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Fairs & Festivals Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध त्यौहार एवं मेले

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
जौलजीवी मेला - जनपद पिथौरगढ़

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जौलजीवी नामक कस्बा पिथौरगढ़ में मानसरोवर के ऐतिहासिक मार्ग पर अवस्थित है । यह पिथौरगढ़ जिला मुख्यालय से ६८ कि.मी. की दूरी पर बसा है । यहाँ प्रतिवर्ष १४ नवम्बर, बाल दिवस के अवसर पर प्रसिद्ध मेला आयोजित होता है ।

जौलजीवी मेले को प्रारम्भ करने का श्रेय पाल ताल्लुकदार स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल को जाता है । उन्होंने ही यह मेला सन् १९१४ में प्रारम्भ किया था, यद्यपि उस समय यह मेला धार्मिक दृष्टिकोण से ही प्रारम्भ हुआ तो भी धीरे-धीरे इसका जो स्वरुप उभरकर सामने आया वह मुख्य रुप से व्यवसायिक था । जौलजीवी भी कैलाश मानसरोवर के प्राचीन यात्रा मार्ग पर बसा है । स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल अस्कोट के ताल्लुकदार थे । जौलजीवी में काली-गौरी नदियों का संगम है और शिव का प्राचीन मंदिर । स्कनदपुराण में भी वर्णित है कि मानसरोवर जाने वाले यात्री को काली-गोरी के संगम पर स्नानकर आगे बढ़ना चाहिये । इसलिए मार्गशीर्ष महीने की संक्रान्ति को मेले का शुभारम्भ भी संगम पर स्नान से ही होता है । इसके पश्चात् महादेव की पूजा अर्चना की जाती है । प्राय: कुमाऊँ में लगने वाले सभी मेलों की तरह इस प्रसिद्ध मेले का स्वरुप भी प्रारम्भ में धार्मिक ही था जो बाद में व्यापार प्रधान होता गया । चीनी आक्रमण से पहले तक यह मेला उत्तरभारत का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक मेला था । इस मेले में तिब्बत और नेपाल के व्यापारियों की सक्रिय भागीदारी होती थी । इसमें नेपाल के जुमली डोटी के व्यापारी सबसे अधिक आते थे
। तब उत्तर प्रदेश के ही नहीं कलकत्ता तक से माल की खरीद के लिए व्यापारी मेले से भी पहले पहुँच जाते थे । जौहार, दारमा, व्यास, चौंदास घाटी के ऊनी माल के लिए तो इस मेले का विशेष रुप से इंतजार किया जाता था । तब गौरी और काली नदियों पर पुल नहीं थे । इसलिए अस्कोट के राजाओं द्वारा गोरी नदी पर कच्चा पुल बनाया जाता तो नेपाल की ओर से भी काली नदी पर पुल डाला जाता था ।

असकोट के पाल राजाओं ने ही यहाँ जैलेश्वर महादेव तथा अन्नपूर्णा देवी के मन्दिरों की स्थापना की । जमीनें मन्दिरों को दान में दी गयीं तथा पुजारी की विधिवत् नियुक्ति हुई ।

जौलजीवी मेले के व्यापारिक महत्व को देखते हुए तिब्बती व शौका व्यापारी सांभर, खाल, चँवर, पूँछ, कस्तूरी, जड़ी-बूटियों को लेकर आने लगे । कपड़ा, नमक , तेल, गुड़, हल, निंगाल के बने डोके, काष्ठ उपकरण-बर्तन आदि यहाँ प्रचुर मात्रा में बिकते थे । उस समय यह क्षेत्र सड़कों और आवागमन की दृष्टि से दुरुह था । जौलजीवी तक सड़क भी नहीं पहुँची थी । इसलिए नेपाल-तिब्बत का भी यही सबसे प्रमुख व्यापारिक स्थल बना । अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए आसपास के सभी इलाके इसी मेले पर निर्भर हो गये थे ।

जौलजीवी का यह मेला चीनी आक्रमण के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ । तिब्बत का माल आना बन्द हो गया जिससे ऊनी व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा । काली नदी के तट पर जो बाजार लगते था, वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा हालांकि अब भी दन, कालीन, चुटके, पश्मीने, पँखियाँ, थुल्में आदि यहाँ बिकने आते हैं, लेकिन तब के व्यापार और अब में अन्तर बहुत हो गया है ।

मेला अब स्वत: स्फूर्त कम और प्रशासनिक ज्यादा हो गया है । इसलिए इस मेले का उपयोग अब विभिन्न सरकारी विभाग अपने कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में अधिक करते हैं । मेले में आये विभिन्न सांस्कृतिक दल भी अपने हुनर को दक्षता के साथ प्रस्तुत करते हैं ।

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
मोष्टामाणू का मेला - जनपद पिथौरागढ़

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पिथौरागढ़ जनपद मुख्यालय के चतुर्दिक फैले ग्रामीण क्षेत्रों में तीन प्रसिद्ध मेलों का प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है । भाद्रपद की गणेश चतुर्थी को ध्वज नामक पहाड़ की चोटी पर देवी मेला लगता है । इसके दूसरे दिन हरियाली तृतीया को किरात वेश में रहने वाले भूमि के स्वामी केदार नाम से पूजित शिव के मंदिर स्थल केदार में मेला लगता है । थल केदार जनपद मुख्यालय से ११ कि.मी. दक्षिण पूर्व में नौ हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित है । तीसरे दिन ॠषि पंचमी को पिथौरागढ़ से ६ कि.मी. की दूरी पर लगभग छ: हजार फुट की ऊँचाई पर इस जिले का प्रसिद्ध और दर्शनीय मेला सम्पन्न होता है । यह मेला मौष्टामाणू का मेला कहलाता है ।

मोष्टामाणू का मंदिर पिथौरागढ़ नगर के पास पश्चिम-उत्तर दिशा में एक ऊँची चोटी पर स्थित है । मोष्टामाणू शब्द का अर्थ है - मोष्टादेवता का मंडप । लोक जगत में विश्वास है कि मोष्टादेवता जल वृष्टि करते हैं । वे इन्द्र के पुत्र हैं । मोष्टा की माता का नाम कालिका है । वे भूलोक में मोष्टा देवता के ही साथ निवास करती हैं । इन्द्र ने पृथ्वी लोक में उसे भोग प्राप्त करने हेतु अपना उत्तराधिकारी बनाया । दंत कथाओं में कहा जाता है कि इस देवता के साथ चौंसठ योगिनी, बावन वीर, आठ सहस्र मशान रहते हैं । 'भुँटनी बयाल' नामक आँधी तूफान उसके बस में हैं । मोष्टा देवता के रुष्ट हो जाने पर वे सर्वनाश कर देते हैं । वह बाइस प्रकार के वज्रों से सज्जित है । माता कालिका और भाई असुर देवता के सहयोग से वह नाना प्रकार से असंभव कार्यों को सम्पादित करता है । मोष्टा और असुर दोनों के सामने बलिदान नहीं होता परन्तु उनके सेवकों के लिए भैंसे और बकरे का बलिदान किया जाता है ।

मोष्टा को नागदेवता माना जाता है । उनकी आकृति मोष्टा या निंगाल की चटाई की तरह मानी गयी है । उन्हें विषों से युक्त नाग माना जाता है । इसलिए जो लोग नागपंचमी को नागदेवता की पूजा नहीं कर पाते वे मेले के दिन यहाँ आकर उनका पूजन सम्पन्न कर लेते हैं ।

मेले के अवसर पर मोष्टा देवता का रथ निकलता है । इसे जमान कहते हैं । लोग इसके दर्शन के लिए दूर-दूर से आते हैं ।

इस मेले का व्यापारिक स्वरुप भी है । स्थानीय फल फूल के अतिरिक्त किंरगाल की टोकरियाँ, चटाइयाँ, कृषियंत्रों काष्ठ बर्तनों तथा तरह-तरह की वस्तुओं की खरीद फरोख्त होती है ।

मेले के अवसर पर लोक गायक ओर नर्तक भी पहुँचते हैं । हुड़के की थाप पर नृत्यों की महफिलें सजती हैं, गायन होता है । शाम होते-होते मेले का समापन होता है । वर्तमान में सरकारी विभाग भी अपने-अपने कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार के लिए मेले का उपयोग करते है ।

 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
रामेश्वर का मेला - जनपद पिथौरागढ़

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रामेश्वर जिला पिथौरागढ़ में सरयू और पूर्वी रामगंगा के संगम पर बसा है । यह स्थान शिव की आराधना करने के लिए भी इतिहास प्रसिद्ध रहा है । कभी यहाँ रामेश्वर गिरी नामक किसी साधु ने अपना आसन जमाया और यह स्थान रामेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो गया । यह भी किवंदती है कि यहाँ किसी दक्षिणात्य पंडित ने यज्ञ द्वारा शिव को संतुष्ट किया था और सेतुबंध रामेश्वरम् के नाम पर उसका नामकरण किया । महाराज उद्योतचन्द्र ने १६०४ शाके में रामेश्वर के मंदिर को भूमिदान में दी थी । उन्होंने यहाँ की पूजा अर्चना को व्यवस्थित किया । मंदिर को सरयू से थोड़ा दूर बनाया गया है । उत्तरायण में इस संगम पर स्नान करने की परम्परा है । सरयू में दीप दान की भी यहाँ परम्परा थी ।

रामेश्वर का मेला रात्रि में लगता है । यह पूर्वोत्तर कुमाऊँ का सबसे बड़ा शमशान है । वर्षों पहले लगने वाले मेले में यहाँ ग्रामवासियों के समूह अपने अलग-अलग खेड़े का निर्माण कर लेते थे । निषिड़ रात्रि में अलाव जलाकर उसके चारों ओर महफिलें जमतीं । लोकगायक यहाँ नृत्यगीतों की महफिलें सजा देते थे । मंदिर के ऊपर के समतल मैदान में यह मेला लगता था । बैरियों के प्रश्नोत्तर होते थे । तब ब्रह्ममुहूर्त में स्नान होता था । बिल्व पत्रों से शिव को प्रसन्न किया जाता था ।

इस मेले में भी व्यापारिक खरीद फरोख्त की जाती थी । मेले का सांस्कृतिक पक्ष अधिक सशक्त नहीं रह गया है ।

 

 

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
गबलादेव का मेला - जनपद पिथौरागढ़

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सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ की दारमाघाटी अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है । तेरह हजार फुट से अधिक की ऊँचाई पर रहने वाले लोग प्रकृति की दुरुहता को झेलते हुए भी किस प्रकार जीते हैं, गबलादेव के मेले में देखा जा सकता है । तिब्बत-नेपाल दारमा घाटी से लगे हुए हैं । इस दारमा घाटी का सबसे बड़ा मेला है - गबलादेव का मेला । गबलादेव चूँकि शौकाओं का इष्टदेव है, इसलिए यह आयोजन धार्मिक जीवन से जुड़ा है । दारमा घाटी के जन-जीवन पर तिब्बत की संस्कृति की गहरी छाप है । इसलिए गबलादेव भी बौद्ध 'शाक्यमुनि' तथा हिन्दू महादेव शिव का समन्वयात्मक रुप हैं । अगस्त के तीसरे सप्ताह में मनाये जाने वाले इस मेले की तिथि का निर्धारण सीमान्त के अन्तिम दाँत और बुगत नामक ग्राम करते हैं । जो गाँव इस मेले में भाग लेते हैं वे हैं - दाँत, गो, बौन, मार्छा, दुग्त, सेला, चल, किंग, सिव, तिदांग, सोन, डाकर, बालिंग तथा नागलिंग ।

परम्परागत वाद्ययन्त्रों से सजे-धजे, छोलिया नर्तकों की अगुवाई में शौका उमंग के साथ इस मेले में भाग लेते हैं ।

 

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
चैती मेला - काशीपुर

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चैती का मेला इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला है जो नैनीताल जनपद में काशीपुर नगर के पास प्रतिवर्ष चैत की नवरात्रि में आयोजित किया जाता है । इस स्थान का इतिहास पुराना है । काशीपुर में कुँडश्वरी मार्ग जहाँ से जाता है, वह स्थान महाभारत से भी सम्बन्धित रहा है । इस स्थान पर अब बालासुन्दरी देवी का मन्दिर है । मेले के अवसर पर दूर-दूर से यहाँ श्रद्धालु आते हैं ।

यूँ तो शाक्त सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी मंदिरों में नवरात्रि में विशाल मेले लगते हैं लेकिन माँ बालासुन्दरी के विषय में जनविश्वास है कि इन दिनों जो भी मनौती माँगी जाती है, वह अवश्य पूरी होती है । फिर भी नवरात्रि में अष्टमी, नवमी व दशमी के दिन यहाँ श्रद्धालुओं का तो समुह ही उमड़ पड़ता है । बालासुन्दरी के अतिरिक्त यहाँ शिव मंदिर, भगवती ललिता मंदिर, बृजपुर वाली देवी के मंदिर, भैरव व काली के मंदिर हैं । वैसे माँ बालासुन्दरी का स्थाई मंदिर पक्काकोट मुहल्ले में अग्निहोत्री ब्राह्मणों के यहाँ स्थित है । इन लोगों को चंदराजाओं से यह भूमि दान में प्राप्त हुई थी । बाद में इस भूमि पर बालासुन्दरी देवी का मन्दिर स्थापित किया गया । बालासुन्दरी की प्रतिमा स्वर्णनिर्मित बताई जाती है ।

कहा जाता है कि आज जो लोग इस मन्दिर के पंडे है, उनके पूर्वज मुगलों के समय में यहाँ आये थे । उन्होंने ही इस स्थान पर माँ बालासुन्दरी के मन्दिर की
स्थापना की । कहा जाता है कि तत्कालीन मुगल बादशाह ने भी इस मंदिर को बनाने में सहायता दी थी ।

नवरात्रियों में यहाँ तरह-तरह की दूकानें भी अपना सामान बेचने के लिए लगती हैं । थारु लोगों की तो इस देवी पर बहुत ज्यादा आस्था है । थारुओं के नवविवाहित जोड़े हर हाल में माँ से आशीर्वाद लेने चैती मेले में जरुर पहुँचते हैं । देवी महाकाली के मंदिर में बलिदान भी होते हैं । अन्त में दशमी की रात्रि को डोली में बालासुन्दरी की डोली में बालासुन्दरी की सवारी अपने स्थाई भवन काशीपुर के लिए प्रस्थान करती है । मेले का समापन इसके बाद ही होता है ।

प्राय: चैती मेले का रंग तभी से आना शुरु होता है जब काशीपुर से डोला चैती मेला स्थान पर पहुँचता है । डोले में प्रतिमा को रखने से पूर्व अर्धरात्रि में पूजन होता है तथा बकरों का बलिदान भी किया जाता है । डोले को स्थान-स्थान पर श्रद्धालु रोककर पूजन अर्चन करते और भगवती को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है ।

 

 

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