RAKSHA BANDAN
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नई टिहरी यूं तो रक्षाबंधन पर्व भाई-बहन के प्यार की निशानी माना जाता है, लेकिन उत्तराखंड में इसके अलावा इस त्योहार का एक दूसरा पक्ष भी है। पहाड़ में सदियों से चली आ रही परंपरा के मुताबिक गांवों में कुल पुरोहित राखी के दिन अपने सभी यजमानों के यहां जाते हैं और उन्हें रक्षासूत्र बांधकर उनकी सुख, समृद्धि की कामना करते हैं। हालांकि, गांवों के शहरीकरण होने का प्रभाव इस परंपरा पर दिखाई देने लगा है, लेकिन आज भी कई जगह पुरोहित व यजमान इसका अनवरत निर्वाह करते आ रहे हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तराखंड में राखी का त्योहार नजदीक आने पर सिर्फ बहनें ही अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने का इंतजार नहीं करतीं, बल्कि ग्रामीण अंचलों में रहने वाले ब्राह्मण भी इसकी प्रतीक्षा करते हैं। दरअसल, इस दिन वे अपने यजमानों को रक्षासूत्र बांधते हैं। लोक मान्यता के अनुसार देव-असुर संग्राम में हार के बाद जब देवराज इंद्र दोबारा युद्ध पर निकले, तो उनकी पत्नी इंद्राणी ने रक्षासूत्र तैयार करवाया और श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन उसे ब्राह्मण से बंधवाने को कहा। इसके बाद उन्हें विजय प्राप्त हुई। तब से सुख, समृद्धि व मंगलकामना के लिए ब्राह्मण से रक्षा सूत्र बंधवाने की परंपरा चल पड़ी। अब भी उत्तराखंड के गांवों में इस परंपरा का बखूबी निर्वाह किया जा रहा है। ग्रामीण अंचलों में किसी भी परिवार में बहन भाई के हाथ पर तब तक राखी नहीं बांधती, जब तक परिवार के कुल पुरोहित घर में आकर सभी सदस्यों को रक्षासूत्र नहीं बांध देते। इस दौरान पुरोहित यज्ञोपवीत संस्कार करा चुके पुरुषों को अभिमंत्रित जनेऊ पहनाते हैं। हालांकि, शहरीकरण के बढ़ते प्रभाव का असर इस परंपरा पर दिखने लगा है, लेकिन अब भी हर साल रक्षाबंधन पर्व के लिए ग्रामीण अंचलों में ब्राह्मण कुछ दिन पहले से ही तैयारी में जुट जाते हैं। बाजार से खास धागा लाकर जनेऊ व रक्षासूत्र तैयार किया जाता है। इसके बाद पुरोहित सभी रक्षासूत्रों की विधिवत मंत्रोच्चारण के साथ जौ, चावल, गंगाजल आदि से रक्षासूत्र व जनेऊ को पवित्र करता है। राखी के दिन पुरोहित अलसुबह ही अपने घर से निकल पड़ता है और एक-एक कर अपने यजमानों के घर पहुंच उन्हें रक्षासूत्र बांधता जाता है। हालांकि बदलते वक्त के साथ इस परंपरा पर भी आधुनिकता हावी होती दिखने लगी है। अब पुरोहित भी बाजार से ही जनेऊ व रक्षासूत्र खरीदकर यजमानों को देने लगे हैं। स्थानीय पुरोहित बालकराम उनियाल कहते हैं कि प्राचीन काल में आश्रमों में पढ़ाने वाले ऋषि-मुनि आसपास के गांवों में जाकर यजमानों को रक्षा सूत्र बांधते थे, बदले में उन्हें दान-दक्षिणा मिलती थी। वर्ण व्यवस्था के तहत ब्राह्मणों को गुरू माना गया। इसके बाद उनके द्वारा रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा चल पड़ी। पंडित उनियाल ने कहा कि परंपराओं के निर्वहन को समाज के सभी वर्गो को एकजुट होना चाहिए।