Author Topic: Pauri: A Cultural City Of Uttarakhand - पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर  (Read 25112 times)

पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #30 on: May 14, 2008, 02:27:39 PM »
अड़वानी में देवदार का जंगल


Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #31 on: May 14, 2008, 02:30:14 PM »
Shriyant Taapu Srinagar main Alaknanda ke beech main sthit hai. Uttarakhand Andolan ke dauraan Chhatra aandolan karne ke liye is taapu pai pahunch gaye the aur yahan se unhone Naare buland kiye the.

Pankaj bhai +1 karma is aitihaasik shaher ki jaankaari ke liye.

श्रीयंत टापू की घटना उत्तराखण्ड आन्दोलन की मुख्य घटना थी. शायद श्रीयंत टापू भी पौडी और श्रीनगr के समीप ही स्थित है.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #32 on: May 14, 2008, 02:31:44 PM »
जांड्राजोल


पौड़ी के ऊपर, 6,500 फूट की ऊंचाई पर स्थित, जांड्राजोल एक सुंदर जगह है। गढ़वाली भाषा में जंड्रा पत्थर की चक्की को कहते हैं। इस जगह का नाम इसलिये पड़ा क्योंकि इस पहाड़ी का आकार जांड्रा जैसा है। यहां से आप हिमालय की चोटियों, फैली घाटियों और पहाड़ियों में जड़े सुंदर गांवों के दृश्य का आनंद ले सकते हैं। पहुंचने के लिये रांसी से आधा किलोमीटर चलना पड़ेगा।
 


बहुत अच्छी सूचना महर जी. पौडी के बारे मे

पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #33 on: May 14, 2008, 02:32:37 PM »


खिर्सू, (पौड़ी से १८ कि०मी०)

खिरसू एक ऐसा स्थान है, जिसे देखकर आप मान लेंगे कि पृथ्वी पर ही स्वर्ग है। देवदार, बलूत तथा बुरांस के जंगलों के बीच यह छोटा गांव हिमालय के सर्वाधिक आनंददायक स्थलों में से एक के सम्मुखीन है। पर्वत इतने निकट दिखते हैं कि आपको लगता है कि आप उन्हें छू सकते हैं। इनमें शामिल है गंगोत्री 1, 2, 3 जॉलीं ग्रांट; भृगुपंथ; केदार शिखर; केदार गुंबज; खार्जकुंड; सुमेरू; चौखंबा; नीलकंठ एवं त्रिशूल। गढ़वाल मंडल विकास निगम का अतिथि गृह से सर्वोत्तम दृश्यों में से एक देखा जा सकता है।


      गांव वास्तव में छोटा है तथा यहां कुछ लॉज एवं अतिथि गृह, कुछ दूकानें एवं भोजनालय भी हैं। पर प्रकृति प्रेमी के लिये बहुत कुछ है। यहां ढलान पर वन-विभाग का एक पार्क है और वहां नीचे उतरकर जाना आनंददायक है। बेंचों पर बैठकर आप आराम करते हुए आस-पास के परिवेश को देखते हुए आनंद उठा सकते हैं, जबकि अगर आपके साथ बच्चे हों तो वे पार्क में समय बिता सकते हैं।
       दूसरी ओर आप टहलकर खास गांव तक जा सकते हैं, जहां एक बड़ी खुली जगह के एक सिरे पर शिव को समर्पित एक छोटा मंदिर है। यहां एक निजी स्वामित्व का सेब का बगीचा भी है जो दर्शनीय है।

      खिरसू से 2 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर पैदल यात्रा कर उल्कागढ़ी पहुंच सकते हैं। इस यात्रा का बिंदु पौड़ी खिरसू सड़क पर दो गांवों में स्थित है; खिरसू से 1 किलोमीटर दूर चौबारा खाल तथा 4 किलोमीटर दूर फेड़ा खाल। घने बलूत एवं बुरांस एवं शताबरी फूलों से लदे पेड़ के बीच गुजरते हुए इस यात्रा में आपको निकट से प्रकृति को देखकर उसकी प्रशंसा करने का भरपूर अवसर देता है। इस पैदल यात्रा का अंत पहाड़ी के ऊपर ऊलकेश्वरी देवी मंदिर तक पहुंचकर होता है। ऊलकेश्वरी देवी का मंदिर खिरसू ब्लॉक की ग्राम देवी हैं जहां 100-150 गांवों के पूरे क्षेत्र में उनकी भक्ति की जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने गोरखा आक्रमण के दौरान लोगों को अपनी चीख द्वारा सावधान कर दिया था। लोग वहां खुद गहरे गढ्ढे में छिप जाते जिसके चिह्न आज भी हैं। मंदिर पर रामनवमी तथा दशहरा परंपरागत धूमधाम से मनाया जाता है।

      माना जाता है कि ऊल्कागढ़ी मंदिर का निर्माण वर्ष 1398 के आस-पास हुआ। तैमूरलंग के आक्रमण के फलस्वरूप हरिद्वार (कोटलागढ़) से परिवारों का पहाड़ी से पलायन हुआ तथा ऊल्केश्वरी देवी उनके साथ यहां आ गयीं। वे काली का अवतार हैं तथा कृष्ण के नाती अनिरूद्ध की पत्नी हैं। मूल मंदिर को गोरखों ने ध्वस्त कर दिया, जिसे बाद में पुनर्निर्मित किया गया। यहां जमीन पर एक टीला है जिसे शिवाल कहते हैं और यहीं मूर्ति का मूलस्थान था तथा इसे ही अब तेल, फूलों तथा वैवाहिक ऋंगार के जड़वा से पूजा जाता है। इस मंदिर का वर्णन स्कंद पुराण के केदार खंड में है।

पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #34 on: May 14, 2008, 02:36:26 PM »
श्रीयंत टापू की घटना उत्तराखण्ड आन्दोलन की मुख्य घटना थी. शायद श्रीयंत टापू भी पौडी और श्रीनगr के समीप ही स्थित है.

वर्तमान नाम श्रीनगर एक विशाल पत्थर पर खीचें श्रीयंत्र से लिया गया माना जा सकता है। जब तक श्रीयंत्र को प्रार्थनाओं से तुष्ट किया जाता रहा तब तक शहर में खुशहाली थी। जब लोगों ने इसे पूजना बंद कर दिया तो यह द्रोही हो गया। जो भी इस पर नजर डालता वह तत्काल मर जाता और कहा जाता है कि इस प्रकार 1,000 लोगों की मृत्यु यहां हुई। वर्तमान 8वीं सदी में हिन्दु धर्मोद्धार के क्रम में जब आदी शंकराचार्य श्रीनगर आये तब उन्होंने श्री यंत्र को ऊपर से नीचे घुमा दिया तथा इसे अलकनंदा नदी में फेंक दिया। यह आज भी नदी में ही है तथा लोग बताते हैं कि यह 50 वर्ष पहले तक जल के स्तर से ऊपर दिखाई देता था। इस क्षेत्र को श्री यंत्र टापू कहा जाता है।



हेम पन्त

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #35 on: May 14, 2008, 02:41:39 PM »
पौड़ी प्राकृतिक रूप से काफी समृध्द स्थान प्रतीत होता है... लेकिन पर्यटन के क्षेत्र में इस क्षेत्र को आगे बढाये जाने की जरूरत है...

पंकज दा! इतना महत्वपूर्ण स्टेडियम प्रयोग में क्यों नही लाया जा रहा है? क्या इस पर कुछ प्रकाश डाल पायेंगे?    

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snow fall in podi garhwal


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खिर्सू में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम

पौड़ी गढ़वाल। खिर्सू महोत्सव की दूसरी सांस्कृतिक संध्या गढ़ज्योति सांस्कृतिक कला मंच पौड़ी के नाम रही। मंच के कलाकारों ने गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, रंवाई आदि लोकगीत व लोकनृत्य प्रस्तुत किए।

दूसरी सांस्कृतिक संध्या पर गढ़वाली नृत्य हर्षू ममा.. व ले पोतुली को मास.., कुमाऊंनी अमा किलै गोरू उजाड़ तीलै लगायो.., जौनसारी नृत्य पाणी करि लेणा.. आदि की प्रस्तुति पर दर्शक जमकर थिरके।

हास्य कलाकार प्रेमबल्लभ पंत व अशोक रावत ने दर्शकों को खूब गुदगुदाया। गायन में सुनील, सम्पति, ममता पंत, नृत्य में आरती नौडियाल, सुदर्शन बिष्ट, अशोक, दीपक, सुप्रिया, मीनाक्षी आदि ने अभिनय किया। संगीत पक्ष में आर्गन पर कुलदीप कुंवर, ढोलक पर सार्दुल नेगी व अनिल बैरागी, साइड रिदम पर पंकज नेगी व हुड़के पर भक्ति घायल ने संगत दी।

मंच के अध्यक्ष भरत सिंह रावत ने कार्यक्रम का संयोजन किया। महोत्सव के तहत हो रही वालीबाल प्रतियोगिता में देवलगढ़ ने सिंगोरी को हराकर तथा खो-खो में डुंग्रीपंथ ने कटाखोली को हराकर अगले दौर में प्रवेश कर लिया है। सांस्कृतिक संध्या में ब्लाक प्रमुख आरती भण्डारी, जिला पंचायत सदस्य शशि नेगी, पूर्व जिला पंचायत सदस्य लखपत भण्डारी सहित तमाम क्षेत्रीय लोग उपस्थित थे।

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अलग पहचान के लिए प्रसिद्ध सुमाड़ी गांव
 
पौड़ी गढ़वाल। मध्य हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित पौड़ी जनपद का सुमाड़ी गांव कई मायनों में अपनी अलग पहचान रखता है। इस गांव कई आईएएस अफसर, सैन्य अधिकारी, डाक्टर व शिक्षक निकले हैं, जिन्होंने गांव का नाम राष्ट्रीय स्तर पर ऊंचा किया है।

इसके साथ ही इस गांव से कई ऐसे ऐतिहासिक तथ्य जुड़े हैं, जो इसे भिन्नता प्रदान करते हैं। पौड़ी से करीब 30 किमी दूर स्थित खिर्सू ब्लाक की कठूलस्यूं पट्टी का सुमाड़ी गांव कई मायनों में देश भर के उन गांवों की सूची में शामिल है, जो अपनी राष्ट्रीय स्तर पर अलग पहचान रखते हैं। इस गांव से अंग्रेजों के समय गढ़वाल में पहले आईएएस अधिकारी गोविंद राम काला बने थे।

इसके साथ शुरू हुई पहल बेमिसाल रही, जिससे अब तक गांव से 22 आईएएस अफसर बन चुके हैं। इतना ही नहीं, गांव ने चिकित्सा के क्षेत्र में भी झंडे गाडे़ है। चिकित्सा के क्षेत्र में पदार्पण की शुरुआत भी अंग्रेजों के शासनकाल में ही हो गई थी।

 सुमाड़ी गांव निवासी डा. भोलादत्त काला गांव के पहले चिकित्सक बने, जिसके बाद गांव से अब तक करीब 50 एमबीबीएस बन चुके हैं। इस गांव की नई पीढ़ी अब इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अपने झंडे गाड़ रही है। इतना ही नहीं गांव की प्रतिभाओं ने अन्य क्षेत्रों में भी परचम लहराया है। एयर मार्शल के पद से तीन साल पूर्व सेवानिवृत्त हुए वेद प्रकाश काला भी इसी गांव के निवासी है।

इस गांव से अब तक सौ लोग विभिन्न क्षेत्रों में पीएचडी की उपाधि हासिल कर चुके है। गांव से 15 प्रधानाचार्य सेवानिवृत्त हो चुके है। इस गांव से अब तक 500 शिक्षक बने है। वर्ष 1978-79 में डा. सतीश चंद्र काला को पदमश्री पुरस्कार मिल चुका है।

गांव से जुड़ा एक अन्य ऐतिहासिक तथ्य है, जो गांव को अलग ही पहचान प्रदान करते हैं। वह है पंथ्या दादा। माना जाता है कि टिहरी के राजा मेदनी शाह ने जब पूरे गढ़वाल में बेगार प्रथा लागू की और कई प्रकार के कर लगाए, तो सुमाड़ी गांव निवासी 14 वर्षीय पंथ्या राम काला ने इसका जमकर विरोध किया। इस पर आग बबूला हुए राजा ने कहा कि आदेश की अवहेलना होने पर गांव के आदमियों को अग्निकुंड में जलाया जाए।

इसके साथ ही आदेश दिया कि इसकी शुरुआत गांव के सबसे बडे़ परिवार से की जाए। संयोग से पंथ्या दादा का परिवार ही सबसे बड़ा निकला। बताते है करीब 350 साल पूर्व पंथ्या राम काला ने राजा के अधिकारियों को गांव में ही खूब-खरी खोटी सुनाई। उन्होंने अग्निकुंड में कूदकर अपनी जान दे दी। इससे आहत गांव के अन्य आठ लोगों ने उसी वक्त अग्निकुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी।

 इससे भयभीत होकर राजा ने अपना आदेश वापस ले लिया। साथ ही गांव में बेगार प्रथा व अन्य प्रकार के करों को भी समाप्त कर दिया। तब से हर साल इस गांव में पंथ्या राम काला की याद में धार्मिक अनुष्ठान आयोजित किया जाता है। गांव के वयोवृद्ध नित्यानंद कगडियाल एवं विमल काला बताते है कि तरक्की के साथ ही गांव से पलायन का ग्राफ भी बढ़ा है, लेकिन गांव आज भी हर क्षेत्र में विकास कर रहा है।

 

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