Author Topic: Manikoot Parvat Uttarakhand,मणीकूट पर्वत उत्तराखंड  (Read 11279 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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मणीकूट पर्वत की गोद में मणीभद्रा व पंकजा नदियों के संगम स्थल पर स्थित है| इस स्थान पर भगवान सदाशिव ने समुद्र मन्थन से उत्पन्न हुए विष को अपने कण्ठ में धारण कर उस विष का प्रभाव शान्त करने के लिए तपस्या की थी।

श्री नीलकण्ठ महादेव का अत्यन्त प्रभावशाली यह मंदिर भगवानशिव को समर्पित है। इसकी नक्काशी देखते ही बनती है। अत्यन्त मनोहारी मंदिरशिखर के तल पर समुद्र मंथन का दृश्य चित्रित किया गया है ; और गर्भ गृह केप्रवेश-द्वार पर एक विशाल पेंटिंग में भगवान शिव को विष पीते भी दिखलायागया है। गर्भ गृह में फोटोग्राफी करने पर सख्त प्रतिबंध है।


 
भगवान् शिव का नाम नीलकंठ पडने के विषय में कहा जाता है किदेवकालमें एक श्राप के कारण देवताओं की शक्ति क्षीण हो गई और उसे वापस पानेके लिए देवों ने असुरों के साथ मिलकर मदरांचल पर्वत की मंथनी और वासुकी नागकी रस्सी बनाकर समुद्र का मंथन भगवान विष्णु के कच्छप अवतार कीपीठ पर रखकर किया था।

 समुद्र मंथन में सर्वप्रथम कालकूट नामक भयानक
ज्वालाओं से युक्त विष निकला जिससे पूरी सृष्टि में विष का प्रभाव होने लगातब चिंताग्रस्त देवों ने भगवान् शिव से इस समस्या के समाधान के लिए कहातो उन्होंने इस हलाहल (विष) को ग्रहण कर अपने कंठ में रोक लिया। विष केप्रभाव के कारण उनका कंठ नीला पड गया और विष की उष्णता से व्याकुल होकर शिवकैलास पर्वत से बिना किसी को बताए हिमालय में विचरण करते हुए मणिकूट पर्वतपर पहुंचे।

यहां पर मणिकूट, विष्णुकूट एवं ब्रह्मकूट पर्वत मालाओं के बीच
में स्थित मधुमती और पंकजा नदियों के संगम की शीतलता को देखकर वट वृक्ष केनीचे उन्होंने समाधि लगाकर 60 हजार साल तक तपस्या करके (विष) की उष्णता कोशांत किया।

 
 
60 हजार वर्ष बाद देवताओं और माता पार्वती के आग्रह पर समाधि से जागेभगवान नीलकंठ ने इस स्थल की शीतलता एवं पवित्रता को देखते हुए और कैलासपर्वत से वापिस लौटने से पूर्व संसार के कल्याण के लिए इस स्थान पर अपनेप्रतिरूप के रूप में स्वयंभू लिंग की स्थापना की थी जिसकी सर्वप्रथम पूजामाता पार्वती (सती) ने की थी।

तभी से यह पावन स्थल नीलकंठ महादेव के नाम से
पूज्यनीय है। ऐतिहासिक एवं धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यहांआदिगुरू शंकराचार्य ने यहां कुछ सालों तक रहकर नीलकंठ महादेव की तपस्या कीथी !




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Vew of Manikott parvat


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मणिकूट हिमालय व नीलकंठ महादेव के पौराणिक इतिहास को अनेक लेखकों ने स्कंद पुराण के केदारखंड से जोड़ने का प्रयास किया, परंतु केदार खंड के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस पुराण में कहीं भी मणिकूट नीलकंठ महादेव की चर्चा तक नहीं है। न ही यमकेशवर महादेव का वर्णन है। परंतु देवाधिदेव महादेव जी द्वारा प्रणीत ‘योगिनी यंत्र’ के नौवें पटल में मणिकूट तथा नीलकंठ महादेव का वर्णन मिलता है।

‘योगिनी यंत्र’ में भगवान शंकर व पार्वती संवाद है, जिसमें पार्वती भगवान शंकर से प्रश्न करती हैं और भगवान शंकर उनके प्रश्नों का उत्तर देते हैं। तत: प्रभाते देवेशि मणिकूटस्थ चौत्तरे
वल्ल भाख्या नदी पुण्या सर्व पापप्रमोचनी


अर्थात शिवशंकर पार्वती से कहते हैं कि प्रभात काल में मणिकूट के उत्तर की और सब पापों का नाश करने वाली बल्लभा नदी बहती है। बल्लभा नदी में माघ या फाल्गुन के महीने में चतुर्दशी में स्नान करने से महापातक नष्ट होते हैं और बल्लभा नदी में स्नान करने के पश्चात नीलकंठ के दर्शन करने से सात जन्मकृत पाप नष्ट होते हैं।

 मणिकूट पर्वत से तीन पवित्र नदियों के निकलने का उल्लेख मिलता है। ये नदियां नंदिनी, पंकजा व परमोत्तम मधुमती नदी हैं। इन नदियों की उपासना की गयी है और इन्हें पापों का नाश करने वाली, कल्याणकारी बताया गया है।



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मणिकूटस्थ पूर्वे तु नाति दूरे महेश्वरी।
विष्णु पुष्कारक नाम सर्वतार्थोभ्दवं जनम।।


अर्थात मणिकूट के पूर्व में थोड़ी ही दूर विष्णु पुष्कर नामक सर्व तीर्थो के जल से परिपूर्ण एक तीर्थ है। मणिकूटाचल में विष्णु भगवान हृयग्रीव का रूप धारण करके अवस्थित है। मणिकूट पर्वत की प्रार्थना करते हुए कहा गया है।


मणिकूट गिरिश्रेष्ठ पतिवर्ण त्रिलोचन।
त्वदधारोहणं कृत्वा द्रक्ष्यामि भवनं तथा।।


अर्थात ‘हे गिरिश्रेष्ठ मणिकूट तुम त्रिनेत्रधारी हो और आपका पीला वर्ण है।, तुम्हारे आरोहण करके मंदिरों का दर्शन करते हैं? मणिकूट पर्वत पर पूर्व अथवा उत्तर मुख करके चढ़ना चाहिए। मणिकूट पर्वत पर मुख्य रूप से भगवान विष्णु के अवतार हृयग्रीव विष्णु की उपासना की जाती है।


अजय तोमर



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इडासुर हयग्रीव मुरारे मधुसूदन।
मणिकूट कृतावास हयग्रीव नमोस्तुते।।

अर्थात हे इडासुर! हे हयग्रीव! हे मुरारे! हे मधुसूदन! हे मणिकूट में वास करने वाले! हे हृयग्रीव! मैं आपको नमस्कार करता हूं। मणिकूट पर्वत स्वयं शिवस्वरूप है। मणिकूट पर्वत को त्रिलोचन कहा गया है। मणिकूट पर्वत में नरसिंह व नागराजा की पूजा की महत्ता है। केदार खंड में चंद्रकूट पर्वत के ऊपर भगवती भुवनेश्वरी के मंदिर के होने का वर्णन है। कुछ लेखक चंद्रकूट व मणिकूट को एक ही नाम मानते हैं।

 यदि इसमें तर्कसंगत है तो पवित्र बल्लभ नदी कालिकुण्ड होकर घूटगड़ में हेमवती/ हिवल नदी में मिलती है। वर्तमान में मणिकूट पर्वत को एक चोटी तक सीमित करके नहीं रखा जाता बल्कि ऋषिकेश से हरिद्वार के मध्य गंगा तट के पूर्वी भाग के पर्वत मालाओं का शिख मणिकूट कहलाता है। लक्ष्मण झूला फूलचट्टी से लेकर बिंदुवासिनी गौरीघाट तक मणिकूट पर्वत का आधार क्षेत्र है। मणिकूट के निकटवर्ती पर्वतों को मणिकूट पर्वत श्रृंखला नाम दिया गया है।


 जहां मणिरत्नों का विशाल भंडार है तथा जो स्त्री पुत्र व धनधान्य दाता है। तपस्वी मणिकूट की परिक्रमा अलौकिक शक्तियों के संग्रह करने तथा परमात्मा प्राप्ति के लिए करते थे। गृहस्थ श्रद्धालु मणिकूट की परिक्रमा सांसारिक लाभ के लिए करते रहे हैं। अधिकांश श्रद्धालु पारिवारिक सुख, पुत्र प्राप्ति, धन सम्पदा चाहने हेतु करते रहे हैं।


मणिकूट परिक्रमा पहले एक ही दिन (सतवा तीज) मौन रहकर नंगे पैर भी की जाती थी, पदयात्रा को कठिन महसूस करने के कारण लोगों ने धीरे-धीरे इस यात्रा को त्याग ही दिया। हिमालय का महत्वपूर्ण क्षेत्र मणिकूट-हिमालय देवभूमि व तपोभूमि दोनों हैं। यहां महर्षि कण्व वंश के 33 ऋषि वेदमंत्रों के दृष्टा रहे हैं। इन ऋषियों का प्रमुख मुख्यालय कण्वाश्रम था।

 नीलकंठ महादेव, भुवनेश्वरी मंदिर झिलमिल गुफा, विंदवासिनी मंदिर जैसे पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्तमान समय में भक्तों के बीच प्रसिद्ध करने में संतो-साधुओं का योगदान है। कालीकुण्ड बाल कुवांरी मंदिर, गणेश गुफा आदि प्रसिद्धि बाहर के श्रद्धालुओं में धीरे-धीरे पहुंच रही है।

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सर्वशक्तिमान माता भुवनेश्वरी एवं त्रिलोकी नाथ नीलकंठ महादेव को अपने शिखर पर धारण करने वाले तपोस्थली ऊर्जावान, दिव्यगुरु तत्व को गर्भ में छुपाए हुए माता गंगा को अपने आगोश में संजोये हुए द्रोण, विन्वेकश्वर, महावगढ़ भैरवगढ़ी नागदेवगढ़ आदि पौराणिक पर्वत श्रंखलाओं के मध्य स्थिति, दैविक, दैहिक, भौतिक त्रिविध संतापों को दूर करने वाला दिव्य मानवों को आलौकिक शक्ति, भक्ति सुख शांति, मोक्ष व चमत्कारिक शक्ति प्रदान करने वाले पर्वतराज मणिकूट हैं।

 जिसकी अलौकिकता, दिव्यता व पवित्रता का वर्णन वेद और शास्त्रों में भी मिलता है। जिसमें स्थित प्रसिद्ध बारह द्वार हैं। इन बारह द्वारों का पूजन एवं परिक्रमा का शुभारंभ 25 फरवरी 2010 शुक्ल पक्ष, एकादशी प्रात: सूर्योदय से तथा समापन 26 फरवर्री 2010 द्वादशी सूर्यास्त को होगा। यह परिक्रमा साधारण परिक्रमा नहीं है। इस परिक्रमा का महत्व शिव परिक्रमा के तुल्य है।

 कठिन जरूर है लेकिन असंभव नहीं। मणिकूट परिक्रमा का उद्देश्य गुरुतत्व को जागृत करना, समस्त जीवलोक की सुख शांति एवं समृद्धि हेतु, विश्व शांति एवं कल्याण हेतु भारत की एकता, अखंडता, आदर्शता व सत्यता व समस्त विश्व मानव जाति के उत्थान एवं सत चरित्रतता प्रदान करना है।


पौराणिक प्रसिद्ध बारह द्वार
पाण्डव गुफा : लक्ष्मण झूला के निकट व मां गंगा के पवित्र तट पर स्थित बजरंग वली हनुमान जी तपस्थली तथा पांडवों की भी तपस्थली व भीम की गुफा के रूप में प्रसिद्ध स्थान।
गरुड़चट्टी : गरुड़ भगवान जी का गरुड़ पुराण का शुभारंभ व गुरु बृहस्पति गुरुत्व प्रदान क्षेत्र, साधना के लिए उपयुक्त स्थान।





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फूटचट्टी द्वार-मोक्षद्वार योगिनियों की घाटी, मणिकूट जलधारा तथा हेमवती (हवल) नदी का संगम।
कालीकुण्ड : मां भुवनेश्वरी व नीलकंठ महादेव के चरणों को धोने वाली नदी का झरना।
पीपल कोटी : भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मीजी की विश्राम स्थली।
हिंडोला, दिउली : मां भुवनेश्वरी की सहयोगी देवीय शक्तियों का हिंडोला।
कुशासील : देवा कुस्माण्डका का विचरण क्षेत्र व मणिकूट परिक्रमा का रिक्त क्षेत्र।
विंदवासिनी : माता विंदवासिनी का मंदिर, सिंह सवार मां का निर्जन क्षेत्र।
गोहरी : मोक्षद्वार तथा मणिकूट का गंगातटीय द्वार व नंदी का प्रिय क्षेत्र।
बैराज : वीरभद्र द्वार, शिवभक्त वीरभद्र का पूजित क्षेत्र।
गणेशद्वार : यहां पूर्व काल में गणेश पूजन होता था।
भैरवघाटी : भगवान नीलकंठ के प्रधानगणों एवं शिवभक्तों की चौरासी कुटिया क्षेत्र





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