सूरतेहाल : 70 गढूं का नरेश ठाठ मा, जनता का बबाल सी जख्या-तखी
पहाड़ में हर पत्थर के नीचे एक सीएम, अगर यही हाल रहा तो कैसे होगा प्रदेश का विकास
भूपेंद्र कंडारी/एसएनबी, देहरादून। लोकमान्यता है कि देवभूमि उत्तराखंड में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास है। यहां के हर पत्थर में कोई न कोई देवता रचा-बसा है। देवभूमि ने देश के राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र को बड़े-बड़े रथी-महारथी दिये। विडम्बना यह रही कि जो एक बार इन पहाड़ों को छोड़कर शहरों को गया, वह फिर लौट कर नहीं आया। आजादी के बाद से लगातार उपेक्षा का दंश झेल रहे इस पहाड़ी राज्य में समय के साथ समस्याएं भी पहाड़ जैसी होनी लगीं। खेत-खलिहान बारिश का, गांव पलायन करने वालों का, स्कूल मास्टरों का, अस्पताल डाक्टरों का और युवा वर्ग रोजगार का इंतजार करते थक गया, लेकिन कोई नहीं आया। पीर जब पर्वत सी हो गई तब पृथक राज्य आंदोलन की गंगा निकली और सुनहरे भविष्य के सपने आंखों में लेकर कई लोगों ने अपनी शहादत दे दी। शहादत देने वालों को यह मालूम होता कि इस प्रदेश के नेता उनकी शहादत को यों ही जाया कर देंगे और उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश की कार्बन कापी बना देंगे तो शायद वे ऐसा कतई नहीं करते। प्रदेश के नेताओं ने शहीद होने वालों के सपने राज्य बनने के पहले दिन ही उजाड़ दिये। राज्य की बुनियाद पड़ने के साथ ही यहां का हर नेता मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने लगा और आज 12 साल बाद यह स्थिति है कि पहाड़ के हर पत्थर के नीचे एक मुख्यमंत्री छिपा हुआ है। आगाज करते हैं उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी से। शहीदों के परिजनों ने अपने आंसू ठीक से पोंछे भी नहीं थे कि मुख्यमंत्री बनने के लिए भाजपाइयों में घमासान शुरू हो गया। नवम्बर 2000 में मुख्यमंत्री के लिए हुआ घमासान शायद ही कोई भूल पाया हो। नित्यानंद स्वामी का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए तय होने के साथ ही पूरी भाजपा बिखर कर तार-तार हो गई। पहाड़-मैदान के नाम पर जनता को गुमराह करने की कोशिशें भी खूब हुई। भाजपा के वरिष्ठ नेता जो कि उस समय खुद को मुख्यमंत्री का प्रबल दावेदार बता रहे थे, वह नौ नवम्बर 2000 को परेड मैदान में होने वाले शपथ ग्रहण समारोह में अंतिम समय तक नहीं गए और मुख्यमंत्री का विरोध ही करते रहे। आखिर में बगावत करने वालों को किसी तरह मनाया तो गया लेकिन वह शांत नहीं बैठे और अंत में 30 अक्टूबर 2001 को तब चैन की सांस ली, जब भगत सिंह कोश्यारी राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री बने। नित्यानंद स्वामी को कुर्सी से हटाने का नतीजा यह हुआ कि भाजपा आपस में ही लड़ती-भिड़ती रह गई और मार्च 2002 में विधानसभा चुनाव हार गई। कांग्रेस तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत के नेतृत्व में चुनाव जीती, लेकिन मुख्यमंत्री के पद के लिए सभी वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं में घमासान हो गया। सभी नेता अपने साथ आठ-दस विधायक लेकर दावेदारी करने लगे और अंत में हुआ यह कि दो मार्च 2002 को नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखंड के तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली। तिवारी को पैराशूट मुख्यमंत्री बताते हुए विद्रोही उनके खिलाफ पूरे पांच साल तक खम ठोकते रहे, लेकिन राजनीति के उस्ताद तिवारी ने सरकार को आंच नहीं आने दी। कांग्रेस ने वर्ष 2002 में अपने घोषणा पत्र में हर साल दो लाख लोगों को रोजगार देने का वादा किया था, लेकिन रोजगार तो दूर की बात पहाड़ में तेजी के साथ गांव के गांव खाली होने लगे। समूचे प्रदेश में जमीन माफिया की पौ बारह रही। फिर वर्ष 2007 में भाजपा ने पहाड़वासियों के आंसू पोछने का वादा किया। पहाड़ के भोले-भाले लोग फिर भाजपा के झांसे में आ गए। भगत सिंह कोश्यारी के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव का नतीजा यह हुआ कि मुख्यमंत्री का सेहरा भाजपा ने भी कांग्रेस की तर्ज पर भुवन चंद्र खंडूड़ी के सिर बांध दिया। इसे अन्याय बताते हुए विद्रोही भाजपा कार्यकर्ता आखिर तक लड़ते रहे और अंत में भाजपा हाईकमान ने थक-हार कर खंडूड़ी की पसंद से ही 24 जून 2009 को रमेश पोखरियाल के सिर मुख्यमंत्री का ताज बांध दिया। इसके बाद जो लोग रमेश पोखरियाल से असंतुष्ट थे, उन्होंने मोर्चा खोल दिया और वह तब तक लड़ते रहे जब तक रमेश पोखरियाल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने एक बार फिर पलटी खाई और 11 सितम्बर 2011 भुवनचंद्र खंडूड़ी को दूसरी बार मुख्यमंत्री का कांटों भरा ताज सौंप दिया। पहले भाजपाई फिर तिवारी शासनकाल में कांग्रेस कार्यकर्ता और उसके बाद भाजपा कार्यकर्ता राज्य में पूरे पांच साल तक मुख्यमंत्री पद को लेकर आपस में लड़ते रहे। इस बार के विधानसभा चुनाव में किसी तरह भाजपा से संख्या में एक विधायक ज्यादा कांग्रेस का निर्वाचित क्या हुआ कि कांग्रेस का हर नेता मुख्यमंत्री बनने के सपने संजोने लगा। चुनाव परिणाम से लेकर आज तक कांग्रेसियों के बीच क्या घमासान हुआ, किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस के दिग्गज ही कह रहे हैं कि विजय बहुगुणा की सरकार एक साल से ज्यादा नहीं चलेगी। यानी जनता फिर से एक और घमासान देखने के लिए तैयार रहे। राजनीतिज्ञों की इस खींचतान और आपसी कलह का खमियाजा इस पहाड़ी प्रदेश की गरीब जनता को भुगतना पड़ रहा है। आज भी पहाड़ में गांव के गांव खाली हो रहे हैं। प्राथमिक विद्यालयों में आज भी पांच कक्षाएं तीन कमरों में चल रही हैं। 80 के दशक में बनी सड़कों का डामरीकरण तक नहीं हो पाया है। गांव बिजली, पानी के लिए आज भी तरस रहे हैं। क्या कोई नेता बता सकता है कि पिछले दस सालों में ऋषिकेश और हल्द्वानी से ऊपर पहाड़ पर कितना विकास हुआ। कितने उद्योग-धंधे फलीभूत हुए? विकास की कितनी योजनाओं पर काम हुआ? सिवाय इसके कि पहाड़ के पत्थरों में बसे 33 करोड़ देवताओं की जगह अब मुख्यमंत्रियों ने ले ली है।[/size][/color]