Author Topic: Fairs & Festivals Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध त्यौहार एवं मेले  (Read 93716 times)

पंकज सिंह महर

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बागेश्वर का मेला जनकवि "गिर्दा" की नजर से

हमले देखो जै बै यारो, भारी म्याला बागेश्वर,
और जो देखि कौतिक माजा, कसि-क्सि काला बागेश्वर,
सौर-जवांई, सासू-ब्वारी, भिन्ज्यू-साला, बागेश्वर,
शौक-भोटिया, लामा दरमी, गोरा-काला, बागेश्वर,
चोर-जुवारी, पुलिस पटवारी, छन मतवाला, बागेश्वर,
डूना-कांणा, बुडिया-खुडिया, लाटा-काला बागेश्वर,
डोका, फरूवा, हुडको, काठिया, ठेकी-पाला बागेश्वर,
मेवा मिश्री, किशमिश, छुहारा, बदाम, ग्वाला बागेश्वर,

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Mahar JI,

Good information.

बागेश्वर का मेला जनकवि "गिर्दा" की नजर से

हमले देखो जै बै यारो, भारी म्याला बागेश्वर,
और जो देखि कौतिक माजा, कसि-क्सि काला बागेश्वर,
सौर-जवांई, सासू-ब्वारी, भिन्ज्यू-साला, बागेश्वर,
शौक-भोटिया, लामा दरमी, गोरा-काला, बागेश्वर,
चोर-जुवारी, पुलिस पटवारी, छन मतवाला, बागेश्वर,
डूना-कांणा, बुडिया-खुडिया, लाटा-काला बागेश्वर,
डोका, फरूवा, हुडको, काठिया, ठेकी-पाला बागेश्वर,
मेवा मिश्री, किशमिश, छुहारा, बदाम, ग्वाला बागेश्वर,


पंकज सिंह महर

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Famous fairs in District Dehradun

Jhanda Fair

Jhanda Fair is held every year at the historic Guru Ram Rai Darbar in Dehradun City on the sacred memory of the Guru. The fair begins with putting up a new Jhanda ( Flag) on the staff located in the compound of the historic complex. Besides local people, a large number of devotees turn up from Punjab, Haryana, Delhi, U.P. and Himachal Pradesh etc.

Tapakeshwar Fair

Tapakeshwar is a legendary place located on the eastern bank of the river Tons. Lord Shiva is the reigning deity of the ancient temple located here in a cave. In the Skandapurana, this place has been referred to as Deveshwara. It is believed that during Dwaparyuga, this place was abode of Guru Dronacharaya who lived here with his family. Since then, the cave was known as Drona Gufa. One of the famous heroes of Mahabharat and son of Guru Drona, Ashwathama was born here . When Ashwathama was very young, the poor father could not find any milk for him. The Guru was too poor to afford a cow. It was a matter of worry to the great master. One day, when young Ashwathama was crying for milk, the helpless Guru advised him to pray and worship Lord Shiva, who would bless him with milk. Ashwathama did so. Pleased with the young boy's tough penance, Lord Shiva appeared before him in the garb of Brahmin and enquired about his wish. Little Ashwathama asked for milk. Lord Shiva blessed him and said that milk would be made available here. Ashwathama found milk falling on the Shivalinga, drop by drop. Ashwathama had prayed to the Lord by the name of Tapakeshwar and hence the place was known by the same name. A big fair takes place here on the Shivratri day. Thousands of devotees congregate at this place on the day to offer prayers. Tapakeshwar is approachable from Dehradun by City Bus or Three Wheelers. It is about 5kms. from the Bus-Stand and 5.5kms. from the Railway station.

Lakshman Siddha Fair

Lakshman siddha is one of the four siddhpeeths around Dehradun. It has immense religious importance. It is about 10 kms away on Dehradun-Rishikesh road. It can be easily approached by city bus or three wheelers and is located about 1 km off the road inside jungle. It is mainly a local religious fair held every Sunday, but last Sunday of April has a special significance, when people turn up in very large number and congregation of 20 to 25 thousand people can be seen offering obeisance to the samadhi here.

Bissu Fair

This fair is held at the Jhanda ground in cantonment area of Chakrata block of the Dehradun district. It is about 3 kms from Chakrata. The fair reflects cultural heritage and tradition of Jaunsari tribe. A large number of people turn up in this fair from nearby Tehri, Uttarkashi and Saharanpur districts. The fair marks harvesting season in the area and reflects the happiness of the local people.

Mahasu Devta's Fair

Mahasu Devta's fair is held at Hanol which is about 120 kms on the Chakrata Tyuni road. The fair takes place in August every year, when Mahasu Devta (deity) is taken out in a procession. Musical prayers continue for three days and night. The havan samagri ( offering material ) is arranged by the Government of India. This is a local fair of Jaunsari tribe. Thousands of participants throng the place on the occasion from the adjacent Tehri, Uttarkashi and Saharanpur district.

Shaheed Veer Kesari Chandra Fair ( Chakrata Fair )

This fair is held at Ramtal in Nagau gram sabha of Chakrata tehsil in Dehradun district. Ramtal is a beautiful natural tank of about 30 m length and 30 m width, located on a hill and is connected with a 700 m long motorable road. The tank is surrounded by a green ground which is the venue of fair. Every year during navratras ( April) a big fair is held here. A temple and a memorial dedicated to the freedom fighter Veer Kesri Chandra is located at this spot.

Lakhawar Fair

This village fair is held during Sept.-Oct. and is very popular in the neighboring area of Chakrata, 78 km from Mussoorie. The fair reflects of the Garhwali tribes. Activities include cultural programmes and sport competitions.

Hanol Mela, Chakrata

The temple of Hanol in Chakrata, 78 km from Mussoorie is the venue of an exotic fair. The hill dwellers of the state gather in October to worship in all their finery. This is an opportunity to exchange message, purchase wares from various merchants and to celebrate with friends and relatives before the onset of a harsh winter.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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देवलांग मेले के साथ मनी परंपरागत दीपावलीDec 11, 02:23 am

नौगांव (उत्तरकाशी)। यमुना घाटी के विभिन्न क्षेत्रों में मगसीर की प्रसिद्ध दीपावली परंपरागत एवं हर्षोल्लास के साथ मनाई गई। इस दीवाली का मुख्य पर्व विकास खण्ड नौगांव के गैर बनाल में देवलांग के रूप में भव्य रूप से मनाया जाता है जिसमें क्षेत्रीय लोग इस मेले को देखने के लिए आते है।

देवलांग का अर्थ हैं ईष्ट देवता के नाम से प्रज्ज्वलित होने वाली लंबी लांग अर्थात देव वृक्ष-देवदार, जो ईष्ट देवता के नाम से ओला मशाल के रूप में प्रज्वलित किया जाता है। इस संपूर्ण इलाके का प्रमुख अधिष्ठाता देव राजा रघुनाथ हैं। जिनके नाम से प्रमुख तीन मंदिर पुजेली तथा गैर बनाल में स्थित हैं। यह प्रकाशोत्सव पर्व राजा रघुनाथ के गैर गांव में स्थित छत्र शैली से निर्मित मंदिर के भव्य प्रागंण में आकर्षक ढंग से मनाया जाता है। कार्तिक की दीपावली बग्वाल उतने उत्साह से नहीं मनाई जाती, जितने कि मार्गशीर्ष की इस देवलांग त्यौहार को। यह प्राकृतिक सुंदरता के लिए भी मशहूर है। चारों ओर देवदार का घना जंगल यहां पहुंचे हर एक आस्था के पुजारी को मंत्रमुग्ध कर देता है। देवलांग को मनाने के पीछे एक ऐतिहासिक रहस्य छिपा है। 18वीं शताब्दी में जब गढ़वाल पर तिब्बत के तत्कालीन शक्तिशाली शासक दापा सामंत बेसारी राजा ने आक्रमण किया था, तो गढ़वाल वीर पुरूष माधो सिंह ने टिहरी रियासत के तत्कालीन शासक के निर्देशानुसार इन आक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए युद्ध किया था। कई दिनों तक युद्ध चलता रहा। यह बात कार्तिक माह की है। दीपावली बीत गई पर वीर पुरूष माधो सिंह नहीं लौटे थे। दीपावली के बाद जब माधोसिंह विजयी होकर लौटे, तो गढ़वाल वासियों की खुशी का ठिकाना न रहा। इस ऐतिहासिक विजय की स्मृति में टिहरी में ठीक कार्तिक की दीपावली को एक माह पश्चात मार्गशीर्ष की दीपावली को इसी खुशी में मनाने का ऐलान कर दिया गया।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तरायणी मेला  , बागेश्वर 
 
 
तहसील व जनपद बागेश्वर के अन्तर्गत सरयू गोमती व सुष्प्त भागीरथी नदियों के पावन सगंम पर उत्तरायणी मेला बागेश्वर का भव्य आयोजन किया जाता है मान्यता है कि इस दिन  सगंम में स्नान करने से पाप कट जाते है बागेश्वर दो पर्वत शिखरों की उपत्यका में स्थित है इसके एक ओर नीलेश्वर तथा दूसरी ओर भीलेश्वर शिखर विद्यमान हैं बागेश्वर समुद्र तट से लगभग 960  मीटर की ऊचांई पर स्थित है।
 
 
सुविधाएं 
 
 
मेला बागेश्वर शहर में आयोजित क्षेत्र में शहर होने के कारण मूलभूत सभी सुविधाएं अपलब्ध है। यहाँ पर होटल रेस्टोरेन्ट पी0सी0ओ बैक, पोस्ट आफिस पेट्रोल पम्प बाजार आदि की सुविधाएं उपलब्ध है।
 
कार्यक्रम 
 
 
उत्तरायणी मेला सम्पूर्ण कुमायू का प्रसिद्ध मेला है। मेला अवधि में संगम तट पर दूर-दूर से श्रद्धालु, भक्तजन आकर मुडंन, जनेंऊ सरंकार, स्नान पूजा अर्चना करते है तथा पुण्य लाभ  कमाते है विशेषकर मकर संक्रान्ति के दिन प्रातःकाल से ही हजारों की संख्या में स्त्री पुरूष बच्चे बूढें महिलाऐ संगम में डुबकी लगाते है। मान्यता है कि वर्ष में सूर्य छः माह दक्षिणायन में व छः माह  उत्तरायण में रहता है। मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरायण में प्रवेश करता है इस समय संगम में डुबकी लगाने से सारे पाप धुल जाते है। 
मेला अवधि मे बाहर से आये हुये कलाकारों द्वारा विशेष नाटकों का आयोजन होता है स्थानीय कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान स्थानीय संस्कृति का प्रदर्शन किया जाता  हैं। दिन में शैक्षिणिक संस्थानों के बालक बालिकाओं द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते है।
 
 
आवागमन 
 
 
मेला शहर में आयोजित होने के कारण मोटर मार्गों से जुडा हुआ है पहाडी क्षेत्र होने के कारण यहाँ आवागमन कार, टैक्सी व बसों द्वारा किया जाता है । यहाँ से लगभग कौसानी 40 कि0मी0 बैजनाथ, 24 कि0मी0, ग्वालदम 40 कि0मी0, अल्मोड़ा 7.3 कि0मी0, हल्द्वानी 160 कि0मी0, पिथौरागढ 130 कि0मी0, कपकोट 25 कि0मी0 की  दूरी पर मोटर मार्गों से जुडे हुये है यहॉ से समीपतम रेलवेस्टेशन 156 कि0मी0 काठगोदाम तथा समीपतम एयरपोर्ट पंतनगर 190 कि0मी0 है।
 
श्रृद्धालु/पर्यटक 
 
 
उत्त्रायणी मेला बागेश्वर कुमायू का प्रसिद्ध व प्राचीनतम मेला है। यहॉ पर खरीद फरोख्त हेतु व्यापारी पर्यटक, श्रृद्धालु धारचूला, पिथौरागढ, अल्मोड़ा, लोहाघाट, चम्पावत, गढवाल,  बरेली, बदॉयू, रामपुर, मुरादाबाद, नजीबाबाद, दिल्ली व उत्तर प्रदेश के अन्य स्थलों से आते है श्रृद्धालु दर्शनार्थी पर्यटक हजारों की संख्या में भाग लेते है।
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
बागेश्वर राज्य के अन्य मुख्य शहरों से सड़क मार्ग से जुडा है । बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की सुविधायें उपलब्ध है ।
 
निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम 180 किमी0
निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर 206 किमी0 (वर्तमान में नियमित हवाई सेवायें उपलब्ध नहीं है )
 
 
 वापस..
 
 
बैकुण्ठ चर्तुदशी मेला, श्रीनगर 
 
 
विभिन्न पर्वों की भांति वैकुण्ठ चतुर्दशी वर्षभर में पडने वाला हिन्दू समाज का महत्वपूर्ण पर्व है। सामान्यतः दीपावली तिथि से 14 वे दिन बाद आने वाले साल का यह पर्व धार्मिक महत्व का है।  इस अवसर पर विभिन्न शिवालयों में पूजा/अर्चना साधना का विशेष महत्व है। गढवाल जनपद के प्रसिद्ध शिवालयों श्रीनगर में कमलेश्वर तथा थलीसैण में बिन्सर शिवालय में इस पर्व पर  अधिकाधिक संख्या में श्रृद्धालु दर्शन हेतु आते हैं तथा इस पर्व को आराधना व मनोकामना पूर्ति का मुख्य पर्व मानते हैं। श्रीनगर स्थित कमलेश्वर मन्दिर पौराणिक मन्दिरों में से है। इसकी अतिशय  धार्मिक महत्ता है, किवदंती है कि यह स्थान देवताओं की नगरी भी रही है। इस शिवालय में भगवान विष्णु ने तपस्या कर सुदर्शन-चक्र प्राप्त किया तो श्री राम ने रावण वध के उपरान्त ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति हेतु कामना अर्पण कर शिव जी को प्रसन्न किया व पापमुक्त हुए। वैकुण्ठ चतुर्दशी कथा का एक वर्णन इस प्रकार है-
 
दिया था चक्र शुक्ता कार्तिक को, करी जब भाव से पूजा
श्री चोदश शुक्ला कार्तिक को, दिया जब दर्शन शिव गिरिजा।
तभी से शुक्ला चौदश का हुआ विख्यात यह मेला।
पुत्र वरदान शंकर दे, काटकर पाप का झेला।
 
स्पष्ट है कि इस स्थान की प्राचीन महत्ता के कारण कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की चौदवीं तिथि को भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र प्राप्ति का पर्व माना गया है। इसे उपलब्धि का प्रतीक  मानकर आज भी श्रृद्धालू पुत्र प्राप्ति की कामना से प्रतिवर्ष इस पर्व पर रात्रि में साधना करने हेतु मन्दिर में आते हैं। तो अनेक श्रृद्धालु दर्शन व मोक्ष के भाव से इस मन्दिर में आते हैं। जिससे  उत्तराखण्ड के गढवाल क्षेत्र में यह मेला एक विशिष्ठ धार्मिक मेले का रूप ले चुका है।

वैकुण्ठ चतुर्दशी मेले के महत्व के साथ-साथ कमलेश्वर मन्दिर के महत्व का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी समझना आवश्यक है। श्रीनगर जो प्राचीन काल में श्री क्षेत्र कहलाता था। त्रेता  युग में रावण वधकर रामचन्द्र जी द्वारा यहॉ पर 108 कमल प्रतिदिन एक माह तक भगवान शिव का अर्पण किया जाने का वर्णन मिलता है।

प्रतिवर्ष कार्तिक मास की त्रिपुरोत्सव पूर्णमासी को जब विष्णु भगवान ने सहस कमल पुष्पों से अर्चनाकर शिव को प्रसन्न कर सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था, उस आधार पर वैकुण्ठ  चतुर्दशी पर्व पर पुत्र प्राप्ति की कामना हेतु दम्पत्ति रात्रि को हाथ में दीपक धारण कर भगवान शंकर को फल प्राप्ति हेतु प्रसन्न करते हैं।
 
 
वर्तमान वैकुण्ठ चतुर्दशी मेला 
 
 
वैकुण्ठ चतुर्दशी मेला वर्तमान में एक पर्व व पूजा आराधना तक सीमित नहीं है। श्रीनगर की बढती आबादी व गढवाल के इस शहर की केन्द्रीय भौगोलिक स्थिति व इस शहर के  शैक्षणिक केन्द्र (विश्व विद्यालय, पॉलिटेक्निक, आई.टी.आई. ) होने के कारण एक व्यापक धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजन का स्वरूप ले चुका है। प्रतिवर्ष नगरपालिका परिषद श्रीनगर द्वारा वैकुण्ठ  चतुर्दशी पर्व से लगभग 5-6 दिन तक व्यापक सांस्कृतिक कार्यक्रमों, खेलकूद प्रतियोगिताओं व स्थानीय संस्कृति पर आधारित सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इन कार्यक्रमों को और  व्यापक स्वरूप प्रदान कर तथा इनका प्रचार प्रसार कर कमलेश्वर मन्दिर से सम्बन्धित पौराणिक/ धार्मिक मान्यताओं को उजागर कर उन पर आधारित कार्यक्रम तैयार कर इस अवसर पर पर्यटकों को  भी आकर्षित किया जा सकता है।
श्रीनगर शहर जो कि ऋषिकेश से 107 कि0मी0 पौडी से 29 कि0मी0 कोटद्वार से 135 कि0मी0 दूरी पर है व बद्री-केदार यात्रा मार्ग पर स्थित है पर्यटकों के आवागमन के दृष्टिकोण से  उपयुक्त स्थल है।इस आयोजन को व्यवस्थित कर व व्यापक स्वरूप देकर पर्यटकों के उपयोग हेतु प्रचारित किया जा सकता है।
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर अवस्थित है तथा चार धाम यात्रा मार्ग पर पडता है एवं राज्य के अन्य मुख्य शहरों से सड़क मार्ग से जुडा है । बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की  सुविधायें उपलब्ध है । 
 
निकटतम रेलवे स्टेशन कोटद्वार- 137 किमी एवं ऋषिकेश 105 किमी0
निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट 123 किमी0
 
 
 वापस..
 
 
गौचर मेला, गौचर   
 
 
भारत मेलों एवं सांस्कृतिक आयोजनों का देश रहा है । मेले किसी भी समाज के न सिर्फ लोगों के मिलन के अवसर होते है वरन संस्कृति, रोजमर्रे की आवश्यकता की पूर्ति के स्थल व  विचारों और रचनाओं के भी साम्य स्थल होते है । पर्वतीय समाज के मेलों का स्वरूप भी अपने में एक आकर्षण का केन्द्र है । उत्तराखण्ड में मेले संस्कृति और विचारों के मिलन स्थल रहे है । यहां के  प्रसिद्ध मेलों में से एक अनूठा मेला गौचर मेला है ।
तिब्बत में लगने वाले दो जनपदों पिथौरागढ व चमोली में भोटिया जनजाति के लोगों की पहल पर शुरू हुआ यह मेला उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में जीवन के रोजमर्रे की  आवश्यकताओं का हाट बाजार और यही हाट बाजार धीरे-धीरे मेले के स्वरूप में परिवर्तित हो गया । चमोली जनपद में नीति माणा घाटी के जनजातिय क्षेत्र के प्रमुख व्यापारी एवं जागृत  जनप्रतिनिधि स्व0 बालासिंह पॉल, पानसिंह बम्पाल एवं गोविन्द सिंह राणा ने चमोली जनपद में भी इसी प्रकार के व्यापारिक मेले के आयोजन का विचार प्रतिष्ठित पत्रकार एवं समाजसेवी स्व0  गोविन्द प्रसाद नौटियाल के सम्मुख रखा । गढवाल के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर के सुझाव पर माह नवम्बर,1943 में प्रथमबार गौचर में व्यापारिक मेले का आयोजन शुरू हुआ बाद में धीरे-धीरे  औद्योगिक विकास मेले एवं सांस्कृतिक मेले का स्वरूप धारण कर लिया । मेले में पहले तिथि का निर्धारण हर वर्ष भिन्न-भिन्न होता था, परन्तु आजादी के पश्चात गौचर में मेले का आयोजन भारत के  प्रथम प्रधान मंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू के जन्म दिन के अवसर पर 14 नवम्बर से एक सप्ताह की अवधि तक किये जाने का निर्णय लिया गया ।

यह मेला संस्कृति, बाजार, उद्योग तीनों के समन्वय के कारण पूरे उत्तराखण्ड में लोकप्रिय बन गया है । मेले में जहां रोज की आवश्यक वस्तुओं की दुकाने लगाई जाती है वहीं जनपद में  शासन की नीतियों के अनुसार प्राप्त उपलब्धियों के स्टॉल भी लगाये जाते है । मेले में स्वास्थ्य, पंचायत, सहकारिता, कृषि, पर्यटन आदि विषयों पर विचार गोष्ठियां होती है तथा मेले में स्वस्थ  मनोरंजन, संस्कृति के आधार पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है । इस हेतु प्रत्येक वर्ष पर्यटन विभाग, उत्तराखण्ड द्वारा अनुदान की धनराशि उपलब्ध कराई जाती है ।
 
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
गौचर राष्ट्रीय राजमार्ग पर अवस्थित है तथा चार धाम यात्रा मार्ग पर पडता है एवं राज्य के अन्य मुख्य शहरों से सड़क मार्ग से जुडा है । बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की  सुविधायें उपलब्ध है । 
 
निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश 163 किमी0
निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट 180 किमी0
 
 
 वापस..
 
 
माघ मेला  , उत्तरकाशी 
 
 
माघ मेला उत्तरकाशी इस जनपद का काफी पुराना धार्मिक/सांस्कृति तथा व्यावसायिक मेले के रूप में प्रसिद्ध है। इस मेले का प्रतिवर्ष मकर संक्राति के दिन पाटा-संग्राली गांवों से कंडार  देवता के साथ -साथ अन्य देवी देवताओं की डोलियों का उत्तरकाशी पहुंचने पर शुभारम्भ होता है। यह मेला 14 जनवरी मकर संक्राति से प्रारम्भ हो 21 जनवरी तक चलता है। इस मेले में जनपद के  दूर दराज से धार्मिक प्रवृत्ति के लोग जहाँ गंगा स्नान के लिये आते है। वहीं सुदूर गांव के ग्रामवासी अपने-अपने क्षेत्र के ऊन एवं अन्य हस्तनिर्मित उत्पादों को बेचने के लिये भी इस मेले में आते है।  इसके अतिरिक्त प्राचीन समय में यहाँ के लोग स्थानीय जडी-बूटियों को भी उपचार के लिये लाते थे किन्तु वर्तमान समय में इस पर प्रतिबन्ध लगने के कारण अब मात्र ऊन आदि के उत्पादों का ही  यहाँ पर विक्रय होता है।

उत्तरकाशी माघ मेले का महत्व मात्र जनपद उत्तरकाशी तक ही सीमित नहीं है बल्कि इस मेले का धार्मिकता के आधार पर भी अन्य जनपदों/प्रदेश स्तर पर पहचान एवं आस्था है,  इसका मुख्य कारण इस मेले का विश्वनाथ जी की नगरी में हिन्दू धर्म के आधार पर महात्म्य माह माघ में होना है।

वर्तमान समय में यह मेला धार्मिक/ सांस्कृतिक एवं विकास मेले के अतिरिक्त पर्यटक मेले के रूप में भी अपनी पहचान बना रहा है। इसका मुख्य कारण वर्तमान विभाग द्वारा यहाँ के  पर्यटक स्थलों के विकास एवं प्रचार/प्रसार की मुख्य भूमिका रही है। चूंकि यह मेला माह जनवरी में आयोजित होता है जिसके कारण उस समय पहाडों में अत्यधिक बर्फ रहती है पर्यटन विभाग द्वारा  दयारा बुग्याल को स्कीइंग सेंटर के रूप में विकसित/प्रचारित करने के कारण इस क्षेत्र में काफी पर्यटकों का आवागमन होता है। भविष्य में इस प्रकार के आयोजनों से माघ मेले में देशी/विदेशी  पर्यटकों की संख्या में वृद्धि होने की पूरी आशा है।

माघ मेला उत्तरकाशी का यदि सम्यकरूप से प्रचार-प्रसार किया जाय एवं इसे महोत्सव का रूप दिया जाय तो निसन्देह जहाँ एक ओर इससे पर्वतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार होगा वहीं देशी-विदेशी पर्यटकों के आवागमन में वृद्धि के साथ पर्यटन की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।
 
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
उत्तरकाशी राष्ट्रीय राजमार्ग पर अवस्थित है तथा चार धाम यात्रा मार्ग पर पडता है एवं राज्य के अन्य मुख्य शहरों से सड़क मार्ग से जुडा है । बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात  की सुविधायें उपलब्ध है । 
 
निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश 145 किमी0
निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट 162 किमी0
 
 
 वापस..
 
 
बसन्त पंचमी मेला कण्वाश्रम (कोटद्वार) 
 
 
बसन्त पंचमी हिन्दू समाज का प्रमुख पर्व है, परिवर्तन व आशा-उमंग के इस पर्व का विभिन्न धार्मिक स्थलों पर उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। जनपद पौडी में कोटद्वार के समीप  (कोटद्वार से 14 कि0मी0) कण्वाश्रम ऐतिहासिक, सांस्कृतिक महत्व का स्थल है। यहॉ पर प्रति वर्ष बसन्त पंचमी पर्व पर दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। जिसमें हजारों की  संख्या में दर्शक मौजूद रहते हैं।
 
 
कण्वाश्रम बसन्त पंचमी मेला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 
 
 
इस मेले की पृष्ठभूमि समझने से पहले कण्वाश्रम की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, व धार्मिक पृष्ठभूमि का समझना आवश्यक है। कण्वाश्रम यानी कण्व का आश्रम। इसका सम्बन्ध ऋषि कण्व  से है। जिनका समय आज से लगभग 5900 वर्ष पूर्व माना जाता है, इस इतिहास की पृष्ठभूमि का समझने हेतु द्वापर युग के इतिहास में जाना होगा। भगवान कृष्ण की मृत्यु के दिन से युधिष्ठिर संवत  अथवा कलिसंवत का आरम्भ होता है। उसी दिन से कलियुग का प्रारम्भ व द्वापर युग का अन्त माना जाता है।
युधिष्ठिर से 18 पीढी पूर्व महाराजा दुष्यन्त हुए उनके समय में महर्षि कण्व हुए जो कि आज से 5900 वर्ष लगभग पूर्व की अवधि है, उस वक्त कण्वाश्रम में एक गुरूकुल पद्धति का  विश्वविद्यालय था तथा ऋषि कण्व इस आश्रम के कुलपति थे। इस अवधि में एक अनोखी ऐतिहासिक घटना के कारण इस स्थल का अतिशय ख्याति प्राप्त हुई, यह घटना थी इस आश्रम के तपस्वी  विश्वामित्र व अप्सरा मेनका व प्रणय से उत्पन्न व परित्यक्त कन्या शकुन्तला का जन्म व उससे चक्रवर्ती राजा भरत का जन्म विद्धानों के अनुसार अप्सरा मेनका की परित्यक्त कन्या शकुन्तला को  कण्व ऋषि ने पाल पोसकर बडा किया, तो संयोगवश इस क्षेत्र के सम्राट दुष्यन्त के आखेट हेतु आने पर शकुन्तला से उनका परिणय हुआ, जिसका परिणाम पराक्रमी यशस्वी शकुन्तला दुष्यन्त पुत्र  भरत का जन्म तथा राज्याभिषेक के उपरान्त भरत का चक्रवर्ती सम्राट का पद प्राप्त करना एक ऐतिहासिक घटना है। इन्ही भरत सम्राट के नाम पर देश का नाम भारतवर्ष होने की मान्यता है। इस  प्रकार का वर्णन महाभारत में महर्षि  व्यास द्वारा तथा पुराणों में भी है।

महाकवि कालिदास ने भी अभिज्ञान शाकुंतलम में (महाराजा भरत पहिव में) इस आश्रम को कण्व के नाम से ख्याति प्रदान कर दी। इस प्रकार शैक्षणिक क्षेत्र में ख्याति प्राप्त स्थल होने के  साथ-साथ ऐतिहासिक क्षेत्र में भी ख्याति प्राप्त स्थल होने से इस स्थान का अतिशय महत्व रहा है। मान्यता है कि आज से 1500 वर्ष पूर्व तक इस आश्रम में शिक्षा दीक्षा का कार्य समाप्त हो गया था  यह स्थान अपनी वैभव हेतु भी विख्यात रहा है।

वर्ष 1956 में अविभाजित उत्तर प्रदेश के तक्कालीन मुख्यमंत्री डा0 संपूर्णानन्द  जी जब इस क्षेत्र में आये तो उन्होने जनता की मांग पर तत्कालीन जिलाधिकारी गढवाल को इस स्थल के विकास हेतु निर्देश दिये इस स्थान पर वन्य जन्तु विहार की स्थापना के साथ-साथ कण्वाश्रम विकास समिति का गठन हुआ। इस समिति द्वारा पंचमी कण्वाश्रम की ऐतिहासिक व प्राचीन गौरव का  बोध कराने के उपलक्ष में प्रतिवर्ष बसन्त पंचमी के पर्व के अवसर पर एक मेला आयोजन का भी निर्णय लिया गया। सह समिति अब  "कण्वाश्रम मेला व विकास समिति " के नाम से जानी जाती है व  पर्यटन विभाग के सहयोग से प्रतिवर्ष बसन्त पंचमी जैसे शुभ पर्व पर यहॉ पर विशाल मेले का आयेजन होता है, जिसमें सांस्कृतिक, कार्यक्रमों, खेलकूद प्रतियोगिता का आयोजन स्थानीय शिक्षण  संस्थाओं व सांस्कृतिक दलों के माध्यम से सम्पन्न होता है। विकास प्रदर्शनी आदि का भी इस अवसर पर आयोजन किया जाता है। यह समिति इस स्थान के प्राचीनतम गौरव पूर्ण इतिहास का जन   सामान्य को बोध कराती है व इस क्षेत्र के विकास हेतु शासन व पर्यटन विभाग का ध्यान आकर्षित करती है।
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
कण्वाश्रम कोटद्वार से 14 किमी की दूरी पर स्थित है तथा बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की सुविधायें उपलब्ध है । 
 
निकटतम रेलवे स्टेशन कोटद्वार 14 किमी0
निकटतम हवाई अड्डा कोटद्वार 14 किमी0
 
 
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पूर्णागिरी मेला, टनकपुर चम्पावत 
 
 
चम्पावत जनपद का प्रवेश द्वार टनकपुर प्राचीन मानसरोवर यात्रा, तथा कालिदास वर्णित अलकापुरी है। इसी क्षेत्र में मॉ पूर्णगिरि पीठ सर्वोपरि महत्व रखता है। पौराणिक साहित्य वास्तव में श्रुति एवं स्मृति का इतिहास है। यह एक प्रसंग है जो कि ऋषि-मुनियों द्वारा कण्ठस्थ कर अग्रसारित किया जाता है। किंवदन्ती है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री पार्वती (सती) ने अपने पति महादेव के अपमान के विरोध में दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ कुण्ड में स्वयं कूदकर प्राण आहूति दे दी थी। भगवान विष्णु ने अपने चक्र से महादेव के क्रोध को शान्त करने के लिए सती पार्वती के शरीर के 64 टुकडे कर दिये। वहॉ एक शक्ति पीठ स्थापित हुआ। इसी क्रम में पूर्णगिरि शक्ति पीठ स्थल पर सती पार्वती की नाभि गिरी थी।
यह स्थान चम्पावत से 95 कि0मी0 की दूरी पर तथा टनकपुर से मात्र 25 कि0मी0 की दूरी पर स्थित है। इस देवी दरबार की गणना भारत की 108 शक्तिपीठों में की जाती है। शिवपुराण में रूद्र संहिता के अनुसार दश प्रजापति की कन्या सती का विवाह भगवान शिव के साथ किया गया था। एक समय दक्ष प्रजापति द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें समस्त देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया परन्तु शिव शंकर का आमंत्रित करने की दृष्टि से उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया। सती द्वारा अपने पति भगवान शिव शंकर का अपमान सहन न होने के कारण अपनी देह की आहुति यज्ञ मण्डप में कर दी गई। सती की जली हुई देह लेकर भगवान शिव शंकर आकाश में विचरण करने लगे भगवान विष्णु ने शिव शंकर के ताण्डव नृत्य को देखकर उन्हें शान्त करने की दृष्टि से सती के शरीर के अंग पृथक-पृथक कर दिए। जहॉ-जहॉ पर सती के अंग गिरे वहॉ पर शान्ति पीठ स्थापित हो गये। पूर्णागिरी में सती का नाभि अंग गिरा वहॉ पर देवी की नाभि के दर्शन व पूजा अर्चना की जाती है।

वैसे तो इस पवित्र शक्ति पीठ के दर्शन हेतु श्रद्धालु वर्ष भर आते रहते हैं। परन्तु चैत्र मास की नवरात्रियों से जून तक श्रद्धालुओं की अपार भीड दर्शनार्थ आती है। चैत्र मास की नवरात्रियों से दो माह तक यहॉ पर मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें श्रद्धालुओं के लिए सभी प्रकार की सुविधायें उपलब्ध कराई जाती हैं। इस शक्ति पीठ में दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों की संख्या वर्ष भर में 25 लाख से अधिक होती है। इस मेले हेतु प्रतिवर्ष राज्य शासन द्वारा अनुदान की धनराशि जिलाधिकारी चम्पावत के माध्यम से जिला पंचायत चम्पावत जोकि मेले का आयोजन करते हैं को उपलब्ध कराई जाती है।
 
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
पूर्णागिरी टनकपुर से 20 किमी की दूरी पर स्थित है तथा टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की सुविधायें टनकपुर से 17 किमी वाहन द्वारा तथा 3 किमी पैदल मार्ग से पहुंचा जा सकता है । 
 
निकटतम रेलवे स्टेशन टनकपुर 20 किमी0
 
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माँ बाराही धाम, देवीधूरा मेला, लोहाघाट   
 
 
 यह स्थान लोहाघाट-हल्द्वानी मार्ग पर लोहाघाट से लगभग 45 कि0मी की दूरी पर स्थित है। यह स्थान सुमद्रतल से लगभग 6500 फिट की ऊँचाई पर स्थित है। महाभारत में पाण्डवों के अज्ञातवास से लेकर अनेक पौराणिक धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं से जुडा हुआ है।
वैष्णवी माँ वाराही का मन्दिर भारत में गिने चुने मन्दिरों में से है। पौराणिक कथाओं के आधार पर हिरणाक्ष व अधर्मराज पॄथ्वी को पाताल लोक ले जाते हैं। तो पृथ्वी की करूण पुकार सुनकर भगवान विष्णु वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाते है। तथा उसे वामन में धारण करते है। तब से पृथ्वी स्वरूप वैष्णवी वाराही कहलायी गई। यह वैष्णवी आदि काल से गुफा गहवर में भक्त जनों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही है।

श्रवण शुक्ल एकादशी से कृष्ण जन्माटष्मी तक अनेक आयामों को छुने वाले इस मेले का प्रमुख आकर्षण ’’बग्वाल’’ है। जो श्रावणी पूर्णिमा को खेली जाती है। ’’बग्वाल’’ एक तरह का पाषाण युद्ध है जिसको देखने देश के कोने-कोने से दर्शनार्थी इस पाषाण युद्ध में चार खानों के दो दल एक दूसरे के ऊपर पत्थर बरसाते है बग्वाल खेलने वाले अपने साथ बांस के बने फर्रे पत्थरों को रोकने के लिए रखते हैं। मान्यता है की बग्वाल खेलने वाला व्यक्ति यदि पूर्णरूप से शुद्ध व पवित्रता रखता है तो उसे पत्थरों की चोट नहीं लगती है। सांस्कृतिक प्रेमियों के परम्परागत लोक संस्कृति के दर्शन भी इस मेले के दौरान होते हैं। यह मेला प्रति वर्ष रक्षा बंधन के अवसर पर 15 दिनों के लिए आयोजित किया जाता है जिसमें अपार जन समूह दर्शनार्थ पहुंचता है।
 
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
देवधुरा लोहाघाट से 45 किमी तथा चम्पावत से 61 किमी की दूरी पर स्थित है तथा बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की सुविधायें उपलब्ध है ।
निकटतम रेलवे स्टेशन टनकपुर 136  किमी0
 
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नैनीताल महोत्सव 
 
 
उत्तर भारत की प्रख्यात पर्यटक नगरी नैनीताल में नगर पालिका परिषद नैनीताल के द्वारा वर्ष 1952 से माह अक्टूबर में शरदोत्सव का आयोजन प्रतिवर्ष किया गया। वर्ष 1970-71 से पर्यटन विभाग द्वारा इस आयोजन को अपनी ओर से आर्थिक सहायता प्रदान की गयी। तद्दोपरान्त यह आयोजन नगर पालिका परिषद नैनीताल एवं पर्यटन विभाग के संयुक्त तत्वाधान सेआयोजित किया जाता रहा है। जिसमें विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं क्रीड़ा कार्यक्रमों का आयोजन होता है। इस आयोजन से उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में आफ सीजन के दौरान भी पर्यटकों का गमनागमन बना रहता है ।
वर्ष 1995 में प्रदेश शासन द्वारा पूरे प्रदेश भर के मेले एवं त्योहारों के लिए कलैण्डर का प्रकाशन किया गया। इस कलैण्डर के अन्तर्गत आयोजित होने वाले शरदोत्सवों को प्रतिवर्ष जिलेवार आयोजित किये जाने एवं उसे महोत्सव का रूप दिये जाने का निर्णय लिया गया तथा इनका आयोजन वृहद् रूप में किया जाने लगा। नैनीताल नगर में शरदोत्सव को पूरे कुमायुं मण्डल का आयोजन मान कर इसको कुमायुं महोत्सव के नाम से वर्ष 1997 में आयोजित किया गया। नैनीताल में शरदोत्सव का आयोजन यथावत रहा तथा कुमायुं महोत्सव का आयोजन कुमायुं मण्डल के विभिन्न जनपदों में किया गया, नैनीताल में कुमॉयु महोत्सव का आयोजन शरदोत्सव, नैनीताल के साथ संयुक्त रूप से कुमायुं शरदोत्सव के नाम से किया गया । तदोपरान्त वर्ष 2003-04 से कुमायुं शरदोत्सव के महत्व एवं सफलता एवं इसमें पर्यटकों की रूचि को ध्यान में रखते हुए शासन द्वारा इसके व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु इसका नाम नैनीताल महोत्सव रखा गया है तथा तब से वर्ष 2003-04 एवं 2004-05 में दो बार नैनीताल महोत्सव का आयोजन माह अक्टूबर/नवम्बर में सफलतापूर्वक सरोवर नगरी नैनीताल में किया जा चुका है ।

वर्ष 1997 से इस महोत्सव को वृह्त रूप में आयोजित किया जाता है, वहीं इस आयोजन हेतु शासन द्वारा प्रतिवर्ष उपलब्धता के अनुसार रू0 10.00 लाख से रू0 15.00 लाख तक अनुदान राशि प्राप्त होती है। नैनीताल महोत्सव के आयोजन हेतु जिला प्रशासन, पर्यटन विभाग, नगर पालिका परिषद के साथ अन्य विभागों को भी सहयोग प्राप्त होता है। नैनीताल महोत्सव मुख्य रूप से शरद ऋतु के आगमन पर अक्टूबर माह में 6 से 10 दिनों तक आयोजन समिति के निर्णयानुसार तिथि निर्धारित कर आयोजित किया जाता है।
 
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
नैनीताल राज्य के सभी प्रमुख स्थलों जुडा है तथा बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की सुविधायें उपलब्ध है । 
निकटतम रेलवे स्टेशन कोठगोदाम 35 किमी0
निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर 71  किमी0
 
 वापस..
 
 
पिरान कलियर उर्स, रूडकी 
 
 
मेले का आयोजन रूडकी के समीप ऊपरी गंग नहर के किनारे जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पिरान कलियर गांव में होता है। इस स्थान पर हजरत मखदूम अलाउदीन अहमद ‘‘साबरी‘‘ की दरगाह है। यह स्थान हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता का सूत्र है। यहां पर हिन्दु व मुसलमान मन्नते मांगते है व चादरे चढाते है। मेले स्थल पर दरगाह कमेटी द्वारा देश/विदेश से आने वाले जायरिनों/श्रद्वालुओं के लिये आवास की उचित व्यवस्था है।दरगाह के बाहर खाने पीने की अच्छी व्यवस्था उपलब्ध है।
गढवाल मण्डल विकास निगम द्वारा संचालित पर्यटन आवासगृह उपलब्ध है जिसके आवास एवं खान-पान की व्यवस्था उपलब्ध है। डाकखाना ,पुलिस चौकी, दूरसंचार विभाग के पी0सी0ओ0 कार्यरत है पीने का पानी की व्यवस्था दरगाह कमेटी द्वारा की जाती है मेले के समय हैण्ड पम्पों की व्यवस्था एवं शौचालय आदि का सुविधा उपलब्ध है स्थानीय स्तर पर मेटाडोर द्वारा यातायात की सुविधा उपलब्ध है। रवीउल अब्बल, चाँद के अनुसार मेले के आयोजन की तिथि तय की जाती है एवं मेला एक माह तक चलता है ।

यहां पर प्रत्येक वर्ष उर्स का आयोजन होता है। उर्स की परम्परा सात सौ वर्षो से भी अधिक पुरानी है। इस अवसर पर यहां लाखों की संख्या में जायरीन (श्रद्धालु) देश व विदेश से आते है। पारम्पारिक सूफीयाना कलाम व कव्वालियां उर्स के समय यहां पर विशेष आकर्षण होता है । उत्तराखण्ड पर्यटन द्वारा वार्षिक उर्स मेले के आयोजन हेतु विगत वर्ष रू0 3.25 लाख की अनुदान धनराशि भी उपलब्ध कराई गई थी।
 
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
पिरान कलियर जिला मुख्यालय हरिद्वार से 25 किमी की दूरी पर स्थित है तथा बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की सुविधायें उपलब्ध है । 
निकटतम रेलवे स्टेशन
 हरिद्वार 25 किमी0, रूडकी 8 किमी0
निकटतम हवाई अड्डा
 जौलीग्रांट 66 किमी0
 
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कुम्भ/अर्द्धकुम्भ मेला, हरिद्वार 
 
 
उत्तराखण्ड के चारों धामों, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं यमुनोत्री के लिये प्रवेश द्वार के रूप में प्रसिद्ध हरिद्वार ज्योतिष गणना के आधार पर ग्रह नक्षत्रों के विशेष स्थितियों में हर बारहवें वर्ष कुम्भ के मेले का आयोजन किया जाता है । मेष राशि में सूर्य और कुम्भ राशि में बृहस्पति होने से हरिद्वार में कुम्भ का योग बनता है । एक कथा है कि बार-बार सुर असुरो में संघर्ष हुआ जिसमें उन्होने विराट मद्रांचल को मथनी और नागराज वासुकी को रस्सी बनाकर सागर का मन्थन किया । सागर में से एक-एक कर चौदह रत्न निकले, विष, वारूणि, पुष्पक विमान, ऐरावत हाथी, उच्चेःश्रेवा अश्व, लक्ष्मी, रम्भा, चन्द्रमा, कौस्तुभ मणि, कामधेनु गाय, विश्वकर्मा, धन्वन्तरि और अमृत कुम्भ । जब धन्वन्तरि अमृत का कुम्भ लेकर निकले तो देव और दानव दोनों ही अमृत की प्राप्ति को साकार देखकर उसे प्राप्त करने के लिये उद्यत हो गये लेकिन इसी बीच इन्द्र पुत्र जयन्त ने धन्वन्तरि के हाथों से अमृत कुम्भ छीना और भाग खडा हुआ, अन्य देवगण भी कुम्भ की रक्षा के लिये अविलम्ब सक्रिय हो गये । इससे बौखलाकर दैत्य भी जयन्त का पीछा करने के लिये भागे । जयन्त 12 वर्षो तक कुम्भ के लिये भागता रहा । इस अवधि में उसने 12 स्थानों पर यह कुम्भ रखा। जहां-जहां कुम्भ रखा वहां-वहां अमृत की कुछ बुन्दें छलक कर गिर गई और वे पवित्र स्थान बन गये इसमें से आठ स्थान, देवलोक में तथा चार स्थान भू-लोक अर्थात भारत में है । इन्हीं बारह स्थानों पर कुम्भ पर्व मानने की बात कही जाती है। चूंकि देवलोक के आठ स्थानों की जानकारी हम मुनष्यों को नहीं है अतएव हमारे लिये तो भू-लोक उसमें भी अपने देश के चार स्थानों का महत्व है । यह चार स्थान है हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक ।
नक्षत्रों ग्रहों और राशियों के संयोग से इस कुम्भ यात्रा का योग 6 और 12 वर्षो में इन स्थानों पर बनता है । अर्द्ध कुम्भ का पर्व केवल, प्रयाग और हरिद्वार में ही मनाया जाता है । ग्रह और राशियों के संगम के अनुसार इन स्थानों पर स्नान करना मोक्ष दायी माना जाता है । हाल ही में वर्ष 2004 में अद्धकुम्भ का आयोजन हरिद्वार में सम्पन्न हुआ । पूर्ण कुम्भ का आयोजन हरिद्वार में वर्ष 2010 में निर्धारित है ।
 
 
 
कैसे पहुँचा जाये 
 
 
हरिद्वार राज्य के सभी प्रमुख भागों से सड़क मार्ग एवं रेल मार्ग से जुडा है तथा बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की सुविधायें उपलब्ध है । 
निकटतम रेलवे स्टेशन हरिद्वार 
निकटतम हवाई अड्डा
 
http://www.uttara.in/hindi/tourism_board/for_tourist/festivals.html#b1

हेम पन्त

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स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला Youtube पर देखें

http://www.youtube.com/watch?v=2-6djkTg8vo

पंकज सिंह महर

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पूर्णागिरी मेले की रौनक बढ़ी, उमड़ रहे हैं श्रद्धालु

खटीमा(ऊधमसिंहनगर)। उत्तर भारत के सुप्रसिद्ध मां पूर्णागिरी धाम में चल रहा मेला धीरे-धीरे रौनक पर आने लगा है। प्रतिदिन उत्तर प्रदेश के दूरस्थ क्षेत्रों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु माता के दर्शनों को पहुंच रहे है। मेले का प्रमुख पड़ाव होने के बावजूद प्रशासन ने दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए शहर में कोई व्यवस्था नही की है।

मां पूर्णागिरी धाम में भक्तों का रेला उमड़ने लगा है। प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु अलग-अलग स्थानों से खटीमा होते हुए माता के दर्शनों को जा रहे है। बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का हुजूम साइकिल से सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर वहां पहुंच रहा है। मां के जयकारों की गूंज पूरे दिन शहर में सुनाई पड़ रही है। पीलीभीत से टनकपुर तक संचालित होने वाली ट्रेनें भी दर्शनार्थियों से खचाखच भरी हुई है। पूर्णागिरी धाम तक पहुंचने का प्रमुख पड़ाव होने के बावजूद प्रशासन ने शहर में श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए कोई व्यवस्था नही की है। शहर में कहीं पर भी पेयजल, रैन बसेरा आदि व्यवस्थाएं नही की गई है। जिसके चलते मां के भक्तों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। शहर का यातायात व्यवस्थित न होने से भी दर्शनार्थियों को परेशानी उठानी पड़ रही है। भाजयुमो कार्यकर्ताओं ने स्थानीय प्रशासन से पूर्णागिरी धाम के दर्शनों को जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए नगर में पेयजल आदि सुविधाएं उपलब्ध कराने की मांग की है।

हलिया

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चैतोला मेला:


घुघुती घुरेली नरैणा
एगे चैत मैना
मेरी बेणा रितु रेणा
एगे चैत मैना।

उत्तराखण्ड में चैत के महीने में सदियौं से चली चैतोला मेले के परंपरा का आज भी बहुत हर्षोल्लास के साथ निर्वहन किया जाता है।   कुमांऊ में लोहाघाट (चम्पावत जिला) के समीप ’गुमदेश’ सहित कई अन्य स्थानों पर बड़े स्तर पर चैतोला मेले आयोजित होते हैं।

पंकज सिंह महर

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चैती मेला - काशीपुर

चैती का मेला इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला है जो नैनीताल जनपद में काशीपुर नगर के पास प्रतिवर्ष चैत की नवरात्रि में आयोजित किया जाता है । इस स्थान का इतिहास पुराना है । काशीपुर में कुँडश्वरी मार्ग जहाँ से जाता है, वह स्थान महाभारत से भी सम्बन्धित रहा है । इस स्थान पर अब बालासुन्दरी देवी का मन्दिर है । मेले के अवसर पर दूर-दूर से यहाँ श्रद्धालु आते हैं ।

यूँ तो शाक्त सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी मंदिरों में नवरात्रि में विशाल मेले लगते हैं लेकिन माँ बालासुन्दरी के विषय में जनविश्वास है कि इन दिनों जो भी मनौती माँगी जाती है, वह अवश्य पूरी होती है । फिर भी नवरात्रि में अष्टमी, नवमी व दशमी के दिन यहाँ श्रद्धालुओं का तो समुह ही उमड़ पड़ता है । बालासुन्दरी के अतिरिक्त यहाँ शिव मंदिर, भगवती ललिता मंदिर, बृजपुर वाली देवी के मंदिर, भैरव व काली के मंदिर हैं । वैसे माँ बालासुन्दरी का स्थाई मंदिर पक्काकोट मुहल्ले में अग्निहोत्री ब्राह्मणों के यहाँ स्थित है । इन लोगों को चंदराजाओं से यह भूमि दान में प्राप्त हुई थी । बाद में इस भूमि पर बालासुन्दरी देवी का मन्दिर स्थापित किया गया । बालासुन्दरी की प्रतिमा स्वर्णनिर्मित बताई जाती है ।

कहा जाता है कि आज जो लोग इस मन्दिर के पंडे है, उनके पूर्वज मुगलों के समय में यहाँ आये थे । उन्होंने ही इस स्थान पर माँ बालासुन्दरी के मन्दिर की
स्थापना की । कहा जाता है कि तत्कालीन मुगल बादशाह ने भी इस मंदिर को बनाने में सहायता दी थी ।

नवरात्रियों में यहाँ तरह-तरह की दूकानें भी अपना सामान बेचने के लिए लगती हैं । थारु लोगों की तो इस देवी पर बहुत ज्यादा आस्था है । थारुओं के नवविवाहित जोड़े हर हाल में माँ से आशीर्वाद लेने चैती मेले में जरुर पहुँचते हैं । देवी महाकाली के मंदिर में बलिदान भी होते हैं । अन्त में दशमी की रात्रि को डोली में बालासुन्दरी की डोली में बालासुन्दरी की सवारी अपने स्थाई भवन काशीपुर के लिए प्रस्थान करती है । मेले का समापन इसके बाद ही होता है ।

प्राय: चैती मेले का रंग तभी से आना शुरु होता है जब काशीपुर से डोला चैती मेला स्थान पर पहुँचता है । डोले में प्रतिमा को रखने से पूर्व अर्धरात्रि में पूजन होता है तथा बकरों का बलिदान भी किया जाता है । डोले को स्थान-स्थान पर श्रद्धालु रोककर पूजन अर्चन करते और भगवती को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है ।

 

 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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There was famous festivel of Bikhuti (Dharwahaat)...

Remeber the song of Goswami Ji on this fair.

1)    Alkhaut Bhikhauti Meri Duarga Hai Rage.

2)    Oh Bina Kas ke Janu Dwarahataa


It is adage on this fair "Chahe bail becha pad jay par is mele mai jana hai".



चैती मेला - काशीपुर

चैती का मेला इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला है जो नैनीताल जनपद में काशीपुर नगर के पास प्रतिवर्ष चैत की नवरात्रि में आयोजित किया जाता है । इस स्थान का इतिहास पुराना है । काशीपुर में कुँडश्वरी मार्ग जहाँ से जाता है, वह स्थान महाभारत से भी सम्बन्धित रहा है । इस स्थान पर अब बालासुन्दरी देवी का मन्दिर है । मेले के अवसर पर दूर-दूर से यहाँ श्रद्धालु आते हैं ।

यूँ तो शाक्त सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी मंदिरों में नवरात्रि में विशाल मेले लगते हैं लेकिन माँ बालासुन्दरी के विषय में जनविश्वास है कि इन दिनों जो भी मनौती माँगी जाती है, वह अवश्य पूरी होती है । फिर भी नवरात्रि में अष्टमी, नवमी व दशमी के दिन यहाँ श्रद्धालुओं का तो समुह ही उमड़ पड़ता है । बालासुन्दरी के अतिरिक्त यहाँ शिव मंदिर, भगवती ललिता मंदिर, बृजपुर वाली देवी के मंदिर, भैरव व काली के मंदिर हैं । वैसे माँ बालासुन्दरी का स्थाई मंदिर पक्काकोट मुहल्ले में अग्निहोत्री ब्राह्मणों के यहाँ स्थित है । इन लोगों को चंदराजाओं से यह भूमि दान में प्राप्त हुई थी । बाद में इस भूमि पर बालासुन्दरी देवी का मन्दिर स्थापित किया गया । बालासुन्दरी की प्रतिमा स्वर्णनिर्मित बताई जाती है ।

कहा जाता है कि आज जो लोग इस मन्दिर के पंडे है, उनके पूर्वज मुगलों के समय में यहाँ आये थे । उन्होंने ही इस स्थान पर माँ बालासुन्दरी के मन्दिर की
स्थापना की । कहा जाता है कि तत्कालीन मुगल बादशाह ने भी इस मंदिर को बनाने में सहायता दी थी ।

नवरात्रियों में यहाँ तरह-तरह की दूकानें भी अपना सामान बेचने के लिए लगती हैं । थारु लोगों की तो इस देवी पर बहुत ज्यादा आस्था है । थारुओं के नवविवाहित जोड़े हर हाल में माँ से आशीर्वाद लेने चैती मेले में जरुर पहुँचते हैं । देवी महाकाली के मंदिर में बलिदान भी होते हैं । अन्त में दशमी की रात्रि को डोली में बालासुन्दरी की डोली में बालासुन्दरी की सवारी अपने स्थाई भवन काशीपुर के लिए प्रस्थान करती है । मेले का समापन इसके बाद ही होता है ।

प्राय: चैती मेले का रंग तभी से आना शुरु होता है जब काशीपुर से डोला चैती मेला स्थान पर पहुँचता है । डोले में प्रतिमा को रखने से पूर्व अर्धरात्रि में पूजन होता है तथा बकरों का बलिदान भी किया जाता है । डोले को स्थान-स्थान पर श्रद्धालु रोककर पूजन अर्चन करते और भगवती को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है ।

 

 
 


 

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