Author Topic: 52 Garh Of Garhwal - गडवाल के 52 गढ के बारे में जानकारी (Exclusive)  (Read 51536 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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घनसाली (टिहरी गढ़वाल)। गढ़वाल के 52 गढ़ों का अपना-अपना इतिहास रहा है। बलिदान, स्वाभिमान, प्रेम और शौर्य गाथाओं के लिए यह गढ़ प्रसिद्ध हैं। इन्हीं में से एक गढ़ है रानीगढ़, जहां बेटी के स्वाभिमान की रक्षा के लिए गढ़पति का पूरा परिवार ही युद्ध में मारा गया, लेकिन परिवार के सदस्यों ने हार नहीं मानी।

जनपद के भिलंगना प्रखंड के पट्टी भिलंग में पड़ता है रानीगढ़। यहां के गढ़पति थे सोहनपाल। सोहनपाल का यहां पर गुप्त महल भी था जहां वह अपने वजीर के साथ रणनीति तय करते था। सोहनपाल यहां पत्नी, तीन पुत्रियों के अलावा भाई धर्मपाल तथा पुत्र विजयपाल के साथ रहता था। एक बार उत्तरकाशी के गढ़पति विजय सिंह यहां भ्रमण पर आया, तो वह सोहनपाल की बड़ी पुत्री रानी पर मोहित हो गया। उसने सोहनपाल से रानी से शादी करने का प्रस्ताव रखा, जिसे सोहनपाल ने ठुकरा दिया। निराश होकर विजय सिंह वापस चला गया, लेकिन उसने अपने मन में ठान लिया था कि वह सोहनपाल की पुत्री को अपनी रानी बनाकर ही रहेगा। कुछ समय पश्चात विजय सिंह अपने सेना के साथ रानीगढ़ आ धमका और राजपुत्री से विवाह न होने पर युद्ध की चेतावनी दे दी। सोहनपाल भी कहां झुकने वाला था। वह भी युद्ध के लिए तैयार हो गया। देखते ही देखते दोनों गढ़पतियों के बीच युद्ध शुरू हो गया। तीन दिन तक युद्ध चलता रहा, भयंकर मार-काट हुई। लड़ाई में उनका बेटा विजयपाल मारा गया। फिर गढ़पति ने अपने भाई धर्मपाल को रणभूमि में भेज दिया लेकिन, वह भी मारा गया। अंतत: राजा स्वयं रणभूमि में उतर गया। युद्ध करते-करते सोहनपाल भी मारा गया। उस समय उसकी तीनों पुत्रियां गुप्त महल में छिपी हुई थी। युद्ध खत्म होने के बाद जब उत्तरकाशी राजा विजय सिंह को यह पता चला की तीनों बहनें गुप्त महल में छिपी हुई हैं, तो वह भीतर घुस गया। उसने उनकी बड़ी पुत्री का हाथ पकड़ कर कहा कि वह तीनों को अपने महल में ले जाकर अपनी पटरानियां बनाएगा। यह सुनते ही वह क्रोधित हो गई और तलवार निकाल पहले अपनी दोनों बहनों का गला काट दिया और फिर स्वयं का भी सर कलम कर दिया। तब से इस गढ़ को रानीगढ़ के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यहां गढ़पति व उसकी वीर पुत्री की याद में विशाल मंदिर बनाया गया है। यहां पर दूर-दराज से
लोग मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं।


http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6045797.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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History & Origin
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It is possible that people who came from Garhwal adopted their gotra based on it. Garhwal is a region and administrative division of Uttarakhand state, India, lying in the Himalayas. It is believed that Garhwal was named so because it had 52 Garhs of 52 petty chieftainships, each chief with his own independent fortress (garh). Nearly 500 years ago, one of these chiefs, Ajai Pal, reduced all the minor principalities under his own sway, and founded the Garhwal Kingdom.

According to Thakur Deshraj, during the period of Anangpal they were the rulers of Garhmukteshwar. One ancestor of Rajpal was Jat chieftain named Mukta Singh, who constructed the Garhmukteshwar fort. When Prithvi Raj became the ruler of Delhi he attacked Garhmukteshwar. There was a severe war and Garhwals were able to repel the army of Prithvi Raj Chauhan but the circumstances of that time forced them to move out from there and migrated to Rajasthan.

At Talawdi when there was war between Muhammad Ghori and Prithvi Raj, Jats attacked the army of Mughals but they did not support Prithvi Raj because he had occupied their state. One Jat warrior Puran Singh became General of the Army of Malkhan. Malkhan had become popular due to support of Puran Singh.

When Garhwals lost Garhmukteshwar, they came to Rajasthan and occupied ker, bhatiwar, Chhawsari etc near Jhunjhunu in 13th century. As per their bards when these people came to this place, Johiya, Mohiya Jats were the rulers of this area. Bhats have mentioned them as Tomars. When Muslim influence increased in this area they had wars with them as a result they moved from here to there. One of these groups moved to ‘Kuloth’, which was ruled by Chauhans. After a war they occupied Kuloth. Sardar Kurdaram who was a descendant of Garhwals of Kuloth had been tehsildar of Nawalgarh.

It is also said that due to war from inside of the fort they were called Garhwals. Those who fought war from out side the fort were called ‘Bahrola’ or ‘Barola’. Those who fought on the gate were called ‘Falsa’ (local name for gate). It shows that this gotra is title based.

It is also possible that they were Panduvanshi or Kuntals. Bhats have mentioned them as Tomars and Tomars were also Panduvansi. Garhmukteshwar has also been mentioned in the Bhagavata Purana and the Mahabharata. It is said that it was a part of the ancient city of Hastinapur (the capital of the Kauravas). There was an ancient fort here, which was repaired by a Maratha leader named Mir Bhawan. The name of the place is derived from the great temple of Mukteshwar Mahadeva, dedicated to the goddess Ganga who is worshipped here in four temples, two situated on a high cliff and two blow it.

http://en.wikipedia.org/wiki/Garhwal_(clan)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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                 Chandpurgarhi by Dinesh Pundir                                Chandpurgarhi                        Remains of fort of Chandpur Garhi near Adbadri.(Photo Dinesh Pundhir)

Hisalu

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52 Garhs of Garhwal as mentioned in Narendra Negi's Song
"Veero Bhado Ko Desh, Baawan garho KO Desh"



1
LweGarh
2
BadiyaarGarh
3
Lodangarh
4
BhardaarGarh
5
TopGarh
6
ChaundaGarh
7
ChaandpurGarh
8
BadhaanGarh
9
KunjriGarh
10
BharpurGarh
11
KweeliGarh(JauraasiGarh)
12
MaulyaGarh
13
RaikaGarh
14
UpuGarh
15
Kandaargarh
16
LohaabGarh
17
SangelaGarh
18
MaabGarh
19
RawaaiGarh
20
NaalaGarh
21
JautGarh
22
HindaawGarh
23
MungarGarh
24
TandaaGarh
25
UptaGarh
26
KhairaGarh
27
IdiyaGarh
28
AiraasuGarh
29
GarhgaangGarh
30
GarhkotGarh
31
SabliGarh
32
NawaansuGarh
33
ChandkotGarh
34
BanGarh
35
GujduGarh
36
MasoorGarh
37
BadalpurGarh
38
LangoorGarh
39
SumariGarh
40
UlkhaGarh
41
AjmeerGarh
42
NayaalGarh
43
SumyaalGarh
44
DevalGarh
45
RaniGarh
46
SankarGarh
47
KolGarh
48
ShriguruGarh
49
DasoliGarh
50
PawaarGarh
51
BangarGarh
52
BhuwnaGarh

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Frm - गीतेश सिंह नेगी

     इतिहास के झरोखों से : उत्तराखंड क़ी बीर गाथाएं (राजा धामदेव क़ी " सागर ताल गढ़ " विजय गाथा )

 
देवभूमि उत्तराखंड अनादि काल से ही वेदों , पुराणों ,उपनिषदों और समस्त धर्म ग्रंथों में एक प्रमुख अध्यात्मिक केद्र के रूप में जाना जाता रहा है | यक्ष ,गंधर्व ,खस ,नाग ,किरात,किन्नरों की यह  करम स्थली  रही है तो भरत जैसे प्राकर्मी और चक्रवर्ती  राजा की यह जन्म और क्रीडा स्थली रही है | यह प्राचीन  ऋषि मुनियों - सिद्धों की तप  स्थली भूमि रही है | उत्तराखंड एक और जहाँ  अपने अनुपम प्राक्रतिक  सौंदर्य के कारण  प्राचीन काल से ही मानव जाति को को  अपनी  आकर्षित  करता रहा है तो वहीं दूसरी और केदारखंड और मानस खंड (गढ़वाल  और कुमौं ) इतिहास के झरोखों में  गढ़ों और भड़ों  की ,बलिदानी वीरों की जन्मदात्री भूमि भी कही ज़ाती रही  है | महाभारत युद्ध में इस  क्षेत्र के   वीर राजा सुबाहु (कुलिंद का राजा ) और हिडिम्बा पुत्र घटोत्कच का और अनेकों  ऐसे राजा- महाराजाओं का  वर्णन मिलता है जिन्होने कौरवों और पांडवों की और से युद्ध लड़ा था | नाग वीरों में यहाँ वीरंणक नाग (विनसर के वीर्नैस्वर भगवान ) ,जौनसार के महासू नाग (महासर नाग ) जैसे वीर आज भी पूजे जाते हैं | आज भी इन्हे पौड़ी -गढ़वाल में  डांडा  नागराजा  ,टिहरी में सेम मुखिम,कुमौं शेत्र में बेरी -  नाग ,काली नाग ,पीली नाग ,मूलनाग, फेर्री नाग ,पांडूकेश्वर में  में शेषनाग ,रत्गौं में भेन्कल नाग, तालोर में सांगल नाग ,भर गोवं  में भांपा  नाग तो नीति  घाटी में लोहान देव नाग और दूँन  घाटी में नाग सिद्ध का बामन  नाग अदि नाम से पूजा जाता है | जो प्राचीन काल में नाग बीरो कि वीरता परिभाषित करता है | बाडाहाट (उत्तरकाशी) कि बाड़ागढ़ी   के नाग बीरों कि हुणो पर विजय का प्रतीक   और खैट   पर्वत कि अन्चरियों कि गाथा (७ नाग पुत्रियाँ जो हुणो के साथ अंतिम साँस तक  तक संघर्ष  करते हुए वीरगति  का प्राप्त हो गयी थी ) आज भी " शक्ति  त्रिशूल "के रूप में  नाग वीरों क़ी  वीरता क़ी गवाही देता है तो गुजुडू  गढ़ी का गर्जिया  मंदिर गुर्जर और प्रतिहार वंश के वीरों का शंखनाद करता है | यूँ तो देवभूमि वीर भड़ो और गढ़ों क़ी भूमि होने के कारण अपनी हर चोटी हर घाटी में वीरों क़ी एक गाथा का इतिहास लिये हुए है जिनकी दास्तान आज भी यहाँ के लोकगीतों ,जागर गीतों आदि के रूप में गाई ज़ाती है यहाँ आज भी इन् वीरों को यहाँ आज भी  देवरूप में पूजा जाता है |   उत्तराखंड के इतिहास में नाथ- सिद्ध प्रभाव प्रमुख भूमिका निभाता है क्यूंकि कत्युरी   वंश के राजा  बसंत देव (संस्थापक राजा )  क़ी नाथ गुरु  मत्स्येन्द्र  नाथ (गुरु गोरख नाथ के गुरु ) मे आस्था थी | १० वी शताब्दी में इन् नाथ  सिद्धों ने कत्युर वंश में अपना प्रभाव देखते हुए नाथ  सिद्ध नरसिंह देव (८४ सिद्धों मे से एक )  ने कत्युर वंश के राजा से  जोशीमठ राजगद्दी  को दान स्वरुप प्राप्त कर उस पर गोरखनाथ क़ी पादुका रखकर ५२ गढ़ूं के भवन नारसिंघों क़ी नियुक्ति क़ी जिनका उल्लेख नरसिंह वार्ता में निम्नरूप से मिलता है   :  वीर बावन  नारसिंह -दुध्याधारी नारसिंह ओचाली  नरसिंह कच्चापुरा  नारसिंह नो तीस  नारसिंह -सर्प नो वीर नारसिंह -घाटे  कच्यापुरी  नरसिंह - -चौडिया नरसिंह- पोडया नारसिंह - जूसी  नारसिंह -चौन्डिया  नारसिंह कवरा नारसिंह-बांदू  बीर  नारसिंह- ब्रजवीर नारसिंह खदेर वीर नारसिंह - कप्पोवीर नारसिंह -वर का वीर नारसिंह -वैभी नारसिंह घोडा नारसिंह तोड्या नारसिंह -मणतोडा  नारसिंह चलदो नार सिंह - चच्लौन्दो   नारसिंह ,मोरो  नारसिंह लोहाचुसी  नारसिंह मास भरवा नारसिंह ,माली  पाटन नारसिंह पौन घाटी नारसिंह केदारी नारसिंह खैरानार सिंह सागरी नरसिंह ड़ोंडिया नारसिंह बद्री का पाठ थाई -आदबद्री छाई-हरी हरी द्वारी नारसिंह -बारह हज़ार कंधापुरी को आदेश-बेताल घट  वेल्मुयु भौसिया -जल मध्ये नारसिंह -वायु मध्ये  नार सिंह वर्ण मध्ये  नार सिंह   कृष्ण अवतारी नारसिंह घरवीरकर नारसिंह रूपों नार सिंह पौन धारी नारसिंह जी सवा गज फवला  जाणे-सवा मन सून की सिंगी जाणो तामा पत्री जाणो-नेत पात की झोली जाणी-जूसी मठ के वांसो  नि पाई  शिलानगरी को वासु  नि पाई (साभार सन्दर्भ डॉ. रणबीर  सिंह चौहान कृत " चौरस   की धुन्याल से " , पन्ना १५-१७)   
            इसके साथ नारसिंह देव ने अपने राजकाज   का संचालन करने और ५२ नारसिंह  को मदद करने हेतु  ८५ भैरव भी  नियुक्त  स्थापित किये इसके अलावा कईं  उपगढ़ भी स्थापित   किये   गए जिनके बीर भडौं गंगू रमोला,लोधी रिखोला  ,सुरजू कुंवर ,माधो सिंह भंडारी ,तिलु रौतेली ,कफ्फु चौहान आदि के उत्तराखंड में आज भी जागर गीतौं -पवाड़ों  में यशोगान होता है |                                                                                       
                                                                                           
" सागर ताल गढ़ विजय गाथा "[/size][/b] इन्ही गढ़ों में से एक "सागर ताल गढ़ " गढ़ों के इतिहास में प्रमुख  स्थान रखता है जो कि भय-संघर्ष और विजय युद्ध रूप में उत्तराखंड के भडौं कि बीरता का साक्षी रहा है जो कि सोंन  नदी और रामगंगा के संगम पर कालागढ़ (काल का गढ़ ) दुधिया चोड़,नकुवा ताल आदि नामों से भी जाना जाता है | तराई -भावर का यह क्षेत्र तब माल प्रदेश के नाम से जाना  जाता था | उत्तराखंड के प्रामुख कत्युरी इतिहासकार डॉ० चौहान    के अनुसार यह लगभग दो सो फीट लम्बा   और लगभग इतना ही चौड़ा टापू पर बसा एक सात खण्डो का गढ़ था जिसके  कुछ खंड जलराशि में मग्न थेय  जिसके अन्दर ही अन्दर खैरा-  गढ़ (समीपस्थ  एक प्रमुख  गढ़ ) और रानीबाग़ तक सुरंग बनी हुयी थी | स्थापत्य   कला में  में सागर ताल गढ़ गढ़ों में   जितना अनुपम था उतना ही भय और आतंक के लिये भी जाना जाता था | सागर ताल गढ़ गाथा का प्रमुख  नायक  लखनपुर के कैंतुरी राजा  प्रीतम देव(पृथिवी पाल  और पृथिवी शाही आदि नामों से भी जाना जाता है ) और मालवा से हरिद्वार  के समीप आकर बसे  खाती क्षत्रिय राजा झहब राज कि सबसे छोटी पुत्री मौलादई (रानी जिया और पिंगला रानी आदि नाम  से भी जानी ज़ाती है  ) का नाथ सिद्धों और  धाम  यात्राओं के पुण्य से उत्पन्न प्रतापी पुत्र   धामदेव था | रानी जिया धार्मिक स्वाभाव कि प्रजा कि जनप्रिय रानी थी ,चूँकि रानी जिया के अलावा राजा पृथिवी पाल   कि अन्य बड़ी रानिया भी थी जिनको धामदेव के पैदा होते ही रानी जिया से ईर्ष्या होने लगी | धीरे धीरे धामदेव बड़ा होने लगा | उस समय माल-सलाँण अक्षेत्र   के सागर ताल गढ़ पर नकुवा और समुवा का बड़ा आतंक रहता था जो सन् १३६०-१३७७ ई ०   के मध्य  फिरोज तुगलक के अधीन आने के कारण  कत्युरी राजाओं के हाथ  से निकल गया था जिसके बाद से समुवा मशाण जिसे साणापुर (सहारनपुर ) कि " शिक" प्रदान कि गयी थी का   आंतंक चारो तरफ छाया हुआ था ,समुवा स्त्रियों  का अपरहण करके सागरतल गढ़ में चला जाता था ,और शीतकाल में कत्युरी राजाओं  का भाबर  में पशुधन  भी लुट लेता था , चारो और समुवा समैण  का आतंक मचा रहता था | इधर कत्युरी राजमहल में रानी जिया और धाम देव के विरुद्ध  बाकी रानियौं द्वारा साजिश का खेल सज रहा था | रानियों ने धामदेव को अपने रास्ते से हटाने कि चाल के तहत राजा पृथ्वीपाल  को पट्टी पढ़ानी  शुरू कर दी और   राजपाट के  के बटवारे में रानीबाग से सागरतल गढ़ तक का भाग रानी जिया को दिलवाकर और राज को मोहपाश में बांध कर धामदेव को सागर ताल गढ़ के अबेध गढ़ को साधने हेतु उसे  मौत के मुंह  में भिजवा दिया | पिंगला रानी माता जिया ने गुरु का आदेश मानकर विजय तिलक कर पुत्र धाम देव को ९ लाख कैंत्युरी सेना और अपने मायके  के बीर भड ,भीमा- पामा कठैत,गोरिल राजा (जो कि गोरिया और ग्वील भी कहा जाता है और जो  जिया कि बड़ी बहिन  कलिन्द्रा  का  पुत्र था ),डोंडीया  नारसिंह और भेरौं शक्ति के वीर बिजुला नैक (कत्युर राजवंश कि प्रसिद्ध राजनर्तकी छ्मुना -पातर का पुत्र ) और निसंग महर सहित सागर ताल गढ़  विजय हेतु प्रस्थान का  आदेश दिया | धाम कि सेना ने सागर ताल गढ़ में समुवा को चारो और से घेर लिया ,इस बीच धामदेव को राजा पृथ्वीपाल कि बीमारी का समाचार मिला और उसने निसंग महर को सागर ताल को घेरे रखने कि आज्ञा देकर लखनपुर कि और रुख किया और रानियों को सबक सिखाकर लखनपुर कि गद्धी कब्ज़ा कर वापिस सागर ताल गढ़ लौट आया जहाँ समुवा कैंत्युरी सेना के भय से सागर ताल गढ़ के तहखाने में घुस गया था | ९ लाख  कैंत्युरी  सेना के सम्मुख अब समुवा समैण छुपता फिर रहा था | गढ़ के तहखानों में भयंकर  युद्ध छिड़ गया  था और  खाणा और कटारों  कि टक्कर से सारा सागर ताल गढ़ गूंज उठा था |युद्ध में समुवा समैण मारा गया नकुवा को गोरिल ने जजीरौं  से बाँध दिया  और जब बिछुवा कम्बल ओढ़ कर भागने लगा तो धाम देव ने उस पर कटार से  वार कर उसे घायल कर दिया | चारो और धामदेव कि जय जयकार होने लगी | जब धामदेव ने गोरिल से  खुश होकर कुछ मागने  के लिये कहा तो गोरिल ने अपने पुरुष्कार में कत्युर कि राज चेलियाँ मांग ली जिससे धामदेव क्रुद्ध हो गया और गोरिल नकुवा को लेकर भाग निकला परन्तु भागते हुए धाम देव के वर से उसकी टांग घायल  हो गयी  थी | गोरिल ने नुकवा को लेकर खैरा  गढ़ कि खरेई पट्टी के सेर बिलोना  में कैद कर लिया जहाँ धामदेव से उसका फिर युद्ध हुआ और नकुवा उसके हाथ से बचकर धामदेव कि शरण  में आ गया और अपने घाटों  कि रक्षा का भार देकर धामदेव ने उसे प्राण दान दे   दिया  परन्तु बाद में जब नकुवा फिर अपनी चाल पर आ गया तो न्याय प्रिय  गोरिया (गोरिल )  ने उसका वध कर दिया  |
 सागर ताल गढ़ विजय  से धामदेव कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल चुकी थी और मौलादेवी अब कत्युर वंश कि राजमाता मौलादई के नाम से अपनी कत्युर का राज चलाने  लगी | धामदेव को दुला शाही  के नाम से भी जाना जाता था वह कत्युर का मारझान (चक्रवर्ती ) राजा था और उसकी राजधानी वैराठ-लखनपुर थी उसके राज में सिद्धों का पूर्ण  प्रभाव  था और दीवान पद पर महर जाति के वीर   ,सात भाई निन्गला कोटि और सात भाई पिंगला कोटि  प्रमुख थे | धामदेव अल्पायु में कि युद्ध करते हुए शहीद  हो गया था परन्तु उसकी सागर ताल गढ़ विजय का उत्सव आज भी उसके भगत जन धूमधाम से मानते है वह कत्युर वंश में प्रमुख  प्रतापी राजा था जिसके काल को कत्युर वंश का स्वर्ण काल कहा जाता है जिसमे अनेकों मठ मंदिरों का निर्माण हुआ ,पुराने मंदिरों को जीर्णोद्धार किया गया  और जिसने अत्याचारियों  का अंत किया |  वीर धाम देव तो भूतांगी होकर चला गया परन्तु आज भी सागर ताल  विजय गाथा उसकी वीरता का बखान करती है और कैंतुरी पूजा में आज भी उसकी खाणा और कटार पूजी ज़ाती है | कैंतुरी  वार्ता में "रानी जिया कि खली म़ा नौ लाख कैंतुरा  जरमी गयें " सब्द आज भी कैंतुरौं मैं जान फूंक कर पश्वा रूप में अवतरित हो जाता है और युद्ध सद्रश   मुद्रा में  नाचने लगता है धामदेव समुवा को मरने कि अभिव्यक्ति देते हैं तो नकुवा  जजीरौं  से बंधा होकर धामदेव से अनुनय विनय कि प्रार्थना करने लगता है तो विछुवा को  काले कम्बल से छुपा कर  रखा जाता है | इसके उपरान्त समैण पूजा में एक जीवित सुकर  को गुफा में बंद कर दिया जाता है और रात में  विछुवा समैण को अष्टबलि   दी ज़ाती है जो कि घोर अन्धकार में सन्नाटे   में  दी ज़ाती है और फिर चुप चाप अंधेरे में गड़ंत करके बिना किसी से बात किये  चुपचाप आकर एकांत में वास  करते हैं और तीन दिन तक ग्राम  सीमा से बहार प्रस्थान नहीं करते अन्यथा समैण लगने का भय बना रहता है | धामदेव कि पूजा के विधान से ही समुवा कि क्रूरता और उस काल में उसके भय का बोध होता है | उसके बाद दल बल के सात  और शस्त्र और वाद्या  यंत्रों के सात जब गढ़ के समीप  दुला चोड़ में धामदेव कि पूजा होती है तो धामदेव का पश्वा और ढोल वादक गढ़ कि गुफाओं में दौड़ पड़ता  है   और तृप्त होने पर स्वयं जल से बहार आ जाता हैं उसके बाद बडे धूम धाम-धाम  से रानी जिया कि रानीबाग स्थित  समाधि "चित्रशीला " पर एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है | अब इसे वीर भडौं कि वीरता का प्रभाव कहें या गढ़-कुमौनी वीरों  कि वीरता शोर्य और बलिदानी इतिहास लिखने कि परम्परा  या फिर मात्रभूमि के प्रति उनका अपार  स्नेह ,कारण चाहे जो भी हो पर आज भी उत्तराखंडी बीर अपनी भारत भूमि कि रक्षा के लिये कफ़न बांधने वालौं  में सबसे आगे खडे नज़र आते है फिर चाहे  वह चीन के अरुणाचल सीमा युद्ध का "जसवंत बाबा  " हो पाकिस्तान युद्ध के अमर शहीद ,या विश्व युद्ध के फ्रांस युद्ध के विजेता या  " पेशावर क्रांति " के   अग्रदूत  " वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली " ,या कारगिल के उत्तराखंडी रणबांकुरे  या अक्षरधाम और मुंबई हमलों में  शहीद म़ा भारती के अमर सपूत , सब आज भी उसी   " वीर  भोग्या  बसुन्धरा " कि परम्परा का सगर्व  निर्वाहन  कर रहे हैं |
   
 
संदर्भ ग्रन्थ :  उत्तराखंड के वीर भड , डा ० रणबीर सिंह चौहान
 
                    गढ़वाल के गढ़ों का इतिहास एवं पर्यटन के सौन्दर्य स्थल  ,डा ० रणबीर सिंह चौहान                      ओकले तथा गैरोला ,हिमालय की लोक गाथाएं                      यशवंत सिंह कटोच -मध्य  हिमालय का पुरातत्व विशेष आभार : डॉ. रणबीर सिंह चौहान, कोटद्वार  (लेखक और इतिहासकार )

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चांदपुर गढ़ी
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यह कर्णप्रयाग का निकटवर्ती आकर्षण है। यह उत्तराखंड राज्य में पड़ता है। गढ़वाल का प्रारंभिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का है, जिन्होंने जोशीमठ से शासन किया और वहां से 11वीं सदी में अल्मोड़ा चले गये। गढ़वाल से उनके हटने से कई छोटे गढ़पतियों का उदय हुआ, जिनमें पंवार वंश सबसे अधिक शक्तिशाली था जिसने चांदपुर गढ़ी (किला) से शासन किया। कनक पाल को इस वंश का संस्थापक माना जाता है। उसने चांदपुर भानु प्रताप की पुत्री से विवाह किया और स्वयं यहां का गढ़पती बन गया। इस विषय पर इतिहासकारों के बीच विवाद है कि वह कब और कहां से गढ़वाल आया।

कुछ लोगों के अनुसार वह वर्ष 688 में मालवा के धारा नगरी से यहां आया। कुछ अन्य मतानुसार वह गुज्जर देश से वर्ष 888 में आया जबकि कुछ अन्य बताते है कि उसने वर्ष 1159 में चांदपुर गढ़ी की स्थापना की। उनके एवं 37वें वंशज अजय पाल के शासन के बीच के समय का कोई अधिकृत रिकार्ड नहीं है। अजय पाल ने चांदपुर गढ़ी से राजधानी हटाकर 14वीं सदी में देवलगढ़ वर्ष 1506 से पहले ले गया और फिर श्रीनगर (वर्ष 1506 से 1519)।

यह एक तथ्य है कि पहाड़ी के ऊपर, किले के अवशेष गांव से एक किलोमीटर खड़ी चढ़ाई पर हैं जो गढ़वाल में सबसे पुराने हैं तथा देखने योग्य भी हैं। अवशेष के आगे एक विष्णु मंदिर है, जहां से कुछ वर्ष पहले मूर्ति चुरा ली गयी। दीवारें मोटे पत्थरों से बनी है तथा कई में आलाएं या काटकर दिया रखने की जगह बनी है। फर्श पर कुछ चक्राकार छिद्र हैं जो संभवत: ओखलियों के अवशेष हो सकते हैं। एटकिंसन के अनुसार किले का क्षेत्र 1.5 एकड़ में है। वह यह भी बताता है कि किले से 500 फीट नीचे झरने पर उतरने के लिये जमीन के नीचे एक रास्ता है। इसी रास्ते से दैनिक उपयोग के लिये पानी लाया जाता होगा। एटकिंसन बताता है कि पत्थरों से कटे विशाल टुकड़ों का इस्तेमाल किले की दीवारों के निर्माण में हुआ जिसे कुछ दूर दूध-की-टोली की खुले खानों से निकाला गया होगा। कहा जाता है कि इन पत्थरों को पहाड़ी पर ले जाने के लिये दो विशाल बकरों का इस्तेमाल किया गया जो शिखर पर पहुंचकर मर गये।

यह स्मारक अभी भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की देख-रेख में

http://hi.wikipedia.org/wiki

Bhishma Kukreti

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Kaffu Chauhan Jagar Gatha: The Great Chieftain of Garhwal who Refused Panwar/Pal Dynasty Rule

Folklore, Folk Legends, Folk Myths, Jagar of Kumaon-Garhwal, Uttarkahnd-30

 Chivalry, Gallantry, Graciousness Folklores, Folk Legends, Folk Myths, Ballads of Bravery of Garhwal, Kumaon, Uttarakhand –15 
                                         Bhishma Kukreti
      There were over fifty two small kingdoms/Gadh/Gadhi/Garhs in Garhwal before Ajaypal of Panwar dynasty rule. Devalgarh was the capital of Garh. Ajay Pal won the other kingdoms baring the chieftain of Uppu Garh. The chief of Uppu Garh was brave king Kaffu Chauhan. The Uppu Garh king resisted coming under Ajay Pal Panwar rule. Kaffu Chauhan fought the battle and sacrificed for his Uppu Garh regime till his last breath. The time of Kaffu Chauhan goes around sixteenth century.
  The following lines about Kaffu the chieftain of Uppu Garh are taken from a drama ‘Antim Garh’ written by Abodh Bandhu Bahuguna.

कुमाऊं और गढ़वाल की लोक गाथाएँ/जागर  -30 


 कफ्फू चौहान जागर, वीर-वीरंगनाएं  गाथा : भडौ , कटकू, भड़वळि  या पांवड़ा, जागर 
(Reference: Abodh Bandhu Bahuguna , Antim Garh)

तौंकी रघुवंशी घोड़ी सजिन मर्दों
तौंकी जामा की तणी टूटिंन मर्दों
तौन गंगा -जली धरियाले मर्दों
तौंन बखतरी जामो पैरयाले मर्दों
तौंकी ऐड़ी हथियार अड़ी गे मर्दों
तौंकी क्षत्रीय हुंकार चढि गे मर्दों
तौंकी पौंठिया का बाल बबरैन मर्दों
तों नंगी शमशेर चमकैन मर्दों
तौंक  बावन बाजा बाजेन मर्दों
हनुमंती नीशाण साजेन मर्दों
कभी होल तो फोलेतो खेलदा मर्दों
कभी भैंसा , खाडू मारदा मर्दों
तौन खून का घट रिंगैन मर्दो
तों मुंडळौका चीरा लगैन मर्दो
तौं माई मर्दु का चेलो न मर्दो
तख भांगलो बुतणो करयाले मर्दो   
         Kaffu Chauhan was king of Uppu Garh near the bank of Ganges at the top shrine. Ajay Pal Panwar established his capital from Devalgarh to Shrinagar. He invited all chieftains of Garhs. Barring the chieftain Kaffu Chauhan of Uppu Garh, other chieftains attended the conference. Kaffu Chauhan sent the letter stating that he was Lion among animals, Eagle among birds and he would not accept the rule of Ajay pal Panwar.
            Ajay pal sent his armed forces to win over Kaffu Chauhan of Uppu Garh.
           The queen mother saw the huge army of Ajay Pal and suggested her son Kaffu Chauhan to surrender and accept the rule of Panwar of Shrinagar. Kaffu Chauhan told that the regional freedom is better than central authority.
             In night, Kaffu Chauhan broke the bridge on Ganges. In morning, Kaffu started preparation for the battle of freedom.
       Mother of Kaffu Chauhan told in person to Devu the army chief of Kaffu Chauhan that he would inform her about the result of battle. The mother queen said that if Kaffu die she would burn the whole Uppu Garh and would die.
          In morning, Panwar army chief saw that the bridge was broken and he arranged boats for crossing his army men. The battle started.
               By mistake, in confusion, Devu the army chief of Kaffu sent wrong message that Kaffu lost the battle and died.
            Kaffu own the battle and came to his fort and saw that his forte was burning. He lost consciousness. In that period Panwar army captured Kaffu Chauhan and took him to Shrinagar. Ajay pal put condition for the life of Kaffu Chauhan to accept his rule over Uppu Garh. Kaffu Chauhan refused the rule of Ajay Pal. Ajay Pal ordered the army men that cut head of Kaffu Chauhan that his head fell on the feet of Ajay Pal. In the mean time, Kaffu gulped sands. When army man cut the head of Kaffu by sword the head did not reach to the feet of Ajay Pal.
  Ajay Pal appreciated the pride of great Kaffu Chauhan. It is said that Garhwal King Ajay Pal lit the pyre of brave Kaffu Chauhan of Uppu Garh. Ajay Pal told that it was the win of Kaffu Chauhan.
   

Copyright (Interpretation) @ Bhishma Kukreti, 18/5/2013
Folklore, Folk Legends, Folk Myths of Kumaon-Garhwal, Uttarakhand to be continued…31 

Chivalry, Gallantry, gracious Folklores, Folk Legends, Folk Myths of Garhwal, Kumaon, Uttarakhand to be continued…16   
Curtsey and references:
Dr. Krishna Nand Joshi, Kumaon ka Lok Sahitya (Folklore texts of Kumaon)
 Dr Trilochan Pandey, Kumaoni Bhasha aur Uska Sahity(Folklore literature of Kumaon )
Dr Siva Nand Nautiyal, Garhwal ke Lok Nrityageet  (Folk Songs and dances of Garhwal )
Dr Govind Chatak, Garhwali Lokgathayen (Folklore of Garhwali)
Dr. Govind Chatak, Kumaoni Lokgathayen (Folklore of Kumaoni)
Dr Urvi Datt Upadhyaya, Kumaon ki Lokgathaon ka Sahityik Adhyayan (Literary review of Folklore of Kumaon)
Dr. Dip Chand Chaudhri, 1995, Askot ka Palvansh , Gumani Shodhkendra, Uprada, Gangalighat
Dr. Prayag Joshi, Kumaon Garhwal ki Lokgathaon ka Vivechnatmak Adhyayan (Critical Review of Folklore of Kumaon and Garhwal)
Dr Dinesh Chandra Baluni, Uttarakhand ki Lokgathayen (Folklore of Uttarakhand)
Dr Jagdish (Jaggu) Naudiyal, Uttarakhand ki Sanskritik Dharohar, (Partially Folklore of Ravain) 
Ramesh Matiyani ‘Shailesh’ 1959, Kumaun ki Lok Gathayen
Abodh Bandhu Bahuguna, Dhunyal (Folklore and Folk Songs of Garhwal)
Shambhu Prasad Bahuguna, Virat Hriday
Kusum Budhwar, 2010, Where Gods Dwell: Central Himalayan Folktales and Legends 
C.M. Agarwal , Golu Devta, 1992, The God of Justice of Kumaon Himalayas
N.D .Paliwal, 1987, Kumaoni Lok Geet
E.S. Oakley and Tara Datt Gairola 1935, Himalayan Folklore
M.R.Anand, 2009, Understanding the Socio Cultural experiences of Pahadi folks: Jagar Gathas of Kumaon and Garhwal
Dr. Pradeep Saklani, 2008, Ethno archeology of Yamuna Valley
Shiv Narayan Singh Bisht, 1928, Gadhu Sumyal, Banghat , Pauri Garhwal
Kumaon: Kala, Shilp,aur Sanskriti         www.himvan.com/webpages/dana.htm
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Bhishma Kukreti, Garhwali Lok Natkon ke Mukhy Tatva va Vivechana
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Hemant Kumar Shukla, D.R. Purohit, 2012, Theories and Practices of Hurkiya Theater in Uttarakhand, Language in India Vol.12:5: 2012 Page 143- 150
Dev Singh Pokhariya, 1996, Kumauni Jagar Kathayen aur Lokgathayen
Madan Chand Bhatt, 2002, Kumaun ki Jagar Kathayen 
The chapter contains -Folk Songs, Folktales, Jagar  about Uppu Garh; Folk Songs, Folktales, Jagar  about great chieftains of Garhwal; Folk Songs, Folktales, Jagar  about Brave men/women of Garhwal; Folk Songs, Folktales, Jagar  about great warriors of Garhwal; Folk Songs, Folktales, Jagar  about great Garhwalis; Folk Songs, Folktales , Jagar  about who sacrificed for their motherland. 

 

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