Author Topic: उत्तराखण्ड की भोटिया जनजाति : Bhotiyas, Resident of High Altitude Himalayas  (Read 33579 times)

धनेश कोठारी

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 232
  • Karma: +5/-0
HEM JI & JAKHI JI SUNDAR JANKARI KE LIYE THANX

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
भोटिया/उबदेशी

गढ़वाली बोली में भोटियों को उबदेशी कहते हैं, जिसका अर्थ ऊपरी पहाड़ियों के लोग हैं। भोटिया उत्तराखंड की भारत-तिब्बत सीमा के ऊंचे पहाड़ों की ऊंची पहाड़ियों की एक जनजाति है। यह विभिन्न जातियों और संस्कृतियों का एक क्षेत्र है। जातीय तथा सांस्कृतिक दृष्टि से वे तिब्बतियों के करीब हैं।

गढ़वाली भोटिया जनजाति तीन उपजातियों में विभाजित हैं: गढ़वाल के चमोली जिले की नीति और माना घाटियों की मर्चा, नीति घाटी की होल्चा और उत्तरकाशी की निलांग और जादांग घाटियों की जाघा। ये सगोत्री भोटिया उपजातियां वातावरणीय और ऐतिहासिक कारणों से संरचनात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं।

डी.पी. सकलानी के अनुसार, गढ़वाल के भोटिया भगवान राम का वंशज होने का दावा करते हैं। वे केवल क्षत्रियों से अपना संबंध कायम रखना चाहते हैं। वाल्टन ने (1910) कहता है कि ''भोटिया किसी भी तरह से मौजूदा तिब्बतियों के समरूप नहीं है, हालांकि उनके गुण बेशक तातार जाति से मिलते हैं।'' किंतु तिब्बत के विशेषज्ञ राहुल सांकृत्यान इसका यह कहकर खंडन करते हैं कि भाषा पहनावे तथा शारीरिक गठन में कुछ सामान्य समानताओं के आधार पर भोटियों का संबंध तिब्बतियों से जोड़कर भ्रम पैदा करते हैं, मानवविज्ञानी इस बात पर जोर देते हुए कि वे मूलत: हिंदू और संभावित राजपूत हैं। पतिराम के अनुसार भोटिया काव्यों में वर्णित हुणों के वंशज हैं। एक अन्य मत के अनुसार उत्तराखंड के गुज्जरों का संबंध हुणों से है।

भोटिया मुख्यत: व्यपारी थे जिनका तिब्बत से व्यपारिक संबंध था। कहा जाता है कि क्योंकि वार्तालिप की उनकी कोई आम भाषा नहीं थी, इसलिए उन्होंने एक अनोखी विधि अपना रखी थी: वे अपने माल को दोनों हाथों से ढ़क लेते थे और उन्हें तब तक उन्हें भरते थे जब तक उन्हें वांछित दाम नहीं मिल जाते थे। भोटिया का व्यापार कार्य आश्चर्यजनक रूप से महाभारत में वर्णित आदिवासी जनगर्णों के व्यापार से मेल खाता है जो युधिष्टिर के राजसूर्य यज्ञ के लिए स्वर्ण भस्म, चंवर (नीलगाय की पूंछ) हिमालयी खुद्रमधु (शहद), उत्तर कुरु देश से बहुमूल्य रत्न तथा पवित्र जल और कैलाश से महावली नाम मादक पदार्थ लाए। सकलानी का कहना है कि मूलत: किरात भोटियों की रगो में तिब्बतयों का लहू है।

भोटिया की अर्थव्यवस्था व्यापार कृषि और ऊनी हस्तनिर्मित वस्त्रों पर निर्भर है। पारंपरिक रूप से, व्यापार में सुविधा की दृष्टि से उनके दो घर होते हैं, एक गर्मी तथा दूसरा सर्दी के मौसम के लिए। जाड़े के दिनों में बकरों, भेड़ों, और खच्चरों पर सुहाग नमक दोनों स्वर्ण भस्म और ऊन लादे वे नीचे गढ़वाल की पहाड़ियों पर वे अनाज, चीनी, गुड़, मसाले, तंबाकू, सूती कपड़े, लोहे के सामान, मूंग दाने आदि लेकर वापस तिब्बत चले जाते हैं। एटकिंसन के अनुसार सन् 1877 से 1833 के बीच भारत से तिब्बत को 1,50,440 रुपये का औसत निर्यात और वहां से 3,32,374 रुपये का आभात हुआ। सर्दियों से चला आ रहा यह पुराना व्यापार सन् 1962 में भारत चीन युद्ध का समय बंद हो गया। आज भोटियों की जीविका इस निर्मित वस्तुओं और सरकारी नौकरियों पर निर्भर है। भोटिया औरतें ऊनी वस्त्र बनाने में माहिर होती हैं और खूबसूरत दरियां, थुलमे, गुड में, आसन तथा पंखियां बनाती हैं।
 

साभार- http://staging.ua.nic.in/chardham/hindi/people/people_bhotias.htm

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
भेड़पालन भोटिया लोगों का बहुत प्राचीन उद्योग रहा है. भोटिया लोगों द्वारा भेड़ों से निकाला गया ऊन उत्तम क्वालिटी का होता है जिसके बने गर्म कपड़े बेहद ठण्डॆ मौसम में रहने वाले लोग खरीदते हैं. ऊनी कपड़ों तथा ऊन से बनने वाले साजो-सामान जैसे दन्न, चुटका, थुलमा, पाखी, आसन, पंखी, टोपी आदि को अधिक आकर्षक बनाने के लिये प्राचीन समय से ही विभिन्न पौधों की पत्तियों, जडों, बीजों, फलों एवं छालों से नाना प्रकार के रंग तैयार किये जाते रहे|

मुनस्यारी, डुंडा, माणा, सलधारा, छिनका, मलारी एवं हरसिल में रहने वाले भोटिया समाज डोलू, खुखिया, किनगोड, अखरोट, कपासी, अर्चा, बजर भांग और जिरेनियम आदि वनस्पतियों को विभिन्न रंगों के निर्माण के लिये प्रयोग करते थे|

इसके अलावा पत्थरों और चट्टानों पर उगने वाला लाईकेन का भी रंग बनाने के लिये प्रयोग किया जाता था| ऊन धोने के लिये एक स्थानिय फल रीठा का प्रयोग किया जाता था| ऊन काली और सफेद दो रंगों की होती है लेकिन रंगने के लिये सफेद ऊन का ही इस्तेमाल किया जाता था| रंग चढने के बाद धागों को छांव में सुखाया जाता था क्योंकि अच्छी रंगाई के लिये सीधे धूप का इस्तेमाल वर्जित माना जाता था|

लेकिन इन रंगों के प्रयोग में जटिलता होने से वर्तमान समय में अब सिन्थेटिक रंगों का प्रचलन काफी हद तक बढ चुका है.

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
भोटिया समाज के आठ मुख्य ग्रुप हैं - जौहारी, जुठोरा, दारमी, चौंदास, ब्यांसी, मार्छा, तोलचा और टोलिया  जो मूल रूप से आठ नदी घाटियों से सम्बन्धित हैं - जोहार (Johar) व चौंदास (Chaudans) Pithoragarh District  माना (Mana) व  नीति (Niti) Chamoli District; निलांग (Nilang) व जादुंग (Jadung) (Uttarkashi District).

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
शौका या भोटिया संस्कृति और तिब्बत की संस्कृति में कई समानताएं हैं, यह स्वाभाविक भी है क्योंकि काफी लंबे समय तक तिब्बत के साथ व्यापारिक संबन्धों के कारण दोनों समाजों को एक दूसरे को समझने का मौका मिला था. भोटिया समाज में महिलाओं का स्थान पुरुषों के समकक्ष ही है. परिवार से संबन्धित कोई भी बड़ा निर्णय महिलाओं की सहमति के बिना नहीं लिया जाता है. भोटिया महिलाएं अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक उद्यमी और व्यापारिक समझ वाली होती हैं. शादियां अपने ही समाज में परिवार की सहमति से ही होती हैं.

कुछ समय पहले तक भोटिया समाज में "रंगबंग या खेल" नाम की एक परंपरा थी जिसमें भोटिया अविवाहित नवयुवक और नवयुवतियां सामूहिक रूप से एक जगह पर रहते थे.

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
आर्थिक स्थिति - पारंपरिक रूप से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से जुड़ी रही इस जनजाति के लोग सामान्यतया आर्थिक रूप से सुदृढ माने जाते हैं. चीन के साथ युद्ध के बाद हालांकि तिब्बत के साथ व्यापार बन्द होने पर भोटिया लोगों को अत्यधिक हानि हुई लेकिन इस जनजाति के लोगों ने अपने व्यापारिक हुनर को नहीं छोड़ा. अभी भी भोटिया समाज के द्वारा बनाये गये ऊनी वस्त्र और दन, चुटके, थुलमा आदि गरम कपड़ों की भारी मांग रहती हैं.  सरकार द्वारा आरक्षण की परिधि में लिये जाने के फलस्वरूप इस जाति के लोगों को सरकारी सेवा में जाने का अवसर भी मिला और वर्तमान में इस समाज के लोग देश-विदेश में प्रतिष्टित जगहों पर कार्यरत हैं. 

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
हमारे सदस्य जखी जी द्वारा कुछ दिनों पूर्व फोरम में यह जानकारी उपलब्ध करायी गई थी



एक भोटिया बन्धु धारचुला में हथ-करघा द्वारा स्वनिर्मित दन (कालीन) बेचता हुआ


ऊनी कपड़े भोटिया समुदाय: जाध, तोलचा और मारचा द्वारा बनाये जाते हैं। ये खानाबदोश लोग अप्रैल से अगस्त तक भारत-तिब्बत सीमा के ऊंचे पठारों पर अपनी भेड़ें चराते हैं। अत्यन्त ठण्डे मौसम की वजह से भेड़ों पर उच्च कोटि की ऊन आती है, जिसे अगस्त और सितम्बर में काटा जाता है।
 ऊन को महिलाएं हाथ से साफ कर धोती और रंगती हैं और फिर निचले प्रदेश में भोटिया समुदाय के शीतकालीन पड़ाव पर पुरूष और महिलाएं मिलकर उसे हाथ से कातती और बुनती हैं। ऊन के रंग भेड़ों के स्वाभाविक फाइबर जैसे भूरे, काले और ऑफ व्हाइट होते हैं। भूरे और रंग के गहरे शेड बनाने के लिए अखरोट की छाल से बनी डाई का इस्तेमाल किया जाता है और डार्क और लाइट ग्रे रंग तैयार करने के लिए ब्लैक और ऑफ व्हाइट को मिलाया जाता है।
खुलिया नामक स्थानीय पौधों की जड़ों से भी ऊन की स्वाभाविक रंगाई की जाती है जिससे कॉपर सल्फेट या नमक जैसे विलिन पदार्थ मिलाने से अलग-अलग रंग आते हैं। भोटिया गांवों में हर घर में महिलाएं करघे पर व्यस्त देखी जा सकती हैं।

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
हथकरघा मशीन पर बनता हुआ एक दन (कालीन)

श्रोत : sadanandsafar.blogspot.com

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
Folk Dance of Bhotia Community during Kandali Festival.
 

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
भोटिया जनजाति पर लिखी गई एक पुस्तक


 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22