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Agriculture,in Uttarakhand,उत्तराखण्ड में कृषि,कृषि सम्बन्धी समाचार

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Devbhoomi,Uttarakhand:
    
फसल पद्वति

    * ज्वार (दाना) - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * मक्का (दाना) - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * ज्वार - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * ज्वार - बरसीम + जई / लाही - मक्का + लोबिया

    * धान (दाना) - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * जूट - बरसीम

    * मक्का (दाना) - बरसीम - मूँग / उरद (दाना)

    * नेपियर घास + बरसीम (जाड़ो में) / लोबिया (गर्मियों में)

    * गिनी घास / नन्दी घास + बरसीम (जाड़ो में) / लोबिया (गर्मियों में)

    * दीनानाथ घास - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * मकचरी - बरसीम - मक्का + लोबिया

मिलवा खेती
बरसीम को अकेले बोने से पहली कटान में हरे चारे की पैदावार कम मिलती है अतः बरसीम + लाही या बरसीम + जई की बुआई साथ-साथ करनी चाहिए। मिलवा खेती करने से लगभग 100-150 कुन्तल हरा चारा प्रति हेक्टर अधिक उपज मिलती है।

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उत्तराखण्ड में कृषिवानिकी

उत्तराखण्ड में लगभग 70 प्रतिशत जलावनी लकड़ी की आपूर्ति विभिन्न प्रकार के वृक्षों से प्राप्त लकड़ी से की जाती है। उत्तराखण्ड राज्य के गठन के पश्चात उत्तर प्रदेश में 4.43 प्रतिशत ही वनाच्छादित क्षेत्र बचा है जो चिन्ता का विषय है। एक अनुमान के आधार पर हमारे देश में जलौनी लकडी की मॉग 175 मिलियन टन प्रतिवर्ष है जबकि आपूर्ति 40 मिलियन टन ही है।
 जिसके एवज में 70 मिलियन टन गोबर एवं 40 मिलियन टन कृषि अवशिष्ट को ईधन के रूप में उपयोग किया जाता है जिससे कार्बनिक उर्वरकों की कमी की वजह से मृदा की उर्वरा शक्ति भी क्षीण हो रही है। कृषिवानिकी अपनाये जाने की आवश्यकता निम्न कारणों के लिए भी है :

   1. उपलब्ध प्राकृतिक वनों को कटान से बचाया जा सकता है।

   2. भूमि के अधिकांश भाग को अधिक पैदावार हेतु प्रयोग किया जा सकता है तथा मृदा में उपस्थित तत्वों का अधिकतम उपयोग लिया जा सकता है।

   3. कृषिवानिकी की तकनीकी व उपयोगी वन वृक्ष प्रजातियों द्वारा कृषि फसलों के साथ रोपित करके भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करना।

   4. मृदा संरक्षण को रोककर मृदा उर्वरता स्तर को बनाये रखना।

   5. कुटीर उद्योगों हेतु कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित करना।

   6. पर्यावरण को सुनिश्चित रखने हेतु।

   7. गरीब कृषकों को रोजगार उपलब्ध करने में सहायक

पापलर तथा यूकेलिप्टस आधारित कृषिवानिकी में साल, ढांक, कत्था, शीशम आदि भी यहां उगाए जाते है। अनेक कृषि फसल जैसे गेहूं, उड़द, धनिया, टमाटर, गोभी, आलू, प्याज आदि सफलतापूर्वक पापलर के साथ 8 वर्ष तक लगाए जाते है।

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पर्वतीय कृषिवानिकी

पर्वतीय क्षेत्र से तात्पर्य एक ऐसे क्षेत्र से है जो कि प्राकृतिक संसाधनो से भरपूर एक निश्चित ऊंचाई तक स्थित है। भारतीय संदर्भ में - ऐसा क्षेत्र जिसमें मौसमी विविधता तथा भौगोलिक विविधता तथा उस क्षेत्र की स्थिति पर्वतीय क्षेत्र के कहलाता है। ऐसे क्षेत्र में स्थान-स्थान पर भूमि के ढाल तथा मृदा में विभिन्नता पायी जाती है।

देश के विभिन्न पर्वतीय क्षेत्रों में कृषिवानिकी पद्धति के अन्तर्गत लगाये जाने वाली वृक्ष प्रजातियॉ निम्नलिखित हैं-
1.पश्चिमी हिमालय क्षेत्र ग्रीविया, केल्टस, अल्वीजिया, बांझ, कचनार, अलनस, रूबीनिया, देवदार, एलिएन्थिस।

2.पूर्वी हिमालय क्षेत्ग्रीविया, एलनस, कचना, अर्जुन, बहेड़ा आर्टोकार्पस, पीपल, बरगद, यूकेलिप्टस, सुबबूल, विलायती बबूल, कदम्ब, पलास, ढेंचा।

3.दक्षिणी हिमालय क्षेत्र
   

बबूल, इरिधिना, यूजीनिया, एलिएनसि, सेमल।

    * सिंचित भूमि में मिश्रित कृषि के रूप में चारा, ईधन, लकड़ी तथा वनोंपज प्राप्त करने के साथ-साथ सब्जियों की

अन्तःकृषि तथा असिंचित भूमि में मडुवा एवं गेहूँ की खेती की जाती है।

    * धान-गेहूँ के साथ मेड़ों पर पूला एवं शहतूत की खेती।

    * भीमल तथा टरमिनेलिया के साथ धान-गेहूँ अथवा मक्का-गेहूँ की खेती की जाती है।

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तराई क्षेत्र

    * यूकेलिप्टिस के साथ सोयाबीन    --  गेहूँ

    * यूकेलिप्टिस के साथ लाही       --  मसूर/चना

    * पापलर के साथ सोयाबीन/मक्का/लाही       --    गेहूँ/मसूर

    * तीन वर्ष तक गन्ने के साथ गेहूँ, मसूर, चना, मटर तथा आलू

    * तीन वर्ष तक पापलर/यूकेलिप्टिस के साथ गन्ना     --   धान/आलू

    * सुबबूल/ठैचां/पापलर के साथ सरसों आदि

    * तीन वर्ष तक शीशम व बबूल के साथ गन्ना      --      गेहूँ

कृषिवानिकी पद्धतियां जो कि पर्वतीय क्षेत्रों के लिए संस्तुति की गयी है निम्नलिखित हैं।

उद्यानवानिकी पद्धति

शस्य जलवायुगत क्षेत्र तथा परिस्थितियों के अनुसार वृक्षों के साथ उद्यानिकी फसलों को उगाया जा सकता है। जिससे किसानों को फसल की उपज के साथ-साथ ईधन, चारा तथा लकड़ी प्राप्त होती है।
जैसे - चाय, रबड़, नारियल आदि। इस पद्धति के अन्तर्गत वृक्षों के साथ औषधीय फसलें, खाद्यान्न एवं तिलहन फसलें तथा पुष्पोत्पादन किया जा सकता है। इसके अलावा फल प्रदान करने वाले वृक्षों को भी लगाया जाता है। कृषिवानिकी के अन्तर्गत इन फसलों से किसानों को अधिकतम लाभ प्राप्त हो सकता है।

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परती भूमि - चारागाह पद्धति

कृषिवानिकी के अन्तर्गत वृक्षों से पशुओं के लिए चारा प्राप्त किया जा सकता है जो कि अन्य घासों की अपेक्षा अधिक स्वास्थ्यवर्धक हाता है। घासों तथा वृक्षों के एक साथ उगाने से किसान वर्ष भर भरपूर मात्रा में पशुओं के लिए चारा प्राप्त कर सकते हैं।

फसल - वानिकी पद्धति

पर्वतीय क्षेत्रों में जहां कि फसलें भली प्रकार नहीं उगायी जा सकती हैं, ऐसे क्षेत्रों में जहां कि भूमि का ठाल ऊँचा - नीचा तथा विविध प्रकार का होता है, प्रारम्भिक अवस्था में वृक्षों को लगाकर उनके साथ फसल उत्पादन किया जा सकता है। इस पद्धति के अन्तर्गत गेहूँ, सरसों, मटर, मक्का, आलू, गोभी, टमाटर, मिर्च आदि फसलों को उगाया जा सकता है जब तक कि वृक्ष इन फसलों की उपज को प्रभावित न करें।

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