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Agriculture,in Uttarakhand,उत्तराखण्ड में कृषि,कृषि सम्बन्धी समाचार
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कृषि उद्यानिकी पद्धति
पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में अपनायी जाने वाली यह एक प्रमुख पद्धति है। उद्यानिकी फसलों से किसानों को अच्छी आय प्राप्त होती है। सेब, आडू, अखरोट, नाशपाती, बादाम आदि प्रमुख उद्यानिकी फसलें हैं।
इन वृक्षों के बीच में नकदी फसलों के रूप में मटर, गोभी, टमाटर, मिर्च, बीन तथा अदरक आदि फसलों को उगाया जा सकता है। खाद्यान्न फसलों में गेहूँ तथा मक्का प्रमुख हैं। यह पद्धति छोटी जोत वाले किसानों लिए अधिक लाभदायक हैं।
मछली पालन एवं वानिकी पद्धति
इस पद्धति का प्रयोग ऐसे वन क्षेत्रों में जहां तालाबों में पानी भरा रहता है किया जाता है। सिक्किम में 4200 मीटर की ऊंचाई पर छगां झील में वानिकी एवं मछली पालन का कार्य प्रमुख रूप से किया जाता है। उत्तर-पूर्वी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में इस पद्धति के विकास की संभावनाएं जाता हैं।
पर्वतीय क्षेत्रों में जैव विविधता अधिक पायी जाती है तथा पानी तालाबों व गडढ़ों में भरा रहता है अतः ऐसे क्षेत्रों में वानिकी के साथ-साथ मछली पालन से अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है।
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संरचनात्मक आधार पर कृषिवानिकी का वर्गीकरण
संरचनात्मक आधार को उसके विभिन्न अगों तथा उन अगों के अपेक्षित कार्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इस पद्वति में अगों के प्रकार तथा उनका व्यवस्थापन महत्वपूर्ण है।
संरचना के आधार पर कृषिवानिकी को दो वर्गो में विभिक्त किया जा सकता है।
अगों की प्रकृतिः अगों की प्रकृति के आधार पर कृषिवानिकी को निम्नलिखित वर्गो में विभाजित किया जा सकता है।
1. कृषि वन चरागाह पद्वति
2. वन-चरागाह पद्वति
3. कृषि, पशु वन चरागाह पद्वति
4. अन्य पद्वति
1. कृषि वन चरागाह पद्वति : इस पद्वति के अन्तर्गत फसलों के साथ-साथ पेड़ो और झाड़ीदार वृक्षों को भी लगाया जाता है।
क. झूम कृषि में परती भूमि का सुधार
ख. टौग्या पद्वति
ग. बहुउद्देशीय प्रजातीय पेड़ों के बगीचे
घ. सतत् कृषि
ड़. बहुउद्देशीय वृक्ष और झाड़िया
च. रोपण कृषि के साथ कृषि फसलों का संयोजन
छ. क्षरण अवरोधी पट्टियां
ज. वायु रोधी पट्टियां
झ. मृदा संरक्षण के लिए हेज
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1- झूम कृषि में परती भूमि का सुधार
परती भूमि ऐसी भूमि होती है जिसमें बिना फसल लिये जमीन को खाली छोड़ दिया जाता है। इसका उद्देश्य मृदा में पोषक तत्वों की मात्रा को बढ़ाना होता है। परती भूमि में सुधार के उपरान्त एक फसल से कई फसलें पुनः उगाई जाती है।
यह पद्वति प्रमुखतः उत्तर-पूर्वी राज्यों, आसाम, मेघालय, मणिपुर, नागालैण्ड तथा त्रिपुरा में अपनाई जाती है। इसे देश के विभिन्न राज्यों में झूम कृषि तथा उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश में पोडु के नाम से जाना जाता है।
परती भूमि का प्रमुख कार्य मृदा उर्वरता संरक्षित करना तथा मृदा क्षरण को कम करना होता है। कुछ पौधों को प्रारम्भिक तौर पर इस प्रकार की भूमि में उसकी आर्थिक कीमत जानने के लिए लगाया जाता है।
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2-टौग्यां
यह झूम कृषि का ही एक परिवर्तित रूप है। जिसमें श्रमिक वनों के किनारे-किनारे फसल भी उगाते है। यह पद्वति 1 से 3 वर्ष तक ही एक स्थान पर की जाती है इसके बाद अन्य स्थानों पर इस पद्वति द्वारा खेती की जाती है। इस पद्वति के अन्तर्गत वन तथा फसलों की प्रजाति, वहां की मृदा एवं जलवायु पर निर्भर करती हैं।
वास्तव में इस पद्वति का मुख्य उद्देश्य वनों का विस्तार करना है लेकिन इसे कृषिवानिकी के अन्तर्गत ही मान्यता मिली हुयी है।
3- बहुउद्देशीय प्रजातीय पेड़ों के बगीचे
इस पद्वति के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के पेड़ो की प्रजातियों को एक साथ उगाया जाता है। इस पद्वति का प्रमुख कार्य खाद्यान्न उत्पादन, चारा एवं लकड़ी घरेलू उपयोग हेतु तथा बाजार में बेचने हेतु प्राप्त करना है। इसके अन्तर्गत खैर, आम, बबूल आदि वृक्षों को लगाया जाता है।
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सतत् कृषि
इस पद्धति के अन्तर्गत पेड़-पौधों तथा फसलों की अन्तःकृषि की जाती है इसमें पेड़ों के साथ-साथ फसलों को भी उगाया जाता है। पेड़ों की दो पक्तियों के मध्य में बची हुई जगह में पेड़ों की ऊँचाई तथा उनके फैलाव के अनुसार फसलों का चयन किया जाता है।
सतत् कृषि किसानों के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभदायक है। इससे किसानों को 4 से 11 प्रतिशत तक अधिक प्रतिफल प्राप्त होता है।
सतत् कृषि के अन्तर्गत दो पक्तियों के मध्य तीव्र गति से बढ़ने वाले बहुउद्देशीय पेड़-पौधों को लगाया जाता है जिससे कि समयानुसार उपज प्राप्त होने के साथ-साथ वृक्षों को भी हानि न हों।
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