Author Topic: Agriculture,in Uttarakhand,उत्तराखण्ड में कृषि,कृषि सम्बन्धी समाचार  (Read 44317 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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दोस्तों जैसा कि आप जानते हैं कि उत्तराँचल मैं,कृषि और पशुपालन राज्य के 80 प्रतिशत लोगों का मुख्य आधार है जो राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) का 30 प्रतिशत है।

 राज्य के कुल भूमि क्षेत्रफल 5348300 का 15 प्रतिशत भाग कृषि के अंतर्गत है। पारिस्थितिक अस्थिरता और पर्यावरणीय विविधता के कारण राज्य के अधिकांश भाग में कृषि जीविका बन गया है, ऊधमसिंह नगर और हरिद्वार को छोड़कर जहां कृषि बाजार के लिए उत्पादित होता है खासकर निर्यात बाजार के लिए। लोगों के पास जमीन  बहुत कम है।

 65 प्रतिशत लोगों के पास जमीन 1 हैक्टर से कम है। पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों के पास औसतन 0.779 हैक्टर जमीन है जबकि मैदानी भागों में 1.276 हैक्टर है। पहाड़ी क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेतों में खेती होती है। खेत छोटे-छोटे होते हैं जिसकी उपजाऊ क्षमता कम ही होता है।

राज्य में ज्यादा फसल उगाने के बावजूद राज्य के उत्पादन (अनाज, दलहन इत्यादि) से खाद्य मूल्य के कुल खर्च का लगभग 40 प्रतिशत ही भरपाइ हो पाता है, शेष 60 प्रतिशत बाहर से आयात करना पड़ता है।

मुख्य फसल हैं- धान, गेहूं, मक्का, सोयाबीन और दाल। उत्तरांचल में फसल उगाने की तीव्रता 163.79 है, जो देश के औसत से कहीं अधिक है। कृषि अधिकांशतः वर्षा पर निर्भर है, लेकिन सिंचाई के लिए उचित व्यवस्था कर कृषि उत्पादकता बढ़ायी जा सकती है।

 राज्य में काफी मात्रा में फलों (2004 में 5 लाख टन) एवं सब्जियों (2004 में 3.8 लाख टन) का उत्पादन होता है जिसका प्रसंस्करण और विवणन राज्य के बाहर भी किया जा सकता है जिससे फसल कटाई के बाद के क्रिया कलापों एवं विपणन ढ़ांचा में कम निवेश की जरुरत होगी।

 राज्य के कृषि की वर्तमान अवस्था से किसानों को कम आय होती है और लोगों के लिए पूंजी अटकाव की स्थिति आ जाती है।

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उत्तराखंड  के कृषि जलवायु क्षेत्र
उत्तरांचल राष्ट्रीय कृषि जलवायु क्षेत्र संख्या 9 एवं 4 के अंतर्गत पड़ता है। राज्य का मैदानी भाग तराई भाभर क्षेत्र कहलाता है जिसके अंतर्गत ऊधमसिंह नगर, हरिद्वार और देहरादून तथा नैनीताल जनपद का कुछ भाग आता है। राज्य के पहाड़ी क्षेत्र के अंतर्गत उत्तरकाशी, टेहरी, पौरी, चमोली, रुद्रप्रयाग अल्मोरा, बागेश्वर, चम्पावत और पिथौरागढ़ तथा देहरादून एवं नैनीताल जनपद के कुछ भाग आते हैं।

उत्तरांचल में विविध प्रकार के जलवायु के होने की वजह से यहां विविध प्रकार की फसलें उगायी जाती है। राज्य में विविध जलवायु होने से एक अतिरिक्त लाभ यह भी मिल जाता है कि यहां बेमौसम सब्जियां उगायी जा सकती हैं जिसे सुरक्षित भंडारित किया जा सकता है, साथ ही दूर के बाजार में आकर्षक मूल्य पर इसे बेचा भी जा सकता है।

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वर्षा या सिंचाई के अनुसार किसान विभिन्न कृषि पद्धतियां अपनाता है। अनाज सिंचित खेतों में उगाया जाता है। साल में कम से कम दो फसल उगाया जाता है।

वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में अनाज और अन्य तेलहन फसलों के साथ ज्वार, बाजरा, दाल और कंद फसल उगाया जाता है। सिंचित क्षेत्रों में एक फसल उगाना आम बात है। वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में मिश्रित खेती की जाती है जिससे फसल विविधता कायम रहे और पर्यावरणीय अनिश्चितता का खतरा कम हो।

यद्यपि अनाज उत्पादन में राज्य आत्मनिर्भर है, व्यापक क्षेत्रीय विषमता मौजूद है। पहाड़ी क्षेत्रों में ऊंचाई के परिवर्तन के साथ जलवायु में भी परिवर्तन आता है उसी के अनुसार कृषि का रुप भी बदल जाता है।

जलवायु विविधता ऊंचाई, स्थिति, ढाल औऱ बर्फरेखा शिखर से दूरी पर निर्भर करता है। इन कारकों में सबसे प्रबल कारक ऊंचाई है, जिस पर उस स्थान की जलवायु निर्भर करता है। ऊंचाई वाली जगह ठंढ़ी होती है और साल के प्रायः दिनों में बर्फ से ढ़का रहता है। दक्षिणी भाग की तुलना में उत्तरी भाग ज्यादा ठंढ़ा है।

बर्फ शिखर से निकट का क्षेत्र दूरस्थ क्षेत्र की तुलना में ज्यादा ठंढ़ा होता है, चाहे वह समान ऊंचाई का क्षेत्र क्यों न हो। राज्य में जलवायु की विविधता के कारण यहां समशीतोष्ण और उपोष्ण दोनों प्रकार के फल उगते हैं।

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ऊष्णप्रदेशीय क्षेत्र के अंतर्गत मैदानी क्षेत्र, तराई भाभर और शिवालिक तथा अन्य पर्वतीय रेंज वाला पहाड़ी क्षेत्र आता है। धान, गेहूं, गन्ना, मक्का, सोयाबीन, दाल और तेलहन इस क्षेत्र के प्रमुख फसल हैं।

क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के कारण फसल चक्र, कृषि कार्यक्रम औऱ फसल किस्म में अंतर होता है। उपोष्ण प्रदेशीय फल जैसे- आम, लीची, अमरूद, पपीता आदि इस क्षेत्र में उपजाए जाते हैं।

उपोष्ण क्षेत्र वर्षा पर निर्भर रहता है जहां द्विवार्षिक फसल चक्र अपनाया जाता है। धान की फसल मार्च महीने में बोया जाता है औऱ सितंबर के महीने में काटा जाता है जबकि गेहूं अक्टूबर में बोया जाता है और मई में काटा जाता है। गेहूं कटाई के बाद मड़ुआ, दाल या अन्य फसल अकेले या मिश्रित रूप में बोया जा सकता है।

जो भूमि धान की खेती के लिए उपयुक्त नहीं है वहां जंघोरा या मदिरा की खेती की जाती है। इस क्षेत्र में उपजाए जाने वाले प्रमुख फलों में आड़ू, नाशपाती औऱ खूबानी है।

ठंढ़ा समशीतोष्ण क्षेत्र बागवानी, सब्जी, पुष्पकृषि और औषधीय व सगंधीय पौधों एवं मशालों की खेती के लिए बेहतर होता है। इन क्षेत्रों में केवल खरीफ फसल उगाए जाते हैं। चुआ मरचा, उगल फापर, जौ और आलू प्रमुख खरीफ फसल हैं।

अल्पाइन क्षेत्र प्रमुख रुप से चारागाह क्षेत्र है। अल्पाइन चारागाह के विकास के लिए अल्पाइन क्षेत्र अनुसंधान केन्द्र की स्थापना का प्रस्ताव है। चारा उत्पादन में वृद्धि भेड़ व बकरी पालन को प्रोत्साहित करेगा।

यह क्षेत्र प्राकृतिक जड़ी बूटी के लिए उपयुक्त है। जड़ी बूटी के संरक्षण एवं उत्पादन के लिए नीति निर्माण और इसके वांछित पैमाने पर उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक ढ़ांचा स्थापना की जरूरत है।

ढालू क्षेत्र में पर्यावरण के प्रबंधन के लिए भोजपत्र, दालचीनी, थुनर, कपासी, बांज (मोरू), देवदार आदि पेड़ रोपा जा सकता है। यह क्षेत्र प्राकृतिक उत्पादों से आय का श्रोत हो सकता है। जहां मिट्टी बहुत पथरीला नहीं है वहां सेव, खूबानी, अखरोट, चिलगोजा आदि उपजाया जा सकता है।




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बीज उर्वरक

उत्तरांचल राज्य ज्यादा उपज देने वाले संकर बीजों के उत्पादन एवं उसके वितरण में अन्य राज्यों की तुलना में आगे है। सबसे बड़ा राज्य बीज निगम ‘तराई बीज विकास निगम’ उत्तरांचल में है।

 राज्य के अंदर और बाहर लगभग 100 निजी कंपनियां प्रमाणिक बीजों के उत्पादन एवं वितरण में लगी है। उत्तरांचल के बीज पूरे देश में लोकप्रिय है। प्रत्येक वर्ष 200 करोड़ से ज्यादा के बीज दुसरे राज्यों को बेचे जाते हैं।

 पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त बीजों की पहचान एवं उसके विकास के लिए प्रयास जारी है खासकर अल्मोरा के विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संगठन (वी पी के ए एस) द्वारा जो विविध कृषि जलवायु में उपज सके।

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फसल पद्वति

    * ज्वार (दाना) - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * मक्का (दाना) - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * ज्वार - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * ज्वार - बरसीम + जई / लाही - मक्का + लोबिया

    * धान (दाना) - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * जूट - बरसीम

    * मक्का (दाना) - बरसीम - मूँग / उरद (दाना)

    * नेपियर घास + बरसीम (जाड़ो में) / लोबिया (गर्मियों में)

    * गिनी घास / नन्दी घास + बरसीम (जाड़ो में) / लोबिया (गर्मियों में)

    * दीनानाथ घास - बरसीम - मक्का + लोबिया

    * मकचरी - बरसीम - मक्का + लोबिया

मिलवा खेती
बरसीम को अकेले बोने से पहली कटान में हरे चारे की पैदावार कम मिलती है अतः बरसीम + लाही या बरसीम + जई की बुआई साथ-साथ करनी चाहिए। मिलवा खेती करने से लगभग 100-150 कुन्तल हरा चारा प्रति हेक्टर अधिक उपज मिलती है।

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उत्तराखण्ड में कृषिवानिकी

उत्तराखण्ड में लगभग 70 प्रतिशत जलावनी लकड़ी की आपूर्ति विभिन्न प्रकार के वृक्षों से प्राप्त लकड़ी से की जाती है। उत्तराखण्ड राज्य के गठन के पश्चात उत्तर प्रदेश में 4.43 प्रतिशत ही वनाच्छादित क्षेत्र बचा है जो चिन्ता का विषय है। एक अनुमान के आधार पर हमारे देश में जलौनी लकडी की मॉग 175 मिलियन टन प्रतिवर्ष है जबकि आपूर्ति 40 मिलियन टन ही है।
 जिसके एवज में 70 मिलियन टन गोबर एवं 40 मिलियन टन कृषि अवशिष्ट को ईधन के रूप में उपयोग किया जाता है जिससे कार्बनिक उर्वरकों की कमी की वजह से मृदा की उर्वरा शक्ति भी क्षीण हो रही है। कृषिवानिकी अपनाये जाने की आवश्यकता निम्न कारणों के लिए भी है :

   1. उपलब्ध प्राकृतिक वनों को कटान से बचाया जा सकता है।

   2. भूमि के अधिकांश भाग को अधिक पैदावार हेतु प्रयोग किया जा सकता है तथा मृदा में उपस्थित तत्वों का अधिकतम उपयोग लिया जा सकता है।

   3. कृषिवानिकी की तकनीकी व उपयोगी वन वृक्ष प्रजातियों द्वारा कृषि फसलों के साथ रोपित करके भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करना।

   4. मृदा संरक्षण को रोककर मृदा उर्वरता स्तर को बनाये रखना।

   5. कुटीर उद्योगों हेतु कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित करना।

   6. पर्यावरण को सुनिश्चित रखने हेतु।

   7. गरीब कृषकों को रोजगार उपलब्ध करने में सहायक


पापलर तथा यूकेलिप्टस आधारित कृषिवानिकी में साल, ढांक, कत्था, शीशम आदि भी यहां उगाए जाते है। अनेक कृषि फसल जैसे गेहूं, उड़द, धनिया, टमाटर, गोभी, आलू, प्याज आदि सफलतापूर्वक पापलर के साथ 8 वर्ष तक लगाए जाते है।

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पर्वतीय कृषिवानिकी


पर्वतीय क्षेत्र से तात्पर्य एक ऐसे क्षेत्र से है जो कि प्राकृतिक संसाधनो से भरपूर एक निश्चित ऊंचाई तक स्थित है। भारतीय संदर्भ में - ऐसा क्षेत्र जिसमें मौसमी विविधता तथा भौगोलिक विविधता तथा उस क्षेत्र की स्थिति पर्वतीय क्षेत्र के कहलाता है। ऐसे क्षेत्र में स्थान-स्थान पर भूमि के ढाल तथा मृदा में विभिन्नता पायी जाती है।

देश के विभिन्न पर्वतीय क्षेत्रों में कृषिवानिकी पद्धति के अन्तर्गत लगाये जाने वाली वृक्ष प्रजातियॉ निम्नलिखित हैं-
1.पश्चिमी हिमालय क्षेत्र ग्रीविया, केल्टस, अल्वीजिया, बांझ, कचनार, अलनस, रूबीनिया, देवदार, एलिएन्थिस।

2.पूर्वी हिमालय क्षेत्ग्रीविया, एलनस, कचना, अर्जुन, बहेड़ा आर्टोकार्पस, पीपल, बरगद, यूकेलिप्टस, सुबबूल, विलायती बबूल, कदम्ब, पलास, ढेंचा।

3.दक्षिणी हिमालय क्षेत्र
   

बबूल, इरिधिना, यूजीनिया, एलिएनसि, सेमल।

    * सिंचित भूमि में मिश्रित कृषि के रूप में चारा, ईधन, लकड़ी तथा वनोंपज प्राप्त करने के साथ-साथ सब्जियों की

अन्तःकृषि तथा असिंचित भूमि में मडुवा एवं गेहूँ की खेती की जाती है।

    * धान-गेहूँ के साथ मेड़ों पर पूला एवं शहतूत की खेती।

    * भीमल तथा टरमिनेलिया के साथ धान-गेहूँ अथवा मक्का-गेहूँ की खेती की जाती है।

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तराई क्षेत्र

    * यूकेलिप्टिस के साथ सोयाबीन    --  गेहूँ

    * यूकेलिप्टिस के साथ लाही       --  मसूर/चना

    * पापलर के साथ सोयाबीन/मक्का/लाही       --    गेहूँ/मसूर

    * तीन वर्ष तक गन्ने के साथ गेहूँ, मसूर, चना, मटर तथा आलू

    * तीन वर्ष तक पापलर/यूकेलिप्टिस के साथ गन्ना     --   धान/आलू

    * सुबबूल/ठैचां/पापलर के साथ सरसों आदि

    * तीन वर्ष तक शीशम व बबूल के साथ गन्ना      --      गेहूँ

कृषिवानिकी पद्धतियां जो कि पर्वतीय क्षेत्रों के लिए संस्तुति की गयी है निम्नलिखित हैं।

उद्यानवानिकी पद्धति

शस्य जलवायुगत क्षेत्र तथा परिस्थितियों के अनुसार वृक्षों के साथ उद्यानिकी फसलों को उगाया जा सकता है। जिससे किसानों को फसल की उपज के साथ-साथ ईधन, चारा तथा लकड़ी प्राप्त होती है।
जैसे - चाय, रबड़, नारियल आदि। इस पद्धति के अन्तर्गत वृक्षों के साथ औषधीय फसलें, खाद्यान्न एवं तिलहन फसलें तथा पुष्पोत्पादन किया जा सकता है। इसके अलावा फल प्रदान करने वाले वृक्षों को भी लगाया जाता है। कृषिवानिकी के अन्तर्गत इन फसलों से किसानों को अधिकतम लाभ प्राप्त हो सकता है।

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परती भूमि - चारागाह पद्धति

कृषिवानिकी के अन्तर्गत वृक्षों से पशुओं के लिए चारा प्राप्त किया जा सकता है जो कि अन्य घासों की अपेक्षा अधिक स्वास्थ्यवर्धक हाता है। घासों तथा वृक्षों के एक साथ उगाने से किसान वर्ष भर भरपूर मात्रा में पशुओं के लिए चारा प्राप्त कर सकते हैं।

फसल - वानिकी पद्धति

पर्वतीय क्षेत्रों में जहां कि फसलें भली प्रकार नहीं उगायी जा सकती हैं, ऐसे क्षेत्रों में जहां कि भूमि का ठाल ऊँचा - नीचा तथा विविध प्रकार का होता है, प्रारम्भिक अवस्था में वृक्षों को लगाकर उनके साथ फसल उत्पादन किया जा सकता है। इस पद्धति के अन्तर्गत गेहूँ, सरसों, मटर, मक्का, आलू, गोभी, टमाटर, मिर्च आदि फसलों को उगाया जा सकता है जब तक कि वृक्ष इन फसलों की उपज को प्रभावित न करें।

 

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