दुगड्डा
वर्तमान पौड़ी जिले के कोटद्वार, लैंसडाउन, पौड़ी एवं श्रीनगर की तरह दुगड्डा भी एक प्राचीन शहर है। यह गढ़वाल क्षेत्र की शिवालिक पहाड़ियों में स्थित है।
इतिहासकारों के अनुसार प्राचीनकाल में दुगड्डा ईपू. ईसा पूर्व वर्ष 304-232 में सम्राट अशोक के समय के मौर्य साम्राज्य का एक भाग था। इसके बाद गढ़वाल तथा कुमाऊं पर कत्यूरी वंश का शासन हुआ। इस वंश की समाप्ति पर गढ़वाल एवं कुमाऊं दो अलग राज्य बन गये तथा दुगड्डा सहित गढ़वाल, पंवार वंश के अधीन रहा।
वर्ष 1803 से 1815 के बीच गढ़वाल पर नेपाल के गोरखों का आधिपत्य तब तक रहा, जब सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की सहायता से राज्य पर फिर वापस कब्जा कर लिया। इसके बदले उन्होंने अपने राज्य का कुछ भाग अंग्रेजों को दे दिया और इसके कारण यह ब्रिटिश गढ़वाल नाम से जाना जाने लगा। ब्रिटिश गढ़वाल में पौड़ी गढ़वाल, चमोली जिला तथा रूद्रप्रयाग जिले का एक अंश शामिल था।
दुगड्डा का आधुनिक इतिहास की संबद्धता धनीराम मिसरा से है जो शहर के संस्थापक माने जाते हैं और यह इस बात से प्रमाणित होता है कि यहां कई स्थान उनके नाम पर हैं, जैसे धनीराम बाजार। धनीराम के पूर्वज जम्मू-कश्मीर के वासी थे, पर वे श्रीनगर गढ़वाल में बस गये। यहां उनका निकट संपर्क टिहरी के राजाओं से हुआ। जब राजा प्रद्युमन शाह खुदबुदा में गोरखों से युद्ध में मारे गये तब उनके स्वामी भक्त दरबारियों ने उनके 14 वर्षीय पूत्र सुदर्शन शाह को सुरक्षित रखा। धनीराम के पूर्वज इन दरबारियों में से एक थे। धनीराम का जन्म सरूद्दा (दुगड्डा) गांव में वर्ष 1869 में हुआ था। उनके दादा हरिकांत मिसरा दुगड्डा में बस गये तथा इस शहर को विकसित करने का क्षेय उनके पुत्रों तथा पौत्रों को जाता है।
टिहरी राज्य की राजधानी श्रीनगर का प्राचीन रास्ता दुगड्डा से गुजरता था तथा लोग पैदल यात्रा करते थे। वर्ष 1857 में लैंसडाउन में अंग्रेजों द्वारा गढ़वाल रेजिमेंट का गठन होने के बाद भी कोटद्वार-दुगड्डा का रास्ता फतेहपुर-उमरीखाल तक कच्चा रास्ता था। सेना के लिए आपूर्ति का सामान खच्चरों पर लादकर लैंसडाउन जाता था तथा इसके लिए दुगड्डा के बहेदी में एक खच्चरों गाह के ठहरने का स्थान था।
इतिहास के इस समय दुगड्डा एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक शहर था। वर्ष 1907 की बाढ़ में जब सिधबली के पास कोटद्वार की पुरानी मंडी बह गयी, तब धनीराम ने दुगड्डा के बहेदी में एक नया बाजार बनाया। कई मारवाड़ी व्यापारी तथा बरेली, मोरादाबाद एवं बिजनौर से व्यापारी यहां आये और दुगड्डा में बस गये जिससे शहर अपने आप में एक व्यापारिक केंद्र के रूप में उदित हुआ। नजीबाबाद, हलदौर, चांदपूर आदि पड़ोसी शहरों से बड़ी मात्रा में वस्तुएं यहां बैलगाड़ियों या ऊंटों पर पर लायी जाने लगी और आगे इसे लैंसडाउन एवं पौड़ी, श्रीनगर, बद्रीनाथ तक पहुंचाया जाता। वास्तव में, भोजन सामग्रियों तथा अन्य वस्तुओं की आपूर्ति ही पहाड़ियों तक नही जाती, बल्कि सुदूर नीति एवं माना से भोटिया लोग यहां आक अपने सामानों की बिक्री करते।
वर्ष 1920 तक कोटद्वार से दुगड्डा तक पक्की सड़क बनी एवं कार एवं मोटरगाड़ियां इस पर चलने लगी। वर्ष 1924 में इस सड़क को उमरीखाल तथा लैंसडाउन तथा वर्ष 1944 में पौड़ी तक बढ़ाया गया। वर्ष 1926 में कोटद्वार तक रेल आने पर धीरे-धीरे कोटद्वार वाणिज्य केंद्र के रुप में विकासित होने लगा। इस विकास को वर्ष 1934 में मोती बाजार की आग एवं वर्ष 1929 और वर्ष 1943 के प्लेग महामारी ने बिगाड़ दिया। वर्ष 1927 की बाढ़ ने भी दुगड्डा में व्यापार तथा वाणिज्य की हालत बिगाड़ दी जो कोटद्वार की ओर ध्यान केंद्रित करने में सहायक बना।
दुगड्डा के इतिहास का एक अन्य रूचिकर पहलू है। इस शहर तथा यहां के नागरिक ने कुली-बेगार आंदोलन, डोला-पालकी विद्रोह जैसे सामाजिक आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभायी तथा कई आर/समाजी तेजस्वियों की मेजवानी भी की।
यह शहर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से भी निकट से संबद्ध रहा है। इस समय स्वर्गीय मुकुन्दीलाल वकील ने इसे अपने छिपने का मुख्य स्थान बनाया तथा वर्ष 1936 तथा वर्ष 1945 में दो बार स्वाधीनता संघर्ष के लिए समर्थन जुटाने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू यहां आये। काकोरी घटना के शीघ्र बाद क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद थोड़े समय के लिए छद्मवेश में वर्ष 1929 में यहां साथी देशभक्त भवानी सिंह रावत के आमंत्रण पर यहां आये थे जो पास के नाथोपुर गांव के वासी थे। आजाद के निशानेबाजी के अभ्यास को अब भी याद किया जाता है तथा यहां उनकी विशिष्टता का गवाह एक पेड़ अब भी मौजूद है। इस महान स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धांजलि स्वरुप प्रत्येक वर्ष दुगड्डा के रामलीला मैदान में 27 फरवरी को शहीद मेला का समारोह होता है।