जौनसार और रवांई क्षेत्रों मैं शान से होती है अंतिम विदाई
मानव जीवन में बच्चे के जन्म के बाद कई ऐसे मौके आते हैं, जब जश्न का माहौल बनता है, लेकिन जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो वह अपने पीछे मातम मनाते परिजनों, रिश्तेदारों को छोड़ जाता है। सामान्यत: जीवन के इस अंतिम सत्य को दुखदायी माना जाता है, लेकिन उत्तराखंड के सुदूरवर्ती अंचल में बसे कुछ लोगों के लिए मौत महज आंसू बहाने की वजह नहीं है।
उत्तरकाशी जिले के रवांई जौनसार इलाके और टिहरी जिले के जौनपुर व में रोने-धोने की बजाय परिजन मृतक की शानदार अंतिम यात्रा निकालते हैं। मृत्यु को मनुष्य जीवन के संकटों से पीछा छूटने का जरिया मानने वाली सदियों पुरानी परंपरा के तहत यहां के लोग मृतक को पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ अंतिम विदाई देते हैं।
रवांई क्षेत्र के विकासखंडों पुरोला मोरी और नौगांव के पट्टी कमल सिंराई, रामा सिंराई, आराकोट, पंचगांई, बडासू, सिंगतूर, अडोर, फते पर्वत, बनाल, ठकराल, मुगरसंती, बड़कोट तथा जौनपुर की दो पट्टियों अलगाड़ व सिलवाड़ सहित जौनसार बावर क्षेत्र के कुछ भागों में रहने वाले हजारों ग्रामीण सदियों से इस परंपरा का निर्वाह करते आ रहे हैं।
इसके तहत गांव के किसी की मृत्यु होने पर रोने-धोने की बजाय, उसकी शानदार अंतिम विदाई देने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। शव के लिए देवदार की लकड़ी से खास डोली तैयार कर उसे रंग बिरंगी फूल मालाओं से सजाया जाता है। मृतक के रिश्तेदार शव के लिए कफन, धूपबत्ती आदि लाते हैं। इसके बाद शव को डोली में रखा जाता है। इस दौरान क्षेत्र के कई गांवों से दर्जनों बाजगी या जुमरिया ढोल, दमाऊ व रणसिंघा जैसे वाद्ययंत्र लेकर मृतक के गांव के बाहर एक विशेष स्थान पर इकट्ठा हो जाते हैं।
गांव से शवयात्रा जब इस स्थान पर पहुंचती है, तो रिश्तेदार डोली के ऊपर रुपये उछालते हैं। जैसे ही मुख्य बाजगी यह रुपये उठाता है, एक साथ दर्जनों ढोल, नगाड़े, दमाऊ व रणसिंघा बजने लगते हैं। इसके बाद शवयात्रा शुरू होती है। रास्ते भर परिजन मृतक के हिस्से का खाद्यान्न, सेब, मूंगफली, दाल, मिर्च, अखरोट आदि बिखेरते हुए चलते हैं। मान्यता है कि यह सामग्री जानवरों व चिड़ियों के खाने से मृतक को पुनर्जन्म तक भोज्य मिलता रहेगा।