चूंकि उत्तराखंड में किसी भी अनाज की फसल साल में एक ही बार होती है, तो मंडुए को इतनी मात्रा में उगाना आवश्यक है कि इसके आटे की , दाने की, बिक्री साल भर होती रहे। निरंतर उपलब्धि से, बिक्री के व्यापारिक सम्बन्ध बने रहते हैं, और आपूर्ति में व्यवधान के कारण टूट गए/ठन्डे पड़ गए संबंधों को या नए सम्बन्ध बनाने के झंझट से बचाव भी रहता है। उदाहरण के लिए अगर किसी क्षेत्र से मंडुए की मांग , ५ क्विंटल प्रति दिन है, तो उत्पदान इसका ३६५ गुना यानी १,८२५ (२,०००) क्विन्टल मन्डुवे का उत्पादन वंचित है. मान लें की प्रति किसान उत्पादन २० क्विंटल होता है , तो इस व्यवसाय के लिए १०० किसानों को सामूहिक रूप से जुड़ने से ही यह व्यवसाय सफल होगा।
बाजार में मंडुए के आटे का भाव २०/- प्रति किलो है। अगर, लदाई, ढुलाई, पिसाई और पकेजिंग ( एक एक किलो के पॉलिथीन के थैले) की लागत ८/- प्रति किलो आती है तो मडुवा उत्पादक को, १२/- प्रति किलो के हिसाब से २० क्विंटल का मूल्य २४,०००/- रुपया मिल सकता है, अगर सारे उत्पादक अपनी कृषि उत्पादक कम्पनी को नए कम्पनी नियम भाग IX A के अंतर्गत पंजीकृत करा लें और उत्पादन से लेकर बिक्री तक का काम स्वयम अपनी कम्पनी द्वारा संचालित कर सकें तो पूर लाभ उनका अपना होगा। जितने बिचौलिये उनके और उपभोक्ताओं के बीच लाये जायेंगे , वे अपना हिस्सा इसी मुनाफे से काटेंगे और किसानो के हिस्से से उतना लाभ कम हो जाएगा। यही वोह बिचौलियों का लालच है जिसके कारण उपभोक्ता के खर्च किये हुए रूपये का केवल २० -२५ पैसे ही उपभोक्ता तक पहुन्चते हैं, और वे उत्पादन बढ़ाने में की हित नहीं पाते। इस लिए सामूहिक खेती से ले कर भण्डारण, पिसाई और विक्री के सारी काम भी आसान हो जाते हैं।
By Dr Balbir Rawat