Author Topic: Districts Of Uttarakhand - उत्तराखंड के जिलों का विवरण एवं इतिहास  (Read 90542 times)

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पिथौरागढ़ - यह समुद्रतल से १६१५ मीटर की उँचाई पर ६.४७ वर्ग किलोमीटर की परिधि में बसा हुआ है। इस नगर का महत्व चन्द राजाओं के समय से रहा है। यह नगर सुन्दर घाटी के बीच बसा है। कुमाऊँ पर होनेवाले आक्रमणों को पिथौरागढ़ ने सुदृढ़ किले की तरह झेला है। जिस घाटी में पिथौरागढ़ स्थित है, उसकी लम्बाई ८ किमी. और चौड़ाई १५ किमी. है। रमणीय घाटी का मनोहर नगर पिथौरागढ़ सैलानियों का स्वर्ग है।



पिथौरागढ़ पहुँचने के लिए दो मार्ग मुख्य हैं। एक मार्ग टनकपुर से और दूसरा काठगोदाम हल्द्वानी से है। पिथौरागढ़ का हवाई अड्डा पन्तनगर अल्मोड़ा के मार्ग से २४९ किमी. का दूरी पर है। समीप का रेलवे स्टेशन टनकपुर १५१ किमी. की दूरी पर है। काठगोदाम का रेलवे स्टेशन पिथौरागढ़ से २१२ किमी. का दूरी पर है।

पिथौरागढ़ नगर में पर्यटकों के रहने-खाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था है। यहाँ २४ शैयाओं का एक आवासगृह है। सा. नि. विभाग, वन विभाग और जिला परिषद का विश्रामगृह है। इसके अलावा यहाँ आनन्द होटल, धामी होटल, सम्राट होटल, होटल ज्योति, ज्येतिर्मयी होटल, लक्ष्मी होटल, जीत होटल, कार्की होटल, अलंकार होटल, राजा होटल, त्रिशुल होटल आदि कुछ ऐसे होटल हैं जहाँ सैलानियों के लिए हर प्रकार की सुविधाऐं प्रदान करवाई जाती है।

पर्यटकों के लिए 'कुमाऊँ मंडल विकास निगम' की ओर से व्यवस्था की जाती है। शरद् काल में यहाँ एक 'शरद कालीन उत्सव' मनाया जाता है। इस उत्सव मेले में पिथौरागढ़ की सांस्कृतिक झाँकी दिखाई जाती है। सुन्दर-सुन्दर नृत्यों का आयोजन किया जाता है।



पिथौरागढ़ में स्थानीय उद्योग की वस्तुओं का विक्रय भी होता है। राजकीय सीमान्त उद्योग के द्वारा कई वस्तुओं का निर्माण होता है। यहाँ के जूते, ऊन के वस्र और किंरगाल से बनी हुई वस्तुओं की अच्छी मांग है। सैलानी यहाँ से इन वस्तुओं को खरीदकर ले जाते हैं।

पिथौरागढ़ में सिनेमा हॉल के अलावा स्टेडियम औरनेहरु युवा केन्द्र भी है। मनोरंजन के कई साधन हैं। पिकनिक स्थल हैं। यहाँ जर्यटक जाकर प्रकृति का आनन्द लेते हैं।

पिथौरागढ़ में हनुमानगढ़ी का विशेष महत्व है। यह नगर से २ किमी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ नित्यप्रति भक्तों की भीड़ लगी रहती है।

एक किलोमीटर की दूरी पर उल्का देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है। लगभग एक किलोमीटर पर राधा-कृष्ण मन्दिर भी दर्शनार्थियों का मुख्य आकर्षण है। इसी तरह एक किलो मीटर पर राय गुफा और एक ही किलोमीटर की दूरी पर भटकोट का महत्वपूर्ण स्थान है।

पिथौरागढ़ सीमान्त जनपद है। इसलिए यहाँ के कुछ क्षेत्रों में जाने हेतु परमिट की आवलश्यकता होती है। पिथौरागढ़ के जिलाधिकारी से परमिट प्राप्त कर लेने के बाद ही सीमान्त क्षेत्रों में प्रवेश किया जा सकता है। पर्यटक परमिट प्राप्त कर ही निषेध क्षेत्रों में प्रवेश कर सकते हैं। चम्पावत तहसील के सभी क्षेत्रों में और पिथौरागढ़ के समीप वाले महत्वपूर्ण स्थलों में परमिट की आवश्यकता नहीं होती।

पिथौरागढ़ का इतिहास



यहां के निकट एक गांव में मछली एवं घोंघो के जीवाश्म पाये गये हैं जिससे इंगित होता है कि पिथौरागढ़ का इलाका हिमालय के निर्माण से पहले एक विशाल झील रहा होगा। हाल-फिलहाल तक पिथौरागढ़ में खास वंश का शासन रहा है, जिन्हें यहां के किले या कोटों के निर्माण का श्रेय जाता है। पिथौरागढ़ के इर्द-गिर्द चार कोटें हैं जो भाटकोट, डूंगरकोट, उदयकोट तथा ऊंचाकोट हैं। खास वंश के बाद यहां कचूडी वंश (पाल-मल्लासारी वंश) का शासन हुआ तथा इस वंश का राजा अशोक मल्ला, बलबन का समकालीन था। इसी अवधि में वर्ष 1998 में राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया तथा इसी के नाम पर पिथौरागढ़ नाम भी पड़ा। इस वंश के तीन राजाओं ने पिथौरागढ़ से ही शासन किया तथा निकट के गांव खङकोट में उनके द्वारा निर्मित ईंटो के किले को वर्ष 1960 में पिथौरागढ़ के तत्कालीन जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। वर्ष 1622 से आगे पिथौरागढ़ पर चंद वंश का आधिपत्य रहा। चित्र:Http://indoexpedition.com/pithoragarh1.jpg पिथौरागढ़ के इतिहास का एक अन्य विवादास्पद वर्णन है। एटकिंस के अनुसार, चंद वंश के एक सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की। ऐसा लगता है कि चंद वंश के राजा भारती चंद के शासनकाल (वर्ष 1437 से 1450) में उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के राजा दोती को परास्त कर सौर घाटी पर कब्जा कर लिया एवं वर्ष 1449 में इसे कुमाऊं या कुर्मांचल में मिला लिया। उसी के शासनकाल में पीरू या पृथ्वी गोसांई ने पिथौरागढ़ नाम से यहां एक किला बनाया। किले के नाम पर ही बाद में इसका नाम पिथौरागढ़ हुआ।



चंदों ने अधिकांश कुमाऊं पर अपना अधिकार विस्तृत कर लिया जहां उन्होंने वर्ष 1790 तक शासन किया। उन्होंने कई कबीलों को परास्त किया तथा पड़ोसी राजाओं से युद्ध भी किया ताकि उनकी स्थिति सुदृढ़ हो जाय। वर्ष 1790 में, गोरखियाली कहे जाने वाले गोरखों ने कुमाऊं पर कब्जा जमाकर चंद वंश का शासन समाप्त कर दिया। वर्ष 1815 में गोरखा शासकों के शोषण का अंत हो गया जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें परास्त कर कुमाऊं पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। एटकिंस के अनुसार, वर्ष 1881 में पिथौरागढ़ की कुल जनसंख्या 552 थी। अंग्रेजों के समय में यहां एक सैनिक छावनी, एक चर्च तथा एक मिशन स्कूल था। इस क्षेत्र में क्रिश्चियन मिशनरी बहुत सक्रिय थे।

वर्ष 1960 तक अंग्रजों की प्रधानता सहित पिथौरागढ़ अल्मोड़ा जिले का एक तहसील था जिसके बाद यह एक जिला बना। वर्ष 1997 में पिथौरागढ़ के कुछ भागों को काटकर एक नया जिला चंपावत बनाया गया तथा इसकी सीमा को पुनर्निर्धारित कर दिया गया। वर्ष 2000 में पिथौरागढ़ नये राज्य उत्तराखंड का एक भाग बन गया।

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किंवदन्ती के अनुसार जब कभी भी सूखा पड़े तब मोस्ता देवता को संतुष्ट करने के लिये समुदाय द्वारा धन जमाकर एक यज्ञ का आयोजन करने पर वर्षा अवश्य होती थी। यह कार्य आज भी जारी है। (मोस्ता देवता नेपाल में भगवान शिव का ही नाम है जिनका एक मंदिर पास में ही स्थित है।)
पिथौरागढ़ का संबंध पांडवों से भी है जो अपने 14 वर्ष के वनवास के दौरान इस क्षेत्र में आये थे। पिथौरागढ़ में सबसे छोटे पांडव नकुल को समर्पित एक मंदिर भी




गीत एवं नृत्य
अपने निवास से पहाड़ों की दूरता ने यहां के लोगों को अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा को गीत एवं नृत्य द्वारा संरक्षित रखने में सक्षम बनाया है। अधिकांश नृत्य एवं गीत धार्मिक या लोगों की परंपरागत जीवन-शैली के अनुरूप होते हैं।

प्रत्येक समारोह में लोकगीत एवं लोकनृत्य होते हैं। इस अवसर पर स्थानीय देवी-देवताओं का आह्वान करने के लिये भक्तिपरक गीत एवं जग्गर गान होता है। भीड़ देवों के वशीभूत लोग उन्मादित होकर संगीत की बजती लय पर नाचते हैं। उनमें से कुछ तो आश्चर्यजनक कारनामे कर गुजरते हैं यथा जलते कोयले को खा लेना या गर्म धातु की छड़ों को मोड़ देना। वे लोगों को यह भी बताते हैं कि कैसे हठी एवं कठिन असह्य समस्याओं का समाधान किया जाय।

विवाहों एवं मेलों के अवसर पर किये जाने वाले चोलिया नृत्य में युद्ध कला का प्रदर्शन होता है। इस नृत्य का उद्गम 11वीं सदी में हुआ माना जाता है जब विवाह तलवार की नोंक के बल पर हुआ करता था। दो या इससे अधिक लोग एक हाथ में ढाल तथा दूसरे हाथ में तलवार लेकर विभिन्न आक्रमण तथा बचाव की मुद्राओं को पेश करते हुए ढोल, दामौ, रणसिंघ एवं तुरही की धुन पर थिरकते हैं। पिथौरागढ़ में इस नृत्य को संरक्षित एवं प्रिय बनाये रखने में ललित मोहन कापरी एवं उसके दल का भारी योगदान रहा है।

इसके अलावा एक मनोरंजक नृत्य चांचरी में पुरूष एवं महिलाएं दोनों भाग लेते है जो एक समूह गान एवं नृत्य होता है। जब बच्चा पैदा होता है तो थुल खेल खेला जाता है।

हुरकिया बोल मुख्यत: कृषि कार्यों से संबंधित रहता है। सामूहिक पौधा रोपने एवं धान के खेतों की चौराई के समय एक हुरकिया हूरका बजाते हुए स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में भक्ति संगीत गाता है ताकि वे अच्छी फसल का आशीर्वाद दें जबकि खेतों में कार्य कर रही महिलाएं इस गीत में साथ देती हैं।

यह क्षेत्र लोक साहित्य में काफी समृद्ध है जिसका संबंध स्थानीय/राष्ट्रीय मिथकों, नायकों, नायिकाओं, बहादुरी के कारनामों तथा प्रकृति के विभिन्न पहलुओं से रहता है। गीतों का संबंध पृथ्वी के सृजन, देवी-देवताओं के कारनामों तथा स्थानीय वंशों/नायकों तथा रामायण  एवं महाभारत के पात्रों से होता है। सामान्यत: ये गीत स्थानीय इतिहास की घटनाओं पर आधारित होता है तथा भड़ाऊ सामान्यत: हरकिया बोल जैसे सामूहिक कृषि-कार्यों के दौरान एवं अन्य गीत विभिन्न सामाजिक तथा सांस्कृतिक उत्सवों पर गाये जाते हैं।

बोली की भाषाएं
अधिकांश भागों में बोली जाने वाली भाषा अपने भिन्न स्वरूपों में कुमांऊनी ही है। कुमांऊनी देवनागरी लिपि में लिखी एक बोली है जो 10वीं सदी से ही प्रचलित है। इसके अलावा हिंदी तथा थोड़ी-बहुत अंग्रेजी भी बोली जाती है।

वास्तुकला
पिथौरागढ़ के अधिक पुराने घर मोटे पत्थर की दीवारों तथा स्लेट की छत से बने है, जहां उनके रहने की जगह तक पहुंचने के लिये एक संकड़ी लकड़ी का सीढ़ीनुमा ढांचा है। नीचे की मंजिल पर कभी मवेशी रखे जाते थे, पर अब वे भंडार गृह हैं। अब सीमेंट एवं कंक्रीट के ढांचे का ही प्रचलन है जो उत्तर-भारत की तरह ही हैं।


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सा. नि. विभाग, वन विभाग और जिला परिषद का विश्रामगृह है। इसके अलावा यहाँ आनन्द होटल, धामी होटल, सम्राट होटल, होटल ज्योति, ज्येतिर्मयी होटल, लक्ष्मी होटल, जीत होटल, कार्की होटल, अलंकार होटल, राजा होटल, त्रिशुल होटल आदि कुछ ऐसे होटल हैं जहाँ सैलानियों के लिए हर प्रकार की सुविधाऐं प्रदान करवाई जाती है।पर्यटकों के लिए 'कुमाऊँ मंडल विकास निगम' की ओर से व्यवस्था की जाती है।



शरद् काल में यहाँ एक 'शरद कालीन उत्सव' मनाया जाता है। इस उत्सव मेले में पिथौरागढ़ की सांस्कृतिक झाँकी दिखाई जाती है। सुन्दर-सुन्दर नृत्यों का आयोजन किया जाता है।पिथौरागढ़ में स्थानीय उद्योग की वस्तुओं का विक्रय भी होता है। राजकीय सीमान्त उद्योग के द्वारा कई वस्तुओं का निर्माण होता है। यहाँ के जूते, ऊन के वस्र और किंरगाल से बनी हुई वस्तुओं की अच्छी मांग है।
 सैलानी यहाँ से इन वस्तुओं को खरीदकर ले जाते हैं।पिथौरागढ़ में सिनेमा हॉल के अलावा स्टेडियम औरनेहरु युवा केन्द्र भी है। मनोरंजन के कई साधन हैं। पिकनिक स्थल हैं। यहाँ जर्यटक जाकर प्रकृति का आनन्द लेते हैं।पिथौरागढ़ में हनुमानगढ़ी का विशेष महत्व है।
यह नगर से २ किमी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ नित्यप्रति भक्तों की भीड़ लगी रहती है।एक किलोमीटर की दूरी पर उल्का देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है। लगभग एक किलोमीटर पर राधा-कृष्ण मन्दिर भी दर्शनार्थियों का मुख्य आकर्षण है। इसी तरह एक किलो मीटर पर राय गुफा और एक ही किलोमीटर की दूरी पर भटकोट का महत्वपूर्ण स्थान है।पिथौरागढ़ सीमान्त जनपद है।

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10-पौड़ी जिला

उत्तरांचल का एक जिला है ।जिले का मुख्यालय पौड़ी है । पौढ़ी गढ़वाल उत्तरांचल का एक प्रमुख जिला है। जो कि 5,440 स्क्वेयर मीटर के भौगोलिक दायरे मैं बसा है यह जिला एक गोले के रूप मैं बसा है जिसके उत्तर मैं चमोली, रुद्रप्रयाग, और टेहरी गढ़वाल है, दक्षिण मैं उधमसिंह नगर, पूर्व मैं अल्मोरा और नैनीताल और पश्चिम मैं देहरादून और हरिद्वार स्थित है। पौढ़ी हेडक्वार्टर है। हिमालय कि पर्वत श्रृंखलाएं इसकी सुन्दरता मैं चार चाँद लगते हैं और जंगल बड़े-बड़े पहाड़ एवं जंगल पौढी कि सुन्दरता को बहुत ही मनमोहक बनाते हैं।
संपूर्ण वर्ष मैं यहाँ का वातावरण बहुत ही सुहावना रहता है यहाँ की मुख्य नदियों मैं अलखनंदा और नायर प्रमुख हैं। पौढ़ी गढ़वाल की मुख्य बोली गढ़वाली है अन्य भाषा मैं हिन्दी और इंग्लिश भी यहाँ के लोग बखूबी बोलते हैं। यहाँ के लोक गीत, संगीत एवं नृत्य यहाँ की संस्कृति की संपूर्ण जगत मैं अपनी अमित चाप छोड़ती है। यहाँ की महिलाएं जब खेतों मई काम करती है या जंगलों मैं घास काटने जाती हैं तब अपने लोक गीतों को खूब गाती हैं इसी प्रकार अपने अराध्य देव को प्रसन्न करने के लिए ये लोक नृत्य करते हैं। पौढ़ी गढ़वाल त्योंहारों मैं साल्टा महादेव का मेला, देवी का मेला, भौं मेला सुभनाथ का मेला और पटोरिया मेला प्रसिद्द हैं इसी प्रकार यहाँ के पर्यटन स्थल मैं कंडोलिया का शिव मन्दिर, बिनसर महादेव, मसूरी , खिर्सू, लाल टिब्बा, ताराकुण्ड, जल्प देवी मन्दिर प्रमुख हैं। यहाँ से नजदीक हवाई अड्डा जोली ग्रांट जो की पौढ़ी से 150-160 किमी की दुरी पर है रेलवे का नजदीक स्टेशन कोटद्वार है एवं सड़क मार्ग मैं यह ऋषिकेश, कोटद्वार एवं देहरादून से जुडा है।





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पौढ़ी गढ़वाल उत्तरांचल का एक प्रमुख जिला है। जो कि 5,440 स्क्वेयर मीटर के भौगोलिक दायरे मैं बसा है यह जिला एक गोले के रूप मैं बसा है जिसके उत्तर मैं चमोली, रुद्रप्रयाग, और टेहरी गढ़वाल है, दक्षिण मैं उधमसिंह नगर, पूर्व मैं अल्मोरा और नैनीताल और पश्चिम मैं देहरादून और हरिद्वार स्थित है। पौढ़ी हेडक्वार्टर है। हिमालय कि पर्वत श्रृंखलाएं इसकी सुन्दरता मैं चार चाँद लगते हैं और जंगल बड़े-बड़े पहाड़ एवं जंगल पौढी कि सुन्दरता को बहुत ही मनमोहक बनाते हैं।
संपूर्ण वर्ष मैं यहाँ का वातावरण बहुत ही सुहावना रहता है यहाँ की मुख्य नदियों मैं अलखनंदा और नायर प्रमुख हैं। पौढ़ी गढ़वाल की मुख्य बोली गढ़वाली है अन्य भाषा मैं हिन्दी और इंग्लिश भी यहाँ के लोग बखूबी बोलते हैं। यहाँ के लोक गीत, संगीत एवं नृत्य यहाँ की संस्कृति की संपूर्ण जगत मैं अपनी अमित चाप छोड़ती है। यहाँ की महिलाएं जब खेतों मई काम करती है या जंगलों मैं घास काटने जाती हैं तब अपने लोक गीतों को खूब गाती हैं इसी प्रकार अपने अराध्य देव को प्रसन्न करने के लिए ये लोक नृत्य करते हैं। पौढ़ी गढ़वाल त्योंहारों मैं साल्टा महादेव का मेला, देवी का मेला, भौं मेला सुभनाथ का मेला और पटोरिया मेला प्रसिद्द हैं इसी प्रकार यहाँ के पर्यटन स्थल मैं कंडोलिया का शिव मन्दिर, बिनसर महादेव, मसूरी , खिर्सू, लाल टिब्बा, ताराकुण्ड, जल्प देवी मन्दिर प्रमुख हैं। यहाँ से नजदीक हवाई अड्डा जोली ग्रांट जो की पौढ़ी से 150-160 किमी की दुरी पर है रेलवे का नजदीक स्टेशन कोटद्वार है एवं सड़क मार्ग मैं यह ऋषिकेश, कोटद्वार एवं देहरादून से जुडा है।

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पौडी गढ़वाल उत्तराखंड का एक जिल्ला, जिसका मुख्यालय, पौडी मे है। अल्मोड़ा, हरिद्वार, टेहरी, नैनी तल, चमोली, रुद्र पर्याग, हरिद्वार, देहरादून जिल्लों से घिरा यह जिल्ला उत्तर परदेश के बिज्नोर से भी इस जिल्ले की सीमायें जुड़ी हुई हैं।
पौडी गढ़वाल, गढ़वाल राज्य का एक अंश था जब श्रीनगर राज्य की राजधानी थी, परन्तु बाद मे पुरा गढ़वाल ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से जाना जाने लगा। देश के स्वतंत्र होने के बाद पौडी गढ़वाल के दो भाग किए गए एक हिस्सा चमोली गढ़वाल बना, और उत्तराखंड बन ने के बाद रुद्र पर्याग भी एक और भाग अलग जिल्ला बनाया गया।
प्रकृति की सुरम्य गोद मे बसा यह जिल्ला पर्यटन स्थलों से भरपूर है, पौडी जिल्ले के रोम-रोम मे बसी है प्रकृति की सुन्दरता, पौडी नगर से भी हिमालय का नज़ारा देखा जा सकता है, यहाँ से हिमालय की "चौखम्बा" पर्वत श्रेदियाँ देखि जा सकती हैं

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कंडोलिया
शिव मंदिर (कंडोलिया देवता) पौढ़ी से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कंडोलिया देवता का यह मंदिर वहां के भूमि देवता के रूप में पूजे जाते हैं। इस मंदिर के समीप ही खूबसूरत पार्क और खेल परिसर भी स्थित है। इससे कुछ मिनट की दूरी पर ही एशिया का सबसे बड़ा स्‍टेडियम रांसी भी है। गर्मियों के दौरान कंडोलिया पार्क में पर्यटकों की भारी मात्रा में भीड़ देखी जा सकती है। यहां आने वाले पर्यटक अपने परिवार के साथ यहां का पूरा-पूरा मजा उठाते हैं। इस पार्क के एक तरफ खुबसूरत पौढ़ी शहर देखा जा सकता हैं वहीं दूसरी ओर गंगवारेशियन घाटी भी स्थित है।

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बिंसर महादेव
बिंसर महादेव मंदिर 2480 मी. ऊंचाई पर स्थित है। यह पौढी से 114 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह जगह अपनी प्राकृतिक सौन्‍दर्यता के लिए जानी जाती है। यह मंदिर भगवान हरगौरी, गणेश और महिषासुरमंदिनी के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मंदिर को लेकर यह माना जाता है कि यह मंदिर महाराजा पृथ्‍वी ने अपने पिता बिन्‍दु की याद में बनवाया था। इस मंदिर को बिंदेश्‍वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।


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ताराकुंड
ताराकुंड समुद्र तल से 2,200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। ताराकुंड बहुत ही खूबसूरत एवं आकर्षित जगह है। जो पर्यटकों का ध्‍यान अपनी ओर अधिक खींचती है। ताराकुंड अधिक ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां से आस-पास का नजारा काफी मनमोहक लगता है। एक छोटी सी झील और बहुत पुराना मंदिर इस जगह को ओर अधिक सुंदर बनाता है। यहां तीज का त्‍यौहार, यहां रहने वाले स्‍थानीय निवासियों द्वारा बहुत ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। क्‍योंकि यह त्‍यौहार विशेष रूप से भूमि देवता को समर्पित होता है।

कान्‍वेश्रम
कान्‍वेश्रम मालिनी नदी के किनारे स्थित है। कोटद्वार से इस स्‍थान की दूरी 14 किलोमीटर है। यहां स्थित कान्‍वा ऋषि आश्रम बहुत ही महत्‍वपूर्ण एवं ऐतिहासिक जगह है। ऐसा माना जाता है कि सागा विश्‍वमित्रा ने यहां पर तपस्‍या की थी। भगवानों के देवता इंद्र उनकी तपस्‍या देखकर अत्‍यंत चिंतित होत गए और उन्‍होंने उनकी तपस्‍या भंग करने के लिए मेनका को भेजा। मेनका विश्‍वामित्र की तपस्‍या को भंग करने में सफल भी रही। इसके बाद मेनका ने कन्‍या के रूप में जन्‍म लिया और पुन: स्‍वर्ग आ गई। बाद में वहीं कन्‍या शकुन्‍तला के नाम से जाने जानी लगी। और उनका विवाह हस्तिनापुर के महाराजा से हो गया। शकुन्‍लता ने कुछ समय बाद एक पुत्र को जन्‍म दिया। जिसका नाम भारत रखा गया। भारत के राजा बनने के बाद ही हमारे देश का नाम भारत' रखा गया।

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दूधतोली
दूधतोली 31,00मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्‍थान जंगल से घिरा हुआ है। यहां तक पंहुचने के लिए थालीसैन अ‍ाखिरी बस टर्मिनल है। सड़क द्वारा थालीसैन से दूधतोली की दूरी 24 किलोमीटर है। दूधतोली पौढ़ी के खूबसूरत स्‍थानों में से एक है। यह स्‍थान हिमालय के चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां का नजारा बहुत ही आकर्षक है जो यहां आने वाले पर्यटकों को सदैव ही अपनी ओर आ‍कर्षित करता है। गढ़वाल के स्‍वतंत्रता सेनानी वीर चन्‍द्र सिंह गढ़वाली को भी यह स्‍थान काफी पसंद आया था। इसलिए उनकी यह अंन्तिम इच्‍छा थी कि उनकी मृत्‍यु के बाद उनके नाम से एक स्‍मारक यहां पर बनाया जाए। यह स्‍मारक ओक के बड़े-बड़े वृक्षों के बीच स्थित है। जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में 'नेवर से डाई' लिखा गया है।

 

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