanpur is the convenient place to catch a bus directly to Mussoorie. The road from Delhi is well maintained and the 269 km journey can be completed in six hours.

WHEN TO GO

The best time to visit Mussoorie is between April and June and from September to November, although a visit during Dec-Jan-Feb can be more exhilarating with snow all around (if one is lucky).

WHAT TO SEE
   
Gun Hill - Gun Hill is the second highest point in Mussoorie and offers the best view of the valley below. The ropeway ride from the Mall to this hill (Rs 25) is sheer exhilaration. A bird's eye-view of Mussoorie town, Doon Valley and the Bunderpunch, Srikantha, Pithwara and Gangotri group of the Himalayas can be seen from here. One can also approach Gun Hill from a pathway, which forks off from the Mall Road near Kutchery. It takes about 20 minutes to reach the top.
 
 
Kempty Falls - On the Yamunotri Road, 18 km from Mussoorie town, Kempty Falls is one of the most frequented spots
 
 
 
Municipal Garden - About 3 km from Mussoorie, this is a beautiful picnic spot. The lake here also has boating facilities.

 
 
 
Camel's Back Road - Shaped like the back of a camel, the road stretches from Kulri Bazaar near the Rink Hall to Library Bazaar. A 3 km horse ride on this road, especially at sunset, is an experience in itself.
 
 
 
Van Chetna Kendra - Situated 4 km from Mussoorie, tourists throng this place mainly for its diverse wildlife, including the ghural, kanakar, Himalayan peacock, and monal.
 
 
 
Cloud’s End - 18 km away from Mussoorie, this is the most appropriate place for honeymooners. Originally a bungalow built in 1838 by a British Major, Cloud's End has now been converted into a hotel. The resort is surrounded by lush forests and houses a wide variety of flora and fauna, besides offering a panoramic view of snow clad Himalayas and the Yamuna River.
 
 
 
Nag Devta Temple - About 7 km from Mussoorie, this is an ancient temple on the Cart Mackenzie Road. It also offers a pleasant view of the Doon Valley and Mussoorie.
 
 
Jwalaji Temple (Elenog Hill) - About 9 km from Mussoorie, this temple is on top of the Benog Hill. Another excellent viewpoint, the temple is surrounded by thick forests. You can do the first 7 km by road, but the remaining 2 km have to be covered on foot.
 
 
Childer's Lodge - Take a horse to the highest peak of Mussoorie near Lal Tibba. Only about 5 km from Mussoorie, you could even take a leisurely walk up to the top. The breath-taking view from up here is worth the climb.
 
 

SHOPPING

The best buys are walking sticks, hand-knit cardigans and sweaters and assorted curios from the Tibetan Street Market. Shops along the Mall sell wood carvings and semi-precious and precious stones.

WHERE TO EAT

President, The Mall, for Mughlai food.
Kwality, The Mall, is multi-cuisine restaurant with a well-stocked bar.
Whispering Windows, The Mall, is another multi-cuisine restaurant
 

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« Reply #57 on: November 15, 2007, 12:28:58 PM »

हरबर्टपुर

प्राकृतिक सुंदरता के लिए मशहूर हरबर्टपुर उत्तराखंड का बेहद ही खूबसूरत पर्यटन स्थल है। यहां के अतुलनीय प्राकृतिक दृश्य सैलानियों का मन मोह लेते हैं।
 
उत्तराचंल की राजधानी देहरादून से सिर्फ 37 किलोमीटर की दूरी पर बसा हरबर्टपुर दून घाटी के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। हिमालय और शिवालिक पहाड़ियों से घिरे इस नगर की ऊंचाई समुद्र तल से 450 मीटर है।
 
हरबर्टपुर चौक, नगर का हृदयस्थल है और यह सहारनपुर-यमुनोत्री तथा देहरादून-शिमला मार्ग के चौराहे पर स्थित है। इसके आसपास स्थित गांवों की कुदरती सुंदरता बहुत ही मनमोहक है।
 
विक्रम थापा कैलाशी के प्रवाहित काष्ट (ड्रिफ्ट वुड) संग्रह के लिए प्रसिद्ध हरबर्टपुर के आस-पास देश के कई मशहूर पर्यटन स्थल हैं, जिनकी यात्रा आप कर सकते हैं। इनमें प्रमुख हैं -
 
 •   आसन बांध और आसन संरक्षण आरक्षितः पक्षी प्रेमियों के लिए बहुत ही सुंदर स्थान।
 •   आसन वाटर स्पोटर्स सेंटर एवं रिजॉर्ट, जी एम वी एन: जलक्रीड़ा में रुचि रखने वाले लोगों के लिए मनोरंजक स्थान।
 •   गुरुद्वारा पौंटा साहिबः सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल।
 •   गंग बावलीः महर्षि गौतम द्वारा निर्मित स्नानागार के लिए मशहूर है।
 



   4 धार्मिक महत्व   
 
‘राजा रसालू की टिबरी’ हरबर्टपुर का ही एक भाग है, जहां सियालकोट के राजा रसालू ने 12 वर्ष (जीवन के प्रारंभिक 12 साल) तक निवास किया था। एक संत को दिए वचन को निभाने के लिए उनके पिता उन्हें यहां लेकर आए थे।
 
बड़ा होने पर रसालू बहुत ही साहसी और वीर योद्धा बने। रसालू धनी लोगों को लूटते थे और गरीबों में बांट देते थे। वो जब अपने घोडे़ (फौलादी) पर चलते थे, तो उनका तोता स्वयं उनके कंधे पर बैठ जाता था।
 
 


प्रमुख त्योहार एवं उत्सव   
 
फसल की कटाई के बाद मनाया जानेवाला पर्व ‘बैसाखी’ और ‘सावन’ के शुभ महीने में आयोजित होनेवाला त्यौहार यहां के प्रमुख उत्सव हैं।

अप्रैल के महीने में मनाया जाने वाला ‘बैसाखी’ यहां का एक प्रमुख धार्मिक त्यौहार है। फसल कटने के खुशी के उपलक्ष्य में यह त्यौहार मनाया जाता है।

जुलाई और अगस्त में पड़नेवाले सावन के महीने (हिंदू कैलेंडर के अनुसार) में यहां त्यौहारों की धूम रहती है। मंदिरों को विशेष तरीके से सजाया जाता है और जगह-जगह पर मेलों का आयोजन किया जाता है।

गंगबावली और पौंटा साहिब (हिमाचल प्रदेश) में लगनेवाले मेले बहुत ही प्रसिद्ध हैं।
 
 
 
 

पंकज सिंह महर

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« Reply #58 on: November 15, 2007, 02:09:46 PM »
गौचर
बद्रीनाथ के मार्ग पर स्थित एक छोटा शहर गौचर, अपने ऐतिहासिक व्यापार मेला के लिये प्रसिद्ध है। यह उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के सर्वाधिक बड़े समतल भूमिखण्डों में से एक पर अवस्थित है। यह एक लाभदायक भौगोलिक स्थिति है जिसने प्राचीन समय में इसका मान बढ़ाया है और भविष्य में भी विकास में मदद मिलेगी। यहां बन रहा हवाई पट्टी गौचर को विकास की ओर अग्रसर करेगा जो अपने आप में एक पर्यटकों के लिये अलौकिक आकर्षण है। अगर सब कुछ गौचर के मास्टर प्लान 2021 के अनुसार हो तो शहर का भविष्य वास्तव में उज्ज्वल है।

इतिहास

गौचर को प्रकृति ने एक बड़ा समतल क्षेत्र प्रदान किया है जो उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में सर्वाधिक बड़ा खुले स्थानों में से एक है तथा इस मैदान का इसके इतिहास में प्रमुख भूमिका है। इस मैदान ने एक हवाई पट्टी का कार्य किया है तथा भूत में कई गणमान्य लोगों का यहां आगमन हुआ था। क्षेत्र का सबसे बड़ा व्यापार मेला इसी स्थान पर आयोजित होता है। यह समतल भूमि गढ़वाल के पंवार राजाओं की संपत्ति थी और उन्होंने कभी इसे बद्रीनाथ मंदिर को दान कर दिया था। यह अब भी बद्रीनाथ मंदिर की संपदा है तथा कृषि एवं अन्य कार्यों के लिये इसका उपयोग नहीं हो सकता। (गौचर का नया हवाई अड्डा कृषि-भूमि पर ही है तथा इस कारण भी कि हवाई अड्डा तथा प्रशासनिक भवनों के लिये और अधिक बड़ी जगह की आवश्यकता थी।)
वर्ष 1920 के दशक में गौचर को तब पहचान मिली जब तत्कालीन वायसराय की पत्नी लेडी विलिंगडन हवाई मार्ग से वहां आई। फिर वर्ष 1938 में पंडित जवाहरलाल नेहरू बद्रीनाथ की व्यक्तिगत यात्रा करते हुए अपनी बहन विजया लक्ष्मी पंडित के साथ हवाई मार्ग से ही वहां आये उस समय हवा के बहाव को जानने के लिये गाय के सुखे गोबर को खेत में जलाकर पता लगाया जाता था।

वर्ष 1943 से ही गौचर उत्तराखंड के सबसे बड़े व्यापार मेलों में से एक का मेजबान रह चुका है। गढ़वाल हिमालय क्षेत्र की सीमा पर रहने वाले चमोली जिले के भोटिया लोगों को, ऊनी कपड़े एवं वस्तुएं बनाना तथा ऊन बनाने एवं रंगने में परंपरागत निपुणता हासिल थी। वर्ष 1962 से पहले भारत तथा पूर्व-तिब्बत के बीच सीमा-पार व्यापार होता था तथा ऊन-आधारित कुटीर उद्योग में भोटिया लोगों की प्रमुख आय का श्रोत ऊन का आयात ही होता था। वर्ष 1962 के बाद भारत-चीन युद्ध के कारण व्यापार रूक गया। गौचर मेला, भोटिया लोगों के लिये बड़े बाजार की तरह था जहां वे ऊन सहित अपना सामान तथा वेश-कीमती जवाहिरात तथा हींग यहां बेचते तथा दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं जैसे कपड़े एवं नमक आदि खरीद कर वापस चले जाते थे। यह मेला मात्र एक स्थानीय मेला ही नहीं था वरन सुदूर बिजनौर तथा कोटद्वार से आकर भी लोग बृहत व्यापार में हिस्सा लेते।

बड़े स्तर पर लगभग वर्ष 1000 से वर्ष 1803 तक गौचर, शेष गढ़वाल की तरह ही पाल वंश द्वारा शासित रहा था जो बाद में शाह वंश हो गया। वर्ष 1803 में यहां एक विनाशकारी भूकंप में लगभग एक-तिहाई आबादी मारी गयी और इस स्थिति का लाभ उठाकर गोरखों ने गढ़वाल की ओर कूच कर दिया। उस समय वहां के राजा प्रद्युम्न शाह थे तथा परस्पर युद्ध में उन्होंने अपने प्राण तथा राज्य दोनों गंवाये।

शेष गढ़वाल के साथ गौचर भी वर्ष 1803 से वर्ष 1815 के बीच गोरखों के अधीन रहा। वर्ष 1815 में अंग्रेजों की सहायता से राजा सुदर्शन शाह ने गोरखों को परास्त कर अपना राज्य वापस ले लिया तथा अंग्रेजों ने अलकनंदा एवं मंदाकिनी का पूर्वी-भाग राजधानी श्रीनगर सहित ब्रिटीश गढ़वाल में मिला लिया। प्रारंभ में, यह क्षेत्र देहरादून तथा सहारनपुर से प्रशासित होता रहा परंतु बाद में अंग्रेजों ने यहां पौड़ी नाम से एक नया जिला बनाया। आज चमोली एवं गौचर पौड़ी का तहसील है। फरवरी 24, 1960 को चमोली तहसील को स्वाधीन भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में एक नया जिला बना दिया गया। वर्ष 1994 में गौचर में एक नगर पंचायत बनी।

पंकज सिंह महर

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Re: POPULAR TOURIST DESTINATION OF UTTARAKHAND WITH DETAILS !!!!
« Reply #59 on: November 15, 2007, 02:14:24 PM »
गोपेश्वर

गोपेश्वर का प्राचीन शहर, कत्यूरी राजाओं की वास्तुकला-कौशल के सर्वोत्तम उदाहरण गोपीनाथ मन्दिर की विशालता के लिये प्रसिद्ध है। यह वैष्णवों एवं शैवों का एक पवित्र धार्मिक मिलन स्थान भी है, क्योंकि इस पवित्र मन्दिर में दोनों देवताओं की पूजा होती है। पर इससे भी अधिक गोपेश्वर वह स्थान है, जहां गढ़वाल के लोगों ने विश्व-प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन के दौरान अद्भुत प्रयासों द्वारा अपने परम्परागत अधिकारों एवं हिमालय के पर्यावरण एवं वातावरण की सुरक्षा के लिये अपनी आवाज को बुलंद किया।

गोपेश्वर का इतिहास गोपीनाथमन्दिर से निकट से जुड़ा है, जिसके इर्द-गिर्द यह शहर बसा है। मन्दिर परिसर में पाये गये एक लोहे के त्रिशूल पर खुदे लेख वर्तमान 6-7वीं सदी के हैं। चार लेख संस्कृत की नागरी लिपि में हैं, जिनमें स्कंदनाग, विष्णुनाग तथा गणपतनाग जैसे शासकों का वर्णन है। वर्ष 1191 से एक अन्य लेख में नेपाल के सामान्य वंश के शासक अशोक माल्ला का वर्णन है। प्राचीन काल में शासकों द्बारा अपनी प्रभुता की घोषणा करने का एक सामान्य तरीका होता था विजय के प्रतीक के रूप में एक त्रिशूल गाड़ देना। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण, जो वर्ष 1970 से ही मंदिर की देखभाल कर रहा है, के अनुसार मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासन के दौरान 9-11वीं सदीं के मध्य हुआ।

मूलरूप से प्राचीन काल में यह गांव मन्दिर से 280 मीटर दूर था तथा उसे रानीहाट या कश्मीरहाट कहते थे। जैसा कि नाम से पता चलता है, यह एक बाजार था जो निपुण मूर्तिकारों के लिये प्रसिद्ब था, वे मुलायम पत्थरों से धार्मिक मूर्तियां गढ़ते थे और केदारनाथ-बद्रीनाथ जाने वाले पैदल तीर्थयात्रियों को बेचते थे। तीर्थ यात्रा के पथ पर गोपेश्वर बद्रीनाथ एवं केदारनाथ से समान दूरी पर था और इसीलिये तीर्थ यात्रियों का प्रिय था। शहर की मान्यता का दूसरा कारण यह था कि जो कोई भी तीर्थ यात्री बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिरों तक नही पहुंच पाता था, वह यहां गोपीनाथ मन्दिर में पूजा कर अपनी तीर्थ यात्रा पूर्ण कर लेता था। यह एक ऐसा क्षेत्र था, जहां साधु-संत जगह की शांति एवं सुंदरता से अभिभूत होकर यहां पूजा एवं तप के लिये रूक जाते थे।

उस समय मन्दिर का प्रशासन रावल के अधीन होता था जो केरल से आये थे (आज भी बद्रीनाथ और केदारनाथ में यह प्रथा प्रचलित है)। वर्ष 1971 में अन्तिम रावल की मृत्यु के बाद इस परंपरा का अंत हो गया। मन्दिर के पुजारी भी केरल वासी ही होते थे जो आज भी कायम है। मूलरूप से मन्दिर में रावल एवं कर्मचारी ही रहते थे तथा गांव वासी केवल पूजा के लिये यहां आते थे। मन्दिर के आस-पास के 64 गांव मन्दिर के अधीन थे, जहां की आय से मन्दिर की देख-भाल की जाती थी।

सदियों पहले एक भूकंप में रानीहाट या कश्मीरहाट गांव ध्वस्त हो गया और तब लोगों ने अपने घर मन्दिर के समीप बसा लिये, जिसके इर्द-गिर्द गांव बस गया।

गढ़वाल के शेष भागों की तरह गोपश्वर भी कत्यूरी वंश द्वारा शासित था जो जोशीमठ से शासन करते थे। बाद में वे कुमाऊं जा बसे, जहां वे चंद वंश द्वारा पराजित हुए।

गढ़वाल के पंवार वंश की स्थापना कनक पाल ने चांदपुर गढ़ी में की और उसके 37वें वंशज अजय पाल ने वर्ष 1506-1519 के बीच श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। इस वंश का नाम पाल वंश हुआ, जो बाद में 16वीं सदी के दौरान शाह वंश में बदल गया तथा वर्ष 1803 तक गढ़वाल पर शासन करता रहा। इस वर्ष नेपाल के गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण कर अमर सिंह थापा को वहां का शासक घोषित कर दिया। एटकिंसन के हिमालयन गजेटियर, वोल्यूम III भाग I वर्ष 1882 के अनुसार, अमर सिंह थापा द्बारा गोपीनाथ मन्दिर की मरम्मत करायी गयी। वर्ष 1814 में गोरखों का सम्पर्क अंग्रेज शासकों से हुआ, क्योंकि उनकी सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थीं। सीमावर्ती कठिनाइयों के कारण अंग्रेजों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया।

अप्रैल 1815 में गोरखों को गढ़वाल से खदेड़ दिया गया, इसे अंग्रेजी जिले के रूप में मिला लिया गया तथा पूर्वी एवं पश्चिमी गढ़वाल में बांटकर पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों के अधीन रखकर इसका नाम ब्रिटिश गढ़वाल रखा गया। वर्ष 1947 में भारत की स्वाधीनता तक गोपेश्वर ब्रिटिश गढ़वाल का ही एक भाग था।

गोपेश्वर का ऐतिहासिक महत्व एक अन्य कारण से भी है। वर्ष 1960 में चमोली जिले की स्थापना हुई तथा गोपेश्वर कई जन-आंदोलनों का केंद्र बन गया। इसकी शुरूआत स्थानीय युवाओं द्वारा मल्ला नागपुर श्रम संविधा समिति की स्थापना से की गयी। महात्मा गांधी, विनोबा भावे तथा जयप्रकाश नारायण से गहन रूप से प्रभावित होकर इन स्थानीय युवाओं ने श्रम सहयोगिता के उद्देश्य से उस समुदाय में सामाजिक समानता लाने पर जोर दिया, जिसकी गहरी जड़ें जाति-विभेद में थीं। वर्ष 1963-64 में संगठन के सदस्यों द्वारा गोपीनाथ मंदिर से बस पड़ाव तक की सड़क का निर्माण किया गया। इसके एक सदस्य्य चंडी प्रसाद भट्ट दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के संस्थापक सदस्य बन गये, जो संगठन गोपेश्वर एवं चमोली में सामाजिक एवं पर्यावरण जागरूकता को जगाने में समर्थ हुआ तथा महिलाओं को भी जन-आंदोलन में लाने में कामयाब हुआ। यह कई सामाजिक आंदोलनों जैसे शराब बंदी तथा चिपको आंदोलन आदि में अग्रणी रहा। गोपेश्वर में इस मंडल के कारण ही चिपको आंदोलन का प्रथम बीज बोया गया जो बाद में उत्तराखंड में फैला तथा इसके कई सूत्रधार बने। चिपको आंदोलन के नायकों में से एक चंडी प्रसाद भट्ट, को एशिया के सर्वाधिक प्रतिष्ठित सम्मान रमन मैग्सेसे एवार्ड से विभूषित किया गया।

जिले की स्थापना काल से ही अलकनंदा नदी के किनारे बसा छोटा शहर चमोली ही जिला मुख्यालय रहा है। 1970 के दशक में कार्यालय गोपेश्वर ले जाया गया।

 

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