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Didihat District Uttarakhand डीडीहाट- उत्तराखण्ड का एक सुन्दर हिल स्टेशन।

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Devbhoomi,Uttarakhand:
डीडीहाट एक बहुत सुन्दर पर्यटक स्थल है और आज डीडीहाट की इस खूबसूरत और इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए ,डीडीहाट को उत्तराखंड १४ वाँ जिल्ला घोषित कर दिया गया है ! प्राकृतिक तौर पर सुंदर घाटी जहां डीडीहाट का छोटा पहाड़ी शहर स्थित है, उसकी विशिष्टता है!

एक हरा-भरा वातावरण, पहाड़ी शिखर के मैदान में आबाद टीले, जहां अधिकांश घर बसे हैं तथा जिसके नीचे चरमगढ नदी प्रवाहित है एवं कुछ दूरी पर बर्फ से ढकी पंचाचूली हिमालय ऋंखला का मनोहर दृश्य। हरित, उपजाऊ घाटी को हाट कहते हैं। डीडीहाट, कैलाश-मानसरोवर तीर्थयात्रा के मार्ग पर है एवं इसका नाम कुमाऊंनी भाषा के डंड या छोटी पहाड़ी से पडा है।

ऐतिहासिक रूप से इस क्षेत्र पर सीराकोट के सामंती रायका मल्ल राजाओं का शासन था। राजा हर मल्ल के समय तक यह क्षेत्र नेपाल के दोती राज्याधीन था। बाद में वर्ष 1449 में चंद शासक भारती चंद के समय यह क्षेत्र चंद शासकों के अधीन आया, जब उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के दोती राजाओं को परास्त कर दिया।

आज भी उनके प्राचीन किले एवं मंदिरों के अवशेष डीडीहाट से दो किलोमीटर दूर सीराकोट किले तथा मंदिरों में देखे जा सकते है। इस किले के बाहरी भाग में राजा का आवास था जबकि शिव एवं भैरव के मंदिर अंदर ही थे। वे अब नष्ट होने के कगार पर हैं।

चंद शासकों की प्रधानता 12वीं सदीं में आयी तथा उन्होंने कुमाऊं पर वर्ष 1790 तक शासन किया। अंतिम चंद शासक महेंद्र सिंह चंद था जिसने राजबंगा (चंपावत) से शासन किया। वर्ष 1790 में, स्थानीय तौर पर गोरखियाल के नाम से जाने जानेवाले गोरखों ने कुमाऊं पर कब्जा कर चंद वंश को समाप्त कर दिया।

 दमनकारी गोरखा शासन वर्ष 1815 तक रहा जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें परास्त कर कुमाऊं को अपने अधीन कर लिया। वर्ष 1947 में भारत की स्वाधीनता के बाद कुमाऊं उत्तर प्रदेश राज्य का एक भाग बना।

 चीनी आक्रमण के बाद फरवरी 24, 1960 को अल्मोड़ा जिले के एक बड़े भाग को काटकर पिथौरागढ़ जिला बनाया गया जिसमें दूरस्थ सीमा क्षेत्रों को शामिल किया गया जिसका मुख्यालय पिथौरागढ़ में ही था। वर्ष 2000 में पिथौरागढ़ नया राज्य उत्तराखंड का भाग बना।



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डीडीहाट कैलाश-मानसरोवर यात्रा मार्ग पर है तथा इस क्षेत्र को हमेशा से देवों से आशीर्वाद प्राप्त माना गया है। प्राचीन बहुत से साधु एवं संत इस क्षेत्र से गुजरे होंगे।यह भी कहा जाता है कि पांडव भी अपने 14 वर्ष के वनवास में यहां आये थे।

डीडीहाट का एक आकर्षक भाग, वास्तव में पंचाचूली हिमालय की पहाड़ी भूमि पर पांच चूल्हा के नाम पर आया है जहां स्वर्गारोहण यात्रा से पहले अंतिम बार पांडवों ने भोजन पकाने के लिये पांच चूल्हा जलाया था।डीडीहाट की संस्कृति पर नेपाली तथा तिब्बती संस्कृति का प्रभाव है।

 यह मूल कुमाऊंनी संस्कृति तथा सदियों पहले मैदानों से आकर बसे लोगों की संस्कृति का मिश्रण है जो उत्तरी प्रभाव के हैं।10 से 25 मिलीमीटर मोटी पत्थरों की दीवालों, स्लेटों के छतों जहां जाने (चढ़ने) की हो। एक सकरी सीढ़ी बनी हो, ऐसे घर अब बहुत कम हैं। निचली मंजिल पर जहां पहले मवेशी रहते थे अब वह भंडार घर बन गया है। आज उत्तरी भारत के मैदानों की तरह सीमेंट एवं कंक्रीट के निर्माणों का चलन हो गया है।

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पहाड़ों की निर्जनता/सुदूरता ने इस क्षेत्र के लोगों को अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा को नृत्य एवं गीत द्वारा अक्षुण्ण बनाये रखने को सुनिश्च्ति कर दिया है।

अधिकांश गीत एवं नृत्य धार्मिक या फिर लोगों की परंपरागत जीवन शैली से संबंधित हैं।प्रत्येक समारोह में लोकगीत एवं नृत्य होते हैं। इस अवसर पर विभिन्न देवताओं को निमंत्रण एवं उपस्थित होने के लिये भक्तिगीत या जागर गान होता है।

पुरूष एवं महिलाएं दोनों मनोरंजक नृत्य में भाग लेते है, जिसे चांचरी कहते हैं जो समूह नृत्य एवं गान होता है।विवाहों एवं मेलों के अवसर पर होने वाला नृत्य छोलिया, एक युद्ध कला का प्रदर्शन होता है।

 दो या इससे अधिक लोग एक हाथ में ढोल तथा दूसरे हाथ में तलवार लेकर नृत्य मुद्रा में एक दूसरे पर आक्रमण तथा बचाव की भंगिमा पेश करते हैं तथा ढोल, दामौ एवं रणसिंगे तथा तुरही की धुनों पर थिरकते हैं।

इस क्षेत्र में लोक भाषा की धनी परंपरा है जिनका संबंध स्थानीय/राष्ट्रीय किंवदन्तियों, नायकों, बहादुरी के कार्यों तथा प्रकृति के विभिन्न पहलुओं से रहता है। गीतों का संबंध पृथ्वी के सृजन, देवी-देवताओं के कार्यकलापों, स्थानीय वंशों/नायकों तथा रामायण एवं महाभारत के चरित्रों से रहता है।

 सामान्यत: ये गीत स्थानीय इतिहास की घटनाओं पर आधारित होते हैं तथा सामूहिक कृषि-कार्यों के दौरान भड़ाऊ गान तथा विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक अवसरों पर अन्य गीत गाये जाते हैं। इसी प्रकार भोटिया जनजाति के शौका का अपना लोकगीत तथा नृत्य होता है। उन्हें मुख्यत: उत्सवों तथा सामाजिक सांस्कृतिक समारोहों में गाया जाता है।
विवेक पटवाल जी के सौजन्य से

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