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Districts Of Uttarakhand - उत्तराखंड के जिलों का विवरण एवं इतिहास

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Devbhoomi,Uttarakhand:
उत्तराखण्ड या उत्तराखंड भारत के उत्तर में स्थित एक राज्य है। २००० और २००६ के बीच यह उत्तरांचल के रूप में जाना जाता था, ९ नवंबर २००० को उत्तराखंड भारत गणराज्य के २७ वें राज्य के रूप मे अस्तित्व मे आया। राज्य का निर्माण कई वर्ष के आन्दोलन के पश्चात हुआ। इस प्रान्त में वैदिक संस्कृति के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थान हैं।उत्तराखंड की सीमाऐं उत्तर मे तिब्बत और पूर्व मे नेपाल से मिलती हैं
 तथा पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण मे उत्तर प्रदेश(अपने गठन से पहले यानि कि सन २००० से पहले यह उत्तर प्रदेश का एक हिस्सा था) इसके पडो़सी हैं। पारंपरिक हिंदू ग्रंथों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख उत्तराखंड के रूप में किया गया है।
 हिन्दी और संस्कृत मे उत्तराखंड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है।जनवरी २००७ में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान मे रखते हुये उत्तराखंड के नाम आधिकारिक तौर पर उत्तरांचल से बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। देहरादून उत्तराखंड की अंतिम राजधानी होने के साथ इस क्षेत्र में सबसे बड़ा शहर है। गैरसन नामक एक छोटे से कस्बे को इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते युये भविष्य की राजधानी के रूप में प्रस्तावित किया गया है किन्तु विवादों और संसाधनों के अभाव के चलते अभी भी देहरादून अस्थायी राजधानी बनी हुई है। राज्य का उच्च न्यायालय नैनीताल में है।
राज्य सरकार ने हाल मे हस्तशिल्प और हथकरघा को बढा़वा देने के लिये कुछ पहल की हैं साथ ही बढ़ते पर्यटन व्यापार तथा उच्च तकनीकी वाले उद्योगों को प्रोत्साहन के लिए आकर्षण कर योजनायें प्रस्तुत की हैं। राज्य मे कुछ विवादास्पद बडी़बांध परियोजनाओं भी हैं



 जिनकी पूरे देश में अक्सर आलोचना की जाती है, जैसे कि भागीरथी-भीलांगना नदियों पर बनने वाली टिहरी बांध परियोजना। यह परियोजना की कल्पना १९५३ मे की गयी थी और अब ये अपने निर्माण के अन्तिम चरण मे है। उत्तराखंड चिपको आंदोलन के जन्मस्थान के नाम से भी जाना जाता है
* अल्मोड़ा जिला              
* उत्तरकाशी जिला
* उधमसिंहनगर जिला
* चमोली जिला
 * चम्पावत जिला
* टिहरी जिला
* देहरादून जिला
* नैनीताल जिला
* पिथौरागढ जिला
* पौरी जिला
 * बागेश्वर जिला
 * रूद्रप्रयाग जिला
 * हरिद्वार जिला

Devbhoomi,Uttarakhand:
01-अल्मोड़ा

उत्तराखण्ड का महत्वपूर्ण नगर है । हल्द्वानी, काठगोदाम और नैनीताल से नियमित बसें अल्मोड़ा जाने के लिए चलती हैं। ये सभी बसे भुवाली होकर जाती हैं। भुवाली से अल्मोड़ा जाने के लिए रामगढ़, मुक्तेश्वर वाला मार्ग भी है। परन्तु अधिकांश लोग गरमपानी के मार्ग से जाना ही अदिक उत्तम समझते हैं। क्योंकि यह मार्ग काफी सुन्दर तथा नजदीकी मार्ग है।भुवाली, हल्द्वानी से ४० कि.मी. काठगोदाम से ३५ कि.मी. और नैनीताल से ११ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। तथा भुवाली से अल्मोड़ा ५५ कि.मी. की दूरी पर बसा हुआ है।



स्कन्दपुराण के मानसखंड में कहा गया है#ै कि कौशिका (कोशी) और शाल्मली (सुयाल) नदी के बीच में एक पावन पर्वत स्थित है। यह पर्वत और कोई पर्वत न होकर अल्मोड़ा नगर का पर्वत है। यह कहा जाता है कि इस पर्वत पर विष्णु का निवास था। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि विष्णु का कूर्मावतार इसी पर्वत पर हुआ था।एक कथा के अनुसार यह कहा जाता है कि अल्मोड़ा की कौशिका देवी ने शुंभ और निशुंभ नामक दानवों को इसी क्षेत्र में मारा था। कहानियाँ अनेक हैं, परन्तु एक बात पूर्णत: सत्य है कि प्राचनी युग से ही इस स्थान का धार्मिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्व रहा है।
आज के इतिहासकारों की मान्यता है कि सन् १५६३ ई. में चंदवंश के राजा बालो कल्याणचंद ने आलमनगर के नाम से इस नगर को बसाया था। चंदवंश की पहले राजधानी चम्पावत थी।
 कल्याणचंद ने इस स्थान के महत्व को भली-भाँति समझा। तभी उन्होंने चम्पावत से बदलकर इस आलमनगर (अल्मोड़ा) को अपनी राजधानी बनाया।सन् १५६३ से लेकर १७९० ई. तक अल्मोड़ा का धार्मिक भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्व कई दिशाओं में अग्रणीय रहा।
इसी बीच कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं राजनैतिक घटनाएँ भी घटीं। साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टियों से भी अल्मोड़ा सम्स्त कुमाऊँ अंचल का प्रतिनिधित्व करता रहा।
सन् १७९० ई. से गोरखाओं का आक्रमण कुमाऊँ अंचल में होने लगा था। गोरखाओं ने कुमाऊँ तथा गढ़वाल पर आक्रमण ही नहीं किया बल्कि अपना राज्य भी स्थापित किया। सन् १८१६ ई. में अंग्रेजो की मदद से गोरखा पराजित हुए और इस क्षेत्र में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया।
अल्मोड़ा नगर के पूर्वी छोर पर 'खगमरा' नामक किला है। कत्यूरी राजाओं ने इस नवीं शताब्दी में बनवाया था। दूसरा किला अल्मोड़ा नगर के मध्य में है। इस किले का नाम 'मल्लाताल' है। इसे कल्याणचन्द ने सन् १५६३ ई. में बनवाया था। कहते हैं, उन्होंने इस नगर का नाम आलमनगर रखा था।
वहीं चम्पावत से अपनी राजधानी बदलकर यहाँ लाये थे। आजकल इस किले में अल्मोड़ा जिले के मुख्यालय के कार्यलय हैं। तीसरा किला अल्मोड़ा छावनी में है, इस लालमण्डी किला कहा जाता है।
 अंग्रेजों ने जब गोरखाओं को पराजित किया था तो इसी किले पर सन् १८१६ ई. में अपना झण्डा फहराया था। अपनी खुशी प्रकट करने हेतु उन्होंने इस किले का नाम तत्कालीन गवर्नर जनरल के नाम पर - 'फोर्ट मायरा' रखा था। परन्तु यह किला 'लालमण्डी किला' के नाम से अदिक जाना जाता है। इस किले में अल्मोड़ा के अनेक स्थलों के भव्य दर्शन होते हैं।
नन्दा देवी मन्दिर :
 गढ़वाल कुमाऊँ की एक मात्र ईष्ट देवी भगवती नन्दा पार्वती है। नन्दा अष्टमी के दिन सम्पूर्मम पर्वतीय अंचल में नन्दा की विशेष पूजा होती है। नन्दा देवी की मूर्ती केले के पत्तों और केले के तनों से बनाई जाती है। नन्दा की सवारी भी निकाली जाती है। नन्दा अष्टमी भाद्रपद अर्थात् सितम्बर के महीने में आती है।यहाँ पर इस दिन बहुत बड़ा मेला लगता है। इस दिन दर्शनार्थी आकर पूजा करते हैं।
मेले में झोड़ा, चाँचरी और छपेली आदि नृत्यों का भी सुन्दर आयोजन होता है। कुमाऊँ के कई अंचलों की लोकनृत्य की पार्टियाँ यहाँ आकर अपना-अपना कौशल दिखाती हैं, पर्यटक, पदारोही, सैलानी और साहित्य एवं कला प्रेमी इन्ही दिनों अधिकतर कुमाऊँ की संस्कृति तता वहाँ के जन-जीवन की वास्तविक जानकारी करने हेतु अल्मोड़ा पहुँचते हैं। अल्मोड़ा की नन्दा देवी के दर्शन करना अत्यन्त लाभकारी माना जाता है।
अल्मोड़ा में नन्दा देवी के अलावा त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर, रघुनाथ मन्दिर, महावीर मन्दिर, मुरली मनोहर मन्दिर, भैरवनाथ मन्दिर, बद्रीनाथ मन्दिर, रत्नेश्वर मन्दिर और उलका देवी मन्दिर प्रसिद्ध हैं।जामा मस्जिद, मैथोडिस्ट चर्च और अंगलीकन चचें प्रसिद्ध है।
कसार देवीमंदिर :
 यह मुख्य नगर से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर से हिमालय की ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियों के दर्शन होते हैं। कसार देवी का मंदिर भी दुर्गा का ही मंदिर है। कहते हैं कि इस मंदिर की स्थापना ईसा के दो वर्ष पहले हो चुकी थी। इस मंदिर का धार्मिक महत्व बहुत अधिक आंका जाता है।
चित्तई मंदिर :
कुमाऊँ के प्रसिद्ध लोक - देवता 'गोल्ल' का यह मंदिर नन्दा देवी की तरह प्रसिद्ध है। इस मंदिर का महत्व सबसे अधिक बताया जाता है। अल्मोड़ा से यह मंदिर ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हिमालय की कई दर्शनीय चोटियों के दर्शन यहाँ से होते हैं।
कालीमठ :
यह अल्मोड़ा से ५ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। एक ओर हिमालय का रमणीय दृश्य दिखाई देता है और दूसरी ओर से अल्मोड़ा शहर की आकर्षक छवि मन को मोह लेती है। प्रकृतिप्रेमी, कला प्रेमी और पर्यटक इस स्थल पर घण्टों बैठकर प्रकृति का आनन्द लेते रहते हैं। गोरखों के समय राजपंडित ने मंत्र बल से लोहे की शलाकाओं को भ कर दिया था। लोहभ के पहाड़ी के रुप में इसे देखा जा सकता है
सिमतोला :
यह अल्मोड़ा नगर से ३ कि.मी. की दूरी पर 'सिमतोला' का 'पिकनिक स्थल' सैलानियों का स्वर्ग है। प्रकृति के अनोखे दृश्यों को देखने के लिए हजारों पर्यटक इस स्थल पर आते-जाते रहते हैं।
 मोहनजोशी पार्क :
 इस जगह पर एक ताल का निर्माण किया गया है। मानव निर्मित 'v' आकार के इस ताल की सुन्दरता इतनी आकर्षक है कि सैलानी घंटों इसी के पास बैठकर प्रकृति की अद्भुत छवि का आनन्द लेते रहते हैं। यहाँ का मोहक और शान्त वातावरण पर्यटकों के लिए काफी सुखद अनुभव रहता है।
मटेला:
मटेला का सुखद वातावरण सैलानियों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र है। यहाँ के बाग अत्यन्त सुन्दर हैं। 'पिकनिक' के लिए कई पर्यटक यहाँ अपने-अपने दलों के साथ आते हैं।नगर से १० कि.मी. की दूरी पर एक प्रयोगात्मक फार्म भी है।

राजकीय संग्रहालय :
 अल्मोड़ा में राजकीय संग्रहालय और कला-भवन भी है। कला प्रेमियों तथा इतिहास एवं पुरातत्व के जिज्ञासुओं के लिए यहाँ पर्याप्त सामाग्री है।
ब्राइट एण्ड कार्नर :
यह अल्मोड़ा के बस स्टेशन से केवल २ कि.मी. कब हूरी पर एक अद्भुत स्थल है। इस स्थान से उगते हुए और डूबते हुए सूर्य का दृश्य देखने हजारों मील से प्रकृति प्रेमी आते रहते हैं।इंगलैण्ड में 'ब्राइट बीच' है। उस 'बीच' से भी डूबते और उगते सूरज का दृश्य चमत्कारी प्रभाव डालने वाला होता है। उसी 'बीच' के नाम पर अल्मोड़ा के इस 'कोने' का नाम रखा गया है।अल्मोड़ा सुन्दर आकर्षक और अद्भुत है। इसीलिए नृत्य-सम्राट उदयशंकर को यह स्थान इतना भाया था कि उन्होंने अपनी 'नृत्यशाला' यहीं बनायी थी। उनके कई विश्वविख्यात नृत्यकार शिशुओं ने अल्मोड़ा की रमणीय धरती में ही नृत्य कला की प्रथम शिक्षा ग्रहण की थी।उदयशंकर की तरह विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर को भी अल्मोड़ा पसन्द था। वे यहाँ कई दिन तक रहे।विश्व में वेदान्त का शंखनाद करने वाले स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा में आकर अत्याधिक प्रसन्न हुए थे। उन्हें इस स्थान में आत्मिक शान्ति मिली थी।

अन्य दर्शनीय स्थलअल्मोड़ा स्वंय में दर्शनीय है। परन्तु, उसके आस-पास के क्षेत्रों में भी कई ऐसे स्थल हैं जिनका सौन्दर्य सैलानियों के लिए आकर्षण का विषय है।
 कटारमलकटारमल का सूर्य मन्दिर
 अपनी बनावट के लिए विख्यात है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस मन्दिर की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उनका मानना है कि यहाँ पर समस्त हिमालय के देवतागण एकत्र होकर पूजा अर्चना करते रहै हैं। उन्होंने यहाँ की मूर्तियों की कला की प्रशंसा की है।कटारमल के मन्दिर में सूर्य पद्मासन लगाकर बैठे हुए हैं।
 यह मूर्ति एक मीटर से अधिक लम्बी और पौन मीटर चौड़ी भूरे रंग के पत्थर में बनाई गई है। यह मूर्ती बारहवीं शताब्दी की बतायी जाती है। कोर्णाक के सूर्य मन्दिर के बाद कटारमल का यह सूर्य मन्दिर दर्शनीय है। कोर्णाक के सूर्य मन्दिर के बाहर जो झलक है, वह कटारमल मन्दिर में आंशिक रुप में दिखाई देती है।कटारमल के सूर्य मन्दिर तक पहुँचने के लिए अल्मोड़ा से रानीखेत मोटरमार्ग के रास्ते से जाना होता है।
 अल्मोड़ा से १४ कि.मी. जाने के बाद ३ कि.मी. पैदल चलना पड़ता है। मन्दिर १५५४ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। अल्मोड़ा से कटारमल मंदिर १७ कि.मी. की निकलकर जाता है। रानीखेत से सीतलाखेत २६ कि.मी. दूर है। १८२९ मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है। कुमाऊँ में खुले मैदान के लिए यह स्थान प्रसिद्ध है। कुमाऊँ का यह ऐसा खिला हुआ रमणीय स्थान है यहाँ देश के कोने-कोने से हजारों बालचर तथा एन.सी.सी. के कैडेट अपने-अपने शिविर लगाकर प्रशिक्षण लेते हैं। यहाँ ग्रीष्म ॠतु में रौनक रहती है। प्रशिक्षण के लिए यहाँ पर्याप्त व्यवस्था है। दूर-दूर तक कैडेट अपना कार्यक्रम करते हुए, यहाँ आन्नद मनाते हैं।
 'सीतला देवी' का यहाँ प्राचीन मंदिर है। इस देवी की इस सम्पूर्ण क्षेत्र में बहुत मान्यता है। इसीलिए 'सीतलादेवी' के नाम से ही इस स्थान का नाम 'सीतलाखेत' पड़ा है। यहाँ पर्यटकों के लिए पर्याप्त व्यवस्था है। कुमाऊँ मण्डल विकास निगम ने यहाँ पर चार शैय्याओं वाला एक आवासगृह बनाया है। प्रकृति-प्रेमियो के लिए 'सीतलाखेत' का सम्पूर्ण क्षेत्र आकर्षण से बरा हुआ है।'सीतलाखेत' का मुख्य आकर्षम यह है कि यहाँ से हिमालय के भव्य दर्शन होते हैं। छुट्टियों को शान्तिपूर्वक बिताने के लिए यह अत्युत्तम स्थान है।
 उपत :
रानीखेत-अल्मोड़ा मोटर-मार्ग के पाँचवें किलोमीटर पर उपत नामक रमणीय स्थल है। कुमाऊँ की रमणीयता इस स्थल पर और भी आकर्षक हो जाती है। उपत में नौ कोनों वाला विशाल गोल्फ का मैदान है। गोल्फ के शौकीन यहाँ गर्मियों में डेरा डाले रहते हैं। रानीखेत समीप होने की वजह से सैकड़ों प्रकृति-प्रेमी और पर्वतारोही भी इस क्षेत्र में भ्रमणार्थ आते रहते हैं। प्रकृति का स्वच्छन्द रुप उपत में छलाक हुआ दृष्टिगोचर होता है। रानीखेत से प्रतिदिन सैलानी यहाँ आते रहते हैं।
कालिका :
उपत में लगभग एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर कालिक नामक स्थल भी अपनी प्राकृतिक छटा के लिए विख्यात है। कालिका में 'कालीदेवी' का मंदिर है। यहाँ काली के भक्त निरन्तर आते रहते हैं। 'कालिका' में वन विभाग की फूलों की एक नर्सरी है। इस नर्सरी के कारण अनेक वनस्पति शास्र के शोधार्थी और प्रकृति-प्रेमी यहाँ जमघट लगाए रहते हैं।
मजखाली :
 कालिक से केवल ७ कि.मी. दूर पर रानीखेत-अल्मोड़ा-मार्ग पर मजखाली का अत्यन्त सौन्दर्यशाली स्थल स्थित है। मजखाली की धरती रमणीय है। यहाँ से हिमालय का मनोहारी हिम दृश्य देखने सैकड़ों प्रकृति-प्रेमी आते रहते हैं। मजखाली से कौसानी का मार्ग सोमेश्वर होकर जाता है। रानीखेत से कौसानी जाने वाले पर्यटक मजखाली होकर ही जाना पसन्द करते हैं।

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02-उत्तरकाशी
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[color=green]उत्तरकाशी ऋषिकेश से 155 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक शहर है, जो उत्तरकाशी जिले का मुख्यालय है। यह शहर भागीरथी नदी के तट पर बसा हुआ है। उत्तरकाशी धार्मिक दृष्‍िट से भी महत्‍वपूर्ण शहर है। यहां भगवान विश्‍वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। यह शहर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है
। यहां एक तरफ जहां पहाड़ों के बीच बहती नदियां दिखती हैं वहीं दूसरी तरफ पहाड़ों पर घने जंगल भी दिखते हैं। यहां आप पहाड़ों पर चढ़ाई का लुफ्त भी उठा सकते हैं।
उत्तरकाशी का एक अन्‍य आकर्षण पर्वतारोहण है। यहां आप पर्वतारोहण का मजा ले सकते हैं। हर-की-दून, दोदीतल, यमुनोत्री तथा गोमुख से पर्वतारोहण किया जा सकता है।उत्तरकाशी के अधिकांश रेस्‍टोरेंटों में शाकाहारी खाना मिलता है। कुछ होटलो में विशेष अनुरोध पर गढ़वाली भोजन बनाया जाता है।



झंगुरा,मंडुआ तथा भट्ट यहां के प्रमुख भोजन है। इसके साथ-साथ रायता तथा रोटी भी यहां के लोग खाते हैं। सत्‍यम फूड यहां का सबसे बढि़या रेस्‍टोरेंट है।
उत्तरकाशी जिले का एक भाग बड़कोट गढ़वाल राज्य का एक हिस्सा था जहां ‘पाल’ नाम से विभूषित गढ़वाल वंश का शासन था, जो बाद में ‘शाह’ नाम में बदल गया। वर्ष 1803 में, नेपाल के गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया और अमर सिंह थापा को वहां का शासक बनाया गया।



वर्ष 1814 में गोरखों का संपर्क अंग्रेजी शासन से हुआ क्योंकि उनकी सीमाएं अंग्रेजों की सीमा से सटी थी। सीमा संकट ने अंग्रेजों को गढ़वाल पर आक्रमण करने को बाध्य किया।अप्रैल, वर्ष 1815 में गोरखों को गढ़वाल से खदेड़ दिया गया और इसे अंग्रेजों के जिले में मिलाकर दो भागों में बांटा गया पूर्वी एवं पश्चिमी गढ़वाल। पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों ने अपने साथ रखा और इसे ब्रिटीश गढ़वाल कहा गया।
 इनको छोड़कर अलकनंदा नदी के पश्चिम स्थित पश्चिमी गढ़वाल को पंवार वंश के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह को दे दिया गया। इस क्षेत्र को टिहरी गढ़वाल या टिहरी रियासत का नाम दिया गया। बड़कोट उस समय के एक प्रशासनिक क्षेत्र रवाँई पट्टी का एक भाग था और यहीं से रवाँई नाम का सूत्रपात हुआ। वर्ष 1947 में भारत को स्वाधीनता प्राप्त होने पर वर्ष 1949 में इसे उत्तर प्रदेश राज्य के साथ मिलाया गया।



 शहर की खुदाई में कई कुंडों का उदय हुआ। जिसके इर्द-गिर्द सीढ़ियों सहित पत्थर की दीवार निर्मित है) साथ ही भगवान विष्णु, गणेश तथा विष्णु के द्वारपालों जय एवं विजय की मूर्तियां भी मिली। चूंकि इन खोजों का अध्ययन एवं अधिकृति होना अब भी बाकी है इसलिये इनका समय-काल निर्धारित नहीं हो सकता। फिर भी तथ्य है कि वर्तमान गांव एवं शहर के अस्तित्व से पहले भी बड़कोट एक आवासीय स्थल रहा था।
पौराणिक समय से भिन्न जाति, भाषा और संस्कृति के लोग यहां (गढ़वाल) में भिन्न जगहों से भिन्न समय पर आकर बसे। सबसे पहले कोल, कीरात और खासा (डोम, भोटिया और खासा) जो आज के जमाने के ब्राह्मण और राजपूत हैं। इसलिये पहले यहां के समाज की तीन सतह थी। मध्य युग में भारत के मैदानी इलाकों से यहां लोग आ पहुंचे जिससे समाज की सतहें चार हो गई।”
बड़कोट के यमुनोत्री के रास्ते पर सड़क से बन जाने पर लोग गढ़वाल के अन्य ईलाकों से आकर यहां बसने लगे। व्यवसायियों ने इसमें यात्रा पर आये यात्रियों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु होटलों, ढ़ाबों एवं अन्य सेवाओं को शुरू करने का अपार अवसर देखा। यही वह समय था जब बड़कोट एक गांव से छोटे कसबों के रूप में विकसित हुआ जो आज है।पुरानी टिहरी के जल प्लावन के कारण भी उस शहर के वासियों ने बड़कोट में पुनर्वास स्थापित कर लिया। आज बड़कोट का नक्शा बदल रहा है।
 जिले में उत्तरकाशी के बाद दूसरा सबसे बड़ा शहर बड़कोट धीरे-धीरे महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है, खासकर वर्ष 1990 के दशक में उत्तरकाशी क्षेत्र में आये भयानक भूकंप के बाद। उसके बाद कई मुख्यालयों एवं अन्य जिला स्तरीय कार्यालयों का आना बड़कोट में जारी है।
पास पड़ोस के क्षेत्रों से लोग रोजगार की तलाश या बच्चों की पढ़ाई के लिये यहां आ जाते हैं।परंपरागत परिधानपरंपरागत रूप से ऊन का विस्तृत इस्तेमाल किया गया है। प्रत्येक ग्रामीण परिवार कुछ भेड़ों एवं बकरियों को पालता है एवं उनके ऊन का इस्तेमाल वस्त्र निर्माण में करता है। भेड़ों के ऊन से बेंडी या वस्त्र बनाया जाता है जहां ऊन के गोलों को ग्रामीण बुनकर को देकर वस्त्र बनवाया जाता है।
परंपरागत तौर पर पुरूष ऊन के बुने कुर्ते एवं पायजामे पहनते हैं, जिसके ऊपर ऊन के जैकेट या कोट धारण करते हैं। महिलाये पल्लु रहित साड़ीनुमा कपड पॉकी तथा गट्टर धारण करती हैं जो 12 फीटx* 9 फीट कपड़ा उनकी कमर के चारों ओर बंधा होता है, [/color]

Devbhoomi,Uttarakhand:
जब वे खेतों में काम करती हैं और इसके ऊपर एक ब्लाऊज या कुर्ता पहनती है। इस परिधान को पूर्ण करता है एक साफा सर ढकने के लिये।बकरी के भेड़ों की अपेक्षा मोटे एवं सख्त ऊनों से या तो बरसाती-कोट या दरियां बनायी जाती हैं।परंपरागत जेवर सोने के बने होते हैं जिनमें शामिल होते हैं बिंदाल, कानों के झुमके, बुलाक (नाक की बाली जो नाकों के दोनों छिद्रों के केंद्र में पहना जाता है और चिबुक तक झुलता है), नथ, तिमाणिया (गले का हार जिसमें तीन खोखले स्वर्णिम गोलों को मूंगे के मनके के कई तारों पर झुलाया जाता है) एवं मंगल-सूत्र (काले मूंगे पर झूलता एक केंद्रीय स्वर्ण का टुकड़ा) आदि।
 जबकि बड़कोट गांव के स्त्री-पुरूष अब भी परंपरागत वस्त्र पहनते हैं, बड़कोट शहर में वस्त्र अधिक आधुनिक होते हैं तथा महिलाएं सलवार-कमीज तथा साड़ियां पहनती हैं और पुरूष पैंट-शर्ट धारण करते हैं।जीवन की परंपरागत शैलीबड़कोट क्षेत्र में खेती योग्य भूमि की कमी है। कृषि को प्रभावित करने वाले अवरोधक तत्वों में शामिल हैं कृषि मौसम छोटा होना, निम्न तापमान, अधिक ऊंचाई, भूमि का आकार छोटा होना, खड़ी ढालों के कारण मिट्टी क्षय की निरस्तता, आदि। कृषि आय को पूरा करने के लिये ऊन एवं मांस के लिये भेड़-पालन, पौधे उगाने, कताई एवं बुनाई एवं अन्य कुटीर उद्योगों का सहारा परंपरागत रूप से लिया गया है।
परंपरागत गेहूं, चावल, मड़ुआ एवं झंगोरी की पैदावार के अलावा बड़कोट क्षेत्र में छीमी (मटर) एंव टमाटर जैसे नगदी फसल की पैदावार भी की जाती है, जिन्हें पुरोला एंव देहरादून की बाजारों में ले जाकर बेचा जाता है। बड़कोट के ऊपर की पहाड़ियों पर आलू पैदा किया जाता है तथा यहीं स्थानीय स्वामित्व के सेब के बगीचे भी स्थित हैं।
 परंपरागत भोजन में शामिल है बड़ी, मीठारहित हल्वा जो गुड़ के साथ खाया जाता है, दाल चावल एवं गेहूं से बना असका, जिसे चटनी के साथ खाया जाता है तथा तिलांता जो चावल एवं तिल की खिचड़ी है।

बोली की भाषाएंरवाल्टी,


(केवल बड़कोट एवं नौ-गांव में बोली जाने वाली गढ़वाली का एक बदला स्वरूप), हिन्दी एवं अल्पज्ञान की अंग्रेजी।नृत्य एवं गीतगीत एवं नृत्य क्योंकि खासकर रवाँई के लोग प्रत्येक अवसर का समारोह पूर्वक मनाते हैं, छोटा हो या बड़ा और वर्ष भर संगीत एवं नृत्य का सिलसिला चलता रहता है। गीतों एवं नृत्यों के साथ ढोल एवं नगाड़े भी होते हैं, जिन्हें परंपरागत बाजगी बजाते हैं।

 गीतों एवं नृत्यों की गहरी जड़े संप्रदाय के जीवन-चक्र, खेतिहर जीवन, प्रकृति तथा धर्म में व्याप्त होती हैं।रासो वह गीत एवं नृत्य होता है जो प्राचीन काल के स्थानीय नायकों एवं नायिकाओं का समारोह होता है या फिर उन लोगों का भी जिन्होंने हाल के दिनों में अच्छे एवं बहादुरी के कारनामे किये हैं। रासो में पुरूष एवं महिलाएं दोनों नाचते हैं, जिसके चक्राकार रूप में पुरूष एवं महिलाएं अपनी बाहे
एक दूसरे के कमर पर रखने से जुड़े रहते हैं। केवल पुरूषों का रास नृत्य तलवार या खुखरी के टेक से किया जाता है।जागर एवं पांडव नृत्य अधिक धार्मिक प्रकृति के होते हैं।


 कुल (परिवार), इश्ट (आवास-भूमि) एवं ग्राम देवी तथा देवताओं की प्रतिमाओं से संप्रदाय का संबंध गहरा एवं निकट का होता है। प्रत्येक अवसर पर ये स्थानीय देवी–देवता ही हैं जो लोगों को समर्थन देती हैं। जागर में थाली की धुन पर आह्वान गीत घढ़ियाला गाता है देवी देवताओं को आमंत्रित करने के लिए।
इसके बाद देवी या देवता समूह के कुछ लोगों में आती हैं। संगीत की धुन पर उन्मत्त होकर वह अचेतावस्था में पहुंच जाते हैं। वे या तो व्यक्तिगत रूप से या फिर चक्राकार होकर नाचते हैं एवं
जागर एक सामान्य बात है जो घर के परिसर में ही होता है। दूसरी ओर पांडव नृत्य अधिक औपचारिक होता है और खुली जगह पर ढोल एवं नगाड़ों की धुन पर किया जाता है।

शक्‍ित मंदिरदेवी

 मंदिरविश्‍वनाथ मंदिर के दायीं ओर शक्‍ित मंदिर है। इस मंदिर में 6 मीटर ऊंचा तथा 90 सेंटीमीटर परिधि वाला एक बड़ा त्रिशूल स्‍थापित है। इस त्रिशूल का ऊपरी भाग लो‍हे का तथा निचला भाग तांबे का है। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी दुर्गा (शक्‍ित) ने इसी त्रिशूल से दानवों को मारा था। बाद में इन्‍हीं के नाम पर यहां इस मंदिर की स्‍थापना की गई।

दायरा बुग्‍याल
 यह बुग्‍याल समुद्र तल से 10,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से हिमालय का बहुत ही सुंदर नजारा दिखता है। यहां एक छोटी सी झील भी है।

केदार ताल
यह ताल समुद्र तल से 15000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। थाल्‍यासागर चोटी का इसमें स्‍पष्‍ट प्रतिबिंब नजर आता है। केदार ताल जाने के रास्‍ते में कोई सुविधा नहीं मिलती है। इसलिए यहां पूरी तैयारी के साथ जाना चाहिए।

नचिकेता ताल
इस ताल के चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। ताल के तट पर एक छोटा सा मंदिर भी है। कहा जाता है कि नचिकेता जो संत उदाक के पुत्र थे उन्‍होने ही इस ताल का निर्माण किया था। इसी कारण इस ताल का नाम नचिकेता ताल पड़ा। इस ताल के पास ठहरने और खाने की कोई सुविधा नहीं है।

गोमुखगौमुख:


 गंगा का उद्गम‎गोमुख हिमनदी ही भागीरथी (गंगा) नदी के जल का स्रोत है। यह हिंदुओं के लिए बहुत ही पवित्र स्‍थान है। यहां आने वाला प्रत्‍येक यात्री को यहां जरुर स्‍नान करना चाहिए है। यह गंगोत्री से 18 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां से 14 किलोमीटर दूर भोजबासा में एक पर्यटक बंगला है जहां पर्यटकों के ठहरने और भोजन की व्‍यवस्‍था होती है।
नंदन-वन-तपोवनयह स्‍थान गंगोत्री हिमनद से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां से आसपास की पहाड़ी का बहुत सुंदर नजारा दिखता है।

नेहरु पर्वतारोही संस्‍थान

उत्तरकाशि की शामइस संस्‍थान की स्‍थापना 1965 ई.में हुई। इस संस्‍थान में पर्वतारोहण सिखाया जाता है। यहां एक हिमालयन संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में पर्वतारोहण से संबंधित पुस्‍तकें, फिल्‍म्‍ा तथा स्‍लाइडस रखे हुए हैं। यहां एक दुकान भी हैं। इसमें पर्वतारोहण से संबंधित सामान मिलता हैं। लोकेशन: टहरी झील के नजदीक राष्‍ट्रीय राजमार्ग संख्‍या 108 पर। वेबसाइट: nimindia.org समय: सुबह 10बजे से शाम 5 बजे तक। मंगलवार बंद। शुल्‍क: वयस्‍क के लिए 5 रु.तथा बच्‍चों के लिए 2 रु.।

Devbhoomi,Uttarakhand:
03-उधमसिंहनगर

उधमसिंह नगर उत्तरांचल राज्य के उधमसिंहनगर जिला का मुख्यालय है। यह शहर औद्योगिक क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। इसके अतिरिक्त यहां की प्राकृतिक सुंदरता इस जगह को और अधिक सुंदर बनाती है। उधमसिंह नगर पहले नैनीताल जिले में था। लेकिन अक्टूबर 1995 में इसे अलग जिला बना दिया गया।
 इस जिले का नाम स्वर्गीय उधम सिंह के नाम पर रखा गया है। उधम सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड होने के पश्चात् इन्होंने ही जनरल डायर की हत्या की थी। इस जिले में तीन अनुमंडल रूद्रप्रयाग, काशीपुर और काटिमा को सम्मिलित किया गया है। यह जगह चारों ओर से हिमालय से घिरा हुआ है।

काशीपुर-
 इस जगह को गोविशन के नाम से भी जाना जाता है। हर्ष काल (606-647 ईसवीं) के दौरान, यून-च्वांग (631-641 ईसवीं) इस जगह घूमने के लिए आए थे। काशीपुर का नाम काशीनाथ अधिकारी के नाम पर रखा गया था। काशीनाथ अधिकारी ने ही इस स्थान की स्थापना की थी।
 प्रसिद्ध कवि गुमानी ने इसी जगह पर अनेक कविताएं लिखी है। यह जगह गिरीतल और द्रोणा सागर के साथ-साथ पंड़ावों के लिए भी जानी जाती है। काशीपुर में लगने वाला चैती मेला भी काफी प्रसिद्ध है। वर्तमान समय में काशीपुर प्रमुख औद्योगिक शहरों के लिए जाना जाता है। सर्दियों में यहां का नजारा काफी अद्भुत होता है।

पूर्णागिरी-
पूर्णागिरी मंदिर शक्तिपीठ के लिए प्रसिद्ध है। यह स्थान तंकपुर से 21 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मंदिर पर्वत के सबसे ऊंचे हिस्से में है। हर साल काफी संख्या में श्रद्धालु पूर्णागिरी के दर्शन के लिए आते हैं। नवरात्रा के अवसर पर यहां बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।

अतारिया मंदिर-

 इस मंदिर में भगवान अतारिया की पूजा की जाती है। हर साल काफी संख्या में भक्तगण इस मंदिर में आते हैं। नवरात्रों के अवसर पर यहां दस दिनों के मेले का कार्यक्रम होता है। अतारिया मंदिर रूद्रप्रयाग-हल्द्वानी मार्ग से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

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