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Fairs & Festivals Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध त्यौहार एवं मेले

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sanjupahari:
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा

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समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है ।

कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं ।

नंदा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है । गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता है ।

कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं ।अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।

अल्मोड़ा में नंदादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नंदा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे । इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया । बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था ।

अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रुप में विकसित किया गया था । यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है ।

पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं । पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है । यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं । नंदा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के सद्वश बनाया जाता है । स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नंदा पर्वत के शीर्ष पर नंदादेवी का वास है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है । भगवती नंदा की पूजा तारा शक्ति के रुप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है । सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ । षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है ।

षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है । धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं । जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं । कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं । पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान 'महिषासुर मर्दिनी' के रुप में किया जाता है । सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है । इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है । उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है । प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है । मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है ।

मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है । इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं । दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं । अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है । अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं । नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं । अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है ।

मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये' मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं । मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है । इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं । झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं । कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरुरी है । मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं । वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं ।

 

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
नंदादेवी मेला-नैनीताल

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अल्मोड़ा की ही भांति नैनीताल में भी नंदादेवी मेला आस्था और विश्वास के साथ मनाया जाता है । कहा जाता है कि अल्मोड़ा से जाकर लोगों ने ही नैनीताल में भी इस मेले की शुरुआत की थी । वर्ष १९१८-१९ ई. में स्थानीय लोगों की पहल पर इस त्यौहार को नैनीताल में भी जातीय पर्व के रुप में मनाया जाने लगा । मेले को सुचारु रुप से संचालित करने के लिए श्री राम सेवक सभा द्वारा वर्ष १९३८ में व्यवस्था अपने हाथ में ले ली गयी । वर्तमान में भी इस संस्था के पास व्यवस्था का सारा कार्य है ।

नैनीताल में मेले के धार्मिक कार्य कार्यकलाप पंचमी से ही प्रारंभ होते हैं । यहाँ भी नंदा प्रतिमाओं को कदली स्तम्भों से ही निर्मित किया जाता है । मेले के लिए ब्राह्मण नैनीताल के पास बसे ज्योलीकोट से आते हैं । अल्मोड़ा की ही तरह कदली स्तम्भों का चयन विधिविधान से किया जाता है । मल्लीताल में स्थित धर्मशाला में तब विधि अनुसार चयनित किये गये कदली स्तम्भों के पूजन अर्चन के बाद मेले की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो जाती है । तब स्थानीय शिल्पी अपनी प्रतिभा और प्रज्ञा से परम्परानुसार नंदामुखाकृतियाँ निर्मित करते हैं । मुखाकृतियों के आंगिक श्रंगार और उनके आभूषणों से अलंकृत करने के बाद उनका पूजन किया जाता है, प्राण प्रतिष्ठा की जाती है ।

मेले को चूँकि महोत्सव का रुप दे दिया गया है, इसलिए विसर्जन होने तक लगातार पूजन, अर्चन चलता है, साँस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं ।

मेले के अन्तिम दिन परम्परागत रुप से शोभा यात्रा निकाली जाती है । नन्दा माँ की जय जयकार करते हजारों लोग इस शोभायात्रा में सम्मिलित होते हैं । प्रतिमाओं पर अक्षत, पुष्प आदि अर्पित किये जाते हैं । अन्त में पाषाण देवी मंदिर के पास इन देवी विग्रहों को विसर्जित किया जाता है ।

मेले के दौरान दूर-दर से आये लोकगायक, नर्तक अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं ।


 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
कोट की माई का मेला

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कोट की माई का मंदिर अल्मोड़ा से ग्वालदम जानेवाले रास्ते पर बैजनाथ से ३ कि.मी. की दूरी पर ऊँची चोटी पर स्थित है । यहाँ पहुँचने के लिए १ से ११/२ कि.मी. की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है । रणचूला नाम से विख्यात इस स्थान पर कभी कव्यूरी राजाओं ने अपना किला बनवाया था । गढ़वाल यात्रा के समय जगतगुरु शंकराचार्य भी इस स्थान पर कव्यूरी राजाओं के अतिथि बने थे । उन्होंने बैजनाथ मंदिर की शिला की यहाँ प्राणप्रतिष्ठा की और पूजन आरम्भ करवाया । बाद में वे ही कोटा की माई के नाम से पूजित हुई ।

एक कथा यह भी है कि एक समय यह समूची कव्यूर घाटी जल प्लावन के कारण पानी में डूबी हुई थी तथा जल के भीतर अरुण नामक दैव्य ने अपनी राजधानी बनाई हुई थी । इस दैव्य के आतंक से परेशान देवताओं को प्राण देने के लिए शक्ति रुपा देवी ने भ्रामरी रुप धारण कर दैव्य का अंत किया था । यह कथा दुर्गासप्तशती में भी मिलती है ।

स्थानीय जनश्रुतियों के अनुसार भी एक समय में समूची कव्यूरी घाटी में जल प्लावन था । इस कारण गरुड़ के पास वर्तमान में अवस्थित अणां गाँव की भूमि भी पानी में डूबी हुई थी । पहाड़ में छीना उस स्थान को कहते हैं जहाँ दो पर्वत के पास चक्रवर्तवेश्वर नामक स्थान को अपनी राजधानी बनाया था । अरुण दैव्य का यह राजधानी जल के अंदर बनी थी । इन्द्र की प्रार्थना पर भगवती ने भ्रामरी रुप धारण कर हरछीना पर्वत को तोड़कर जल के निकास का आदेश दिया और जब पानी समाप्त होने पर अरुण अपनी राजधानी से बाहर आया तो उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी । यह देवी तब से कोट की भ्रमरी के नाम से पूजित हुई ।

चंद राजाओं के शासन काल में नंदादेवी, कोट मंदिर के नीचे झालामाली गाँव में स्थापित थीं । तब से मेलाडुंगरी के भन्डारी ठाकुर उनकी पूजा का कार्य सँभालते हैं । चंद राजाओं के शासनकाल में बकरों तथा भैंसे की बलि नीचे ही दी जाती थी । उस समय नंदादेवी का मेला हर तीसरे वर्ष नीचे ही लगता था । भ्रामरी के मंदिर में चेत्र की अष्टमी को प्रति वर्ष मेला लगता था । बाद में नंदा की स्थापना भी कोट में भ्रामरी के साथ की गयी । चंद वंशीय राजा जगतचंद ने ग्राम झालामाली तथा ग्राम डूंगरी मंदिर को गूँठ में चढ़ाया । रोज चंड़ी पाठ के लिए भेंटा ग्राम के लोहूमी ब्राह्मणों को नियुक्त किया । जखेड़ा के पड्यारों ने हर वर्ष मेला बनाने का निर्णय लिया और अब उनकी ओर से भंडारा होता है ।

प्राय: मेला तीन दिन में सम्पन्न होता है । नौटी गाँव से आया हुआ नंदाराजजात का पूजा का सामान यहाँ पहले से ही मंगा लिया जाता है । मेला आरम्भ होने पर सबसे पहले नंदा की जागर लगाने वाले जगरिये न्योते जाते हैं, ये जगरियें भेटी ग्राम से आते हैं । चंद राजाओं ने जागर लगाने की एवज में इन जगरियों को भेटी ग्राम में जमीन दी थी । तब से परम्परा बनी हुई है कि जगरिये मेले में जागर लगाने के लिए न्योते जायेंगे । पंचमी को जगरिये न्योते जाते हैं तथा षष्ठी एवं सप्तमी को जागर लगती है । सप्तमी के दिन केले के स्तम्भ लाने से पहले केले के खामें का पूजन करने के बाद इनसे प्रतिमा का निर्माण किया जाता है । प्रतिमा निर्माण को देवी का डिकरा बनाना कहा जाता है । बताया जाता है कि प्रतिमा का श्रंगार चंद राजाओं के समय में एक लाख रुपये का व्यय होता था । अब इस धरोहर सुरक्षा की जिम्मेदारी द्योनाई के बोरा लोगों की है । वे ही देवी के श्रंगार का सामान उत्सव के मौके पर मंदिर में लाते हैं । जेवर को भी ढ़ोल-नगाड़ों के साथ ही लाया जाता है । अपराह्म ४ बजे तक देवी की प्रतिमा तैयार हो जाती है । पुजारी के ऊपर देवी अवतरित होती है । रात्रि में भैंसे का बलिदान होता है । महिष को मेला ड़ूँगरी के लोग आते हैं । दूसरा बलिदान अष्टमी के दिन अपराह्म डेढ़ बजे होता है । तब तक भारी सँख्या में दूर दराज के गाँवों से आये श्रद्धालु जमा हो जाते है । सायं डोला उठने से पहले देवी का भोग लगाया जाता है । यह भोग छत्तीस प्रकार के व्यंजनों से तैयार किया जाता है । व्यंजन बनाने के लिए रसोईया गाँव से विशेष रुप से आता है । देवी को भोग लगाने की जिम्मेदारी इसी रसोईये की है । सभी कार्य सम्पन्न हो जाने पर ही डोला उठता है । अवतरित देवी को जगह-जगह नचाया जाता है । अन्त में डोला झालामाली गाव होता हुआ देवीधारा नामक जल धाराओं के पास पहुँचता है । जहाँ देवी प्रतिमा का प्रतिष्ठापूर्वक विसर्जन किया जाता है ।


 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
स्याल्दे - बिखौती का मेला

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अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट कस्बे में सम्पन्न होने वाला स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला प्रतिवर्ष वैशाख माह में सम्पन्न होता है । हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत ही के साथ इस मेले की भी शुरुआत होती है जो चैत्र मास की अन्तिम तिथि से शुरु होता है । यह मेला द्वाराहाट से आठ कि.मी. दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में लगता है । मेला दो भागों में लगता है । पहला चैत्र मास की अन्तिम तिथि को विभाण्डेश्वर मंदिर में तथा दूसरा वैशाख माह की पहली तिथि को द्वाराहाट बाजार में । मेले की तैयारियाँ गाँव-गाँव में एक महीने पहले से शुरु हो जाती हैं । चैत्र की फूलदेई संक्रान्ति से मेले के लिए वातावरण तैयार होना शुरु होता है । गाँव के प्रधान के घर में झोड़ों का गायन प्रारम्भ हो जाता है ।

चैत्र मास की अन्तिम रात्रि को विभाण्डेश्वर में इस क्षेत्र के तीन धड़ों या आलों के लोग एकत्र होते हैं । विभिन्न गाँवों के लोग अपने-अपने ध्वज सहित इनमें रास्ते में मिलते जाते हैं । मार्ग परम्परागत रुप से निश्चित है । घुप्प अंधेरी रात में ऊँची-ऊँची पर्वतमालाओं से मशालों के सहारे स्थानीय नर्तकों की टोलियाँ बढ़ती आती है इस मेले में भाग लेने । स्नान करने के बाद पहले से निर्धारित स्थान पर नर्तकों की टोलियाँ इस मेले को सजीव करने के लिए जुट जाती है ।

विषुवत् संक्रान्ति ही बिखौती नाम से जानी जाती है । इस दिन स्नान का विशेष महत्व है । मान्यता है कि जो उत्तरायणी पर नहीं नहा सकते, कुम्भ स्नान के लिए नहीं जा सकते उनके लिए इस दिन स्नान करने से विषों का प्रकोप नहीं रहता । अल्मोड़ा जनपद के पाली पछाऊँ क्षेत्र का यह एक प्रसिद्ध मेला है, इस क्षेत्र के लोग मेले में विशेष रुप से भाग लेते हैं ।

इस मेले की परम्परा कितनी पुरानी है इसका निश्चित पता नहीं है । बताया जाता है कि शीतला देवी के मंदिर में प्राचीन समय से ही ग्रामवासी आते थे तथा देवी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद अपने-अपने गाँवों को लौट जाया करते थे । लेकिन एक बार किसी कारण दो दलों में खूनी युद्ध हो गया । हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर गाड़ा गया वहाँ एक पत्थर रखकर स्मृति चिन्ह बना दिया गया । इसी पत्थर को ओड़ा कहा जाता है । यह पत्थर द्वारहाट चौक में रखा आज भी देखा जा सकता है । अब यह परम्परा बन गयी है कि इस ओड़े पर चोट मार कर ही आगे बढ़ा जा सकता है । इस परम्परा को 'ओड़ा भेटना' कहा जाता है । पहले कभी यह मेला इतना विशाल था के अपने अपने दलों के चिन्ह लिए ग्रामवासियों को ओड़ा भेंटने के लिए दिन-दिन भर इन्तजार करना पड़ता था । सभी दल ढोल-नगाड़े और निषाण से सज्जित होकर आते थे । तुरही की हुँकार और ढोल पर चोट के साथ हर्षोंल्लास से ही टोलियाँ ओड़ा भेंटने की र अदा करती थीं । लेकिन बाद में इसमें थोड़ा सुधारकर आल, गरख और नौज्यूला जैसे तीन भागों में सभी गाँवों को अलग-अलग विभाजित कर दिया गया । इन दलों के मेले में पहुँचने के क्रम और समय भी पूर्व निर्धारित होते हैं । स्याल्दे बिखौती के दिन इन धड़ों की सजधज अलग ही होती है । हर दल अपने-अपने परम्परागत तरीके से आता है और रस्मों को पूरा करता है । आल नामक घड़े में तल्ली-मल्ली मिरई, विजयपुर, पिनौली, तल्ली मल्लू किराली के कुल छ: गाँ है । इनका मुखिया मिरई गाँव का थौकदार हुआ करता है । गरख नामक घड़े में सलना, बसेरा, असगौली, सिमलगाँव, बेदूली, पैठानी, कोटिला, गवाड़ तथा बूँगा आदि लगभग चालीस गाँव सम्मिलित हैं । इनका मुखिया सलना गाँव का थोकदार हुआ करता है । नौज्यूला नामक तीसरा घड़ छतीना, बिदरपुर, बमनपुरु, सलालखोला, कौंला, इड़ा, बिठौली, कांडे, किरौलफाट आदि गाँव हैं । इनका मुखिया द्वाराघट का होता है । मेले का पहला दिन बाट्पुजे - मार्ग की पूजा या नानस्याल्दे कहा जाता है । बाट्पुजे का काम प्रतिवर्ष नौज्यूला वाले ही करते हैं । वे ही देवी को निमंत्रण भी देते हैं ।

ओड़ा भेंटने का काम उपराह्म में शुरु होता है । गरख-नौज्यूला दल पुराने बाजार में से होकर आता है । जबकि आल वाला दल पुराने बाजार के बीच की एक तंग गली से होता हुआ मेले के वांछित स्थान पर पहुँचता है । लेकिन इस मेले का पारम्परिक रुप अभी भी मौजूद है । लोक नृत्य और लोक संगीत से यह मेला अभी भी सजा संवरा है । मेले में भगनौले जैसे लोकगीत भी अजब समां बाँध देते हैं । बाजार में ओड़ा भेंटने की र को देखने और स्थानीय नृत्य को देखने अब पर्यटक भी दूर-दूर से आने लगे हैं । इसके बाद ही मेले का समापन होता है ।

कभी यह मेला व्यापार की दृष्टि से भी समृद्ध था । परन्तु पहाड़ में सड़कों का जाल बिछने से व्यापारिक स्वरुप समाप्त प्राय: है । मेले में जलेबी का रसास्वादन करना भी एक परम्परा जैसी बन गयी है । मेले के दिन द्वाराहाट बाजार जलेबी से भरा रहता है ।

इस मेले की प्रमुख विशेषता है कि पहाड़ के अन्य मेलों की तरह इस मेले से सांस्कृतिक तत्व गायब नहीं होने लगे हैं । पारम्परिक मूल्यों का निरन्तर ह्रास के बावजूद यह मेला आज भी किसी तरह से अपनी गरिमा बनाये हुए है ।


 

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