Author Topic: Fairs & Festivals Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध त्यौहार एवं मेले  (Read 93703 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #20 on: October 05, 2007, 01:17:50 PM »
जौलजीवी मेला - जनपद पिथौरगढ़

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जौलजीवी नामक कस्बा पिथौरगढ़ में मानसरोवर के ऐतिहासिक मार्ग पर अवस्थित है । यह पिथौरगढ़ जिला मुख्यालय से ६८ कि.मी. की दूरी पर बसा है । यहाँ प्रतिवर्ष १४ नवम्बर, बाल दिवस के अवसर पर प्रसिद्ध मेला आयोजित होता है ।

जौलजीवी मेले को प्रारम्भ करने का श्रेय पाल ताल्लुकदार स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल को जाता है । उन्होंने ही यह मेला सन् १९१४ में प्रारम्भ किया था, यद्यपि उस समय यह मेला धार्मिक दृष्टिकोण से ही प्रारम्भ हुआ तो भी धीरे-धीरे इसका जो स्वरुप उभरकर सामने आया वह मुख्य रुप से व्यवसायिक था । जौलजीवी भी कैलाश मानसरोवर के प्राचीन यात्रा मार्ग पर बसा है । स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल अस्कोट के ताल्लुकदार थे । जौलजीवी में काली-गौरी नदियों का संगम है और शिव का प्राचीन मंदिर । स्कनदपुराण में भी वर्णित है कि मानसरोवर जाने वाले यात्री को काली-गोरी के संगम पर स्नानकर आगे बढ़ना चाहिये । इसलिए मार्गशीर्ष महीने की संक्रान्ति को मेले का शुभारम्भ भी संगम पर स्नान से ही होता है । इसके पश्चात् महादेव की पूजा अर्चना की जाती है । प्राय: कुमाऊँ में लगने वाले सभी मेलों की तरह इस प्रसिद्ध मेले का स्वरुप भी प्रारम्भ में धार्मिक ही था जो बाद में व्यापार प्रधान होता गया । चीनी आक्रमण से पहले तक यह मेला उत्तरभारत का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक मेला था । इस मेले में तिब्बत और नेपाल के व्यापारियों की सक्रिय भागीदारी होती थी । इसमें नेपाल के जुमली डोटी के व्यापारी सबसे अधिक आते थे
। तब उत्तर प्रदेश के ही नहीं कलकत्ता तक से माल की खरीद के लिए व्यापारी मेले से भी पहले पहुँच जाते थे । जौहार, दारमा, व्यास, चौंदास घाटी के ऊनी माल के लिए तो इस मेले का विशेष रुप से इंतजार किया जाता था । तब गौरी और काली नदियों पर पुल नहीं थे । इसलिए अस्कोट के राजाओं द्वारा गोरी नदी पर कच्चा पुल बनाया जाता तो नेपाल की ओर से भी काली नदी पर पुल डाला जाता था ।

असकोट के पाल राजाओं ने ही यहाँ जैलेश्वर महादेव तथा अन्नपूर्णा देवी के मन्दिरों की स्थापना की । जमीनें मन्दिरों को दान में दी गयीं तथा पुजारी की विधिवत् नियुक्ति हुई ।

जौलजीवी मेले के व्यापारिक महत्व को देखते हुए तिब्बती व शौका व्यापारी सांभर, खाल, चँवर, पूँछ, कस्तूरी, जड़ी-बूटियों को लेकर आने लगे । कपड़ा, नमक , तेल, गुड़, हल, निंगाल के बने डोके, काष्ठ उपकरण-बर्तन आदि यहाँ प्रचुर मात्रा में बिकते थे । उस समय यह क्षेत्र सड़कों और आवागमन की दृष्टि से दुरुह था । जौलजीवी तक सड़क भी नहीं पहुँची थी । इसलिए नेपाल-तिब्बत का भी यही सबसे प्रमुख व्यापारिक स्थल बना । अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए आसपास के सभी इलाके इसी मेले पर निर्भर हो गये थे ।

जौलजीवी का यह मेला चीनी आक्रमण के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ । तिब्बत का माल आना बन्द हो गया जिससे ऊनी व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा । काली नदी के तट पर जो बाजार लगते था, वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा हालांकि अब भी दन, कालीन, चुटके, पश्मीने, पँखियाँ, थुल्में आदि यहाँ बिकने आते हैं, लेकिन तब के व्यापार और अब में अन्तर बहुत हो गया है ।

मेला अब स्वत: स्फूर्त कम और प्रशासनिक ज्यादा हो गया है । इसलिए इस मेले का उपयोग अब विभिन्न सरकारी विभाग अपने कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में अधिक करते हैं । मेले में आये विभिन्न सांस्कृतिक दल भी अपने हुनर को दक्षता के साथ प्रस्तुत करते हैं ।

 

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« Reply #21 on: October 05, 2007, 01:18:45 PM »
मोष्टामाणू का मेला - जनपद पिथौरागढ़

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पिथौरागढ़ जनपद मुख्यालय के चतुर्दिक फैले ग्रामीण क्षेत्रों में तीन प्रसिद्ध मेलों का प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है । भाद्रपद की गणेश चतुर्थी को ध्वज नामक पहाड़ की चोटी पर देवी मेला लगता है । इसके दूसरे दिन हरियाली तृतीया को किरात वेश में रहने वाले भूमि के स्वामी केदार नाम से पूजित शिव के मंदिर स्थल केदार में मेला लगता है । थल केदार जनपद मुख्यालय से ११ कि.मी. दक्षिण पूर्व में नौ हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित है । तीसरे दिन ॠषि पंचमी को पिथौरागढ़ से ६ कि.मी. की दूरी पर लगभग छ: हजार फुट की ऊँचाई पर इस जिले का प्रसिद्ध और दर्शनीय मेला सम्पन्न होता है । यह मेला मौष्टामाणू का मेला कहलाता है ।

मोष्टामाणू का मंदिर पिथौरागढ़ नगर के पास पश्चिम-उत्तर दिशा में एक ऊँची चोटी पर स्थित है । मोष्टामाणू शब्द का अर्थ है - मोष्टादेवता का मंडप । लोक जगत में विश्वास है कि मोष्टादेवता जल वृष्टि करते हैं । वे इन्द्र के पुत्र हैं । मोष्टा की माता का नाम कालिका है । वे भूलोक में मोष्टा देवता के ही साथ निवास करती हैं । इन्द्र ने पृथ्वी लोक में उसे भोग प्राप्त करने हेतु अपना उत्तराधिकारी बनाया । दंत कथाओं में कहा जाता है कि इस देवता के साथ चौंसठ योगिनी, बावन वीर, आठ सहस्र मशान रहते हैं । 'भुँटनी बयाल' नामक आँधी तूफान उसके बस में हैं । मोष्टा देवता के रुष्ट हो जाने पर वे सर्वनाश कर देते हैं । वह बाइस प्रकार के वज्रों से सज्जित है । माता कालिका और भाई असुर देवता के सहयोग से वह नाना प्रकार से असंभव कार्यों को सम्पादित करता है । मोष्टा और असुर दोनों के सामने बलिदान नहीं होता परन्तु उनके सेवकों के लिए भैंसे और बकरे का बलिदान किया जाता है ।

मोष्टा को नागदेवता माना जाता है । उनकी आकृति मोष्टा या निंगाल की चटाई की तरह मानी गयी है । उन्हें विषों से युक्त नाग माना जाता है । इसलिए जो लोग नागपंचमी को नागदेवता की पूजा नहीं कर पाते वे मेले के दिन यहाँ आकर उनका पूजन सम्पन्न कर लेते हैं ।

मेले के अवसर पर मोष्टा देवता का रथ निकलता है । इसे जमान कहते हैं । लोग इसके दर्शन के लिए दूर-दूर से आते हैं ।

इस मेले का व्यापारिक स्वरुप भी है । स्थानीय फल फूल के अतिरिक्त किंरगाल की टोकरियाँ, चटाइयाँ, कृषियंत्रों काष्ठ बर्तनों तथा तरह-तरह की वस्तुओं की खरीद फरोख्त होती है ।

मेले के अवसर पर लोक गायक ओर नर्तक भी पहुँचते हैं । हुड़के की थाप पर नृत्यों की महफिलें सजती हैं, गायन होता है । शाम होते-होते मेले का समापन होता है । वर्तमान में सरकारी विभाग भी अपने-अपने कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार के लिए मेले का उपयोग करते है ।

 
 

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #22 on: October 05, 2007, 01:19:41 PM »
रामेश्वर का मेला - जनपद पिथौरागढ़

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रामेश्वर जिला पिथौरागढ़ में सरयू और पूर्वी रामगंगा के संगम पर बसा है । यह स्थान शिव की आराधना करने के लिए भी इतिहास प्रसिद्ध रहा है । कभी यहाँ रामेश्वर गिरी नामक किसी साधु ने अपना आसन जमाया और यह स्थान रामेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो गया । यह भी किवंदती है कि यहाँ किसी दक्षिणात्य पंडित ने यज्ञ द्वारा शिव को संतुष्ट किया था और सेतुबंध रामेश्वरम् के नाम पर उसका नामकरण किया । महाराज उद्योतचन्द्र ने १६०४ शाके में रामेश्वर के मंदिर को भूमिदान में दी थी । उन्होंने यहाँ की पूजा अर्चना को व्यवस्थित किया । मंदिर को सरयू से थोड़ा दूर बनाया गया है । उत्तरायण में इस संगम पर स्नान करने की परम्परा है । सरयू में दीप दान की भी यहाँ परम्परा थी ।

रामेश्वर का मेला रात्रि में लगता है । यह पूर्वोत्तर कुमाऊँ का सबसे बड़ा शमशान है । वर्षों पहले लगने वाले मेले में यहाँ ग्रामवासियों के समूह अपने अलग-अलग खेड़े का निर्माण कर लेते थे । निषिड़ रात्रि में अलाव जलाकर उसके चारों ओर महफिलें जमतीं । लोकगायक यहाँ नृत्यगीतों की महफिलें सजा देते थे । मंदिर के ऊपर के समतल मैदान में यह मेला लगता था । बैरियों के प्रश्नोत्तर होते थे । तब ब्रह्ममुहूर्त में स्नान होता था । बिल्व पत्रों से शिव को प्रसन्न किया जाता था ।

इस मेले में भी व्यापारिक खरीद फरोख्त की जाती थी । मेले का सांस्कृतिक पक्ष अधिक सशक्त नहीं रह गया है ।

 

 

 

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« Reply #23 on: October 05, 2007, 01:20:48 PM »
गबलादेव का मेला - जनपद पिथौरागढ़

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सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ की दारमाघाटी अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है । तेरह हजार फुट से अधिक की ऊँचाई पर रहने वाले लोग प्रकृति की दुरुहता को झेलते हुए भी किस प्रकार जीते हैं, गबलादेव के मेले में देखा जा सकता है । तिब्बत-नेपाल दारमा घाटी से लगे हुए हैं । इस दारमा घाटी का सबसे बड़ा मेला है - गबलादेव का मेला । गबलादेव चूँकि शौकाओं का इष्टदेव है, इसलिए यह आयोजन धार्मिक जीवन से जुड़ा है । दारमा घाटी के जन-जीवन पर तिब्बत की संस्कृति की गहरी छाप है । इसलिए गबलादेव भी बौद्ध 'शाक्यमुनि' तथा हिन्दू महादेव शिव का समन्वयात्मक रुप हैं । अगस्त के तीसरे सप्ताह में मनाये जाने वाले इस मेले की तिथि का निर्धारण सीमान्त के अन्तिम दाँत और बुगत नामक ग्राम करते हैं । जो गाँव इस मेले में भाग लेते हैं वे हैं - दाँत, गो, बौन, मार्छा, दुग्त, सेला, चल, किंग, सिव, तिदांग, सोन, डाकर, बालिंग तथा नागलिंग ।

परम्परागत वाद्ययन्त्रों से सजे-धजे, छोलिया नर्तकों की अगुवाई में शौका उमंग के साथ इस मेले में भाग लेते हैं ।

 

 

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« Reply #24 on: October 05, 2007, 01:21:35 PM »
चैती मेला - काशीपुर

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चैती का मेला इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला है जो नैनीताल जनपद में काशीपुर नगर के पास प्रतिवर्ष चैत की नवरात्रि में आयोजित किया जाता है । इस स्थान का इतिहास पुराना है । काशीपुर में कुँडश्वरी मार्ग जहाँ से जाता है, वह स्थान महाभारत से भी सम्बन्धित रहा है । इस स्थान पर अब बालासुन्दरी देवी का मन्दिर है । मेले के अवसर पर दूर-दूर से यहाँ श्रद्धालु आते हैं ।

यूँ तो शाक्त सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी मंदिरों में नवरात्रि में विशाल मेले लगते हैं लेकिन माँ बालासुन्दरी के विषय में जनविश्वास है कि इन दिनों जो भी मनौती माँगी जाती है, वह अवश्य पूरी होती है । फिर भी नवरात्रि में अष्टमी, नवमी व दशमी के दिन यहाँ श्रद्धालुओं का तो समुह ही उमड़ पड़ता है । बालासुन्दरी के अतिरिक्त यहाँ शिव मंदिर, भगवती ललिता मंदिर, बृजपुर वाली देवी के मंदिर, भैरव व काली के मंदिर हैं । वैसे माँ बालासुन्दरी का स्थाई मंदिर पक्काकोट मुहल्ले में अग्निहोत्री ब्राह्मणों के यहाँ स्थित है । इन लोगों को चंदराजाओं से यह भूमि दान में प्राप्त हुई थी । बाद में इस भूमि पर बालासुन्दरी देवी का मन्दिर स्थापित किया गया । बालासुन्दरी की प्रतिमा स्वर्णनिर्मित बताई जाती है ।

कहा जाता है कि आज जो लोग इस मन्दिर के पंडे है, उनके पूर्वज मुगलों के समय में यहाँ आये थे । उन्होंने ही इस स्थान पर माँ बालासुन्दरी के मन्दिर की
स्थापना की । कहा जाता है कि तत्कालीन मुगल बादशाह ने भी इस मंदिर को बनाने में सहायता दी थी ।

नवरात्रियों में यहाँ तरह-तरह की दूकानें भी अपना सामान बेचने के लिए लगती हैं । थारु लोगों की तो इस देवी पर बहुत ज्यादा आस्था है । थारुओं के नवविवाहित जोड़े हर हाल में माँ से आशीर्वाद लेने चैती मेले में जरुर पहुँचते हैं । देवी महाकाली के मंदिर में बलिदान भी होते हैं । अन्त में दशमी की रात्रि को डोली में बालासुन्दरी की डोली में बालासुन्दरी की सवारी अपने स्थाई भवन काशीपुर के लिए प्रस्थान करती है । मेले का समापन इसके बाद ही होता है ।

प्राय: चैती मेले का रंग तभी से आना शुरु होता है जब काशीपुर से डोला चैती मेला स्थान पर पहुँचता है । डोले में प्रतिमा को रखने से पूर्व अर्धरात्रि में पूजन होता है तथा बकरों का बलिदान भी किया जाता है । डोले को स्थान-स्थान पर श्रद्धालु रोककर पूजन अर्चन करते और भगवती को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है ।

 

 

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #25 on: October 05, 2007, 01:22:12 PM »
कुमाऊँ के कुछ अन्य प्रसिद्ध मेले

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१. कालसन का मेला - कालसन का मेला नैनीताल जनपद के टनकपुर के पास सूखीढ़ाँग व श्यामलाताल की पावन भूमि में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है । यह स्थान टनकपुर से २६ कि.मी. की दूरी पर है । कालसन के बारे में स्थानीय लोगों में तरह-तरह की किवदन्तियाँ प्रचलित हैं । कहा जाता है कि कालसन का मंदिर कभी अन्नापूर्णा शिखर के पास शारदा नदी के किनारे बना हुआ था जिसे बाद में ग्रामवासियों ने सुरक्षा की दृष्टि से निगाली गाँव के पास स्थानान्तरित कर दिया । जहाँ पर ग्रामवासियों ने कालसन देवता को स्थानान्तरित किया था, ग्रामवासियों की श्रद्धा के वशीभूत होकर कालसन भी वहीं श्यामवर्णी लिंग रुप में प्रकट हो गये परन्तु अपनी प्राचीन जगह में उन्होंने लोगों द्वारा अर्पित फल-फूल और सामान को पत्थरों के ढ़ेर में बदल दिया । कहा जाता है कि कालसन देवता महाकाली के उपासक थे ।

वर्तमान में यहाँ देवता थान में धनुषवाण, त्रिशुल आदि का ढेर है । सम्भवत: यह ढेर यहाँ इन वस्तुओं को देवता को अपंण करने की परम्परा के कारण है । इन त्रिशुलों में लोग दीप जलाते हैं तथा काले रंग का वस्र भी बाँधते हैं । उत्तराखंड के अन्य मन्दिरों की तरह यहाँ भी घंटियाँ, ध्वजा आदि चढ़ाने की परम्परा है । भूत, प्रेत आदि बाधाओं से पीड़ित व्यक्ति यहाँ ईलाज के लिए भी लाये जाते हैं ।

पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है । इस मेले में लोग कालसन देवता से मनौतियाँ मनाने, अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रार्थना करने आते हैं तथा देवता को नारियल इत्यादि अर्पित करते हैं । पहले यह मेला एक हफ्ते तक चलाता था ।

२. हरेला मेला - हरेला पर्व के अवसर पर भीमताल में लगने वाला हरेला मेला भी कभी इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला था । कहा जाता है कि यह मेला इतिहास प्रसिद्ध मेला रहा है जिसमें कभी पचास हजार से अधिक लोग भाग लेते थे । पहले यह मेला हरियाली खेत में लगता था । तब इस मेले की अवधि सात दिन की होती थी । सन् १९७० के बाद यह मेला रामलीला मैदान में लगने लगा है । एक आध बार यह मेला भीमताल झील के किनारे भी आयोजित किया गया है । पूर्व में यह मेला सांस्कृतिक और व्यापारिक दोनों ही दृष्टियों से सम्पन्न था । तब इस मेले में कपड़ों की दूकानें, मिठाईयाँ, रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं आदि की खरीद फरोख्त होती थी । भगनौल, झोड़े आदि गीतों की हुड़के की थाप पर स्वर लहरियाँ गूँजती थी । अब तो इस मेले की भी चमक फीकी पड़ती जा रही है ।

इन मेलों के अतिरिक्त भी कुमाऊँ अंचल में अनेक मेले लगते हैं । इनमें दारमा क्षेत्र में व्यासपट्टी के लोग प्रतिवर्ष भद्रपद की पूर्णिमा के अवसर पर महर्षि व्यास की अर्चना करते हैं । मनीला के मैदान में इस अवसर पर विशेष आयोजन किया जाता है । दरकोटा और जलथ देवी के मेले भी बहुत प्रसिद्ध हैं । गुम देश में चैतोगा नाम से विख्यात मेला लगता है ।

मानेश्वर का मेला धार्मिक मनौती मानने के लिए प्रसिद्ध है । यह स्थान चम्पावत के पास है । गढ़केदार में लगने वाले मेले में कार्तिक मास में नि:संतान महिलायें जागेश्वर की ही तरह रातभर जलता दीपक हाथ में लेकर शिव अर्चन करती हैं । धार्मिक विश्वास है कि रातभर हाथ में दीपक लेकर पूजन करने से शिव प्रसन्न होते हैं तथा सन्तान प्राप्त होती है । गिर के कौतिक नाम से प्रसिद्ध मेला तल्ला सल्ट क्षेत्र में लगता है । उत्तरायणी के दिन सम्पन्न होने वाले इस मेले में नजदीकी गाँव रोग खेल खेलते हैं ।

३. जिया रानी का मेला - रानी बाग - उत्तरायणी में ही प्रतिवर्ष रानीबाग में
इतिहास प्रसिद्ध बीरांगना जिया रानी के नाम पर जिया रानी का मेला लगता है । रानीबाग, काठगोदाम से पाँच कि.मी. दूर अल्मोड़ा मार्ग पर बसा है । रानीबाग में कव्यूरी राजा धामदेव और ब्रह्मदेव की माता जियारानी का बाग था । कहते हैं कि यहाँ जिया रानी ने एक गुफा में तपस्या की थी । रात्रि में जिया रानी का जागर लगता है । कव्यूरपट्टी के गाँव से वंशानुगत जगरियें औजी, बाजगी, अग्नि और ढोलदमुह के साथ कव्यूरी राजाओं की वंशावलि तथा रानीबाग के युद्ध में जिया रानी के अद्भूत शौर्य की गाथा गाते हैं । जागरों में वर्णन मिलता है कि कव्यूरी सम्राट प्रीतमदेव ने समरकंद के सम्राट तैमूरलंग की विश्वविजयी सेना को शिवालिक की पहाड़ी में सन् १३९८ में परास्त कर जो विजयोत्सव मनाया उसकी छाया तथा अनगूंज चित्रश्वर रानीबाग के इस मेले में मिलती है । जिया रानी इस वीर की पत्नी थीं ।

उत्तरायणी के अवसर पर यहाँ एक ओर स्नान चलता है तो दूसरी ओर जागर, बैर इत्यादि को सुनने वालों की भीड़ रहती है ।



अन्य ऐतिहासिक मेले एवं पर्व -

उपरोक्त अति प्रसिद्ध मेलों के अतिरिक्त भी कुमाऊँ में स्थान-स्थान पर मेलों एवं उत्सवों का आयोजन होता है । इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -

१. शिवरात्रि शिवमंदिर 

सोमेश्वर (अल्मोड़ा)
देवस्थल - अल्मोड़ा
पाताल देवी - अल्मोड़ा
जागनाथ - जागेश्वर - अल्मोड़ा
बागनाथ - बागेश्वर


२. मकर संक्रांति

कपिलेश्वर पट्टी बिसोद
पंचेश्वर पट्टी सौं - पिथौरागढ़


३. कार्तिक पूर्णिमा

पिनाकेश्वर पट्टी बीरारो
शिखर भनार - दानपुर


४. मेष संक्रांति

बेतालेश्वर - अल्मोड़ा
वृद्ध केदार - अल्मोड़ा


५. मिथुन चतुर्दशी

भीमेश्वर - भीमता (नैनीताल)


६. फागुन चतुर्दशी

पाताल भुवनेश्वर पट्टी बड़ाऊ (पिथौरागढ़:
पावनेश्वर - डीडीहाट (पिथौरागढ़)
बैजनाथ - जनपज अल्मोड़ा
गणनाथ - अल्मोड़ा
श्रावण चतुर्दशी - जागेश्वर - अल्मोड़ा
बागनाथ - बागेश्वर


७. भादों तृतीया

थल केदार (पिथौरागढ़)


८. भादों चतुर्दशी

भागलिंग (पिथौरागढ़)


९. कर्क संक्रांति

बालेश्वर मंदिर - चम्पावत


१०. आषाढ़ सप्तमी

घटकू (पिथौरागढ़)


११. नागपंचमी

उग्र रुद्र, नाकुरी (पिथौरागढ़)


१२. आषाढ़ तथा चैत्र अष्टमी

दूनागिरी
नैथाना देवी - जनपद अल्मोड़ा


१३. कृष्ण जन्माष्टमी - मिरतोला - अल्मोड़ा

 

 

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #26 on: October 05, 2007, 01:36:57 PM »
Wah Mehta ji Wah shabda hi nahi hain aapki in posts ke baare main kuch kahne ke liye.

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #27 on: October 09, 2007, 01:27:51 PM »

Thanx sir...

But i would say that the most famous Mela of Uttarakhand is Nanda Raj Jaat.


Wah Mehta ji Wah shabda hi nahi hain aapki in posts ke baare main kuch kahne ke liye.

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #28 on: October 09, 2007, 01:30:30 PM »
BADRI KEDAR FESTIVAL

Held in the month of June, nothing could be a perfect manifestation of Hindu religion and culture. The Badri Kedar festival is held in the sacred shrines of Badrinath and Kedarnath in the month of June. The festivities go on for a stretch of eight days. The festival makes an attempt to bring under one platform, the greatest artists of the country.
 

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #29 on: October 13, 2007, 09:56:49 AM »
धारी देवी और राजराजेश्वरी में श्रद्धालु उमड़े़

 श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल)। प्रथम नवरात्र पर सिद्धपीठ धारी देवी मंदिर और राजराजेश्वरी मंदिर में श्रद्धालु भक्तजनों ने बड़ी संख्या में पहुंचकर विशेष पूजा अर्चना की।
   धारी देवी मंदिर में प्रथम नवरात्र पर पूजा अर्चना करने के लिए तड़के पांच बजे से ही श्रद्धालु पहुंचने शुरू हो गए थे। श्रीनगर से लगभग तेरह किमी दूर कलियासौड़ में अलकनंदा नदी के तट पर सिद्धपीठ धारी देवी में नवरात्र अवसर पर गढ़वाल से ही नहीं वरन अन्य प्रदेशों से श्रद्धालु भक्तजन पूजा अर्चना के लिए पहुंचते हैं। देवलगढ़ स्थित श्री राजराजेश्वरी और श्री गौरा देवी सिद्धपीठों में प्रथम नवरात्र से आज मां भगवती की विशेष पूजा अर्चना शुरू हुई। इस अवसर पर राजराजेश्वरी यज्ञ संचालित किया जा रहा है। नवरात्र में यह यज्ञ रात्रि में जारी रहता है। श्री बटुक भैरवनाथ, नागराजा, नृसिंह, क्षेत्रपाल और हनुमान की विशेष पूजा अर्चना इस अवसर पर होती है। देवलगढ़ मंदिर समिति के महासचिव केपी उनियाल ने भक्तजनों से कहा कि खोला से ओडला होते हुए वह देवलगढ़ पहुंचे क्योंकि चमधार से देवलगढ़ मोटर मार्ग ठेकेदारों की लापरवाही के चलते बहुत ज्यादा गढ्डे युक्त बना हुआ है। इस सड़क पर कांडा गांव से भटोली के बीच निर्माण कार्य बहुत ही धीमी गति से हो रहा है।

[Saturday, October 13, 2007 2:39:36 AM (IST) ]

 

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