पौड़ी की सामाजिक सक्रियता का भी इतिहास रहा है तथा यहां के लोगों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। यहां वर्ष 1930 में सत्याग्रह आंदोलन, वर्ष 1932 में तत्कालीन गर्वनर जनरल मेल्कॉम हेली के विरूद्ध तथा वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान विरोध प्रदर्शन कर जुलूस निकाला गया, जो भारत की स्वाधीनता में पौड़ी का योगदान प्रदर्शित करता है। कुछ समय ही पहले यह पौड़ी ही था जहां उत्तराखंड के अलग राज्य के लिये आंदोलन शुरू हुआ जो यहां शुरू होकर राज्य के अन्य भागों में फैल गया। यह वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने तक चलता रहा।
एक सामाजिक कार्यकर्त्ता तथा महिला कल्याण समिति की अध्यक्षा श्रीमती शशि बहुगुणा, आंदोलन के प्रारंभ को उसी तरह याद करती है मानो यह कल की ही बात हो। “अगस्त 8, 1994 में शिवरात्री थी। इन्द्र मणि बडोनी तथा दिवाकर भट्ट जैसे कुछ लोग आरक्षण के लिये मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ सात-आठ दिनों से जिला कार्यालय (कलेक्टोरेट) के बाहर भूख हडताल पर थे।” वह याद करती हैं, “अकस्मात् पुलिस ने उन्हें घसीट कर रातों–रात मेरठ जेल में ले जाकर बंद कर दिया। उसमें कुछ वृद्ध लोग भी शामिल थे।” इसी बीच यह आदेश जारी हुआ कि सड़कों पर चार लोगों से अधिक लोगों का मिलना वर्जित है। जब पौड़ी के लोगों ने यह सुना, वे विभ्रांत एवं भयभीत हो गये।
शशि ने कुछ करना तय किया। उन्होंने महिला कल्याण संघर्ष समिति के कुछ अनुभवी सदस्याओं को बुलाया जिसमें श्रीमती नंदा नेगी, श्रीमती मोहिनी नैथानी एवं डॉ. बहुगुणा शामिल हुए एवं इन महिलाओं ने बद्रीनाथ-केदारनाथ धर्मशाला में मिलने का निश्चय किया। “हमलोग ने अपने घरों से अकेले या दो के झुण्ड में निकले, पर फिर भी हमें पुलिस द्वारा रोका गया। हमने उन्हें बताया कि हम मंदिर जा रहे हैं। कुल मिलाकर 11 महिलाओं ने धर्मशाला से निकलकर पताका लहराते हुए नारे लगाये। जैसे ही लोगों ने हमें देखा, वे सब घरों से बाहर निकल पड़े। ऐसा लगा मानों वे किसी और के आगे आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। युवा, वृद्ध, गृहिणियां एवं बच्चे सभी सड़कों पर उतर पड़े और हमने कलेक्टेरेट की ओर बढ़ना शुरू किया।”
इस बीच पुलिस ने इस उपद्रव से निपटने के लिये उत्तर प्रदेश से और पुलिस दल को बुला लिया। कुछ जगह जनता के क्रोध के प्रदर्शन के कारण यह विरोध हिंसक हो उठा। पुलिस अधीक्षक की गाड़ी जला दी गयी, एक सरकारी गाड़ी का चालक मर गया, लोगों ने पत्थर फेंक-फेंक कर कलेक्टेरेट के फर्नीचर तोड़ डाले। “मैं प्रतिनिधि मंडल की एक सदस्य थी जो अंदर जिलाध्यक्ष से मिलने गयी थी। मैं महिलाओं से बातें करने बाहर आयी कि लोगों ने मुझे घेर लिया। इस धक्का-मुक्की में मेरी कुछ हड्डियां टूट गयीं। क्रोध इतना अधिक था कि लोगों को रोक पाना कठिन था। जब जिलाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक ने मुझे बाहर निकाला और हड्डी टूटने पर मेरी सहायता करनी चाही तो भीड़ ने डंडों से उन्हें पीटा। पुलिस ने 108 चक्र गोलियां चलायीं, फिर भी स्थिति नियंत्रित नहीं हो पायी।”
इन सभी ऊहापोहों में ही कभी एक अलग राज्य की मांग उठ गयी। लोगों ने हमेशा ही महसूस किया कि उत्तर प्रदेश सरकार की नीतियां एवं कार्यक्रम पहाड़ियों के लिये यथेष्ट नहीं रहे हैं और इसलिये उन्होंने एक अलग राज्य की मांग की, ताकि वे अपने विकास के लिये स्वयं कार्यक्रम बना सकें। बाकी, जैसा वे कहते हैं अब इतिहास बन चुका है। यह विचार सभी को भा गया और पूरे राज्य में बड़े प्रदर्शनों की दौड़ शुरू हो गयी। इसका अंत वर्ष 2000 में उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) बनने पर ही हुआ।