Tourism in Uttarakhand > Tourism Places Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के पर्यटन स्थलों से सम्बन्धित जानकारी

Etymology Of Various Places - कैसे पड़ा उत्तराखंड के विभिन्न जगहों का नाम

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
कैसे पड़ा उत्तराखंड के विभिन्न जगहों का नाम पौराणिक एव ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर
 
Dosto,

Our Devbhoomi Uttarakhand has temples in step-to step. There are innumerable mythological stories of God and Goddess in Uttarakhand where some kinds of miracles had been shown by them.  Also, there are various places in Uttarakhand which have been named after God and Goddess miracles and based on some mythological / historical stories related to it.

We will give information about such places of Uttarakhand here which have been named after mythological and historical.

Hope would also join us in sharing this information under this thread.

Regards,

M S Mehta    

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

कैसे पड़ा बागेश्वर के नाम बागेश्वर - धार्मिक कहानी
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उत्तराखंड पर्यटन के लिहाज से पूरे देश में खासा महत्व रखता है | यहाँ के पर्यटक स्थलों की ख्याति दूर दूर तक फेली है | जिस कारन साल दर साल यहाँ आने वाले पर्यटकों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है | एक बार यहाँ की वादियों में घूमा पर्यटक दुबारा घूमने की चाह लिए फिर से कामना किया करता है |

सरयू नदी के तट पर बसे बागेश्वर धाम को उत्तराखंड का काशी कहा जाता है|इस तीर्थ की महिमा का वर्णन कर पाना किसी के लिए सम्भव नही है | सरयू के तट पर इस तीर्थ पर भक्तो को मुह मागा वरदान मिल जाता है ऐसा विश्वास किया जाता है |यहाँ पर की गई स्तुति व्यर्थ नही जाती और मन वंचित कामना पूरी होती है|ऐसा प्राचीन समय से कहा जाता है| सदियों से ऋषि मुनियों की तपस्थली रही इस पावन नगरी का पुराणों में भी वर्णन मिलता है |

पुराणों के अनुसार जब भोलेशंकर भगवान शिवशंकर अपनी पत्नी पार्वती के साथ यहाँ पर पधारे तो वह कोई संगम न देखने से मायूस हो गए | यहाँ पर बताते चले की तत्कालीन समय में यहाँ पर गोमती नदी बहती थी जिसके तट पर लखनऊ बसा है | संगम हेतु शिवशंकर भगवान ने वशिस्ट को आदेश दिया की वह यहाँ पर सरयू नदी को उतरे| आदेश का पालन करते हुए वशिस्ट मुनि सरयू लाने चल दिए | लेकिन ऐसा प्रसंग मिलता है की जब वह वापस लौट रहे थे तो बागेश्वर में कार्केंदेस्वर पर अचानक सरयू नदी पर अवरोध आ गया क्युकी नदी के प्रवाह मार्ग पर मार्कंडेय ऋषि का आश्रम था | मुनि का धयान भंग हो जाने से वशिस्ट शाप के डर से काफी दुखी हुए|


कहा जाता है तब वशिस्ट ने शिवशंकर भगवान का स्मरण किया और भोलेनाथ की शरण में जाकर उनसे सहायता मांगी |शंकर ने बाघ और पार्वती गाय का रूप धारण कर मार्कंडेय ऋषि के सामने उतरने का संकल्प किया |दोनों उनके सामने प्रकट हुए| बाघ और गाय के द्वंद युद्ध को देखकर मार्कंडेय ऋषि का तप भंग हो गया और वह अपना आसन छोड़कर गौ माता की रक्षा को दौडे| इसी दौरान सरयू को मार्ग मिल गया | मारकंडेश्वर की उस शिला को आज भी उन्ही के नाम से जाना जाता है| सरयू के आगे बढते मार्कंडेय ऋषि को शिवशंकर भगवान् और उनकी पत्नी पार्वती ने दर्शन दिए| मार्कंडेय ऋषि ने ही इस स्थान का नाम "व्यग्रेश्वर " रखा जो आगे चलकर बागेश्वर हुआ |

इस पावन बागेश्वर की बागनाथ नगरी की महिमा बड़ी निराली है| यहाँ पर आज व्याघ्रः अर्थात बाघ के रूप में शिवशंकर भोलेनाथ भगवान् का स्मरण किया जाता है | इस तीर्थ का वर्णन इस धारा का कोई प्राणी नही कर सकता |धार्मिक मान्यताओ के मुताबिक इस धारा पर दाह संस्कार करने से मरे व्यक्ति को सवर्गकी प्राप्ति होती है | बागनाथ की स्थापना "कत्यूर और चंद" राजाओ के शासन में हुई|ऐसा माना जाता है की चंद वंश के "रुद्रचंद" के बाद रजा "लक्ष्मी चंद" ने १६०२ में बाघ्नाथ मन्दिर जीर्णोधार कर उसको वृहत रूप प्रदान किया | छोटे शिव मन्दिर ने लक्ष्मी चंद के प्रयासों से ही विशाल रूप ग्रहण किया | यह मन्दिर स्कन्द पुराण के मानसखंड में सम्पुण निर्माण कथा और गाथाओ के समेटे हुए है|यही नही बागनाथ के विषय में बहुत सारी लोक कथाये भी प्रसिद्ध है | राजुला मालूशाही में भी बागनाथ के प्रसंगों का वर्णन मिलता है |

१४ जनवरी को पंजाब में लोहडी मनाई जाती है| पूरे देश में इसको मकर संक्रांति के नाम से जानते है | मनाने का तरीका अलग अलग होता है| उत्तराखंड में भी इस त्यौहार का खासा महत्व है | कुमाउनी इलाकों में इसको"पुसुडिया" " नाम से जानते है जिसमे "काले कौए" को पूरी बड़े खिलाने की परम्परा सदियों से चली आ रहे है| इस दिन बच्चे सुबह से अपने घरो में माला डालकर कौए को बुलाते है |"उत्तरायनी " पर्व की गाथाये भी बागनाथ के सम्बंद में विशेष महत्त्व की है | यहीं पर " भीष्म पितामह " ( जिनका नाम आपने महाभारत में सुना होगा ) ने सर सहीया पर लेटकर सूर्य के उत्तरायनी में जाने पर सरीर त्यागा था |इस लिहाज से इस स्थल का महत्त्व बहुत है|हर शिवरात्रि को यहाँ पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है | मकर संक्रांति के दिन सावन में यहाँ पर विशाल मेला लगता है जहाँ पर बड़ी संख्या में लोग नहाने को पहुचते है|

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

अल्मोडा शहर का नाम अल्मोडा कैसे पड़ा
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अल्मोडा के निकट कटारमल का मंदिर है ! कत्यूरी राजा कटारमल ने बड़ादित्य का सूर्य मंदिर बनवाया ! इस मंदिर में वर्तनों के सफाई के लिए भिमोड़ा नामक घास ( अल्मोडा, चिल्मोडा, भिल्मोडा, किल्मोड़ा, प्रभाती अमल घास पतिया खासिखोला के पुराने बाशिंदे जिनके अल्मोडिया कहते थे, वे रोज -२ कटारमल पहुचते थे ! खस जाति का गाव उस समय पर अल्मोडा शहर पर था जो की अब अल्मोडा ने नाम से जाना जाता है ! जो शहर पहले खासियाखोला कहलाता था ! यह इस घास को अल्मोडिया कहलाये और शहर उनके नाम से  ही अल्मोडा प्रसिद्ध हुवा !

Soure of iइन्फोर्मेशन : कुमोँन का इतिहास पेज ८४

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

बिंसर महादेव
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बिंसर महादेव मंदिर 2480 मी. ऊंचाई पर स्थित है। यह पौढी से 114 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह जगह अपनी प्राकृतिक सौन्दर्यता के लिए जानी जाती है। यह मंदिर भगवान हरगौरी, गणेश और महिषासुरमंदिनी के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मंदिर को लेकर यह माना जाता है कि यह मंदिर महाराजा पृथ्वी ने अपने पिता बिन्दु की याद में बनवाया था। इस मंदिर को बिंदेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:


अगस्तमुनि-

रूद्रप्रयाग से अगस्तमुनि की दूरी 18 किलोमीटर है। यह समुद्र तल से 1000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित है। यह वहीं स्थान है जहां ऋषि अगस्त्या ने कई वर्षों तक तपस्या की थी। इस मंदिर का नाम अगस्तेश्रवर महादेव ने ऋषि अगस्त्या के नाम पर रखा था। बैसाखी के अवसर पर यहां बहुत ही बड़ा मेला लगता है। अधिक संख्या में श्रद्धालु यहां पर आते हैं और अपने ईष्ट देवता से प्रार्थना करते हैं।

टिहरी और गढ़वाल दो अलग नामों को मिलाकर इस जिले का नाम रखा गया है। जहाँ टिहरी बना है शब्द ‘त्रिहरी’ से, जिसका मतलब है एक ऐसा स्थान जो तीन तरह के पाप (जो जन्मते है मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्द बना है ‘गढ़’ से, जिसका मतलब होता है किला। सन् 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा राज्य करते थे जिन्हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था।

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