भेड़पालन भोटिया लोगों का बहुत प्राचीन उद्योग रहा है. भोटिया लोगों द्वारा भेड़ों से निकाला गया ऊन उत्तम क्वालिटी का होता है जिसके बने गर्म कपड़े बेहद ठण्डॆ मौसम में रहने वाले लोग खरीदते हैं. ऊनी कपड़ों तथा ऊन से बनने वाले साजो-सामान जैसे दन्न, चुटका, थुलमा, पाखी, आसन, पंखी, टोपी आदि को अधिक आकर्षक बनाने के लिये प्राचीन समय से ही विभिन्न पौधों की पत्तियों, जडों, बीजों, फलों एवं छालों से नाना प्रकार के रंग तैयार किये जाते रहे|
मुनस्यारी, डुंडा, माणा, सलधारा, छिनका, मलारी एवं हरसिल में रहने वाले भोटिया समाज डोलू, खुखिया, किनगोड, अखरोट, कपासी, अर्चा, बजर भांग और जिरेनियम आदि वनस्पतियों को विभिन्न रंगों के निर्माण के लिये प्रयोग करते थे|
इसके अलावा पत्थरों और चट्टानों पर उगने वाला लाईकेन का भी रंग बनाने के लिये प्रयोग किया जाता था| ऊन धोने के लिये एक स्थानिय फल रीठा का प्रयोग किया जाता था| ऊन काली और सफेद दो रंगों की होती है लेकिन रंगने के लिये सफेद ऊन का ही इस्तेमाल किया जाता था| रंग चढने के बाद धागों को छांव में सुखाया जाता था क्योंकि अच्छी रंगाई के लिये सीधे धूप का इस्तेमाल वर्जित माना जाता था|
लेकिन इन रंगों के प्रयोग में जटिलता होने से वर्तमान समय में अब सिन्थेटिक रंगों का प्रचलन काफी हद तक बढ चुका है.