Author Topic: Pauri: A Cultural City Of Uttarakhand - पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर  (Read 25113 times)

पंकज सिंह महर

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पौड़ी 1940 के दशक से पहले, जब पक्की सड़क यहां पहुंची, पद यात्रा के मार्ग पर एक महत्त्वपूर्ण चौराहा रहा है। दूर से देखने पर पौड़ी का आकार सीड़ीनूमा था क्योंकि घर एक के ऊपर एक सीडियों की तरह बने थे। यही से इसका नाम पौड़ी पड़ा– जिसका मूल शब्द पैड़ी है।

पुराने जमाने में डकारियों– भोटिया व्यापारी जो तिब्बत से कोटद्वार जाते थे– के लिये यह एक पड़ाव था। सम्भव है पौड़ी शब्द पौड़– बड़ी चट्टान– से भी बना।

एक स्थानीय इतिहासकार, डॉ. वाई. एस. कटोच के अनुसार, शिलालेख, जो वर्तमान में धारा रोड पर बने प्राकृतिक जल स्रोत वाले ढांचे में रखा है, 11वीं सदी में इस क्षेत्र में विशाल एवं भव्य शिव मंदिर होने का वर्णन करता है। उस समय वास्तव में पौड़ी नेगी ठाकुरों का गांव था जो पंवार वंश के गढ़वाल राजाओं के अधीन था। यह तथ्य कि पौड़ी गढ़ियों से घिरा है भी इसका प्रमाण है कि यह निश्चित ही एक प्राचीन जगह है।

वर्ष 1803 में, गढ़वाल राजाओं के भाग्य ने करवट बदली। उत्तरी भारत में गोरखों का धावा होता रहता था और उन्होंने अपने नियंत्रण क्षेत्र को बढ़ाने के लिए उस क्षेत्र में आये विनाशकारी भूकंप का लाभ उठाकर गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया। गढ़वाली राजा प्रद्युम्न शाह इसके लिए तैयार नहीं थे और उन्हें अपने जीवन एवं राज्य दोनों को खोने पड़े। 12 वर्षों तक गोरखों का दमनकारी शासन चलता रहा, पर वर्ष 1815 में प्रद्युम्न शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की सहायता से अपना राज्य फिर प्राप्त कर लिया। इस सहायता के बदलें मांगी गई राशि नहीं दे पाने के कारण उसने अपने राज्य का एक भाग अंग्रेजों को सौप दिया, जो ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक, पौड़ी ब्रिटिश गढ़वाल में बना रहा।

अंग्रेजों को पौड़ी से 32 किलोमीटर दूर गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर भी प्राप्त हुई। परंतु उन्होंने अपने क्षेत्र पर शासन केंद्र के लिए पौड़ी को ही चुना। (ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय आबादी नदी की घाटियों में बसना पसंद करती है, वहीं अंग्रेज ऊंचाई पर अपना घर बनाते हैं। इसका कारण पास के निचले इलाकों की अपेक्षा ऊपर की स्वास्थ्यप्रद जलवायु तथा सुविधा की स्थिति रही है।) वर्ष 1815 में इस प्रकार पौड़ी ब्रिटिश गढ़वाल का प्रशासनिक केंद्र बना एवं वर्ष 1940 में एक अलग जिला बना जहां नागरिक प्रशासन तथा पौड़ी के सहायक आयुक्त का कार्यालय खुला। कारणवश, पौड़ी शिक्षा, न्याय, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में विकसित हुआ।

पंकज सिंह महर

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पौड़ी की सामाजिक सक्रियता का भी इतिहास रहा है तथा यहां के लोगों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। यहां वर्ष 1930 में सत्याग्रह आंदोलन, वर्ष 1932 में तत्कालीन गर्वनर जनरल मेल्कॉम हेली के विरूद्ध तथा वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान विरोध प्रदर्शन कर जुलूस निकाला गया, जो भारत की स्वाधीनता में पौड़ी का योगदान प्रदर्शित करता है। कुछ समय ही पहले यह पौड़ी ही था जहां उत्तराखंड के अलग राज्य के लिये आंदोलन शुरू हुआ जो यहां शुरू होकर राज्य के अन्य भागों में फैल गया। यह वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने तक चलता रहा।

      एक सामाजिक कार्यकर्त्ता तथा महिला कल्याण समिति की अध्यक्षा श्रीमती शशि बहुगुणा, आंदोलन के प्रारंभ को उसी तरह याद करती है मानो यह कल की ही बात हो। “अगस्त 8, 1994 में शिवरात्री थी। इन्द्र मणि बडोनी तथा दिवाकर भट्ट जैसे कुछ लोग आरक्षण के लिये मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ सात-आठ दिनों से जिला कार्यालय (कलेक्टोरेट) के बाहर भूख हडताल पर थे।” वह याद करती हैं, “अकस्मात् पुलिस ने उन्हें घसीट कर रातों–रात मेरठ जेल में ले जाकर बंद कर दिया। उसमें कुछ वृद्ध लोग भी शामिल थे।” इसी बीच यह आदेश जारी हुआ कि सड़कों पर चार लोगों से अधिक लोगों का मिलना वर्जित है। जब पौड़ी के लोगों ने यह सुना, वे विभ्रांत एवं भयभीत हो गये।

शशि ने कुछ करना तय किया। उन्होंने महिला कल्याण संघर्ष समिति के कुछ अनुभवी सदस्याओं को बुलाया जिसमें श्रीमती नंदा नेगी, श्रीमती मोहिनी नैथानी एवं डॉ. बहुगुणा शामिल हुए एवं इन महिलाओं ने बद्रीनाथ-केदारनाथ धर्मशाला में मिलने का निश्चय किया। “हमलोग ने अपने घरों से अकेले या दो के झुण्ड में निकले, पर फिर भी हमें पुलिस द्वारा रोका गया। हमने उन्हें बताया कि हम मंदिर जा रहे हैं। कुल मिलाकर 11 महिलाओं ने धर्मशाला से निकलकर पताका लहराते हुए नारे लगाये। जैसे ही लोगों ने हमें देखा, वे सब घरों से बाहर निकल पड़े। ऐसा लगा मानों वे किसी और के आगे आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। युवा, वृद्ध, गृहिणियां एवं बच्चे सभी सड़कों पर उतर पड़े और हमने कलेक्टेरेट की ओर बढ़ना शुरू किया।”

इस बीच पुलिस ने इस उपद्रव से निपटने के लिये उत्तर प्रदेश से और पुलिस दल को बुला लिया। कुछ जगह जनता के क्रोध के प्रदर्शन के कारण यह विरोध हिंसक हो उठा। पुलिस अधीक्षक की गाड़ी जला दी गयी, एक सरकारी गाड़ी का चालक मर गया, लोगों ने पत्थर फेंक-फेंक कर कलेक्टेरेट के फर्नीचर तोड़ डाले। “मैं प्रतिनिधि मंडल की एक सदस्य थी जो अंदर जिलाध्यक्ष से मिलने गयी थी। मैं महिलाओं से बातें करने बाहर आयी कि लोगों ने मुझे घेर लिया। इस धक्का-मुक्की में मेरी कुछ हड्डियां टूट गयीं। क्रोध इतना अधिक था कि लोगों को रोक पाना कठिन था। जब जिलाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक ने मुझे बाहर निकाला और हड्डी टूटने पर मेरी सहायता करनी चाही तो भीड़ ने डंडों से उन्हें पीटा। पुलिस ने 108 चक्र गोलियां चलायीं, फिर भी स्थिति नियंत्रित नहीं हो पायी।”

इन सभी ऊहापोहों में ही कभी एक अलग राज्य की मांग उठ गयी। लोगों ने हमेशा ही महसूस किया कि उत्तर प्रदेश सरकार की नीतियां एवं कार्यक्रम पहाड़ियों के लिये यथेष्ट नहीं रहे हैं और इसलिये उन्होंने एक अलग राज्य की मांग की, ताकि वे अपने विकास के लिये स्वयं कार्यक्रम बना सकें। बाकी, जैसा वे कहते हैं अब इतिहास बन चुका है। यह विचार सभी को भा गया और पूरे राज्य में बड़े प्रदर्शनों की दौड़ शुरू हो गयी। इसका अंत वर्ष 2000 में उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) बनने पर ही हुआ।
 

पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #2 on: May 14, 2008, 01:18:57 PM »


पौराणिक रूप से पौड़ी भगवान शिव से निकट से संबद्ध है। स्कंद पुराण  में केदार खंड के अध्याय 179 में शहर के ऊपर क्यूंकालेश्वर मंदिर का वर्णन हुआ है। प्राचीन ग्रंथ में इस स्थान को कीनाश पर्वत कहा गया है, जहां यमराज (मृत्यु देवता) ने ताड़कासुर राक्षस से त्रस्त होकर मुक्ति के लिये भगवान शिव से प्रार्थना की। भगवान शिव ने उनके सामने प्रकट होकर एक वरदान दिया। यमराज ने भगवान शिव एवं उनकी पत्नी देवी पार्वती को यहां आकर रहने का आग्रह किया। तदनुसार इस पूज्य मंदिर में लिंग के रूप में शिव शक्ति तथा देवी पार्वती की एक छोटी मूर्ति स्थापित है। कहा जाता है कि यमराज के दो सेवक थे– उज्वद एवं बैजल जिनके नाम से यहां दो गांव है: ऊजेदी एवं बैजोली।

हेम पन्त

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #3 on: May 14, 2008, 01:33:32 PM »
पौड़ी शहर का नाम तो हमने खूब सुना है.. आज इसके बारे में जानने को भी मिल गया. पंकज दा!  उत्तराखण्ड के इस महत्वपूर्ण स्थान के बारे में जानकारी देने के लिये साधुवाद!

हेम पन्त

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #4 on: May 14, 2008, 01:36:00 PM »
श्रीयंत टापू की घटना उत्तराखण्ड आन्दोलन की मुख्य घटना थी. शायद श्रीयंत टापू भी पौडी और श्रीनगr के समीप ही स्थित है.

पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #5 on: May 14, 2008, 01:43:06 PM »


क्यूंकालेश्वर नाम कंकालेश्वर का अपभ्रंश रूप है और माना जाता है कि भगवान शिव की खोज में यमराज कंकाल-समान हो गये थे।

पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #6 on: May 14, 2008, 01:44:19 PM »


इस मंदिर के पास ही कंडोलिया या घंडियाल देवता को समर्पित एक मंदिर है जो पौड़ी के भूमियाल देवता हैं। भूमि के स्वामी के रूप में यह पौड़ी एवं पास के क्षेत्र के संरक्षक हैं। कहा जाता है कि उनका यह नाम इसलिये पड़ा क्योंकि यहां के मूलवासियों ने अपने साथ उन्हें एक कंडी (टोकरी) में लाया था।

       लोगों की कल्पना में एक अन्य रहस्य का बड़ा प्रभाव है। पौड़ी के ऊपर घने देवदार जंगल में नाग देवता को समर्पित एक छोटा मंदिर है। माना जाता है कि उनका जन्म पास के एक गांव के डोबाल परिवार में हुआ था जिसका स्वरूप आधा बच्चा और आधा नाग का था। उसने अपने पिता से उसे जंगल में छोड़ आने का आग्रह किया और ऐसा ही किया गया। तब से ही वे पौड़ी के निकट रहे। डोबाल लोग नाग को दादा कहते हैं और उसे कभी नहीं मारते।


पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #7 on: May 14, 2008, 01:47:24 PM »
सांस्कृतिक रूप से पौड़ी की संस्कृति में शेष गढ़वाल से बहुत कम अंतर है। समुदाय ही अस्तित्व की पहचान है तथा देवी-देवताओं में अटूट विश्वास समुदाय को एक साथ बांधता है। स्थानीय देवी-देवताओं (इष्ट, ग्राम, कुल) की दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है तथा सभी अवसरों पर उनकी पूजा की जाती है।



पौड़ी में कला की समृद्ध संस्कृति है। यहां 105 वर्षों से लगातार रामलीला मंचन का इतिहास है। रामलीला की एक स्थानीय समिति में गायकों, अभिनेताओं, नाट्यकर्मियों को रखा जाता है जो प्रत्येक वर्ष इसकी सफलता के लिये उत्सुकतापूर्ण प्रयास करते हैं। भारतीय नक्शे पर गढ़वाली गीत को लाने वाले गीतकार गायक नरेन्द्र सिंह नेगी, यहीं रहते हैं। स्थानीय युवकों द्वारा संचालित 22 सदस्यों वाला नवकर नाट्य समूह, पास के गांवों में सामाजिक महत्व के नुक्कड़ नाटकों के मंचन में बहुत सक्रिय रहते हैं तथा नाट्य समारोह आयोजित करते हैं, जिसमें पूरे भारत के ऐसे समूह शामिल होते हैं। इस समूह को संप्रदाय का बड़ा समर्थन हासिल है। प्रारंभिक दिनों में पौड़ी का एमेच्यर एसोसियेशन मिशन स्कूल हॉल में नाटकों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया करता था, जो बहुत लोकप्रिय होते थे। इससे कम लोकप्रिय फुटबॉल टूर्नामेंट भी नहीं था, जो पौड़ी के सर्वोत्तम दलों में होता और ये यंगमेंस एसोसियेशन एवं एथलेटिक्स थे। पूरा शहर अपने पसंदीदा टीम को उत्साहित करने उमड़ पड़ता था जो खेल मिशन स्कूल मैदान पर होता था।

पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #8 on: May 14, 2008, 01:48:21 PM »
पौड़ी शिक्षा का केंद्र रहा है। यहां वर्ष 1882 में मिशन मिडिल स्कूल की स्थापना हुई जो कि वर्ष 1902 में मेसमोर हाई स्कूल में परिवर्तित हुआ। कई प्रसिद्ध गढ़वाली यहां के मेसमोर हाई स्कूल एवं डी ए वी इंटर कॉलेज के पूर्व छात्र हैं जैसे कि स्वर्गीय एच. एन. बहुगुणा, उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री मेजर जनरल खंडूरी जो डी ए वी इंटर कॉलेज में पढ़े। मेजर जनरल झीडियाल, पूर्व सर्वेयर जनरल, सर्वे ऑफ इंडिया, कुलदीप रावत, ओ एन जी सी के प्रथम गढ़वाली अध्यक्ष; और कई स्वतंत्रता सेनानी जैसे राम प्रसाद नौटियाल, चंदा सिंह रावत, भक्ता दर्शन और मुख्यमंत्री की माता दुर्गावती देवी ने पौड़ी में शिक्षा पाई।

       पौड़ी में प्रताप सिंह नेगी, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, महेशानंद थपलियाल, सखा सत्यम, धारू चंद्र चंडोल, विमल नेगी एवं जय बल्लभ खंडूरी जैसे बौद्धिकों एवं पत्रकारों ने भी अपना योगदान दिया है। पत्रकार वाचस्पति गोईराला, उमेश डोबाल और गढ़वाल विश्वविद्यालय के तीन वाईस चांसलर– बी. डी. भट्ट, डी. एस. रावत और डॉ. के. पी. नौटियाल– पौड़ी से हैं।

पंकज सिंह महर

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Re: पौड़ी: एक सांस्कृतिक शहर
« Reply #9 on: May 14, 2008, 01:50:33 PM »
गढ़वाल में अन्य स्थानों की तरह पौड़ी के सामुदायिक जीवन में गीत एवं नृत्य का महत्वपूर्ण प्रभाव है तथा सामयिक चक्र एवं कृषि जीवन, प्रकृति एवं धर्म में इसकी गहरी जड़े हैं। थाडिया, चौंफला, झुमेला, बाजूबंद एवं जाग्गर जैसे गीतों एवं नृत्यों का आयोजन, उत्सवों पर, खासकर बसंत में बैशाखी के समय होता है। जाग्गर भक्ति गीत होते है जिन्हें ढोल, दमाऊं, धौनरी और थाली बजाते हुए गाया जाता है। जागरी (धामी) या घाडाला– जो ठाकुर या शिल्पकार हो सकते हैं– देवता का आह्वान करते हैं। वास्तव में एक प्राचीन ग्रंथ ढोल सागर में विभिन्न अवसरों पर बजाये जाने वाले वाद्य यंत्रों के विषय में जानकारी दी गयी है। इसका उदाहरण यह है कि विवाह के समय की धुन, विवाहोपरांत लड़की की विदाई के समय के धुन से भिन्न होता है।
       


 

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