Author Topic: Fairs & Festivals Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध त्यौहार एवं मेले  (Read 93640 times)

Bhishma Kukreti

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            Fairs and Festivals of Dehradun District

                   Fairs and Festivals of Uttarakhand – Part-5
                   

            Internet Presentation: Bhishma Kukreti
Besides common Hindu Festivals and Fairs, the following places are significant in Dehradun district-

Name Fair/Festival----------------City Village/place-------Period/Time ------Remarks
Jhanda Mela--------------------Jhanda Muhlla D’Dn----------Chait, 6th of Krishna
Tapkeshwar Mandir ------------DDN------------------Sawan, Shivratri
Mata Vaishno Dev Gufa -----Gadhi Kaint ----------Whole Year
Lakshman Siddh Peeth-------- Rishikesh Road-DDN-------Last Sunday of April
Mandu Siddhi Ki Samadhi ------------------------------Vasant Panchami
Surkanda Devi ------------Mussoorie-------Navratri
Bhadraj Mandir -----------Mussoorie--------------Shravan Sankranti
Santura Devi -----10KM from Mussoorie--------Navratris
Shri Sanatan Dharm Mandir ---------Mussoorie –Shrikrishn Janmastami Mela
Garhwal Sabha held a fair every year.
                  Rishikesh
 
Pilgrims come for Makra Sankranti, Vishuwat Sankarnti, Vasant Panchami, Ramnavami, Shivratri, Janmsastami, Vaishakhi and on other auspicious days to Rishikesh and dip into Ganga.
Pilgrims visit Triveni Ghat, Lakshman Mandir (Pauri Garhwal) , Lakshman Jhula, Bharat Mandir, Veerbhadra Mandir , Swargashram, Shivanand Ashram, Ved Niketan, Dhyanpith, Sant Sevashram, and other Ashram.
                             Jaunsar Babar Region
 The people celebrate many festivals and held fairs in Jaunsar as Bisu fair, Mahasu fair, Shaheed Veer Chandra Kesari fair.
Pilgrims and tourists visit Shiv Mandir of Lakhamandal, Asoka Pillars, Ashwamedha Yagya Sthal, Vairatgarh, Chaitrarath, Bindusar, Bhadraj Mandir, Durgdaevi Mandir, Mahasu Mandir, Rudreshwar Mandir (Asadh Purnima) ,
 


Copyright@ Bhishma Kukreti for Interpretation 13/4/2014
Notes on Fairs and Festivals of Uttarakhand; Fairs and Festivals of Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Nainital Kumaon, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Almora Kumaon, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Champawat Kumaon, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Bageshwar Kumaon, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Pauri Garhwal, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Chamoli Garhwal, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Tehri Garhwal, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Uttarkashi  Garhwal, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Dehradun Garhwal, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Haridwar Garhwal, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Garhwal, Uttarakhand, Mid Himalaya; Fairs and Festivals of Garhwal, Uttarakhand, Himalaya; Fairs and Festivals of Garhwal, Uttarakhand, North India; Fairs and Festivals of Garhwal, Uttarakhand, South Asia to be continued …
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Fairs and Festivals of Dehradun District, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Chakrata, Dehradun District, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Kalsi, Dehradun District, Uttarakhand;  Fairs and Festivals of Lakhwar, Dehradun District, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Vikasnagar, Dehradun District, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Doiwala, Dehradun District, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Rishikesh, Dehradun District, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Sahespur, Dehradun District, Uttarakhand; Fairs and Festivals of Rajpur, Dehradun District, Uttarakhand;

Pawan Pathak

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दीवाली, दशहरा होली के रंगों को समेटे है लोसर पर्व
उत्तरकाशी। डुंडा बीरपुर व बगोरी हर्षिल निवासी जाड भोटिया समुदाय के लोग लोसर त्योहार की तैयारियों में जुट गए हैं। बौद्ध पंचांग के अनुसार फाल्गुन शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से नए वर्ष के आगमन की खुशी में मनाया जाने वाला यह पर्व हिंदू धर्म के दीपावली, दशहरा व होली के रंगों को समेटे हुए है।
बौद्ध पंचांग के अनुसार फाल्गुन शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि को नए साल का शुभारंभ माना जाता है। नववर्ष की पूर्व संध्या अमावस की रात को जाड भोटिया लोग दीपावली के तौर पर मनाते हैं। दु:ख, रोग एवं अशांति को नष्ट करने के प्रतीक के तौर पर वे छुलके(चीड़ की लकड़ के छिलकों से बनी मशाल) जलाकर गांव के तिराहे पर एकत्र होते हैं। यहां मशाल का विसर्जन करने के साथ ही वे यहां से संपन्नता की कामना के साथ पत्थर चुन कर घर ले जाते हैं। अगले रोज को दशहरे के तौर पर मनाया जाता है। जिसमें गंगाजल से आटा गूंथकर गणेश जी की प्रतिमा बनाई जाती है। जिसे देवभोग छंग, चावल व आटे का भोग लगाया जाता है। त्योहार के अंतिम दिन आटे से होली खेली जाती है। जिसके पीछे धन धान्य की संपन्नता की कामना का संदेश छिपा है।


Source- http://earchive.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20100201a_039100003&ileft=767&itop=72&zoomRatio=130&AN=20100201a_039100003

Pawan Pathak

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ढोल-नगाड़े के साथ मेले की तैयारियां शुरू
लोहाघाट: नेपाल सीमा से मडलक व रौंसाल क्षेत्र के महाकाली नदी तट से जुड़े विभिन्न सीमावर्ती गांवों में प्रसिद्व नगरूघाट मेले की तैयारियां शुरू हो गई है। मेले में विभिन्न गांवों के दमाऊ बजने शुरू हो गए है जो देखने लायक होते है यहां के बगोटी सल्टा और जमरसो गांवो में नागार्जुन देवता को अवतरित होकर भक्तों के कंधों में सवार होकर नगरूघाट धाम पहुंचते है। वहां पर देव रथों व शोभायात्र के तहत प्राचीन मंदिर की परिक्रमा की जाती है। क्षेत्र में नागाजरुन देवता को महाकाली नदी का भंवर माना जाता है। नागाजरुन देवता का निवास महाकाली नदी के विशाल तालाब के अंदर स्थित मंदिर मैं माना जाता है। महाभारत कालीन इस देवता का अंश नेपाल व भारत में तमाम गांवों में विस्तारित है। हर वर्ष बैकुंठ चतुरदशी को यहां लगने वाले मेले में शामिल होने के लिए हर वर्ष भारत सहित नेपाल के लोग भी पहुंचते है। इस वर्ष मेला 24 नवंबर से शुरू होगा मगर वैसे तो इस मेले की शुरुआत विभिन्न गांवों में हरिबोधिनी एकादशी से देव गद्दी व झोड़े झुमटे से शुरू हो गया है। जिसमें पहाड़ी झोड़ा गाकर लोगों को मंत्र मुग्ध कर रहे । क्षेत्र के विभिन्न गांवों में मेले की तैयारी में कई प्रकार के कार्य क्रम किए जा रहे है। समिति अध्यक्ष बहादुर चंद पूर्व प्रमुख उषा देवी, सविच विक्रम सांमत, डॉ . सतीश पांडेय, रमेश चंद्र, कमल बोहरा, अनिल पांडेय, पुष्कर सिंह बोहरा आदि ने मेले के सफल संचालन के लिए सहयोग दिये जाने की बात कही है।
Source-http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/20-nov-2015-edition-Pithoragarh-page_4-25120-3585-140.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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फूलियात के साथ बिस्सू पर्व का आगाज, देव दर्शन को उमड़ा श्रद्धालुओं का सैलाब 

विशिष्ट संस्कृति के लिए प्रसिद्ध जौनसार बावर में बृहस्पतिवार को बिस्सू पर्व का विधिवत शुभारंभ हुआ। मंदिरों में देव दर्शन के लिए श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। लोगों ने देवताओं को बुरांश के फूल अर्पण कर सुख और समृद्धि की कामना की।
क्षेत्र के गांवों में फूलियात की धूम रही। लोगों ने पंचायती आंगन में एकत्र होकर ढोल एवं दमाऊ की थाप पर पारंपरिक अंदाज में नृत्य किया और एक दूसरे को बिस्सू की बधाई दी। 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड के लोक पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं :
कुर्माचल परिषद देहरादून के महासचिव चंद्रशेखर जोशी ने सभी कुर्मांचली, उत्तराखण्डवासियों को शुभकामनाएं देते हुए इसके बारे में विस्तार से बताया

खतड़ुआ शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातड़ि” शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है रजाई या अन्य गरम कपड़े. गौरतलब है कि भाद्रपद की शुरुआत (सितम्बर मध्य) से पहाड़ों में जाड़ा धीरे-धीरे शुरु हो जाता है। यही वक्त है जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गये कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं. इस तरह यह त्यौहार वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का परिचायक है। इस त्यौहार के दिन गांवों में लोग अपने पशुओं के गोठ (गौशाला) को विशेष रूप से साफ करते हैं. पशुओं को नहला-धुला कर उनकी खास सफाई की जाती है और उन्हें पकवान बनाकर खिलाया जाता है। पशुओं के गोठ में मुलायम घास बिखेर दी जाती है. शीत ऋतु में हरी घास का अभाव हो जाता है, इसलिये “खतड़ुवा” के दिन पशुओं को भरपेट हरी घास खिलायी जाती है. शाम के समय घर की महिलाएं खतड़ुवा (एक छोटी मशाल) जलाकर उससे गौशाला के अन्दर लगे मकड़ी के जाले वगैरह साफ करती हैं और पूरे गौशाला के अन्दर इस मशाल (खतड़ुवा) को बार-बार घुमाया जाता है और भगवान से कामना की जाती है कि वो इन पशुओं को दुख-बीमारी से सदैव दूर रखें।  गांव के बच्चे किसी चौराहे पर जलाने लायक लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगाते हैं गौशाला के अन्दर से मशाल लेकर महिलाएं भी इस ,चौराहे पर पहुंचती हैं और इस लकड़ियों के ढेर में “खतड़ुआ” समर्पित किये जाते हैं। ढेर को पशुओं को लगने वाली बिमारियों का प्रतीक मानकर “बुढी” जलायी जाती है. यह “बुढी” गाय-भैंस और बैल जैसे पशुओं को लगने वाली बीमारियों का प्रतीक मानी जाती हैं, जिनमें खुरपका और मुंहपका मुख्य हैं. इस चौराहे या ऊंची जगह पर आकर सभी खतड़ुआ जलती बुढी में डाल दिये जाते हैं और बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते हुए गाते हैं

भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा,
गै की जीत, खतडुवै की हार
भाग खतड़ुवा भाग
अर्थात गाय की जीत हो और खतड़ुआ (पशुधन को लगने वाली बिमारियों) की हार हो।
इसके साथ ही बच्चे पड़ोस के गांववालों को ऊंची आवाजों में उनकी गाय-भैंसों को लगने वाली बीमारियां अपने घर ले जाने के लिये भी आमन्त्रित करते हैं। इस अवसर पर हल्का-फुल्का आमोद-प्रमोद होता है और ककड़ी को प्रसाद स्वरूप वितरित किया जाता है. इस तरह से यह त्यौहार पशुधन को स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट बने रहने की कामना के साथ समाप्त होता है।

 कुमाऊंनी के प्रसिद्ध कवि श्री बंशीधर पाठक “जिज्ञासु” की कविता की कुछ पंक्तियां इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं.-
अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं, खतड़सिंग न मिल, गैड़ नि मिल।
कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन, गणत करै, जागर लगै,
बैसि भैट्य़ुं, रमौल सुणों, भारत सुणों, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल,
स्याल्दे-बिखौती गयूं, देविधुरै बग्वाल गयूं, जागसर गयूं, बागसर गयूं,
अलम्वाड़ कि नन्दादेवी गयूं, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल।

 

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