Uttarakhand > Uttarakhand at a Glance - उत्तराखण्ड : एक नजर में

Historical & Geographical Introduction - उत्तराखंड का इतिहास एव भौगोलिक परिचय

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Vidya D. Joshi:

Vidya D. Joshi:

 view of  sera (Plain) of Ukoo ,(othere side of kali)  from Askot

Devbhoomi,Uttarakhand:
 देवभूमि में अगर प्रकृति का साक्षात्कार करना हो, तो रुद्रनाथ सबसे उचित कहा जा सकता है। यहां के मखमली पनार बुग्याल इतने खूबसूरत हैं कि रुद्रनाथ आने वाले श्रद्धालु व पर्यटक इन्हें देखकर यहीं बस जाने की ख्वाहिश करने लगते हैं। इसके बावजूद सरकार की ओर से इन बुग्यालों के संरक्षण के लिए अभी तक कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। इसके चलते अपार संभावनाओं के बावजूद ये बुग्याल पर्यटकों की नजरों से ओझल हैं।

रुद्रनाथ के पनार बुग्याल को धरती का स्वर्ग कहा जाए, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। चारों ओर से बांज, बुरांश, मोरू, खरसू के जंगलों से घिरा पनार बुग्याल अपने आप में विलक्षण व अद्भुत है। जिला मुख्यालय से तीन किलोमीटर सड़क की दूरी पर सगर पहुंचने के बाद वहां से 10 किलोमीटर का पैदल सफर तय कर चमोली जिले के इस अद्भुत पनार बुग्याल में पहुंचा जाता है।
 पर्यटक इसलिए भी यहां पहुंकर यही का हो जाता है क्योंकि प्रकृति ने अपनी खूबसूरती यहां इस कदर बिछा रखी है कि पग-पग पर प्रकृति के अनेक रूपों के दर्शन होते हैं, लेकिन सरकार की ओर से इस खूबसूरत मखमली बुग्याल के संरक्षण के लिए अभी तक कोई पहल नहीं की गई है।
सामाजिक कार्यकर्ता सत्येंद्र रावत का कहना है कि इतना खूबसूरत पर्यटक स्थल शायद ही कहीं और हो। लेकिन पनार तक पहुंचने के लिए जो पैदल मार्ग है उसकी हालत काफी दयनीय बनी हुई है। विकट व दुरूह होने के कारण पर्यटक इस पैदल मार्ग पर जान हथेली पर रखकर सफर कर रहे हैं।
 पानी की समस्या भी यहां लगातार विकराल होती जा रही है। उन्होंने कहा कि कई बार वह इस संबंध में शासन प्रशासन को अवगत करा चुके हैं लेकिन फिलहाल किसी भी स्तर से कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।

rajkumar:
Dear members,
Here is a photo album of a trek to Ukoo village in Nepal on the banks of Mahakali river.

http://picasaweb.google.com/guvaraj/ATrekToUkooVillage#

Hope you will find this interesting and throw some light on the common history and culture of Kumaon and Western Nepal.
Joshiji, Have you seen the rock on which there is some unfamiliar script at the ruins of the temple in Ukoo village? I am curious to know more details, if you have any.
Comments are always welcome.
Rajkumar


--- Quote from: Vidya D. Joshi on June 24, 2009, 09:54:42 PM ---
उत्तराखण्ड़ का नवीन इतिहास में (पेंज १५८) लिखा है "... १४२० ई. के सिलोनी ताम्रपत्र से ग्यांत होता है कि ऊकू (अस्कोट) के रजबार भारती पाल को परास्तकर ग्यान चंद ने बिजय ब्रह्म को राजा नियुक्त किया था ..".
ऊकू अस्कोट के पास ही काली नदीं के किनारे बसा नेपाल का एक गांव है, जहां ऐसी ऐतिहासिक मूर्तियां हैं . पर इस के बारे में अभि तक कोही रिसर्च नहीं हुआ है

--- End quote ---


Bhishma Kukreti:
    गंगा सलाण में शिल्पकार डोला पालकी आन्दोलन

                              भीष्म कुकरेती   



       जब भी कोई बड़ा आन्दोलन छिड़ता है तो साथ में कई स्थानीय सामजिक आन्दोलन भी चलने लगते हैं।
जब भारत व उत्तराखंड में स्वतंत्रता आन्दोलन  रहा था तो उत्तराखंड में भी कई स्थानीय सामजिक आन्दोलन भी उभर कर आये।
छोटे वर्ग के ब्राह्मणों द्वारा सर्यूळ ब्राह्मणों से  कई तरह से प्रतियोगिता में आना और कहीं कहीं बहिस्कार भी । ब्राह्मणों की कई जातियों द्वारा पहली बार हल चलाना भी इसी युग में देखा गया। स्वतंत्रता के एकदम बाद कई जगह कास्तकारों /खैकरो द्वारा उस जमीन को हडपना जिस जमीन पर वे सदियों से खेती कर रहे थे किन्तु मालिकाना हक नही मिल रहा था आदि भी स्वतन्त्रता आन्दोलन की ही देन है।

                             शिल्पकार संबंधी आन्दोलन


 उत्तराखंड में आर्य समाज और  आजादी की लड़ाई में शिल्पकारों में एक चेतना जागरण हुआ कि उन्हें भी मानवीय अधिकार मिलने चाहिए। ब्रिटिश क़ानून और जागरण के कारण शिल्पकारों को विद्यालयों में शिक्षा सुलभ हुयी।
आर्य समाज जनित जनेऊ आन्दोलन तकरीबन हर गाँव में चला। धीरे धीरे सवर्णों  ने शिल्पकारों के जनेऊ पहनना स्वीकार किया।
 गढ़वाल कुमाओं में शिल्पकारों द्वारा एक आन्दोलन बहुत लम्बा चला वः आन्दोलन था 'डोला -पालकी आन्दोलन' . शिल्पकार मनीषी व विचारक विनोद शिल्पकार लिखते हैं कि डोला पालकी आन्दोलन उत्तराखंड के मूल निवासी आर्य शिल्पकार जाति  के लोगों के स्वाभिमान का प्रतीक व  उनके मानवीय अधिकार प्राप्ति का एक ऐतिहासिक आन्दोलन था।

                              डोला पाली आन्दोलन की शुरुवात

    इतिहासकारों जैसे श्री विनोद शिल्पकार  आदि ने डोला पालकी आन्दोलन सन 1923 से 1947 तक माना जब कि उत्तर प्रदेश विधान सभा ने 'अयोग्यता निवारक अधिनियम ' बिल स्वीकृत किया किन्तु सन 1978 के करीब कुमाऊं का बलेछी काण्ड बताता है कि यह आन्दोलन कहीं अधिक सालों तक चला।  ढांगू पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र में  सन 1952 -55 तक कई बार शिल्पकारों को डोला पालकी   से रोका गया। मऴळ (मल्ला ढांगू ) के जोगेश्वर प्रसाद कुकरेती आदियों को कैद भी किया गया था।

               रिवाज था कि शिल्पकार शादी में वर -वधू को डोला -पालकी में नही ले जा सकते थे।
 जबआर्य समाज, स्वतन्त्रता आन्दोलन व  इसाई धर्म परिवर्तन आन्दोलन से शिल्पकारों में अपने मानवीय अधिकारों को लेकर चेतना स्फुरण हुआ तो वरु वधू को डोला पालकी में ले जाने का आन्दोलन भी सामने  आया। चूँकि उस समय लेखक ब्राह्मण या राजपूत जाति के ही अधिक थे तो डोला पालकी का क्रमगत नही मिलता।
 श्री  विनोद शिल्पकार ने कुछ घटनाओं का संकलन किया है। डा शिव प्रसाद डबराल ने भी उत्तराखंड का इतिहास (ब्रिटिश काल ) में शिल्पकार आन्दोलन का जिक्र किया है किन्तु विनोद शिल्पकार इसे अपूर्ण व  गलत सूचनाओं के आधार वाले घटनाएँ बताकर खारिज करते दीखते हैं।
          सन 1923 में दुगड्डा के पास बोरगांव से कांडी (पट्टी बिचलोट) में डोला पालकी आन्दोलन हुआ।  सन   1924 में कोरिखाल से बिन्दलगांव की डोला पालकी शिल्पकार बरात पर हमला हुआ. बरात चार दिनों में वापस आई, श्री जयनन्द भारतीय व पंडित अर्जुन देव इस बरात में  शामिल थे
                                                ग्राम गोदी , लंगूर में डोला पालकी कांड

             2 फरवरी 1929 को श्री पंचम सिंह की पालकी वाली वारात गोदी से बिसोखी जा रही थी। डाडामंडी के पास सवर्णों ने बारात पर हमला क्र दिया। तीन दिन तक बाराती नदी  किनारे बैठे रहे। पटवारी कानूनगो की मदद से बरात बिसोती पंहुची। वापसी पर सवर्णों ने बारात पर हमला किया और डोला पालकी को भेळ में फेंक दिया या कहें तो लूट लिया। 19 दिनों तक बरातियों ने धरना दिया। तब जाकर 21 फरवरी को सरकारी संरक्षण में बरात वापस गोदी पंहुची।

                                      लंगूरी -मैन्दोली क्षेत्र में डोला पालकी आन्दोलन 

                   सन 1933 में लंगूरी मैंदोली क्षेत्र में शिल्पकारों की डोला पालकी बरात पर हमला हुआ और केस निचली अदालत में पंहुचा। निचली अदालत ने सवर्णों के पक्ष में निर्णय सुनाया। किन्तु 21 फरवरी  1936 को अलाहावाद उच्च न्यायालय ने शिल्पकारों के पक्ष में निर्णय दिया। यह दिन डोला पालकी आन्दोलन का एक सुवर्ण दिन माना जाता है।

                                         
                                          दुगड्डा में शिल्पकार सम्मेलन


    शिल्पकार जातीय उधार अभियान के तहत डोला पालकी आन्दोलन चला रहे थे तो स्वर्ण इस नये रिवाज के विरुद्ध में शिल्पकारों के डोला पालकी बरात में विघ्न डाल रहे थे। तब शिल्पकारों ने एक विशाल जन सभा का दुगड्डा में किया। आयोजकों ने सरकार को अल्टीमेटम दिया कि यदि डोला पालकी में सवर्णों द्वारा विघ्न को रोका नही गया तो शिल्पकार सत्याग्रह करेंगे।
                    यहीं 24फरवरी 1929 को पांच हजार शिल्पकारों ने इसाई धर्म अपनाने का निर्णय लिया। लेकिन आर्य समाजी नेताओं के समझाने से यह निर्णय समाप्त किया गया। किन्तु यह भी सत्य है कि दुगड्डा के नजदीक बोरगाँव और बिंदलगाँव के कुछ हरिजन इसाई बन ही गये।
                                           तिमल्याणी उदयपुर (यमकेश्वर) डोला पालकी काण्ड

                 जून 1939 में तिमल्याणी में शिल्पकारों की डोला पालकी वाली बरात पर सवर्णों ने हमला किया और डोला पर आग लगा दी गयी। पटवारी और कानूनगो की भी कुछ नही चली। तब श्री जया  नन्द भारतीय ने उत्तर प्रदेश के प्रधान मंत्री श्री गोविन्द  पन्त को  भेजा गया। फिर बरात सरकारी संरक्षण में निकाली गयी।
           किन्तु रिवाज टूटने के भय से सवर्णों ने सरकारी नियमों को नही माना और सभी जगह शिल्पकारो के डोला पालकी का विरोध होता  रहा। सन   1940 में ओडगांव (एकेश्वर) की घटना इतिहास में  है जब शिल्पकार शिरोमणि श्री गंगा राम आर्य के नेतृत्व में गैंगी लडकी की बरात जा रही थी तो डोला पर आग लगा दी गयी।

                                            कस्याळी (उदयपुर पट्टी ) डोला पालकी काण्ड

   जिस जनरेसन का मई हूँ उस युग वालों को कस्याळी कांड की याद अवश्य होगी। मैंने भी बचपन में कस्याळी कांड के बारे में सुना  था। कस्याळी उ . प्र के  .भुत पूर्व मंत्री स्व श्री जगमोहन सिंह नेगी  का पैत्रिक गाँव है।
            जून  1945 के दिन कस्याळी से जिठवा  शिल्पकार युवक की बरात ग्वाड़ी  गाँव जानी थी। हरिद्वार से आर्यसमाजी नेता पंडित वेद  व्रत शर्मा, स्वामी ओम  प्रकाशानंद व  ब्रह्मचारी बालकराम जी भी बरात में थे। दुल्हे को  डोला में जाना था किन्तु आस पास के  गाँवों से सैकड़ों स्वर्ण डोला रोकने के लिए इकट्ठा हो गये थे। इस पर दोनों समुदायों के बीच  हुयी कि गाँव में वर पालकी में नही बैठेगा।
 ग्वाड़ी गाँव में बरात तो पंहुच गयी। वहां भी सैकड़ों की संख्या में आस पास गे गाँवों से स्वर्ण आ गए थे। स्थिति अत्यंत तनावपूर्ण हो गयी थी। स्वर्ण डोला पालकी ही नही। वर पक्ष को वधू झबरी को  नही ले जाने की हठ  बना रखे थे।
फिर यह निश्चय हुआ कि यदि वर पक्ष का हरेक बाराती  पचास पचास रुपया दंड भरेगा तो   वधू गाँव से जा सकेगी। आर्यसमाजी नेताओं ने बात   नही मानी।
 जब झबरी व जिठ्वा की बरात डोला -पालकी में चली तो कुछ नही हुआ। गाँव के बीच में  सैकड़ों स्वर्ण आ गये और गाँव के शिल्पकार डॉ कर भाग खड़े हुए किन्तु आर्य समाजी नेताओं ने डोला पालकी को कंधे पर उठा लिया।  फिर रास्ते में सवर्णों द्वारा डोला पालकी को छीना  गया। बारात समूह   छिन्न भिन्न हो गया। हरिद्वार से आये नेताओं को भी चोट आई और इन्हें रात में किसी खेत में काटना पड़ा। लमखेत के श्री हीरा लाल टमटा ने इन नेताओं को शरण दी। वास्तव में रुक   गयी। 30 जून 1946 को पटवारी और कानूनगो के संरक्षण में बरात विदाई हुयी। यह संघर्ष एक साल तलक चला। इसीलिए इतिहास में कस्याळी काण्ड एक प्रमुख घटना मानी जाती है।

                         गढ़वाल के शिल्पकारों के अधिकारों को रास्ट्रीय स्तर पर ले जाना


      फिर इन नेताओं व अन्य शिल्पकार नेताओं ने अपना आन्दोलन  कर र दिया, तीनो नेता दुगड्डा पंहुचे। यंहा से इन नेताओं ने डोला पालकी अधिकार की सभी बातें कौंग्रेस के रास्ट्रीय स्तर के नेताओं, हिन्दू महासभा के नेताओं व  तक पत्र लिखकर बात पंहुचायी।
इसी समय जवाहर लाल नेहरु कोटद्वार चुनावी सभा में पंहुचे थे। वहां नेहरु जी ने इनकी बात सुनी  और अपना भाषण भे डोला पालकी से शुरू किया और सवर्णों से नेहरु जी ने प्रार्थना की कि वे शिल्पकारों के मानवीय अधिकार ना छीने।
नेहरु जी ने गढ़वाल चुनावी  भ्रमण में हर सभा में डोला पालकी की बात की। इस चुनावी भ्रमण में श्री बलदेव सिंह आर्य नेहरु जी के साथ ही रहे थे।
इस दौरान समाचार माध्यमों में डोला पालकी प्रकरण संबंधी  कई लेख प्रकाशित  हुए और शिल्पकार अधिकारों को समाज के सामने  रखा गया
गांधी जी ने भी डोला -पालकी पर लेख लिखा व श्री पन्त को एक आदेसयुक्त  पत्र भी लिखा।
सन 1947  में डोला पालकी  का विधेयक ' अछूत योग्यता निवारक बिल' के साथ पास किया गया। श्री बालकराम आर्य , प. वेद व्रत के अनुसार पन्त जी ने उन्हें धोखा  दिया कि डोला पालकी बिल अलग से क्यों नही पास किया
 
 बिल पास होने के बाद भी शिल्पकारों द्वारा डोला पालकी प्रयोग का विरोध होता रहा किन्तु धीरे धीरे शिल्पकारों को उनके अधिकारों को सामजिक  मान्यता मिली।

सन्दर्भ -विनोद शिल्पकार , 2009, उत्तराखंड का उपेक्षित समाज और उसका साहित्य )


Copyright@ Bhishma Kukreti 10/7/2013 आयोजन

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