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Fairs & Festivals Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध त्यौहार एवं मेले

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
उत्तरायणी मेला - बागेश्वर

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यूँ तो मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के अवसर पर नदियों के किनारे जहाँ-तहाँ मेले लगते हैं, लेकिन उत्तरांचल तीर्थ बागेश्वर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली उतरैणी की रौनक ही कुछ अलग है ।

उत्तराखंड में बागेश्वर की मान्यता 'तीर्थराज' की है । भगवान शंकर की इस भूमि में सरयू और गोमती का भौतिक संगम होने के अतिरिक्त लुप्त सरस्वती का भी मानस मिलन है । नदियों की इस त्रिवेणी के कारण ही उत्तरांचलवासी बागेश्वर को
तीर्थराज प्रयाग के समकक्ष मानते आये हैं ।

बागेश्वर का कस्बा पुराने इतिहास और सुनहरे अतीत को संजोये हुए है । स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में कूमचिल के विभिन्न स्थानों का विशद् वर्णन उपलब्ध होता है । बागेश्वर के गौरव का भी गुणगान किया गया है । पौराणिक आख्यानों के अनुसार बागेश्वर शिव की लीला स्थली है । इसकी स्थापना भगवान शिव के गण चंडीस ने महादेव की इच्छानुसार 'दूसरी काशी' के रुप में की और बाद में शंकर-पार्वती ने अपना निवास बनाया । शिव की उपस्थिति में आकाश में स्वयंभू लिंग भी उत्पन्न हुआ जिसकी ॠषियों ने बागीश्वर रुप में अराधना की ।

स्कन्दपुराण के ही अनुसार मार्कण्डेय ॠषि यहाँ तपस्यारत थे । ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जब देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को लेकर आये तो सार्कण्डेय ॠषि के कारण सरयू को आगे बढ़ने से रुकना पड़ा । ॠषि की तपस्या भी भंग न हो और सरयू को भी मार्ग मिल जाये, इस आशय से पार्वती ने गाय और शिव ने व्याघ्र का रुप धारण किया और तपस्यारत ॠषि से सरयू को मार्ग दिलाया । कालान्तर व्याघ्रेश्वर ही बागेश्वर बन गया ।

विष्णु की मानस पुत्री सरयू का स्नान पापियों को मोक्ष और सद्गति प्रदान करने वाला है । सरयू पापनाशक है । यम मार्ग को रोकने वाली सरयू के जल का पान करने से सोमपान का फल और स्नान अश्वमेघ का फल प्रदान करता है । बागेश्वर तीर्थ में मृत्यु से प्राणी शिव को प्राप्त होता है । इस प्रकार सूर्य तीर्थ तथा अग्नि तीर्थ के बीच स्थित विश्वेश्वर ही बागेश्वर है । सरयू का निर्मल जल सतोगुणी फल देता है । नदी की दूसरी धारा गोमती है जो अम्बरीष मुनि के आश्रम में पालित नन्दनी गाय के सींगों के प्रहार से उत्पन्न हुई । इसके जल को तमोगुण की वृद्धि करने वाला माना गया है । सरस्वती यहाँ केवल आस्था है । भौतिक रुप से जलधारा कही दृष्टिगोचर नहीं होती ।

बागेश्वर के सुनहरे अतीत में ही उतरैणी का भी गौरवमय पृष्ठ है । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल में ही माघ मेले की नींव पड़ी थी । बागेश्वर की समस्त भूमि का स्वामित्व था । भूमि से उत्पन्न उपज का एक बड़ा भाग मंदिरों का रख-रखाव में खर्च होता था ।

चंद राजाओं ने ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किये । तब शिव की इस भूमि में कन्यादान नहीं होता था ।

मेले की सांकृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का स्वरुप संगम पर नहाने का था । मकर स्नान एक महीने का होते था । सरयू के तट को सरयू बगड़ कहा जाता है । सरयू बगड़ के आक-पास स्नानार्थी माघ स्नान के लिए छप्पर डालना प्रारंभ कर देते थे । दूर-दराज के लोग मोहर मार्ग के अभाव में स्नान और कुटुम्बियों से मिलने की लालसा में पैदल रास्ता लगते । बड़-बूढ़े बताते हैं कि महीनों पूर्व से कौतिक में चलने का क्रम शुरु होता । धीरे-धीरे स्वजनों से मिलने के आह्मलाद ने हुड़के का थाप को ऊँचा किया । फलस्वरुप लोकगीतों और नृत्य की महफिलें जमनें लगीं . हुड़के की थाप पर कमर लचकाना, हाथ में हाथ डाल स्वजनों के मिलने की खुशी से नृत्य-गीतों के बोल का क्रम मेले का अनिवार्य अंग बनता गया । लोगों को आज भी याद है उस समय मेले की रातें किस तरह समां बाँध देती थी । प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती । काँपती सर्द रातों में अलाव जलते ही ढोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का अलाव के चारों ओर स्वयं ही विस्तार होता जाता । तब बागेश्वर ही मेले में नृत्य की महफिलों से सजता रहता । दानपुर और नाकुरु पट्टी की चांचली होती । नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें दारमा लोग अपने यहाँ के गीत गाते । सबके अपने-अपने नियत स्थान थे । नाचने गाने का सिलसिला जो एक बार शुरु होता तो चिड़ियों के चहकने और सूर्योदय से पहले खत्म ही नहीं होता । परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले बैरिये भी न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठे हो जाते । काली कुमाऊँ, मुक्तेश्वर, रीठआगाड़, सोमेश्वर और कव्यूर के बैरिये झुटपूटा शुरु होने का ही जैसे इन्तजार करते । इनकी कहफिलें भी बस सूरज की किरणें ही उखाड़ पातीं । कौतिक आये लोगों की रात कब कट जाती मालूम ही नहीं पड़ता था ।

धीरे-धीरे धार्मिक और आर्थिक रुप से समृद्ध यह मेला व्यापारिक गतिविधियों का भी प्रमुख केन्द्र बन गया । भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्धों के कारण दोनों ही ओर के व्यापारी इसका इन्तजार तरते । तिब्बती व्यापारी यहाँ ऊनी माल, चँवर, नमक व जानवरों की खालें लेकर आते । भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, चुटके, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियाँ लेकर आते । नेपाल के व्यापारी लाते शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व बाघ की खालें । स्थानीय व्यापार भी अपने चरमोत्कर्ष पर था । दानपुर की चटाइयाँ, नाकुरी के डाल-सूपे, खरदी के ताँबे के बर्तन, काली कुमाऊँ के लोहे के भदेले, गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था । गुड़ की भेली से लेकर मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीद फरोख्त होती । माघ मेला तब डेढ़ माह चलता । दानपुर के सन्तरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों का भी बाजार लगता और इनके साथ ही साल भर के खेती के औजारों का भी मोल भाव होता । बीस बाईस वर्ष पहले तक करनाल, ब्यावर, लुधियाना और अमृतसर के व्यापारी यहाँ ऊनी माल खरीदने आते थे ।

मेले की इस समृद्ध पृष्ठभूमि का लाभ आजादी के दीवानों ने स्वराज की बात को आम जन मालस तक पहुँचाने में उठाया । बागेश्वर की उतरैणी आजादी से पहले ही राजनैतिक जन जागरण के लिए प्रयुक्त होने लगी थी । 'स्वराज हुनैर छु' - स्वराज्य होने वाला है, की भावना गाँव-गाँव में पहुँच रही थी । सरयू बगड़ राजनैतिक हलचलों का केन्द्र था । काँग्रेसी झंड़े के यहाँ लगते ही हलचल प्रारम्भ हो जातीं । झंडा फहरता देख लोगों के झुंड के झुंड आ इकट्ठे होते । मीटिंग प्रारम्भ हो जाती । जुलूस उठते । गाँव-गाँव से स्वयं सेवक आते । खद्दर का कुर्त्ता-पायजामा, सफेद टोपी उनकी पहचान होती । लोग विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पाण्डे सरीखे-नेताओं को सुनने सरयू बगड़ का रुख करते । स्वतंत्रता की भावना को गाँव-गाँव तक पहुँचाने का यह सबसे श्रेष्ठ अवसर होता ।

अँग्रेजों ने कुली उतार एवं कुली बेगार जैसी अमानवीय प्रथायें पहड़वासियों पर लादी थी । एक समय था जब पहाड़ में अँग्रेजों को अपना सामान लादने के लिए कुली मिलना कठिन था । इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में बोझा ढोने के लिए कुलियों के रजिस्टर बनाये गये थे । अँग्रेज साहब के आने पर ग्राम प्रधान या पटवारी 'घात' आवाज लगाता । जिसके नाम की आवाज़ पड़ती उसे अपना सारा काम छोड़कर जाना अनिवार्यता थी । बच्चे, बूढ़े, बीमार होने का भी प्रश्न न था । सन् १८५७ में कमिश्नर हैनरी रैमजे ने ४० कैदियों से क्षमादान की शर्त पर कुलियों का काम लिया था । लेकिन ज्यों-ज्यों अँग्रेज बढ़ते गये समस्या विकट होती गयी । तब ज़ोर ज़बरदस्ती से मैनुअल आॅफ़ गवर्नमेंट आडर्स में कुली प्रथा को निर्धारित किया गया । लेकिन भूमिहीन और कर्मचारियों को कुली नहीं माना गया । कुली का कार्य वह करता था जिसके पास जमीन होती । इस तरह कुमाऊँ का प्रत्येक भूमिपति अँग्रेजों की न में कुली था । यही नहीं कुली का काम करने वाले व्यक्ति को साहब के शिविरों में खाद्य पदार्थ इत्यादि भी ले जाने पड़ते । यह भार 'बर्दायश' कहलाता ।

सन् १९२९ में कुमाऊँ केसरी बद्रीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में इसी सरयू बगड़ में कुली बेगार के रजिस्टरों को डुबोया गया । तब से लेकर आज तक राजनैतिक दल इस पर्व का उपयोग अपनी आवाज बुलन्द करने में करते हैं ।

 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
 
दशहरा महोत्सव - अल्मोड़ा

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हिमालय में अवस्थित अल्मोड़ा अत्यंत सुन्दर व सुरम्य पर्वतीय स्थलों में से एक है । यदि एक बार अल्मोड़ा के आसपास की नैसर्गिक सुन्दरता एवं दशहरा महोत्सव को देख लिया तो निश्चित ही मन बार-बार यहाँ आने के लिए प्रयत्न करेगा ।

कार्तिक मास में मनाये जाने वाले दशहरा समारोहों में देशभर में बुराई के प्रतीक राक्षस परिवारों के पुतलों का दहन किया जाता है । लेकिन कुमाऊँ के सांस्कृतिक केन्द्र तथा सांस्कृतिक चेतना के उद्गमस्थल अल्मोड़ा में मनाये जाने वाला दशहरा महोत्सव रामकथा के रसिकों को कल्पना के आलोक की सैर करवा देता है मानों इन पात्रों की जीवन यात्रा उनके सम्मुख ही घट रही हो । दशहरे के दिन रंग-बिरंगे पुतलों के सम्मुख खड़ा दर्शक अपने को वर्तमान से कहीं दूर अतीत में घटनाचक्र के नजदीक पाता है ।

अल्मोड़ा का दशहरा महोत्सव भी साम्प्रदायिक सौहार्द की ही एक अनुभूति है । दर्जन भर से अधिक पुतलों के निर्माण में शौकिया कलाकारों की कल्पना और सृजनशीलता ने इन पुतलों को प्रतीक भर ही नहीं रहने दिया है वरन् रामकथा के प्रस्तुतकर्ताओं की वैचारिकता को गढ़ने का सफल प्रयास किया है । रामकथा के खलनायकों को जीवन्त रुप में इस प्रकार से गढ़ दिया जाता है कि थोड़ी सी विषयवस्तु के आधार पर तैयार भावभंगिमा और अलंकरण से सुसज्जित पुतला अपनी पात्रगत विशेषता के अनुसार मूक सम्प्रेषण दे सके । यूँ तो अल्मोड़ा में राक्षस परिवार के पुतले देश के अन्य भागों की तरह ही बनाये जाते हैं लेकिन अन्य स्थानों की अपेक्षा यहाँ के पुतले कलात्मकता और भव्यता के साथ उन कलाकारों के द्वारा निर्मित होते हैं जो किसी भी तरह से पेशेवर नहीं है । यह कलाकार हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई अथवा किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के हो सकते हैं । साथ ही सम्भवत: दशहरे के अतिरिक्त कभी ही कोई पुतला बनाते हैं लेकिन जब दशहरे में पुतला निर्माण की कला को प्रदर्शित करते हैं तो लोग आश्चर्य से अंगुली दबा जाते हैं । जैसा शरीर सौष्ठव, रुप विन्यास, कलासज्जा, शारीरिक मुद्रायें इन पुतलों में प्रदर्शित होती हैं, अन्य जगहों पर दुर्लभ हैं । दशहरे के दिन इन पुतलों का जुलूस भी निकलता है ।
अल्मोड़ा में दशहरा महोत्सव की तैयारी एक माह पहले से ही हो जाती है । मोहल्ले-मोहल्ले में रावण परिवार के पुतलों के निर्माण के लिए युवा सक्रिय हो जाते हैं । आब तो स्थान-स्थान पर पुतला निर्माण कमेटियाँ बन गयी हैं । पुतले बाँस की खपच्चियों से तैयार नहीं किये जाते । यहाँ ऐंगिल अचरन के फ्रेम पर पुतलों का निर्माण होता है । पुतलों में पराल भरकर उन्हें बोरे से सिलकर तथा उस पर कपड़े से मनोनुकूल आकृति दी जाती है । चेहरा प्लास्टर आफ पेरिस का भी बनाया जाता है ।

इन पुतलों की नयनाभिराम छवि, आँख, नाक तथा विशिष्ट अवयवों को अनुपात देने में यहाँ के शिल्पी अपनी समस्त कला झोंक देते हैं । इन शिल्पियों का हस्तलाघव, कल्पनाशीलता, कौशल देखते ही बनता है । पूरा धड़ एक साथ बनाया जाता है, केवल चेहरा अलग से तैयार किया जाता है । प्रत्येक पुतले में उसकी भाव भंगिमा और मुद्राओं को सूक्ष्मतम रुप में प्रस्फुटित किया जाता है । इन सबके बाद शुरु होता है पुतले का अलंकरण । अल्मूनियम की पन्नियों, चमकदार कागज से किरीट, कुँडल, माला, कवच, बाजूबन्ध तथा विभिन्न आयुध बनाये जाते हैं ।

दशहरे के दिन दोपहर से यह पुतले अपने निर्माण स्थल से निकलते हैं । तब इनकी सज्जा देखते ही बनती है । पुतलों की यात्रा लाला बाजार से एक जुलूस के रुप में प्रारंभ होती है । इन पुतलों में रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण, ताड़िका, सुबाहु, त्रिशरा, अक्षयकुमार, मकराक्ष, खरदूषण, नौरा आदि के पुतले शोख रंगों से संवारे जाने से अनोखी आभा लिए हुए होते हैं । इनके साथ-साथ पुतला निर्माण समितियों के लोग भी चलते हैं । जूलुस को क्योंकि अपने गन्तव्य पर पहुँचते-पहुँचते काफी रात हो जाती है इसलिए प्रकाश की भी समुचित व्यवस्था की जाती है । बाल कलाकार भी इस जूलुस में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । दशहरे के ही दिन विजयदायनी देवी दुर्गा की प्रतिमायें क्रमश: नंदादेवी एवं गंगोल मुहल्ले के निवासी शोभा यात्रा हेतु लाते हैं । भजन कीर्तन के मध्य लाल वस्र धारण किये माँ दुर्गा की प्रतिमायें विसर्जन के लिए क्वारव ले जायी जाती हैं जहाँ कोसी और सुआल नदियों के संगम पर प्रतिष्ठापूर्वक उनका विसर्जन किया जाता है ।

दशहरे की शाम अल्मोड़ा में देखते ही बनती है । विद्युत की सजावट से सारा शहर दिपदिप करता है । एक माह से चली आ रही गतिविधियों के यह उत्कर्ष का दिन होता है जिसका आनंद यहाँ आये देश-विदेश के पर्यटक देर रात तक लेते हैं ।

इस उत्सव की एक विशेषता यह भी है कि हर मुहल्ले के लोग जूलूस के रुप में अपने-अपने पुतले लेकर आते हैं, इसलिए जितनी सक्रिय भागीदारी पूरे नगरवासियों की इस उत्सव में होती है अन्य किसी भी उत्सव में शायद ही कहीं होती हो । पहले पुतले शहर में जूलूस के रुप में नहीं आते थे । एक दशक पूर्व अख्तर भारती जैसे कलाकारों ने मेघनाद के पुतले से इस उत्सव को जो दिशा दी उसी का परिणाम आज बनने वाले एक दर्जन से ज्यादा पुतलों का जूलूस है ।

पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय जनता के प्रयासों से यह महोत्सव लोकानुरंजन का पहत्वपूर्ण आधार बन गया है ।

 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
बगवाल : देवीधुरा मेला

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देवीधुरा में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है । मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लेकिन आम सहमति है कि नह बलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल का आयोजन होता है ।

लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।

इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्धमें प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खास जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।

बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं । वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं । देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है । फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढ़ोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों� पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं ।

बगवाल का एक निश्चित विधान है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाढि कौतिक के रुप में एक माह तक लगभग चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परम्परागत पूजन होता है । बगवाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रुप से पूर्व से ही सम्बन्धित चारों खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल, वालिक तथा लमगडिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दुक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है । जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी । इस बीच अठ्वार का पूजन होता है । जिसमें सात बकरे और एक भैंस का बलिदान दिया जाता है ।

पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं ।

द्यीकों के अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बगवाल के लिए भेजती हैं । इन सबका मार्ग पूर्व में ही निर्धारित होता है । मैदान में पहँचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़ीया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलती है । फिर वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं ।

दोपहर में जब मैदान के चारों ओर भीड़ का समुद्र उमड़ पड़ता है तब मंदिर का पुजारी बगवाल प्रारम्भ होने की घोषणा शुरु करता है । इसके साथ ही खामों के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ होती है । ढ़ोल का स्वर ऊँचा होता जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं । धीरे-धीरे बगवाली एक दूसरे पर प्रहार करते मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं । फर्रों� की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है । जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं । पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँबर के साथ मैदान में आकर बगवाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है ।

बगवाल का समापन शंखनाद से होता है । तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर द्यौके धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से बिदा होते हैं । मंदिर में अर्चन चलता है ।

कहा जाता है कि पहले जो बगवाल आयोजित होती थी उसमें फर का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् १९४५ के बाद फर का प्रयोग किया जाने लगा । बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है ।

रात्रि में मंदिर जागरण होता है । श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है । कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं ।

वैसे देवीधुरा का वैसर्गिक सौन्दर्य भी मोहित करने वाला है, इसीलिए भी बगवाल को देखने दूर-दूर से सैलानी देवीधुरा पहँचते हैं ।

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
पूर्णागिरी मेला

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नैनीताल जनपद के पड़ोस में और पिथौरागढ़ जनपद में अवस्थित पूर्णागिरी का मंदिर अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर है । कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था । प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं । यह स्थान टनकपुर से मात्र १७ कि.मी. की दूरी पर है । अन्तिम १७ कि.मी. का रास्ता श्रद्धालु अपूर्व आस्था के साथ पार करते हैं ।

लेकिन शरद् ॠतु की नवरात्रियों के स्थान पर मेले का आनंद चैत्र की नवरात्रियों में ही अधिक लिया जा सकता है क्योंकि वीरान रास्ता व इसमें पड़ने वाले छोटे-छोटे गधेरे मार्ग की जगह-जगह दुरुह बना देते हैं । चैत्र की नवरात्रियों में लाखों की संख्या में भक्त अपनी मनोकामना लेकर यहाँ आते हैं । अपूर्व भीड़ के कारण यहाँ दर्शनार्थियों का ऐसा ताँता लगता है कि दर्शन करने के लिए भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है । मेला बैसाख माह के अन्त तक चलता है ।

ऊँची चोटी पर गाढ़े गये त्रिशुल आदि ही शक्ति के उस स्थान को इंगित करते हैं जहाँ सती का नाभि प्रवेश गिरा था ।

पूर्णगिरी क्षेत्र की महिमा और उसके सौन्दर्य से एटकिन्सन भी बहुत अधिक प्रभावित था उसने लिखा है -

"पूर्णागिरी के मनोरम दृष्यों की विविधता एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की महिमा अवर्णनीय है, प्रकृति ने जिस सर्व व्यापी वर सम्पदा के अधिर्वक्य में इस पर्वत शिखर पर स्वयं को अभिव्यक्त किया है, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका का कोई भी क्षेत्र शायद ही इसकी समता कर सके किन्तु केवल मान्यता व आस्था के बल पर ही लोग इस दुर्गम घने जंगल में अपना पथ आलोकित कर सके हैं ।"

यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है, नेपाल इसके बगल में है । जिस चोटी पर सती का नाभि प्रदेश गिरा था उस क्षेत्र के वृक्ष नहीं काटे जाते । टनकपुर के बाद ठुलीगाढ़ तक बस से तथा उसके बाद घासी की चढ़ाई चढ़ने के उपरान्त ही दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं । रास्ता अत्यन्त दुरुह और खतरनाक है । क्षणिक लापरवाही अनन्त गहराई में धकेलकर जीवन समाप्त कर सकती है । नीचे काली नदी का कल-कल करता रौख स्थान की दुरुहता से हृदय में कम्पन पैदा कर देता है । रास्ते में टुन्नास नामक स्थान पर देवराज इन्द्र ने तपस्या की, ऐसी भी जनश्रुती है ।

मेले के लिए विशेष बसों की व्यवस्था की जाती है जो टनकपुर से ठुलीगाढ़ तक निसपद पहुँचा देती है । भैरव पहाड़ और रामबाड़ा जैसे रमणीक स्थलों से गुजरने के बाद पैदल यात्री अपने विश्राम स्थल टुन्नास पर पहुँचते हैं जहाँ भोजन पानी इत्यादि की व्यवस्थायों हैं । यहाँ के बाद बाँस की चढ़ाई प्रारम्भ होती है जो अब सीढियाँ बनने तथा लोहे के पाइप लगने से सुगम हो गयी है । मार्ग में पड़ने वाले सिद्ध बाबा मंदिर के दर्शन जरुरी हैं ।

रास्ते में चाय इत्यादि के खोमचे मेले के दिनों में लग जाते हैं । नागा साधु भी स्थान-स्थान पर डेरा जमाये मिलते हैं । झूठा मंदिर के नाम से ताँबे का एक विशाल मंदिर भी मार्ग में कोतूहल पैदा करता है ।

प्राचीन बह्मादेवी मंदिर, भीम द्वारा रोपित चीड़ वृक्ष, पांडव रसोई आदि भी नजदीक ही हैं । ठूलीगाड़ पूर्णागिरी यात्रा का पहला पड़ाव है ।

झूठे मंदिर से कुछ आगे चलकर काली देवी तथा महाकाल भैंरों वाला का प्राचीन स्थान है जिसकी स्थापना पूर्व कूमार्ंचल नरेश राजा ज्ञानचंद के विद्वान दरबारी पंडित चंद्र त्रिपाठी ने की थी । मंदिर की पूजा का कार्य बिल्हागाँव के बल्हेडिया तथा तिहारी गाँव के त्रिपाठी सम्भालते हैं ।

वास्तव में पूर्णागिरी की यात्रा अपूर्व आस्था और रमणीक सौन्दर्य के कारण ही बार-बार श्रद्धालुओं और पर्यटकों को भी इस ओर आने को उत्साहित सा करती है । इस नैसर्गिक सौन्दर्य को जो एक बार देश लेता है वह अविस्मरणीय आनंद से विभोर होकर ही वापस जाता है । कुमाऊँ क्षेत्र के कुमैंये, पूरब निवासी पुरबिये, थरुवाट के थारु, नेपाल के गौरखे, गाँव शहर के दंभ छोड़े निष्कपट यात्रा करने वाले श्रद्धालु मेले की आभी को चतुर्दिक फैलायो रहते हैं ।

 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
थल मेला

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सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में जिला मुख्यालय से लगभग ५० कि.मी. की दूरी पर थल नामक कस्बा है । इसी कस्बे में प्रतिवर्ष वैशाखी के अवसर पर क्षेत्र का प्रसिद्ध व्यवसायिक मेला लगता है जो स्थान के अनुसार थल मेला कहलाता है ।

थल में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर ही इस मेले का केन्द्र है । थल के अन्य मंदिरों में बालेश्वर मंदिर की महिमा का वर्णन भी मिलता है । इस मंदिर में स्थित शिवलिंग का मेले के अवसर पर विशेष दर्शन प्राप्त किया जाता है । स्कन्द पुराण के यात्री को रामगंगा में स्नानकर बालीश तथा शिव के गणों का पूजन कर पावन पर्वत की ओर जाना चाहिए । आज भी थल यात्री मानसरोवर की ओर प्रस्थान करते हैं ।

यह भी कहा जाता है कि वर्ष १९४० में रामगंगा नदी के तट पर क्रान्तिवीरों ने जालियाँवाला दिवस मनाया था तभी से इस स्थान पर मेले के आयोजन का प्रथम सूत्रपात हुआ था तथा इस स्थान पर मेले की पृष्ठभूमि बनी । पहाड़ के अन्य मेलों की तरह यहाँ भी सांस्कृतिक और व्यापारिक गतिविधियाँ बाज़ी गयीं तथा कालान्तर में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक व व्यापारिक मेला बन गया ।

पहले यह मेला दस से पन्द्रह दिनों तक चला था । तीन दशक पहले तक तो मेला बीस दिनों से भी ज्यादा जुटता था ।

इस मेले के व्यापारिक महत्व के कारण दूर-दूर से व्यापारी अपना माल बेचने के लिए आया करते थे ।

मुंश्यारी, कपकोट, धारचूला जैसे हस्तकला के केन्द्र तब से इस मेले से सशक्त रुप से जुड़े हुए थे । किंरगाल की टोकरियाँ, मोस्तो, रस्से, डोके, कुर्सियाँ, कृषकों के लिए हल, कुदाल-कुटले से लेकर गृहणियों के काम में आने वाले सामान और चूड़ी-बिन्दी से लेकर टीकुली तक यहाँ बिकती थी । खरदी के ताँबे के बर्तन, भांग से बने हुए कुथले भी यहँ भारी मात्रा में बिकते थे । ऊनी वस्रों के लिए तो लोग साल-साल भर इस मेले की इंतजार करते । नेपाल के व्यापारी यहाँ खालें लेकर आते थे । उन्नत नस्ल के पशुओं की भी खरीद फरोख्त होती थी ।

इस मेले की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी समृद्ध थी । बैर, झोड़ा, चांचरी व हुड़के की थाप पर सामयिक गीतों से वादियाँ गूँजती रहतीं । काली कुमाऊँ, सोर घाटी, गंगोली, नेपाली तथा गोरखा साँस्कृतियों के कारण मेला अनूठा संगम स्थल बन गया था ।

आवागमन के साधनों में वृद्धि के कारण इस मेले का व्यापारिक पक्ष आब उतना सशक्त नहीं रहा जितना चार दशक पहले था । तिब्बत से व्यापार बन्द होने के कारण अब मेले में रौनक कम हो गयी है । बीस दिनों तक चलने वाला यह मेला मात्र चार दिनों तक के लिए ही सिमट कर रहा गया है । फिर भी कुमाऊँ की हस्तकला के यहाँ आज भी सजीव दर्शन होते हैं तथा लोकगीतों, भगलौल, झोड़े, चांचरी आदि के कारण मेले का कुछ-कुछ परम्परागत स्वरुप जीवित है ही ।

 
 

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