Author Topic: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट  (Read 83121 times)

सुधीर चतुर्वेदी

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Re: Lohaghat : Hill Station
« Reply #30 on: February 20, 2009, 03:36:54 PM »
बगवाल : देवीधुरा मेला

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देवीधुरा में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है । मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लेकिन आम सहमति है कि नह बलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल का आयोजन होता है ।

लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।

इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्धमें प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खास जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।

बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं । वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं । देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है । फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढ़ोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों? पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं ।

बगवाल का एक निश्चित विधान है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाढि कौतिक के रुप में एक माह तक लगभग चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परम्परागत पूजन होता है । बगवाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रुप से पूर्व से ही सम्बन्धित चारों खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल, वालिक तथा लमगडिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दुक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है । जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी । इस बीच अठ्वार का पूजन होता है । जिसमें सात बकरे और एक भैंस का बलिदान दिया जाता है ।

पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं ।

द्यीकों के अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बगवाल के लिए भेजती हैं । इन सबका मार्ग पूर्व में ही निर्धारित होता है । मैदान में पहँचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़ीया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलती है । फिर वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं ।

दोपहर में जब मैदान के चारों ओर भीड़ का समुद्र उमड़ पड़ता है तब मंदिर का पुजारी बगवाल प्रारम्भ होने की घोषणा शुरु करता है । इसके साथ ही खामों के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ होती है । ढ़ोल का स्वर ऊँचा होता जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं । धीरे-धीरे बगवाली एक दूसरे पर प्रहार करते मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं । फर्रों? की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है । जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं । पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँबर के साथ मैदान में आकर बगवाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है ।

बगवाल का समापन शंखनाद से होता है । तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर द्यौके धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से बिदा होते हैं । मंदिर में अर्चन चलता है ।

कहा जाता है कि पहले जो बगवाल आयोजित होती थी उसमें फर का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् १९४५ के बाद फर का प्रयोग किया जाने लगा । बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है ।

रात्रि में मंदिर जागरण होता है । श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है । कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं ।

वैसे देवीधुरा का वैसर्गिक सौन्दर्य भी मोहित करने वाला है, इसीलिए भी बगवाल को देखने दूर-दूर से सैलानी देवीधुरा पहँचते हैं ।
 

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Re: Lohaghat : Hill Station
« Reply #31 on: August 22, 2009, 04:50:32 PM »


बाणासुर किला।

इस किले का नाम रावण के वंशज तथा बली के पुत्र, हजार हाथों वाले राक्षस बाणासुर के नाम पर पड़ा है। बाणासुर एक शक्तिशाली एवं भयानक असुर तथा भगवान शिव का उपासक था।

बाणासुर की पुत्री ऊषा, सपने में ही भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरूद्घ के प्रति आसक्त हो गयी। अपनी सखियों की सहायता से उसने द्वारका से अनिरूद्ध का अपहरण करा लिया तथा गुप्त रूप से उससे विवाह कर लिया। जब बाणासुर को इसका पता चला तो उसने अनिरूद्ध को इसी किला मे बंदी बनाकर सांपों के साथ बांध दिया जिसके कारण भगवान श्रीकृष्ण ने उस पर बड़ी सेना के साथ आक्रमण कर दिया।
 युद्ध कई वर्षों तक चला और ऊहा-पोह में समाप्त हुआ क्योंकि भगवान शिव ने बाणासुर की सहायता की। उस युद्ध में कई देवों एवं असुरों को मरने से उनके खून से पृथ्वी लाल हो गई और यही कारण है कि लोहाघाट के आस-पास की भूमि लाल है तथा उनके खून से एक धारा बह चली और यही लोहावती नदी है।

युद्ध के ऊहा-पोह की स्थिति तब समाप्त हुई जब भगवान शिव के आग्रह पर भगवान श्रीकृष्ण ने बाणासुर के चार हाथ काटकर उसे जीवन दान दे दिया। भगवान श्रीकृष्ण, ऊषा का विवाह अनिरूद्ध से कराकर द्वारका ले गये। बाणासुर ने हिमालय की ओर जाकर भगवान शिव की आराधना में शेष जीवन अर्पण कर दिया।

समुद्र से 1,920 मीटर ऊपर स्थित इस किले का निर्माण मध्यकालीन युग में हुआ माना जाता है, यद्यपि बाणासुर की कथा संभवत: किले के निर्माण से पहले ही उस स्थान से संबद्ध था। इसी स्थान से लोहावती नदी का उद्गम हुआ तथा किले से हिमालय का मनोरम दृश्य देखा जा सकता है जो इसकी खड़ी चढ़ाई को देखने योग्य बना देता है।



सुधीर चतुर्वेदी

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Re: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट
« Reply #32 on: October 28, 2009, 01:31:47 PM »
लोहाघाट के आश - पाश के पर्यटक स्थल और आस्था के केंद्र  :>


१) बाराकोट ----    बाराकोट विकाश खंड लोहाघाट से १३ किमी की दुरी पर पिथोरागढ़ मार्ग (लिंक रोड) पर है | बाराकोट का लड़ीधुरा मंदिर काफी पर्सिद्ध है यह मंदिर काफी ऊचाई पर है यहाँ माँ भगवती और कालिका माता के मंदिर है| इस जगह पर हर वर्ष दीपावली से १४-१५ दिन पहले भव्य मेला लगता है|  काकर और बाराकोट गावो के लोग उस दिन माँ भगवती और माँ कालिका के डोले (रथ) लाते है अपने - अपने गावो से जिसमे सभी जगहों के भक्त शामिल होते है |


२) खैतिखान ----     खैतिखान, चम्पावत जिले के पाटी ब्लाक और तहसील मे आता है | खैतिखान की दुरी लोहाघाट से १४ किमी है यहाँ पर सूर्य देवता का मंदिर (उत्तराखंड मे काफी कम है) और हर वर्ष यहाँ पर नवरात्री के बाद अक्टूबर माह मे दीप महोत्सव का आयोजन होता है |


३) पुल्ला-चम्देवल -----     यह जगह लोहाघाट से १४-१५ किमी की दुरी पर है यहाँ हर वर्ष चैतोला का मेला लगता है|


४) मानेश्वर ------    यह स्थल चम्पावत और लोहाघाट के बीच मे टनकपुर-पिथोरागढ़ मोटर मार्ग पर है यहाँ हर वर्ष दुग्ध पशुओ के लिये मेला लगता है और यहाँ की ऊचाई से पूरे इलाके के दृश्य का आप मजा ले सकते है |


५) चम्पावत ------    यह स्थल लोहाघाट का जिला मुख्याला है जिसकी दुरी लोहाघाट से १३ किमी है आप यहाँ पर बालेश्वर मंदिर, नागनाथ, घटोत्कच मंदिर, गोलू देवता का मंदिर सहित चंदो शाशको की राजधानी रही चम्पावत का भ्रमण कर सकते है और यहाँ की बाल मिठाई भी पर्सिद्ध है (अल्मोडा के बाद) |


६) झुमा-धुरी मंदिर -----   यह मंदिर काफी ऊँची चोटी पर माँ भगवती (नंदा देवी) के लिये पर्सिद्ध है | यह स्थान लोहाघाट के पाटन गाँव मे है ( दूरी ३ किमी) यहाँ हर वर्ष नंदा देवी का मेला लगता है यहाँ पर भी रायकोट और पाटन गाँवो के लोगो दवारा डोला (रथ) लाया जाता है | इस मंदिर पर पहुचने पर आप पिथोरागढ़ और हिमालय पहाडो का और लोहाघाट शहर का मनमोहक दृश्य देख सकते है |

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Re: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट
« Reply #33 on: October 28, 2009, 08:08:44 PM »
बाणासुर के किले से दृश्य



लोहाघाट में,यहाँ से खेतीखान मार्ग पर करीब 6 किमी दूर स्थित कर्णकरायत नामक स्थान पर है। किले पर जाने किये डेढ़ किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई है, सुबह सुबह तबियत हरी हो गयी। बाणासुर का उल्लेख महाभारत काल में आता है जिसने श्रीकृष्ण जी के पौत्र का अपहरण करके उसे यहाँ छिपा रखा था।

 भगवान श्रीकृष्ण ने उसे खोज निकाला और उसके साथ युद्ध करके उसका वध कर दिया। किले के वर्तमान अवशेष 16वीं शताब्दी में चन्द राजाओ द्वारा निर्मित हैं जिन्होने उस समय यह किला मध्यकालीन (9वीं सदी) अवशेषों पर बनाया था।

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Re: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट
« Reply #34 on: October 28, 2009, 08:13:06 PM »
चौकोड़ी से लोहाघाट



चौकोड़ी से करीब 40 किमी दूर पाताल भुवनेश्वर नामक एक गुफा मन्दिर है। नास्तिकों के लिये भी यहाँ जाना उतना ही रोमांचक और सुखद है जितना कि आस्तिकों के लिये। किंवदन्ती है कि यहाँ पर पाण्डवों ने तपस्या की और कलियुग में आदि शंकराचार्य ने इसे पुनः खोजा।

इस गुफा में प्रवेश का एक संकरा रास्ता है जो कि करीब 100 फीट नीचे जाता है। नीचे एक दूसरे से जुड़ी कई गुफायें है जिन पर पानी रिसने के कारण विभिन्न आकृतियाँ बन गयी है जिनकी तुलना वहाँ के पुजारी अनेकों देवी देवताओं से करते हैं।


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Re: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट
« Reply #35 on: October 28, 2009, 08:18:06 PM »
हाट कालिका मंदिर



हाँ पर प्रसिद्ध हाट कालिका मन्दिर है जो हमारे ड्राइवर की कुल देवी भी हैं। उन्हीं के अनुरोध पर हमलोग यहाँ भी गये। यह मन्दिर कुमाऊँ रेजिमेन्ट का भी मुख्य मन्दिर है, यहाँ पर उनके द्वारा भी स्थापित कुछ स्मारक हैं।पिथौरागढ़ जाने का पुराना मार्ग यह भारत भर में स्थित शक्ति पीठों में से एक है

कुमाऊँ मण्डल का सबसे अधिक मान्यता वाला मन्दिर है। गंगोलीहाट से चलकर रामेश्वर होते हुये हमलोग घाट पहुँचे यहाँ से पिथौरागढ़ के लिये रास्ता अलग होता है। ड्राईवर साहब ने हमें पुराना झूलापुल भी दिखाया जिससे पुराने जमाने में लोग पैदल पिथौरागढ़ जाया करते थे। 

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Re: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट
« Reply #36 on: November 04, 2009, 06:54:16 PM »
Abbott Mount COTTAGE LOHAGHAT



Abbott Mount cottage is a colonial style lodge which offers four rooms with a kitchen and an independent toilet. The place has a picturesque church which is set among the forests and it offers excellent Himalayan views and is perfect for birding, nature treks and has an old cricket pitch with amazing views of the mountains.

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Re: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट
« Reply #37 on: November 04, 2009, 06:55:00 PM »
LOHAGHAT PADHAARNE PAR APKA HARDIK SWAAGAT HAI


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Re: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट
« Reply #38 on: November 04, 2009, 06:55:35 PM »
SHIVHLAYA LOHAGHAT


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Re: Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट
« Reply #39 on: November 04, 2009, 06:56:20 PM »
CEMENT FACTORY LOHAGHAT


 

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