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Jauhar Valley Uttarakhand-जोहार घाटी

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

Dosto

Our member Mr Keshav bhatt has recently visited Jauhar Valley.. He has given this information about Jauhar Valley.

Keshav Bhattजोहार घाटी से ऊँटा धूरा दर्रा के दोनों ओर -4 लगभग 4000मी. की ऊंचार्इ पर है मिलम गांव। कभी 500 मकानों का मिलम गांव अब खंडहर सा हो चुका है। बीते वक्त में गांव की गलियां भूलभूलैय्या सी थीं। इस गांव के बारे में कहावत थी कि, गांव में नर्इ दुल्हन के साथ परिवार का एक सदस्य कुछ माह तक रास्ता दिखाने के लिए रहता था। वक्त के बीतते-बीतते अब खिड़की-दरवाजों की बेहतरीन नक्काषी भी गायब दिखी। दरवाजों के साथ ही छत की बलिलयां भी ना जाने कहां लुप्त हो गर्इ थी। आलू के अलावा अब खेतों में जड़ी-बूटी भी उग रही थी।

 मिलम में गोरी नदी के किनारे किलोमीटर भर वाला लंबा मैदान है। कभी इसमें गांव वाले खेती करते थे। वक्त गुजरने के साथ ही ये अब बंजर हो गया है। कुछ खेतों में आर्इटीबीपी के जवान वक्त काटने वास्ते आलू व अन्य कुछ उगाने की मेहनत कर लिया करते हैं। मिलम गांव के ज्यादातर परिवार बाहर ही बस गए हैं। मिलवाल, रावत, पांगती, धर्मषक्तु, निखुरपा, नित्वाल, धमोत के वंषज मिलम को सदियों पहले छोड़ चुके हैं। प्रवास पर अब बहुत कम परिवारों का ही आना हो पाता है।

M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

From - Keshav Bhatt

जोहार के बारह गांवों के हालात अब मेहमानदारी लायक भी नहीं रहे। कर्इ मकानों की सिर्फ दीवारें ही बचीं हैं। इन खंडहर हो चुके मकानों के अंदर अब खेती होती है। प्रवास पर आने वालों ने दूर गोरी किनारे के खेतों को आबाद करने के बजाय एक बेहतरीन उपाय निकाल खंडहर हो चुके मकानों के अंदर ही जड़ी-बूटी के साथ ही मौसमी सबिजयों की क्यारियां बना ली हैं। 1962 से पहले भारत का जब तिब्बत के साथ व्यापार होता था तब इन गांवों की चहल-पहल देखने वाली होती थी। बुजुर्ग बताते हैं कि मानसरोवर जाने के लिए ये मार्ग छोटा है लेकिन दर्रों की वजह से कर्इ कठिनाइयां आती हैं। पषिचमी तिब्बत की सबसे बड़ी मंडी ग्यानिमा जिसे खार्को के नाम से भी बुलाते थे यहां से 105 किमी की पैदल दूरी पर है। तब के जमाने में जुलार्इ व अगस्त दो माह के लिए इस मार्ग से व्यापारियों का कारवां चलता था। अब इस पढ़ाव में गहरी खामोषी पसर गर्इ है। गांव से लगभग तीनेक किलोमीटर की दूरी पर हरदयोल षिखर के वक्षस्थल पर ही है मिलम ग्लेषियर। नौ ग्लेषियरों से मिलकर करीब आधा किलोमीटर चौड़ा तथा 18 किमी लंबा बना है मिलम ग्लेषियर।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
अंधेरा घिरने लगा तो वापस गांव के ठिकाने को चले। इस बार सायद पांच परिवार ही मिलम में प्रवास पर आए थे। पहले मुनस्यारी के ल्वां, बिल्जू, टोला, मिलम, मर्तोली, बुर्फु, मापा, रेलकोट, छिलास आदि गांवों के हजारों सीमांतवासी अपने ग्रीश्मकालीन प्रवास के लिए उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बसे अपने गांवों में जाने पर आलू, जम्बू, पल्थी, कालाजीरा आदि महत्वपूर्ण फसलों की बुआर्इ करते थे। जानवरों का चुगान बुग्यालों से हो जाता था। फसल और जानवर ही इनकी आर्थिकी का एक प्रमुख साधन होते थे। इन्हीं से उनके परिवार की गुजर-बसर अच्छे ढंग से हो जाती थी। लेकिन अब संसाधनों के अभाव के साथ ही इस दुरूह क्षेत्र में आने वाली परेषानियों को देख कम ही लोग जोहार में जाते हैं।



by Keshav Bhatt Bageshwar.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Keshav Bhatt 

जोहार घाटी से ऊँटा धूरा दर्रा के दोनों ओर-7

      ग्वा³ख नदी के उप्पर लकड़ी के बलिलयों के उप्पर टिन बिछाकर पुल बना मिला। बांर्इ तरफ से लसरगाड़ भी उफनाती हुर्इ ग्वा³ख नदी में समा रही थी। ऊंचार्इ की वजह से चलने की रफतार भी धीमी हो गर्इ थी। चलते-बैठते साम पांच बजे करीब बमरास पहुंचे तो तंबू तान दिए। बादल घिरने के साथ ही बूंदे गिरने लगी। आधा घंटा बरसने के बाद मेघों ने अपना रास्ता पकड़ा तो सुकून सा मिला। बमरास में रूकना उचित नहीं लगा। यहां पर उप्पर पहाड़ी काफी तीखी है। इन पहाडि़यों से इतने पत्थर टूट कर नीचे बिखरे थे कि वो पत्थर ही खुद में अच्छे खासे पहाढ़ प्रतीत हो रहे थे। मौसम साफ होने से थोड़ा भय कम जान पड़ा।

 ऊंटाधूरा दर्रे को पार करने के लिए सुबह जल्द ही बमरास से निकल पड़े। लगभग दो घंटे तक तिरछी चढ़ार्इ में कंकड़ों के पहाड़ में से होकर चलना हुवा। हमारे दाहिने ओर की ऊंची पहाडि़याें से टूटकर आए पत्थरों से बने पहाड़ में चलना काफी दु:खदायी हो रहा था। कभी कभार एक कदम आगे रखते तो फिसलकर दो कदम पीछे आ जाते। आगे दृष्य खुलता सा दिखा तो कदम तेजी से उठने लगे। योगेष आगे दूर से जल्दी आने का इषारा कर रहा था। सामने परी ताल था। लगभग 500 मी. की परिधी में फैला है खूबसूरत परीताल। इसकी खूबसूरती की वजह से इसका नाम सार्थक जान पड़ा। इस रास्ते से जब पहले व्यापारी तिब्बत को आते-जाते थे तब बमरास से परीताल के बीच के रास्ते को 'षीकनडानी की चढ़ार्इ के नाम से जानते थे। ऊंटाधूरा के दाहिनी ओर हल्की बर्फ की सफेदी दिख रही थी। परीताल की खूबसूरती देख मन में बात उठी की काष कल बमरास की जगह यहीं पढ़ाव डाला होता। यहां काफी देर तक बैठे रह गए।
      योगेष की सीटी ने उठने को मजबूर कर दिया। ये चलने का इषारा था। आगे कुछ समतल में चलने के बाद बांर्इ ओर से हमने ऊंटाधूरा की चढ़ार्इ में चलना षुरू किया। बर्फ की मार झेलते-झेलते इस पहाड़ के पत्थर भी टूटे व कमजोर से दिख रहे थे। आसमान में बादलों व सूर्य के बीच आंख-मिचौली चल रही थी। योगेष, संजय व मनोज आगे-आगे चल रहे थे। मैं और नीतिन धीरे-धीरे ऊंटा धूरा की चढ़ार्इ चढ़ रहे थे। ऊंटाधूरा की चढ़ार्इ मुषिकल से सवा मील की ही होगी, लेकिन ऊंचार्इ पर पतली हवा के कारण फेफड़ों को काफी काम करना पड़ रहा था।
      घंटे भर के बाद ऊंटाधूरा का टाप दिखने लगा था। इस बार दम भी फूलने लगा था। ज्यों-ज्यों हिमालय नजदीक आता दिखा, ऐसा लगा कि उन पर्वतों में भी आकाष छूने की एक होड़ मची है जो हिमालय के पास होते हुवे भी बर्फ से वंचित हैं। इन पहाड़ों से गुजरते वक्त अपने भीतर उनके अंष जो समाते चले जाते हैं उसे व्यक्त कर पाना गूंगे के गुड़ खाने जैसा है। बर्फमय जगत में इतना आकर्शण क्यों होता होगा! परीताल के उप्पर अचानक सूर्य व बादलों के समागम में इन्द्रधनुश उल्टा बना दिखा तो हम चिहुंके। पहली बार ये नजारा देखने को मिला। हमारी थकान कुछ पल के लिए काफूर हो गर्इ। वहीं बैठ गए ये नजारा देखने को। दूर योगेष सीटी  बजाते हुए खुषी से हाथ हिला रहा था। हमारी ओर से कोर्इ प्रतिक्रिया ना मिलने पर वो नीचे को आ गया। हम दोनों थोड़ा पस्त से हो गए थे। उसने और मनोज ने हमारा रूकसैक ले लिया। हमें थोड़ी राहत मिली। चाल में थोड़ी सी तेजी आ गर्इ। ना जाने क्यूं ये चढ़ार्इ अब मीठी सी लगने लगी थी।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Keshav Bhatt  जोहार घाटी से ऊँटा धूरा दर्रा के दोनों ओर - 6
 सुबह नाष्ता करने के बाद 4040 मी. की उंचार्इ पर दुंग को चल पड़े। दुंग यहां से लगभग 12 किमी है। रास्ता धीरे-धीरे उंचार्र्इ लिए है। अब यहां गोरी नदी से बिछड़ना हो गया। इस रास्ते में तिब्बत से आ रही ग्वा³ख नदी के साथ-साथ उप्पर-नीचे होते हुए रास्ता है। तिब्बत के सरहदों की परवाह किए बिना ये नदी मस्तानी चाल में बह रही थी। इस नदी को गनसूखा गाढ़ भी यहां कह रहे थे।
      रास्ते में नदी के पास भरलों का झुंड अठखेलियां करता दिखा। रास्ते को ठीक करते पीडब्लूडी के दो बुढ़े-जवान भी मिले। लोहे का पुल पार कर हम नदी के दूसरी ओर आ गए। उप्पर दूर दुंग की जगह दिखार्इ देने लगी। दुंग पहुंचते ही एक जवान ने हमारी तलाषी की कार्यवाही पूरी की। यहां के इंचार्ज रमेष साहब बड़ी ही गर्मजोषी से मिले। हमें एक कमरा देने के बाद उन्होंने मीठी नाराजगी जताते हुए षिकायत की कि यदि सुबह मिलम पोस्ट को अपनी रवानगी की सूचना दे देते तो हम लोग नीचे तक आप लोगों को लेने आ जाते। हमारे मलारी अभियान की वजह वो आंखिर तक तलाषने में जुटे रहे। जबकि हम उन्हें आष्वस्त करते  ही रह गए कि गढ़वाल व कुमाऊं के इस दर्रे को पार करने के साथ ही यहां के इतिहास को देखना-समझना भर ही हमारी साहसिक यात्रा का उदेष्य है। लेकिन यहां बार्डर में तैनात पोस्टें हमें अंत तक सरकारी चुगुलखोर ही समझती रहीं। उन्हें ये डर लंबे वक्त तक सालता रहा कि हम ना जाने क्या कुछ चुगली सरकार से कर दें।
    षाम को जवान बालीबाल खेलने लगे तो हमारे साथियों ने भी एक-आध हाथ आजमा ही लिए। सुबह रमेष साहब से विदा ली। वो बुढ़ा दुंग की तरफ की रैकी कर आ रहे थे। उन्होंने हमें बताया कि हमारे दल के रवाना होने की जानकारी आगे हैड क्वाटर में भेज दी है। मौसम ठीक है। हम धीरे-धीरे बुढ़ा दुंग की चढ़ार्इ में बढ़ने लगे। हरी मखमली घास से थकान भी गायब हो जा रही थी। बीच में एक बड़े नाले ने रास्ता ही गायब कर दिया था उसे सकुषल पार कर बुढ़ा दुंग पहुंचे। 1998 में गाइड के बीमार होने पर हमें यहीं बूढ़ा दुंग से वापस लौटना पड़ा था। आज यहां पहुंचने पर खुषी हुर्इ कि वो अधूरी यात्रा अब पूरी होगी।   
 मनोज ने सामने की ओर हाथ उठाकर बताया कि वो बमरास है। हमें दुंग से बमरास लगभग नौ  किमी. बताया गया।  लेकिन बमरास पहुचने पर लगा कि इसे दुंग से लगभग छह किमी ही होना चाहिए। बुढ़ा दुंग से आगे सिमलडांडी तक का रास्ता बुग्याली घास से पटा हल्का समतल सा है। सामने तिब्बत की ओर का पहाड़ बड़ा ही आकर्शक दिखा। एक रोमांच...... हम महान तिब्बत के बगल में हैं। तिब्बत..... एक अदभुत... रहस्मयी लोक। कर्इ किस्से सुने थे तिब्बत के..... यहां के लोग लंबे-चौड़े होते हैं। अकसर हवा में भी उड़ते हैं। यहां लामा अदभुत षकितयों वाले होते हैं। लेकिन ये किस्से मात्र किस्से ही रह गए। तिब्बत के षांति प्रिय लोगों को चीन ने चैन से कभी जीने ही नहीं दिया। लाखों लोगों के नरसंहार के बाद भी चीन की प्यास बुझी नहीं है। एक षांत पवित्र देष का जो हाल चीन ने किया है उससे पूरी दुनिया वाकिफ होने के बाद भी चुप है! तिब्बत में कब्जे के बाद वर्तमान दलार्इ लामा को 1959 में तिब्बत छोड़ भारत की षरण लेनी पड़ी। जिसकी खार चीन ने 1962 में भारत के साथ युद्व छेड़ कर निकाली। तिब्बत क्या था और अब क्या हो गया है, इस बारे में खुद दलार्इ लामा ने अपनी आत्मकथा 'मेरा देष निकाला में अदभुत मार्मिक व सच्चा वर्णन किया है। 

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