Author Topic: It Happens Only In Uttarakhand - यह केवल उत्तराखंड में होता है ?  (Read 43318 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 गोपेश्वर (चमोली)। जमीन-जायदाद, धन दौलत व रुतबा बढ़ाने को होने वाले खूनी संघर्ष के बारे में तो सभी ने सुना होगा, लेकिन भगवान की पूजा के लिए भी खूनी संघर्ष होता था, यह शायद नहीं सुना होगा। आप कोई कहानी नहीं पढ़ रहे हैं, बल्कि यह हकीकत है चमोली जिले के आदिबदरी धाम की। यहां पूजा के लिए विभिन्न गांवों के लोगों के बीच खूनी संघर्ष हुआ करता था, जो इस लड़ाई में विजयी होता, उसे ही आदिबदरी धाम में पहले पूजा का अवसर मिलता था। समय के साथ मेले का स्वरूप भी बदल गया है, आज मेले में खून खराबा तो नहीं होता, लेकिन प्रतीकात्मक रूप में लाठी डंडे जरूर चलते हैं।
 

नौठा कौथिगजनपद चमोली स्थित आदिबदरी धाम में हर वर्ष बैशाख माह के पांचवें सोमवार को आयोजित होता है। नौठा कौथिग में चांदपुर व लोहब-खनसर पट्टी के दर्जनों गांवों के बीच पूजा के लिए होने वाले संघर्ष की अनूठी परंपरा थी। इसके तहत फसल काटने के बाद नये अनाज को खुद के प्रयोग में लाने से पहले क्षेत्र के ग्रामीण भोग के रूप में आदिबदरी मंदिर में चढ़ाने आते थे। गांव-गांव से भोग चढ़ाने के लिए ग्रामीण ढोल-नगाड़ों के साथ उत्सव मनाने के लिए टोलियों में आते थे। इसके बाद आदिबदरी धाम के प्रांगण में पहले पूजा करने को शुरू होता था खूनी संघर्ष। यह संघर्ष न सिर्फ पूजा, बल्कि सम्मान के लिए भी किया जाता था। मुख्यरूप से खेती, रंडोली, पिंडवाली, डांडा मज्याड़ी, आली सहित क्षेत्र के अन्य गांवों के ग्रामीण शामिल होते थे। लाठी-डंडों के साथ-साथ पत्थर बाजी भी इस संघर्ष में की जाती थी। स्थानीय निवासी बसंत शाह बताते हैं कि दशकों पूर्व आदिबदरी धाम में होने वाले नौठा कौथिग में शामिल होने वाले दर्जनों गांवों के ग्रामीण हाथ में लाठी-डंडा ही नहीं, बल्कि सर पर लोहे की कढ़ाई या मोटे कपड़े की पगड़ी बांधकर आते थे। उनका कहना है कि अब खूनी संघर्ष तो नहीं होता, लेकिन नये अनाज के भोग चढ़ाने व मेले के आयोजन की परंपरा आज भी जारी है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में मंदिर प्रांगण में पूजा अर्चना के साथ-साथ यहां पहुंचने वाले ग्रामीणों की टोली प्रतीकात्मक युद्ध कला दिखाने के बाद पांडव नृत्य प्रस्तुत करते हैं। 66 वर्षीय नरेन्द्र चाकर का कहना है कि अब नौठा कौथिग में रंडोली, खेती व पिंडवाली के ग्रामीण ही प्रतिभाग करते हैं।
 
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6417580.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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धान की रोपाई अनुष्ठान है यहां
                नई टिहरी गढ़वाल। धान की रोपाई का तरीका देश में एक जैसा है। कई   स्थानों पर इसे पूजा-अर्चना के साथ किया जाता है। उत्तराखंड राज्य के टिहरी   जनपद के मलेथा में पंचांग के मुताबिक धान रोपाई के लिए विधिवत ढंग से दिन   निकाला जाता है और समापन पर पशु बलि दी जाती है।
 कीर्तिनगर ब्लाक मुख्यालय से महज तीन किमी दूरी पर ऋषिकेश-बदरीनाथ मोटर   मार्ग पर बसा हैे गांव मलेथा।  वीर शिरोमणि माधो सिंह भंडारी की कर्म   स्थली मलेथा में पिछले कई सदियों से धान की रोपाई अपने आप मिसाल है। इस   गांव में वर्षो से यह परंपरा है कि धान की रोपाई से पूर्व ग्रामीण गांव की   राशि के आधार पर पंचांग से रोपाई शुरू करने के लिए दिन निकालते हैं।   नागराजा देवता को मानने वाले मलेथावासी दिन निकल आने पर सबसे पहले एक खेत   में नागराजा देवता की  सामूहिक रूप से पूजा अर्चना के साथ रोपाई का   श्रीगणेश करते हैं। परंपरा बनी हुई है कि इस खेत में रोपाई के बाद ग्रामीण   फिर अपने-अपने खेतों में रोपाई का काम प्रारंभ करते हैं। इसके बाद पाटा का   बौलू नामक तोक में स्थित गांव के अंतिम खेत में रोपाई के दिन समापन पर बकरे   की बलि देने के बाद रोपाई का विधिवत ढंग से समापन किया जाता है। बुजुर्गो   के अनुसार मलेथा गांव में एक समय में सिंचाई का कोई विकल्प न होने पर यहां   पर माधो सिंह भंडारी ने छेंडाधार के पहाड़ पर सुरंग गूल बनाकर चन्द्रभागा   नदी से मलेथा के खेतों में पानी लाने की व्यवस्था सोची। इसके बाद उन्होंने   पहाड़ को खोदकर अंदर ही अंदर गूल (सिंचाई की छोटी नहर) बनाने में सफलता भी   हासिल कर ली, लेकिन इसके बाद भी इस गूल में पानी नहीं आया। ग्रामीणों में   मान्यता है कि जब भंडारी द्वारा बनाई गई गूल में पानी नहीं आया तो एक रात   माधो सिंह के सपने में देवी मां आई और बताया कि जब तक वह नरबलि नहीं देंगे   तब तक गूल में पानी आगे नहीं बढ़ेगा। कहा जाता है कि देवी मां के इस संदेश   के बाद भंडारी ने जहां से गूल शुरू होती है वहां पर अपने बेटे की बलि दी   थी। बताया जाता है कि आज जिस खेत में ग्रामीण रोपाई का समापन करते हैं उसी   खेत में बलि के बाद भंडारी के बेटे का सिर पानी में बहकर आया था। इसके बाद   ही समापन पर तब से अब तक यह परंपरा चली आ रही है और इस खेत में बकरे की बलि   दी जाती है और बलि के बाद बकरे का मांस पूरे गांव में प्रसाद के तौर पर    बांटा जाता है।
 यदि मलेथा के खेतों को इस गूल से पानी नहीं मिलता तो आज यह खेत सोना   नहीं उगल रहे होते। आज भी दूर से देखने पर ही मलेथा के यह खेत हर किसी का   मन मोह लेते हैं। यात्रा सीजन में तो बाहर से आने वाले तीर्थ यात्री व   पर्यटक भी मलेथा में रुककर कुछ देर  हरियाली से भरे खेतों को निहारते देखे   जा सकते हैं। 
   Source : Dainik Jagran

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यहां गुफा में विराजते है ऋषि

                उत्तरकाशी। गंगा भागीरथी के तट पर सदियों से  आध्यात्म की धारा प्रवाहित होती रही है। ऋषियों व संतों की यह परंपरा  वैदिक काल से लेकर आज तक कायम है। यहां संत चढ़ावे वाले समृद्ध मठ मंदिरों  और अखाड़ों में नहीं, बल्कि गुफा और कुटिया में विराजते हैं।
 गंगा भागीरथी को भारतीय धर्म और संस्कृति की पोषक ऐसे ही नहीं कहा  जाता। इस पवित्र नदी के उद्गम क्षेत्र में प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों  ने तप कर देश और दुनिया को सनातन धर्म की महत्ता से परिचित कराया।  मार्कण्डेय, पाराशर, जमदग्नि व जहन्नु जैसे ऋषियों के तप की कथाएं और उनसे  जुड़े साक्ष्य आज भी इस क्षेत्र में मौजूद हैं। बीसवीं सदी के मध्यकाल तक  स्वामी रामानंद, स्वामी चिन्मयानंद, स्वामी विज्ञानानंद, स्वामी राम,  स्वामी विश्वानंद व स्वामी शिवानंद आदि इसके वाहक बने।
 उल्लेखनीय है कि इन संतों ने भारतीय धर्म, संस्कृति व प्राच्य  विद्याओं को बदलती दुनिया में खास पहचान दिलाई। ज्ञानसू स्थित ज्ञान मंदिर  का नाम संतों की तपस्थली होने के कारण ही पड़ा। सदियों के अंतर को पार करती  हुई अध्यात्म की यह धारा आज भी उसी वेग से प्रवाहित हो रही है। उत्तरकाशी  से लेकर गंगोत्री व गोमुख तक ऐसे अनेक संत देखे जा सकते हैं। इनमें  उत्तरकाशी में केदारघाट के समीप स्वामी भगवानदास, गंगोरी में स्वामी  हरिदास, गंगोत्री में स्वामी सुंदरानंद, तपोवनी माई व मुन्नी माई आदि  प्रमुख नाम हैं। जब गंगोत्री धाम बर्फ से पूरी तरह ढक जाता है तब भी इन  संतों और उनके शिष्य वहां साधनारत देखे जा सकते हैं। आदि काल से चली आ रही  यह परंपरा को निभाते चले आ रहे संतों में अनेक संत उच्च कोटि के विद्वान,  शिक्षाविद व सरकार के उच्च पदों पर भी रहे हैं।

DAINIK JAGARAN

   

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भगवान की स्तुति के साथ हुड़किया बौल से हो रही है रोपाई  बागेश्वर। कुमाऊं की संस्कृति व समाज अपने आप में अलग पहचान बनाए हुए है। यहां की संस्कृति की विशेषता को समेटे लोकगीतों, झोड़ा, चाचरी, न्यौली का आनंद मनोरंजन के रूप में लिया जाता है ऐसा ही काम करते-करते मनोरंजन का एक साधन है हुड़किया बौल। इसे आम तौर पर धान की रोपाई के वक्त लगाया जाता है। लेकिन असोज माह में भी घास की कटाई व मडुवा गुड़ाई में इसका आयोजन किया जाता है। इन दिनों गरुड़ के कई गांवों में इसका आयोजन किया जा रहा है।
क्षेत्र के काश्तकारों को सिंचाई विभाग समेत प्रशासन व जन प्रतिनिधियों ने सिंचाई के लिए कोई सहयोग नहीं किया तो काश्तकारों ने खुद ही नदियों से पानी खींचकर रोपाई का कार्य प्रारम्भ कर दिया है। कई जगहों में हुड़किया बौल लगने लगा है। धान की बुवाई में प्रात:काल पौध निकालकर उसे खेत में रोपने का क्रम चल पड़ा है। जनपद की कत्यूर घाटी में इन दिनों प्रात:काल से ही हुड़किया बौल के बोल सुनाए पड़ रहे है। हुड़किया बौल में कत्यूरी शासक राजा विरम की कहानी बताई जाती है। राजा विरम की राजधानी बैजनाथ के तैलीहाट गांव के पास थी उसकी रिश्तेदारी चौखुटिया में कठैत ठाकुरों से थी। एक बार बैजनाथ में रोपाई के लिए राजा ने गैवाड़ से रिश्तेदारों को बुलाया उनमें आई एक महिला राजा को भा गई। रोपाई के बाद सभी महिलाएं वापस गई परंतु राजा को उस महिला की याद सताने लगी तो वह गैवाड़ चल दिया। द्यौनाई के पास राजा का घोड़ा रुक गया जब घोड़ा मशक्कत के बाद भी नहीं चला तो राजा ने घोड़े का सर कलम कर दिया जिसका शिला के रूप में अब भी प्रमाण मौजूद है। राजा पैदल ही गैवाड़ पहुंचा जहां राजा को मार दिया गया। इसके बाद गायक अपने क्रम को अचानक बदल देता है जिससे महिलाएं पुन: कार्य के प्रति जागरूक हो जाती है और काम में लग जाती हैं। हालांकि अब हुड़किया बौल की परम्परा धीरे धीरे कम होती जा रही है जिसके संरक्षण के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे।
 
Source : Dainik Jagran

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          देव मिलन के साक्षी बने सैकड़ों लोगनई टिहरी, जागरण कार्यालय: वर्षो से चली आ रही परम्परा के अनुसार तीन   साल बाद जब दल्ला गांव का कुल देवता नागराजा बाहर निकला तो क्षेत्र में   श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़ा। इस अवसर पर अन्य गांवों के देवी-देवता भी यहां   पहुंचे। एक सप्ताह तक चलने वाले इस धार्मिक मेले में देवी-देवताओं की डोली व   निशान को नचाया जाएगा। देव-मिलन की इस अनूठी परम्परा के सैकड़ों लोग साक्षी   बने।
टिहरी जनपद के  भिलंगना ब्लाक के दल्ला गांव में नागराजा ग्रामीणों का   ईष्ट देव है जिसे क्षेत्र के देवी-देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।   नागराजा का निशान हर तीसरे साल बाहर निकाला जाता है। रविवार को सुबह विधिवत   पूजा-अर्चना कर नागराजा के निशान को बाहर निकाला गया। इस अवसर पर क्षेत्र   के सात गांवों के देवी-देवताओं व उनके पश्वा भी दल्ला गांव पहुंचे, जहां   ग्रामीणों ने उनका भव्य स्वागत किया गया। बाद में ग्रामीणों ने देवताओं को   नचाया। इस अवसर पर पांडव नृत्य का भी आयोजन किया गया।
 इस धार्मिक आयोजन पर रोजगार के लिए महानगरों में रहने वाले लोग व   धियाणियां  भी विशेष रूप से गांव आती हैं। नागराजा के पुजारी सुंदरलाल   रतूड़ी का कहना है कि वर्षो पूर्व सेम-मुखेम के ग्रामीण अपने निशान को   बदरीनाथ ले गए थे और वापसी के दौरान उन्होंने दल्ला गांव में विश्राम किया।   बाद में निशान जमीन से उठा ही नहीं और वहीं पर जम गया। तब से आज तक यह   दल्ला गांव में ही है और असली नागराजा का निशान यही है। इसकी खासियत यह है   कि पुजारी के अलावा इस निशान को कोई उठा नहीं सकता है। गांव के क्षेत्र   पंचायत सदस्य रजनी नेगी, विनोद रतूड़ी, चन्द्रवीर का कहना है कि मंदिर के   सौंदर्यीकरण व मेले के भव्य आयोजन के लिए पर्यटन व सरकार को पहल करनी   चाहिए।
एक गागर पानी पी जाता है पश्वा
नई टिहरी : हर तीसरे साल जब नागराजा देवता के निशान को बाहर निकाला जाता   है तो देवता के पश्वा को अवतरित किया जाता है। इस दौरान पश्वा एक गागर   पानी व कई सेर कच्चा दूध पी जाता है। इस दृश्य को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो   जाते हैं।
परियों से छीना था धूप-दीपक पात्र
नई टिहरी : नागराजा देवता को धूप-दीप दिखाने का जो पात्र है वह भी अनूठा   है। इस पात्र की तरह बना अन्य कोई पात्र क्षेत्र में कहीं नहीं है और न ही   अब तक इस तरह की बनावट गढ़वाल में कही देखी गई। किवदंति है कि यह पात्र   आक्षरियों (परियों) से छीना गया था। तब से अब तक इसी पात्र में धूप जलाकर   नागराजा को अवतरित किया जाता है।
   

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कदली वृक्ष लाने को छानी-ल्वेशाल रवाना हुआ दल
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अल्मोड़ा: उत्तराखण्ड की अराध्य व चंदवंशीय राजाओं की कुलदेवी मां नंदा-सुनंदा की मूर्ति निर्माण के लिए कदली वृक्ष लाने के लिए मेला समिति के सदस्यों का दल दोपहर छानी-ल्वेशाल के लिए रवाना हुआ। रवाना होने से पूर्व मां नंदादेवी मंदिर में पूजा-अर्चना की गई।

सर्वप्रथम सफेद व लाल ध्वजों का पूजन कदली वृक्ष लाने वाले दल के नेतृत्व के रूप में किया गया। अक्षत, चंदन, पिठावां, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से अर्चन किया गया। उसके बाद परंपरागत वाद्य यंत्रों ढोल, नगाड़ों, तुरई, नरसिंग का उद्घोष, शंख, घंट ध्वनि के साथ नंदा-सुनंदा मैया की जयकार के साथ यात्रा का शुभारंभ किया गया। यात्रा नंदादेवी मंदिर परिसर से शुरू होकर लाला बाजार से लोहा शेर की सीढि़यों से उतरते हुए राज परिवार के जगदम्बा मंदिर के दर्शन के बाद आगे की यात्रा शुरू की गई।

उल्लेखनीय है कि कदली वृक्ष को लाने वाला दल गोधूलि काल में छानी-ल्वेशाल गांव पहुंचकर उन कदली वृक्षों का पूजन, अर्चन कर न्यौता दिया जाएगा कि सप्तमी की प्रात: ससम्मान मां नंदा-सुनंदा की मूर्ति निर्माण के लिए आपको अल्मोड़ा ले जाया जाएगा। परंपरा के अनुसार कदली वृक्ष को न्यौता देते वक्त अक्षत कदली वृक्षों में फेंके जाते हैं, जो-जो वृक्ष हिला उसे स्वीकृति मानकर रोली, चंदन लगाकर चिह्नित किया जाता है। प्रात: उन्हीं को काटकर लाया जाता है।


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सिर्फ अष्टमी ही मनाते हैं जौनसारी
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पूरे देश में जहां नवरात्र में नौ देवियों की पूजा नौ दिनों तक बड़ी श्रद्धा, सादगी और निर्मल मन से की जाती है, वहीं जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर में नवरात्र में केवल अष्टमी ही मनाते है। इस क्रम में श्रद्धालुओं ने व्रत रखकर मां काली की पूजा की। पूजा में घर के मुखिया का शामिल होना अनिवार्य है। जौनसार की स्थानीय भाषा में इसे आठों पर्व कहा जाता है।

जौनसार बावर में पूरे नवरात्र नहीं मनाए जाते, अष्टमी यानि आठों के दिन पूजा अर्चना करने का रिवाज सदियों से है। इस दिन परिवार का मुखिया और उसकी पत्‍‌नी सुबह से ही व्रत रखकर मां काली की पूजा करते हैं। अष्टमी का पहला व्रत रखने वाले को एक बकरी की बलि काली मां को जरूर देनी पड़ती है। मान्यता है कि बलि दिए बिना व्रत सफल नहीं माना जाता। उसके बाद हर वर्ष आठों पर्व पर अष्टमी की पूजा करनी अनिवार्य है। शाम ढलते ही व्रत रखने वाले साफ सुथरे कपड़े पहनते हैं। आठो में देवी मां को कचौरी और हलवा का भोग लगाकर पूजा अर्चना की जाती है। पर्व पर परिवार के सदस्य दूध और चावल का टीका लगाते हैं। अष्टमी के दूसरे दिन गांव में लोग एक दूसरे को चाय पर बुलाते हैं, जिसको हेला कहा जाता है। उसके बाद चाय और मदिरा का लुत्फ उठाया जाता है।

रात्रि भोज में मांस

अष्टमी यानि आठो के दिन गांव में सामूहिक बकरा काटकर मांस बांटने का रिवाज है। जिसे रात्रि भोज में परोसा जाता है। अगर सामूहिक बकरा नहीं काटा जाता तो ज्यादातर लोग अपने नजदीकी बाजार से मांस या मछली खरीदकर लाते हैं और रात्रि भोज में पूरा परिवार चाव के साथ खाता है। आठो पूजन करने के बाद मांस या मछली खाने में कोई मनायी नहीं है।

बढ़ जाते है मीट के दाम

अष्टमी यानि आठो के दिन साहिया बाजार में मांस और मछली की बिक्री अन्य दिनों के मुकाबले ज्यादा होती है। बकरे का मीट दो सौ रुपये प्रति किलो व मछली अस्सी से एक सौ दस रुपये किलो तक बिक जाती है।

(Source Dainik Jagran)

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सरस्वती के घर लक्ष्मी का इंतजार
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: कहते हैं कि धन की देवी लक्ष्मी का विद्या की देवी  सरस्वती से वैर है, लेकिन रुद्रप्रयाग में तो सरस्वती के घर यानि  पुस्तकालय को बाकायदा लक्ष्मी का इंतजार है। अब लक्ष्मी के रूप में बजट आए  तो इस लाइब्रेरी के ताले खुलने, नई किताबें आने और स्टाफ की तैनाती हो  सकेगी। छह साल पहले स्थापित लाइब्रेरी की इस दशा से पाठक मायूस हैं, जबकि  शिक्षा विभाग लाचारी दिखा रहा है।
स्कूली छात्रों सहित स्थानीय लोगों के ज्ञानव‌र्द्धन पठन-पाठन की  अभिरुचि बढ़ाने के लिए रुद्रप्रयाग जिला मुख्यालय पर एक सामुदायिक  पुस्तकालय की स्थापना हुई थी। वर्ष 2001 में शिक्षा विभाग ने सांसद निधि  से लाइब्रेरी भवन का निर्माण करवाया था। चूंकि लाइब्रेरी के लिए स्टाफ आदि  की तैनाती नहीं हो सकी थी। इसलिए तीन साल तक इस भवन को जिला सूचना  कार्यालय के तौर पर इस्तेमाल किया गया। इसके बाद छात्र-छात्राओं व स्थानीय  जनता की मांग और दबाव को देखते हुए शिक्षा विभाग ने वर्ष 2004 में इस भवन  में विधिवत पुस्तकालय का संचालन शुरू करा दिया। चूंकि शासन से लाइब्रेरी  के लिए कोई बजट नहीं मिला था। ऐसे में स्थानीय जनप्रतिनिधियों के दबाव में  शिक्षा विभाग ने किताबें तो विधायक निधि से मंगवा लीं और एक विभागीय लिपिक  को ही लाइब्रेरी की व्यवस्था पर तैनात कर दिया।
इस दौरान पाठकों ने लाइब्रेरी का लाभ उठाया। उस समय यहां पर समाचार  पत्र और मैग्जीन आदि नियमित तौर पर आया करती थीं। करीब डेढ़ साल तक ही यह  व्यवस्था चली, उसके बाद विभाग के लिपिक ने भी लाइब्रेरी में बैठना बंद कर  दिया। सो लाइब्रेरी की देखभाल का जिम्मा एक पीआरडी जवान के सिर आ गया। इस  सूरत में अब यह लाइब्रेरी कभी कभार खुलती है वर्ना यहां ताले ही लटकते  दिखाई देते हैं। पुस्तकालय की इस दुर्दशा से स्थानीय पाठक बेहद मायूस हैं,  लेकिन शिक्षा विभाग के अधिकारी कोई पहल नहीं करना चाहते। ऐसे में विभाग की  ओर से न तो कोई बजट ही मिल रहा है, न ही पुस्तकालय अधीक्षक, लिपिक और  चतुर्थ श्रेणी के स्वीकृत पदों पर कोई तैनाती ही हो रही है।
'पुस्तकालय के संचालन के लिए पर्याप्त धन होना जरूरी है, लेकिन इस मद  में शासन से आज तक कोई बजट नहीं मिला। भवन सांसद निधि से बन गया था और  विधायक निधि से मिले 17 हजार रुपयों से एक बार किताबें आ गई थीं। इसलिए अब  शासन से बजट मिलने पर ही कुछ किया जा सकता है।'

   
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6837712.html

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कलश यात्रा से किया जाग्रत
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वेदमूर्ति तपोनिष्ट पंडित श्रीरामशर्मा आचार्य की जन्म शताब्दी की पूर्व बेला पर गोपेश्वर में दो दिवसीय राष्ट्रीय जागरण दीप महायज्ञ का शुभारम्भ हुआ। महायज्ञ के पहले दिन नगर में कलश यात्रा निकालकर लोगों को राष्ट्रहित के लिए जाग्रत किया गया।

गायत्री परिवार ट्रस्ट गोपीनाथ मंदिर प्रांगण में राष्ट्रीय जागरण दीप महायज्ञ का आयोजन कर रहा है। शुक्रवार को यज्ञ की शुरुआत कलश यात्रा से की गई। नगरपालिका गोपेश्वर के अध्यक्ष प्रेमबल्लभ भट्ट ने गोपीनाथ मंदिर प्रांगण से कलश यात्रा को रवाना किया। यात्रा मंदिर प्रांगण से मुख्य बाजार, बस स्टेशन होते हुए पुलिस मैदान से वापस लौटी। ट्रस्ट के प्रतिनिधि गंभीर सिंह फरस्वाण ने बताया कि इस दो दिवसीय राष्ट्रीय जागरण दीप महायज्ञ के आयोजन का मकसद राष्ट्र को समर्थ एवं सशक्त बनाने के लिए लोगों को वैज्ञानिक व आध्यात्मिक प्रयोग से जाग्रत करना है। कलश यात्रा के आयोजन में पीएस राणा, लक्ष्मी प्रसाद मलगुड़ी, ओमप्रकाश भट्ट, दिनेश खाली, सुरेन्द्र सिंह लिंगवाल आदि का सहयोग रहा।

उधर, मानव उत्थान सेवा समिति के तत्वावधान में 31 अक्टूबर को विश्व शांति सद्भावना यात्रा के साथ-साथ मानव उत्थान सेवा समिति आश्रम में सत्संग समारोह का आयोजन किया जायेगा।

मानव उत्थान सेवा समिति के शाखा प्रबंधक महात्मा रुद्राक्षानंद ने बताया है कि आगामी 31 अक्टूबर को प्रात: 11 बजे सद्भावना यात्रा का शुभारंभ गोपीनाथ मंदिर प्रांगण से किया जाएगा, जो कि नगर के विभिन्न हिस्सों बस स्टैंड , पुलिस लाईन बैंड व डिग्री कालेज होते हुए बस स्टैंड , पुलिस लाईन बैण्ड व डिग्री कालेज, नैग्वाड़ होते हुए मानव उत्थान सेवा समिति आश्रम सुभाषनगर ,में पहुंचेगी।सद्भावना यात्रा के आश्रम पहुंचने के पश्चात सायंकाल एक से तीन बजे तक सत्संग समारोह का आयोजन किया जाएगा, सत्संग में वक्ताओं द्वारा सर्वधर्म ग्रंथों पर आधारित प्रवचन देंगे।

Jagran news

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                तीर्थनगरी में पड़ी थी उल्लू पूजन की नींव
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भले ही अन्य स्थानों पर दीपावली की अमावस्या की रात उल्लू के लिए काल  की काली रात होती हो, लेकिन तीर्थनगरी की पावन धरा पर उल्लू की सदियों से  पूजा होती आ रही है। उल्लू पूजन की परंपरा की नींव भी इसी पावन धरा पर रखी  गई। खास बात यह है कि यहां उल्लू की बलि नहीं बल्कि इसके संरक्षण का संदेश  दिया जाता है। इस अनोखी परंपरा को सदियों से तीर्थनगरी के गौतम गोत्र के  वंशज संजोए हुए हैं।

 
शास्त्रों में उल्लू को लक्ष्मी का वाहन बताया गया है। हालांकि उल्लू  के विचित्र आकार एवं रात्रिचर होने से लोगों में इसको को लेकर तरह-तरह की  भ्रांतियां भी व्याप्त हैं। आमतौर पर उल्लू के रुदन करने और घर या पेड़ की  डाल पर बैठने को अपशकुन माना जाता है। तांत्रिक विद्या में उल्लू की बलि  देने की प्रथाएं भी प्रचलन में हैं। कई स्थानों पर तो दीपावली की अमावस्या  की रात को लक्ष्मी पूजन के साथ ही उल्लू की बलि दी जाती है। इसके इतर  तीर्थनगरी में दीपावली पर उल्लू पूजन किया जाता है।

 बताया जाता है कि गौतम  ऋषि ने तीर्थनगरी में ही उलूक तंत्र की संरचना की थी। इसके पीछे मान्यता  है कि तीर्थनगरी में राजा दक्ष ने यज्ञ आयोजित कर शिव को नहीं बुलाया। इस  यज्ञ को गौतम वंशज के पुरोहितों ने ही किया था, जिस पर शिव के साथ-साथ  विष्णु भगवान भी क्रोधित हुए थे। कहते हैं कि इस पर विष्णु भगवान ने समस्त  ब्राह्मणों को विद्याविहीन होने का श्राप दे दिया। इससे नाराज होकर भृगु  ऋषि ने विष्णु की छाती पर पांव रखा, जिस पर लक्ष्मी ने रुष्ट होकर  ब्राह्मणों को धन-धान्य से भी वंचित होने का अभिशाप दिया।

ब्राह्मणों को  इस अभिशाप से बचाने के लिए तीर्थनगरी में गौतम ऋषि ने उलूक तंत्र बनाया।  अपने वाहन का तंत्र बनने से विष्णु भगवान व लक्ष्मी दोनों ने प्रसन्न होकर  ब्राह्मणों को श्राप से मुक्तकिया था। इसी मान्यता को साक्षी मानकर गौतम  गोत्र के वश्ाज आज भी दीपावली पर उल्लू की विशेष पूजा करते हैं। इसके  अलावा अन्य शुभ कार्याें में भी उल्लू की पूजा की जाती है। कई साल से गौतम  गोत्र के वंशज दीपावली पर उल्लू को पकड़कर घर में उसकी पूजा करते हैं।

 पूजा-अर्चना के क्रम में उल्लू को गंगाजल से स्नान करवाकर उसके सिर पर  तिलक करते थे। इसके बाद उल्लू के पांव में घुंघरू बांधकर छोड़ दिया जाता  था। कालांतर में काष्ठ से निर्मित उल्लू की ही पूजा होने लगी। अब दीपावली  के पर्व पर संध्याकाल में गौतम गोत्र के वंशज लक्ष्मी के साथ उल्लू की भी  पूजा करेंगे।इनसेट.यहां होती है पूजातीर्थनगरी में गौतम गोत्र के वंशज दीपावली पर उल्लू की पूजा करते हैं। 

मुख्य रूप से ज्वालापुर, कनखल, बड़ा बाजार, पीठ बाजार क्षेत्रों में उल्लू  की पूजा होती आ रही है। इनसेट.उल्लू को पकड़ना भी अपराध उल्लू पक्षी के संरक्षण के लिए वन विभाग गंभीर है। वन्य जीव संरक्षण  अधिनियम 1972 (संशोधित-2006) के तहत बाघ, गुलदार समेत अन्य वन्य जीवों की  तरह ही उल्लू पक्षी के शिकार को अपराध माना गया है। शेड्यूल वन में  फॉरेस्ट स्पॉटेड आउल्ड शामिल हैं, जबकि अन्य उल्लू भी संरक्षित श्रेणी में  हैं। इन्हें शेड्यूल चार में शामिल किया गया है।

 शेड्यूल वन में शामिल  उल्लू के शिकार या बंधक बनाने पर तीन से सात साल की सजा का प्रावधान  अधिनियम में है। शेड्यूल चार में शामिल उल्लू के शिकारी या किसी अन्य के  पास से पकड़े जाने पर वन विभाग अपराध की नीयत को देखते हुए व्यक्ति विशेष  के विरुद्ध या तो जुर्माना कर सकता है या फिर उसे जेल भेज सकता है। ''उल्लू लक्ष्मी की सवारी है।

धन-धान्य की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी की  पूजा की जाती है, लेकिन उल्लू के बिना लक्ष्मी की कृपा कैसे होगी। गौतम  गोत्र के वंशज इस परंपरा को जीवित रखकर उल्लू के संरक्षण का भी संदेश देते  हैं।''-रामकुमार मिश्रा, अध्यक्ष, श्री गंगा सभा ''उल्लू को लेकर लोगों में गलत अवधारणाएं हैं।

जो पक्षी लक्ष्मी का  वाहन हो, वह अशुभ कैसे हो सकता है। उल्लू के बिना तो लक्ष्मी की पूजा  अधूरी है। तीर्थनगरी की उल्लू पूजन की इस परंपरा को विस्तारित करने की  जरूरत है।''
       

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6875530.html

 

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