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Devbhoomi,Uttarakhand:
बलि को सौंप दिया पाताल लोक,भगवान विष्णु की स्थली त्रियुगीनारायण
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विष्णु भगवान ने राजा बलि को दिए थे वामन रूप में दर्शन
-त्रियुगीनारायण में वर्षो से आयोजित होता है वामन द्वादशी मेला
रुद्रप्रयाग, : तीन लोक के सम्राट बनने की इच्छा से राजा बलि ने त्रियुगीनारायण में यज्ञ किए, लेकिन भगवान विष्णु ने समय रहते ऐसी लीला रची कि वह बलि पाताल लोक का राजा बन गया और उसी समय से यहां वामन द्वादशी मेला आयोजित होता आ रहा है।
केदारघाटी के अंतर्गत भगवान विष्णु की स्थली त्रियुगीनारायण में वर्षो से आयोजित होता आ रहा वामन द्वादशी मेला क्षेत्रीय लोगों की आस्था से जुड़ा है। यह मेला सम्राट बलि को विष्णु भगवान द्वारा पाताल लोक का राजा बनाए जाने के अवसर पर होता है। साथ ही मेले में नि:संतान दंपतियों को भी पुत्र प्राप्ति की आलौकिक शक्ति प्रदान होती है। देवभूमि उत्तराखंड में आयोजित होते आ रहे विभिन्न पौराणिक मेलों में वामन द्वादशी धार्मिक एवं पर्यटन मेला का अपना अलग महत्व है। मान्यता है कि जब महाबलि सम्राट बलि पृथ्वी लोक में मजबूत शासक के रूप में स्थापित हो गए तो उन्होंने तीनों लोक का राजा बनने के लिए यज्ञ शुरू कर दिया। इसके लिए उन्हें 100 यज्ञ करने थे, जब वह 99 यज्ञ पूरे कर चुके थे, तब सभी देवगण भगवान विष्णु के पास आए तथा स्थिति की गंभीरता से अवगत कराया। विष्णु ने वामन रूप में अवतरित होकर बलि को दर्शन दिए तथा भिक्षा में तीन पग जमीन मांगी। इसमें पहले पग में देव लोक, दूसरे पग में पृथ्वी नाप ली। जब तीसरे पग के लिए बलि के पास जगह नहीं बची तब बलि ने अपना सिर आगे कर दिया और उस पर पग रखने को कहा। भगवान विष्णु का पांव बलि के सिर पर पड़ते ही वह सीधे पाताल लोक पहुंच गए तथा यहां का राजा बन गया। इसी दिन से त्रियुगीनारायण में वामन द्वादशी मेले का आयोजन होता आ रहा है।
मेला समिति के अध्यक्ष दीनमणि गैरोला बताते हैं कि मेले को लेकर यह भी आस्था है कि यहां पर मेले के दिन नि:संतान दंपति रात्रि भर हाथ में दीपक लिए भगवान वामन की पूजा करते हैं, जिससे उन्हें संतान प्राप्ति होती है। इस वर्ष भी पंद्रह सिंतबर से मेला शुरू हो चुका है। पांच दिन तक चलने वाले इस मेले का समापन उन्नीस सितंबर को होगा। मेले में 18 सितंबर को वामन भगवान के जन्म के साथ ही नि:संतान दंपतियों का जागरण तथा 19 सितंबर को भगवान वामन के थाल दर्शन एवं नारायण व क्षेत्रपाल के दर्शन होंगे, जो नि:संतान दंपतियों को पुत्र प्राप्ति के लिए फल वरदान के रूप में वितरित करेंगे।
Devbhoomi,Uttarakhand:
आतापी-वातापी दैत्य
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महर्षि अगस्त्य जब इस स्थान यानी अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग पर वास कर रहे थे तो उस क्षेत्र में आतापी तथा वातापी नामक दो दैत्य भाइयों ने अत्यंत आतंक फैला रखा था। वे रुप बदलकर ऋषियों को भोजन के बहाने बुलाते थे, एक भाई सूक्ष्मरुप धारणकर भोजन में छिपकर बैठ जाता था एवं दूसरा भोजन परोसता था।
भोजन सहित असुर को निगल लेने के बाद दूसरा उसे आवाज देता था तथा वह पेट फाड़कर बाहर आ जाता था तथा दोनों मिलकर ऋषि को मारकर खा जाते थे। सभी लोग इन राक्षसों से तंग आ चुके थे तथा उन्होंने महर्षि अगस्त्य से इन दोनों से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की।
मुनि जी इन राक्षसों के यहाँ भोजन करने गये, जब पहला राक्षस भोजन सहित पेट में चला गया तो मुनि जी ने मन्त्र पढ़कर उसे जठराग्नि से पेट में ही जला दिया (अगस्त्य मुनि पूर्वजन्म में जठराग्नि रुप में थे)। जब दूसरे राक्षस के पुकारने पर भी वह वापस न आया तो वह राक्षस अपने असली रुप में आकर मुनि जी से युद्ध करने लगा। यह युद्ध बहुत दिनों तक चला, राक्षस अत्यन्त बलवान था तथा मुनि जी थक गये।
तब उन्होंने देवी का स्मरण किया, देवी कूर्मासना (स्थानीय बोली में कुमास्योंण) रुप में प्रकट हुयी। जिस स्थान पर देवी प्रकट हुयी वहाँ वर्तमान में कूर्मासना मन्दिर है। देवी नें दैत्य का सिल्ला नामक स्थान पर वध किया, वहाँ पर वर्तमान में स्थानेश्वर महादेव का मन्दिर है जिसमें राक्षसी कुण्ड बना है।[
विनोद सिंह गढ़िया:
[justify]बैसी यानी देव अवतरण की अलौकिक गाथा
ढोल की गर्जना, नगाड़ों की अंतर्मन को झंकृत करती टंकार। धूणी (एक किस्म का अग्निकुंड) के चारों तरफ दुलैंच यानी विशेष गद्दी में बैठे तपस्वियों के शरीर पर आ ान के साथ लोक देवताओं का अवतरण। यही है कौतुहल से भरी देवभूमि की पारंपरिक व धार्मिक अनुष्ठान से जुड़ी बैसी, जो देव अवतरण की अलौकिक गाथा और उत्तराखंडी सांस्कृतिक विरासत को खुद में समेटे है। दरअसल, केदारखंड व मानसखंड के लोक देवताओं के आ ान की पौराणिक परंपरा बैसी का आयोजन श्रावण मास में ही होता है। चूंकि देवभूमि के समस्त लोक देवता मसलन, न्याय देवता गोलज्यू महाराज, गंगनाथ, शैम आदि का निवास स्थान हिमालय माना जाता है, लिहाजा साझ की गोधुली बेला पर दास व डंगरिए (देवदूतों के रूप) ढोल व नगाड़ों की मिश्रित गर्जना व टंकार की झंकृत करने वाली धुन के बीच वीर गाथा के जरिए आ ान करते हैं। खास प्रांगण पर चारों तरफ लोक देवताओं के अवतरण को दुलैंच यानी विशेष गद्दी बिछी होती है। इसमें अक्षत, पुष्प एवं भेंट रखी जाती है। वीर रस की हुंकार जब चरम पर पहुंचती है तो देवों का अवतरण दुलैंच पर बैठे तपस्वियों के शरीर पर होने लगता है। खास बात है, दास व डंगरिए इस बीच लोक देवताओं के शौर्य, पराक्रम, अन्याय के खिलाफ जंग, कठिन परिश्रम आदि का बखान करते हैं। देवअवतरण पूर्ण होने पर फिर दौर शुरू होता दीन-दुखियों की फरियाद सुनने का। आसमान को छूती लपटों वाली धुणी में तप कर लाल हुआ चिमटे को लोक देवता का अवतारी चाट कर या शरीर पर पीट शांत करता है। यह सब हैरतअंगेज होता है। अंगारों पर चलना और उन्हें निगल जाना तो और भी भयंकर। मगर इससे अवतारी को तनिक भी क्षति नहीं पहुंचती। 22 दिन की घोर तपस्या यानी बैसी के अंतिम दिन लोक देवताओं को पुन: हिमालय के लिए रवाना किया जाता है।
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=14&edition=2011-08-12&pageno=7
Hisalu:
वनरावतों के समाज में नहीं आते ‘पितर’
डीडीहाट। हिंदू धर्म में पितृ पक्ष सबसे पवित्र माना जाता है, लेकिन हिंदू होने के साथ-साथ हर परंपरा और संस्कृति को मानने वाला समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जिनके लिए पितृपक्ष मायने नहीं रखता। या यूं कहें कि ये श्राद्ध करते ही नहीं। यह वर्ग है आदम जनजाति के वनरावत। इस वर्ग की मान्याता भले वर्षों पुरानी हो सकती है, मगर इन्हें पितरों से मुंह फेरने वाला भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जब परिवार में किसी की मौत होती है तो क्रियाकर्म करने वाला कई दिनों तक अंधेरे कमरे में रहता है। सूर्य की किरण तक वहां नहीं पहुंचती।
इसके बाद ये पीपलपानी भी उतनी ही श्रद्धा से करते हैं। कुलेख, औलतड़ी, खिरद्वारी सहित आधा दर्जन से अधिक गांवों में इनकी संख्या 732 हैं। उनकी कई मान्यताएं और परंपराएं हिंदुओं से मिलती हैं। आमतौर पर वे आठूं के अलावा अन्य त्योहार नहीं मनाते। आठूं को वे बिरुड़ी और नए कपड़े पहनते हैं। लेकिन श्राद्ध को ये समाज नहीं मानता। वे सिर्फ श्राद्ध की अमावास्या को पूड़ी और अन्य पकवान बनाते हैं और इसको स्वयं खाते हैं।
52 साल के केशर सिंह रावत (वनराजि कहते हैं श्राद्ध को नहीं मनाने की परंपरा नई नहीं है। इसे उनके बुजुर्ग भी नहीं मनाते थे। और वे इसका ही अनुसरण कर रहे हैं। पर बुजुर्ग क्यों नहीं मनाते थे? ये वह नहीं जानते। 43 वर्षीय दीपा देवी, 36 साल के शंकर रावत और 50 वर्ष के जगत सिंह रावत का कहना है कि वे श्राद्ध को नहीं पहचानते। उनके पूर्वजों ने कभी इसे नहीं मनाया। माना जाता है कि श्राद्ध नहीं मनाने के पीछे सामाजिक कारण के अलावा उनका पिछड़ापन भी बड़ा कारण हो सकता है। ये लोग आर्थिक रूप से बेहद कमजोर थे। मुख्य रूप से आजीविका के लिए जंगल से जुड़े कामों पर आश्रित थे। ज्यादातर वक्त जंगल और इसके आसपास रहने की वजह से श्राद्ध की जानकारी उन्हें नहीं थी।
श्राद्ध को नहीं मानती यह जनजाति
पिथौरागढ़ और चंपावत में वनरावतों की संख्या महज 732
ऐसे होता है अंतिम संस्कार
वनरावत अंतिम संस्कार को पूरी तरह हिंदू रीतिरिवाज से मनाते हैं। इस दौरान वे बेहद सख्त नियमों का पालन करते हैं। कमरे को अंधेरा रखते हैं। यहां तक कि कमरे में सूर्य की रोशनी भी नहीं पहुंचने देते। क्रिया में बैठा शख्स किसी अन्य के हाथ की कोई भी चीज ग्रहण नहीं करता। एक वक्त भोजन होता और वह भी खुद का बनाया हुआ। पानी की व्यवस्था भी वह अंधेरे में ही करते हैं।
brijeshhcr:
[justify]उत्तराखंड के रेडियो [/justify][/u]
१- हेंवलवाणी चम्बा - पुरे भारत का गढ़वाली भाषा का पहला रेडियो
२- कुमाऊँ वाणी नैनीताल - उत्तराखंड का दूसरा रेडियो
३- ख़ुशी रेडियो मंसूरी
४- रेडियो जिंदगी देहरादून
५- रेडियो जनवाणी पंतनगर [/b][/size]
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