पौराणिक धरोहरों को संजोए है यह जनजाति
सर्दियों में जब हिमालय क्षेत्र में कड़ाके की सर्दी पड़नी शुरू हो जाती है, मारछा जनजाति के लोग शिवालिक पहाड़ियों का रुख करते है।
मारछा जनजाति के लोग आज के युग में भी अपनी पारंपरिक धरोहरों और लोकसंस्कृति को बचाए हुए हैं। जिसकी जीवंत झलक आज भी क्षेत्र में नयारघाटी क्षेत्र से लेकर उत्तराखंड के कोटद्वार भाबर तक दिखाई देती है।
इस क्षेत्र से आज भी सीमांत चमोली जपद के मारछा जनजाति के लोग अपनी भेड़-बकरियों के झुंड के साथ गुजरते हैं। हालांकि वर्तमान समय में पहाड़ों में कई जगह यातायात के साधन और दूरसंचार की सुविधाएं मौजूद हैं। मगर मारछा लोगों के द्वारा आज भी पौराणिक परंपराएं निभाई जा रही है।
क्या कहते हैं इतिहासकार
इतिहासकार एवं पुरातत्वविद् डॉ. यशवंत सिंह कठौत बताते हैं कि मारछा जनजाति के लोग पूर्व में जब गढ़वाल क्षेत्र में सड़कें नहीं थी, तब यह लोग अपने साथ भेड़, बकरी, ऊन, शिलाजीत, कस्तूरी और सुहागा लेकर आते थे।
इसके जगह में गढ़वाल की एक मात्र दुगड्डा मंडी से नमक और अनाज ले जाते थे।
संदेश वाहक भी थी यह जनजाति
मासौ निवासी कैलाश थपलियाल का कहना है कि मारछा जनजाति के लोग क्षेत्र में संदेश वाहक का कार्य भी करते थे। पहाड़ों में सड़के और संचार व्यवस्थाएं नहीं थी तब यह लोग सीमांत चमोली जनपद से कोटद्वार भाबर तक डाकिए का कार्य भी करते थे।
वे उनके मार्ग में पड़ने वाले गांवों में विवाहिता बेटियों (ध्याणियों) की कुशल क्षेम उनके परिजनों तक पहुंचाने का कार्य करते थे।
क्या कहते हैं समुदाय के लोग
बकरियों के झुंड के साथ सतपुली पहुंचे मारछा जनजाति के सदस्य जोशीमठ के टुगासी निवासी रघुवीर सिंह, कलम सिंह ने बताया कि सितंबर माह से उनके गांव में बर्फ पड़नी शुरू हो जाती है, और पूरा गांव बर्फ से ढक जाता है
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