यहां महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है | कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गये थे इस कारण वहां दीवाली नहीं मनायी गयी जब वह युद्ध जीतकर आया तो खुशी में ठीक एक महीने के बाद दीवाली मनायी गयी और यही परंपरा बन गयी |
कारण कुछ भी हो लेकिन यह दीवाली जिसे यहां नयी दीवाली भी कहा जाता है जौनसार-बावर के चार-पांच गांवों में मनायी जाती है वह भी महासू देवता के मूल हनोल व अटाल के आसपास| यहां एक परंपरा और है कि महासू देवता जो हमेशा भ्रमण पर रहते हैं तथा अपने निश्चित ग्रामीण ठिकानों में 10-12 सालों के बाद ही पहुंच पाते हैं, जिस गांव में महासू देवता विश्राम करेंगे वहां उस साल नयी दीवाली मनायी जायेगी, बाकी संपूर्ण क्षेत्र में बूढी दीवाली ही मनायी जायेगी|
वैसे तो एक महीने बाद, मार्गशीष, अमावस्या को मनायी जाने वाली दीवाली उत्तराखंड के कई क्षेत्रों, यहां से लगे टिहरी के जौनपुर ब्लॉक, थौलधार, प्रतापनगर, उत्तरकाशी के रवांई, चमियाला, रूद्रप्रयाग तथा कुमाऊं के कई ईलाकों में मनायी जाती है| अन्य जगहों में दीवाली मनाने के जो भी कारण हों यहां बिल्कुल भिन्न हैं|
यहां की दीवाली में न पटाखों का शोर, न बिजली के बल्बों व लडियों की चकाचौंध, न ही मोमबत्तियों की जगमगाहट बल्कि बिल्कुल सामान्य तरीके से यहां आज भी दीवाली मनायी जाती है|
यह त्यौहार वैसे तो अमावस्या से जुडा है पर इसकी शुरूआत चतुर्दशी की रात से ही हो जाती है| इस रात सारे गांव के लोग एक निश्चित जगह पर इकट्ठे होते हैं वहां पर, ब्याठे भीमल की छाल उतरी डंडिया. जलाकर पारंपरिक गीत गाते हैं जिन्हें 'हुलियत' कहा जाता है| बाजगी, गांव में ढोल बजाने वाला, अपने घर में कई दिन पहले जौ बोकर हरियाली तैयार करता है जिसे स्थानीय लोग " दूब " कहते हैं|