Author Topic: Our Dream Distric New Tehri Uttarakhand,सपनों के शहर में अपनों की तलाश  (Read 10832 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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प्यासे गाँव-प्यासे शहर

नई टिहरी शहर के लोगों को लगभग पूरा टिहरी बाँध अपने घरों से दिखाई पड़ता है. पानी का अथाह भंडार. लेकिन वह पहाड़ पर बसे उनके इन नए शहर से कोई 20 किलोमीटर नीचे है.और यही समस्या की जड़ है. जहाँ बाँध का पानी है वह 800 मीटर की ऊँचाई पर है और जो नई टिहरी शहर है वह 2000 मीटर की ऊँचाई पर है.

टिहरी बाँध के निर्माण के साक्षी रहे सामाजिक कार्यकर्ता और स्थानीय कॉलेज में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर महिपाल सिंह नेगी कहते हैं कि इतना पानी ऊपर चढ़ाने के लिए अलग-अलग ऊँचाई पर पाँच पंप लगाए गए हैं.

वे बताते हैं कि इन पंपों में से एक भी अगर ख़राब हो गया तो शहर को पानी मिलना दूभर हो जाता है.

वे बताते हैं, "पानी की यह समस्या सिर्फ़ नई टिहरी की नहीं है. बाँध के दूसरी ओर 30-35 गाँवों का एक समूह है जो पानी की समस्या से नई टिहरी से ज़्यादा जूझ रहा है."

रैका पट्टी कहलाने वाले इलाक़े के इन गाँवों में पानी पहुँचता नहीं और जलाशय से पानी ले पाने का उनका कोई अधिकार है.

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जब अमीर लोग अपनी सुविधा के लिए किसी बड़ी परियोजना के नाम नर गरीबों की बस्तिीयों को उजाड़ते हैं इसका अर्थ है बस्ती का विकास होने वाला है।' टिहरी के छाम गांव से विस्थापित पूरन सिंह राणा के लिए विकास के मायने यहीं हैं। टिहरी में उनका घर गंगा के ठीक किनारे हुआ करता था।

 पूरन याद करके बताते हैं,`कई बार हमारे खेत में फसल बिना सींचाई के सूख जाती थी लेकिन हम गंगा से पानी नहीं लेते थे। चूंकि गंगा हमारे लिए सिर्फ नदी मात्र नहीं थी, वह हमारी मां थी. हमारे जीवन का हिस्सा थी।´ उन्हें अपने जीवन के इस हिस्से से काटकर आज अलग कर दिया गया है। टिहरी पर बन रहे बांध की वजह से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा।

1980 में इंदिरा गांधी के निर्देश पर विज्ञान एवं तकनीकी विभाग की समिति द्वारा अगस्त 1986 में जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर तो परियोजना पर उसी वक्त रोक लग जानी चाहिए थी। बाद में इस परियोजना को छोड़ देने की सिफारिश वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भी की।

 लेकिन सरकार इन सिफारिशों की परवाह करे तो हो चुका विकास। टिहरी से उजड़े पूरन को ज्वालापुर (हरिद्वार के पास ) स्थित वन विभाग की जमीन पर बसाया गया है। नई जमीन के मालिकाना हक से संबंधित सिर्फ एक पर्ची सींचाई विभाग ने काट कर उन्हें दी। इस पर्ची के अलावा उनके पास अन्य कोई सबूत नहीं है, जिससे वे साबित कर सकें की पुर्नवास की जमीन के मालिक वे हैं।

 उनके पास ना इस जमीन से जुड़ा कोई पट्टा है। ना उन्हें अब तक कोई मतदाता पहचान पत्र मिला। ना ही उनका इस नई जगह पर अधिकारी आवासीय प्रमाण पत्र बनाने को तैयार है। वे अपनी जमीन जरूरत पड़ने पर किसी को बेच भी नहीं सकते। इस जमीन पर अपने बच्चों की अच्छी िशक्षा के लिए बैंक से वे कर्ज भी नहीं ले सकते।

 यह कहानी केवल पूरन की नहीं हैं। यह कहानी है, टिहरी से विस्थापित हुए 5000 ग्रामीण और 3000 शहरी परिवारों की। सरकार ने विकास के नाम पर उन्हें घर निकाला दे दिया और वे लोग अपने ही घर में शरणार्थी बनकर जीने को मजबूर हैं।

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संघर्ष की प्रतीक है टिहरी की कुंजणी पट्टी

देवभूमि उत्तराखंड वीरों को जन्म देने वाली भूमि के नाम पर भी जानी जाती है। इसी राज्य में टिहरी जनपद की हेंवलघाटी के लोगों की खास पहचान व इतिहास रहा है। इतिहास के पन्नों पर घाटी के लोगों की वीरता के किस्से कुछ इस तरह बयां हैं कि उन्होंने कभी अन्याय व अत्याचार सहन नहीं किया और अपने अधिकारों व संसाधनों की लड़ाई को लेकर हमेशा मुखर रहे।

राजशाही के खिलाफ विद्रोह व जनता के हितों के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर शहीद श्रीदेव सुमन का नाम आज हर किसी की जुबां पर है, लेकिन सचाई यह है कि हेंवलघाटी के लोग उनसे भी पहले टिहरी रियासत के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा चुके थे।

श्रीदेव सुमन से 30 वर्ष पूर्व तक हेंवलघाटी के नागणी के नीचे ऋषिकेश तक कुंजणी पट्टी कहलाती थी। वर्ष 1904 में टिहरी गढ़वाल रियासत में जंगलात कर्मचारियों का आतंक बेतहाशा बढ़ गया था। रियासत के अन्य इलाकों में जहां उनके अन्याय बढ़ते गए तो कुंजणी पट्टी के लोगों ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की। उनके इस अभियान को इतिहास में 'कुंजणी की ढंडक' के नाम से जाना जाता है।

 जुलाई 1904 में नरेन्द्रनगर के मौण, खत्याण के भैंस पालकों के डेरे थे। तब भैंसपालकों से पुच्छी वसूला जाता था। तत्कालीन कंजर्वेटर केशवानंद रतूड़ी समेत जंगलात के कर्मचारी मौके पर गए व मौण, खत्याड़ के भैंसपालकों से मनमाने ढंग से पुच्छी मांगी। मना करने पर कर्मचारियों ने उनके दूध-दही के बर्तन फोड़ दिए। इस पर भैंसपालक भड़क गए। भैंसपालकों के मुखिया रणजोर सिंह ने कंजर्वेटर के गाल पर चाटे जड़ दिए। इस पर रणजोर व उसके छह साथी गिरफ्तार कर लिए गए।

रास्ते में फर्त गांव के भीम सिंह नेगी, जो उस समय मुल्की पंच व प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, ने कंजर्वेटर को रोका व रणजोर को छोड़ने को कहा, लेकिन कंजर्वेटर नहीं माना। इस पर भीम सिंह ने बेमर गांव के अमर सिंह को बुलावा भेजा। अमर सिंह की गिनती तब क्षेत्र के दबंग लोगों में होती थी। अमर सिंह मौके पर पहुंचे, हालात की जानकारी ली और भैंसपालकों से विरोध करने को कहा। इस पर राणजोर सिंह सहित दूसरे लोगों ने हथकड़ियां पत्थर पर मारकर तोड़ दी।

 सबने मिलकर जंगलात के लोगों की धुनाई की और कंजर्वेटर को घोड़े से गिराकर कमरे में बंद कर दिया। इसके बाद अमर सिंह ने तमाम मुल्की पंचों को बुलाकर बैठक की, जिसमें कखील के ज्ञान सिंह, स्यूड़ के मान सिंह, आगर के नैन सिंह, कुड़ी के मान गोपाल सहित दर्जन भर लोग बुलाए गए।

 लोगों को इकट्ठा कर आगराखाल, हाडीसेरा, भैंस्यारौ, बादशाहीथौल में विशाल सभाएं की गई। उसके बाद लोग जुलूस लेकर टिहरी पहुंचे। पंचों ने ऐलान कर दिया था कि जो व्यक्ति और गांव इस ढंडक में शामिल नहीं होगा, उसे बिरादरी से अलग कर दिया जाएगा। कंजर्वेटर ने पंचों सहित दूसरे लोगों पर मारपीट सहित कई आरोप लगाए।

राजमाता गुलेरिया के कहने पर कीर्तिशाह ने लोगों की मांगों पर गंभीरता से विचार किया तथा देवगिरी नामक साध्वी, जो क्षेत्र में वर्षो से रह रही थीं, के कहने पर लोगों को आरोपों से बरी कर दिया। इसके अलावा पुच्छीकर भी समाप्त कर दिया। लोगों की वन में चरान-चुगान खुला रखने की मांग भी मान ली गई।

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आज भी नहीं भुला सकते हैं पुराणी  टिहरी के यादें

टिहरी बांध विस्थापितों ने सहेज कर रखी हैं कई परंपराएं -हर महीने ढोल पर बजती है बधाई की ताल -आराध्य देवों से जुड़े प्रतीक भी रखे हैं घरों व मंदिरों में मंदिर में पूजा के बाद प्रधान जी के आंगन में ढोल पर खुशहाली के लिए बजते संग्रांद (संक्रांति) के बोल हरिद्वार के कुछ गांवों में आज भी सुनाई पड़ते हैं।

यहां भी बसंत शुरू होने पर फूलदेई की परंपरा के चलते नन्हें बच्चे घरों की देहरी पर फूल रख आते हैं तो अपने आराध्य देवी देवताओं के आह्वान के लिए जागर गीत भी गाये जाते हैं। पर्वतीय समाज की ये परंपराएं टिहरी बांध प्रभावित आज भी विस्थापन की त्रासदी झोलने के बावजूद जिंदा रखे हुए हैं। पुरानी टिहरी का डोभ गांव भले ही अब बांध की झाील में समा गया हो, लेकिन इस गांव के आराध्य देवता कैलापीर का पवित्र कलश पथरी के शिवमंदिर में स्थापित है।

 बांध विस्थापितों की बस्ती में स्थापित इस मंदिर में लोग परंपरानुसार अपने आराध्य को पूजते हैं। गांव के विक्रम दास हर महीने मंदिर परिसर के साथ पूरे गांव में ढोल पर संग्रांद की बढ़ै (बधाई) बजाते हुए देखे जा सकते हैं। वहीं शादी ब्याह में मांगल गीत भी सुनने को मिल जाते हैं।

बसंत में फूलदेई का रिवाज भी महीने भर न सही, कुछ दिन जरूर नजर आता है। छोटे बच्चे तड़के उठकर जंगल की ओर फूल चुनने चल देते हैं। गांव भर के जगने से पहले ही घरों की देहरी पर फूल बिखेरने का रिवाज है। हरिद्वार के पथरी सहित रोशनाबाद, रानीपुर व शिवालिक नगर तक के क्षेत्र में पनबिजली के लिए टिहरी झाील में जलसमाधि ले चुके करीब 39 गांवों के लोग बसे हैं।

करीब बीस वर्ष से यहां रह रहे इन लोगों के खेती बाड़ी से लेकर जीने के तौर तरीकों में काफी बदलाव आया है। उनके दु:ख दर्द व समस्याएं भी मैदानी क्षेत्र के लोगों जैसी ही हो चुकी हैं। रोजगार, बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी समस्याएं यहां भी मुंह बाये खड़ी हैं।

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समस्याओं के बावजूद अपनी विशिष्ट परंपराओं को विस्थापितों ने अब भी जिंदा रखा है। विस्थापितों की सभी बस्तियों में इन परंपराओं का पूरी शिद्दत के साथ निर्वाह किया जाता है।

भैरव, नागराजा, नरसिंह आदि आराध्य देवी देवताओं के कलश, मूर्तियों, छत्र व ध्वज के साथ ही देवडोलियां भी यहां मंदिरों व घरों में रखी गई हैं। देवभूमि में जहां देवी देवता जाएंगे, वहां ढोल, दमाऊं, रणसिंगा का पहुंचना भी जरूरी है।

लिहाजा ढोलियों के दर्जनों परिवार भी यहां पहुंचे हैं, जो इन खास परंपराओं का पोषण करने में जुटे हैं। वहीं विस्थापितों के स्थानीय परिवेश में घुल मिल जाने से इस क्षेत्र का ग्रामीण परिवेश सांस्कृतिक रूप से और समृद्ध होता नजर आता है।

पथरी की ग्राम प्रधान बिंदू देवी के मुताबिक विस्थापन के समय उन लोगों को अनेक कठिनाइयां झोलनी पड़ीं। अपना पैतृक घर गांव छोड़कर आना इतना आसान नहीं था। यहां पहुंचने के बाद सब कुछ नए सिरे से शुरू करना था। इसके बावजूद हम लोगों ने अपनी विशिष्ट परंपराओं को जिंदा रखा है।

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टिहरी महोत्सव, न्यू टिहरी प्रेस क्लब व मौलिक टिहरी द्वारा केन्द्रीय विद्यालय प्रांगण में आयोजित टिहरी महोत्सव में मंगलवार को जनपद के विभिन्न विद्यालयों के छात्रों ने शानदार प्रस्तुतियां दी।

 कार्यक्रम के मुख्य अतिथि हिमालय पर्यटन विकास संगठन के कमल सिंह महर ने कहा कि ऐतिहासिक पुरानी टिहरी की सांस्कृतिक विरासत को नई टिहरी में आगे बढ़ाया जाना चाहिए और इसके लिए जन प्रतिनिधि, सामाजिक व सांस्कृतिक संगठनों को ठोस पहल करनी होगी। दुग्ध संघ के अध्यक्ष धन सिंह नेगी ने कहा कि इसके लिए प्रस्ताव बनाया जाए, जिससे कि भविष्य में इस कार्यक्रम को और भव्य बनाने के लिए सरकारी स्तर पर भी सहयोग हो सके।

प्रतिस्पर्धात्मक इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में सरस्वती विद्या मंदिर नई टिहरी की टीम प्रथम स्थान पर रही। राबाइंका चम्बा ने द्वितीय व जीआईसी बौराड़ी ने तृतीय स्थान हासिल किया। इसके अलावा विभिन्न युवा उभरते गायकों ने अपने गीतों से लोगों का भरपूर मनोरंजन किया।

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जय हो, नंदा देवी तेरी जय हो

नई टिहरी (टिहरी गढ़वाल)। तीन दिवसीय टिहरी महोत्सव की अंतिम सांस्कृतिक संध्या पर लोकगायक वीरू जोशी के गीतों ने समा बांधा।

टिहरी महोत्सव के अंतिम दिन प्रेस क्लब में आयोजित सांस्कृतिक संध्या पर चमोली जनपद के लोक गायक वीरू जोशी एंड पार्टी के गीतों ने समा बांधा। सांस्कृतिक संध्या की शुरूआत जय हो, नंदा देवी तेरी जय हो से हुई। उसके बाद कालू का डांडा, तिलका तेरी लम्बी लटी, गोपेश्वर की बांद आदि गीतों की प्रस्तुतियों ने श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन किया।

 इस अवसर पर हाईकोर्ट के अधिवक्ता भागवत सिंह नेगी, कांग्रेस जिलाध्यक्ष चमोली प्रीतम सिंह रावत, हरीश ज्योति, नित्यानंद देवराड़ी, दीप प्रकाश नौटियाल, विकास जोशी, मदन सुयाल, जयानंद, प्रेस क्लब अध्यक्ष विक्रम बिष्ट, महामंत्री शिवानंद पांडेय, पूर्व अध्यक्ष गोविन्द बिष्ट आदि उपस्थित थे।

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जनपद टिहरी की करें तो यहां पंवाली कांठा, सहस्रताल, खतलिंग ग्लेशियर जैसे खूबसूरत पर्यटक स्थल हैं। इन बुग्यालों व ग्लेशियर तक जाने वाले पैदल मार्गो की दुर्दशा सरकारी दावों की पोल खोलती है।

 खतलिंग ग्लेशियर में जहां साहसिक पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं, वहीं अन्य पर्यटक स्थल को यदि सरकार विकसित करें तो निश्चित तौर वहां पर्यटक पहुंचेंगे और स्थानीय लोगों को रोजगार भी प्रान्त होगा, लेकिन सरकार ने अब तक इस दिशा में प्रयास ही नहीं किए गए। टिहरी पर्यटन के लिहाज से इस मामले में भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि यहां एशिया के सबसे बड़े टिहरी बांध की 42 वर्ग किमी की झील है।

वर्ष 2005 में झील बनने के बाद से यहां साहसिक पर्यटन गतिविधियों शुरू करने का ढिंढोरा सरकार पीटती रही रही चार साल गुजरने के बाद भी पर्यटन के लिहाज से टिहरी बांध की झील का विकास नहीं हो पाया। पर्यटन की सारी कवायद फाइलों, मीटिंग व महायोजना में कैद होकर रह गई।

मास्टर प्लान नई टिहरी शहर भी पर्यटन मानचित्र पर अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाया। जबकि यहां भी पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं। सरकारी योजनाओं की सुस्त रफ्तार देखिए की देवीदर्शन पर्यटन सर्किट का काम दो साल बाद भी पूरा नहीं हो पाया।

 6 करोड़, 52 लाख रूपये खर्च कर सिद्घपीठी सुरकंडा, कुंजापुरी, चन्द्रबदनी को आपस में जोडऩा था, लेकिन इसमें भी वित्त का पेंच फंसा हुआ है। इस बारे में जिला पर्यटन अधिकारी किशन सिंह रावत स्वीकारते हैं कि संसाधनों के अभाव के चलते पर्यटन का ढांचा नहीं बन पाया। उनका कहना है कि स्थानीय महत्व के प्रस्ताव को जिला योजना से पूरा किया जा रहा है।

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प्रेरणादायी परंपरा है पानी पंचायत

चम्बा (टिहरी)। विकास योजनाओं के अलावा सामूहिक भागीदारी के कामों को संपन्न कराने में अकसर ग्रामीण आपस में भिड़ जाते हैं। खासकर सिंचाई के पानी का सार्वजनिक बंटवारा ऐसा काम है, जिसका विवादों से चोली-दामन का साथ रहता है, लेकिन जड़धार गांव की सदियों पुरानी परंपरा 'पानी पंचायत' दूसरे गांवों के लिए मिसाल बनकर उभरी है। दरअसल, सिंचाई के लिए पानी का बंटवारा इसी पंचायत की देखरेख में किया जाता है। किसी विवाद की स्थिति में ग्रामीण आपस में लड़ने की बजाय पंचायत का निर्णय ही मानते हैं।

टिहरी जनपद के चम्बा प्रखंड की ग्राम पंचायत जड़धार गांव में सदियों पुरानी पानी पंचायत आज भी कार्य कर रही है। पंचायत का कार्य है किसानों की जरूरत के अनुसार खेतों तक पानी पहुंचाना और समय-समय फसलों की सिंचाई करना। जड़धार गांव लगभग चार सौ परिवारों वाला हेंवलघाटी का सबसे बड़ा गांव है। यहां के लोगों के नागणी में बड़े भू-भाग पर सिंचित खेत हैं।

 खेतों की सिंचाई के लिए सदियों पुरानी व्यवस्था है, जो पानी पंचायत या जल समिति द्वारा तय की जाती है। सिंचित खेतों में मुख्य रूप से धान और गेहूं की फसल ली जाती है। गांव के बड़े-बुर्जुगों ने बडी सूझबूझ से ऐसी व्यवस्था बनाई की सभी को पानी मिल सके और किसी तरह का विवाद न हो। हालांकि, पानी पंचायत का गठन कब हुआ, किसी को पता नहीं, लेकिन गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि यह सदियों पुरानी परंपरा है।

 गांव के समाजसेवी विजय जड़धारी का कहना है, कि पानी पंचायत न होती, तो पानी के बंटवारे को लेकर लोग आपस में झगड़ते, सभी को एक साथ पानी चाहिए तो यह संभव न होता। ऐसे में आज भी पंचायत के लोग बारी-बारी से जरूरत के अनुसार गूल के जरिए खेतों तक पानी पहुँचाते हैं। इसमें सभी समुदायों की भागीदारी होती है और किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता।

सिंचाई के बदले पंचायत के लोगों को धन नहीं, बल्कि अनाज दिया जाता है, वह भी उपज के अनुसार। पंचायत का चुनाव हर वर्ष होता है। खास बात यह है कि जिन नियम- कायदों के आधार पर विवादों के निर्णय लिये जाते है, वे लिखित नहीं बल्कि मुंहजबानी हैं। काम का बंटवारा, कब, कौन, कहां, किसके खेतों में पानी देगा, कब बैठक होगी,

 काम के बदले लिये अनाज का बंटवारा आदि कार्य भी सिर्फ आपसी विश्वास के आधार पर मुंहजबानी ही किए जाते हैं। खास बात यह है कि पंचायत में लिए निर्णय पर कोई सदस्य मुकर नहीं सकता।

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सूने खड़े घंटाघर में फूंकी जान

पिछले पंद्रह साल से सूने खड़े नई टिहरी स्थित घंटाघर की धड़कनें जल्द शुरू होने वाली हैं। नगर पालिका परिषद की पहल पर घंटाघर के लिए चेन्नई से घड़ियां मंगाई जा चुकी हैं। एक- दो दिन में इसे लगा दिया जाएगा। खास बात यह है कि साढ़े चार लाख रुपये लागत वाली इन घड़ियों की टिक- टिक चार किलोमीटर दूर तक सुनाई देगी।

पुरानी टिहरी शहर में महाराजा कीर्तिशाह ने रानी विक्टोरिया की हीरक जयंती पर वर्ष 1897 में ब्रिटिश वास्तुकला पर आधारित घंटाघर बनवाया था। नब्बे के दशक में इसकी घड़ियां चोरी हो गई। बाद में टिहरी शहर के झील में डूबने के कारण यहां की ऐतिहासिक धरोहरों को नई टिहरी में स्थापित किया गया था। इसके तहत वर्ष 1995-96 में पुराने घंटाघर को भी यहां स्थापित किया गया, लेकिन गत 15 वर्ष से घड़ियों के अभाव में यह सूना पड़ा था।

 नगर पालिका के अनुरोध पर टीएचडीसी ने घड़ियों के लिए धन उपलब्ध कराया व चेन्नई की कंपनी इंडिया क्लाक्स से घड़ी बनवाई गई। साढ़े चार लाख लागत वाली ये घड़ियां शनिवार को नई टिहरी पहुंचीं।

रविवार को चेन्नई से आए कारीगरों ने इन घड़ियों को घंटाघर में लगाने का काम भी शुरू कर दिया। एक-दो दिन में घड़ियां समय बताना शुरू कर देंगी। खास बात यह है कि घड़ियों की आवाज चार किमी दूर तक सुनाई देगी। इतना ही नहीं, विद्युत आपूर्ति न होने पर भी घड़ी आठ घंटे तक चलेगी।

नगर पालिका अध्यक्ष राकेश सेमवाल का कहना है कि ऐतिहासिक घंटाघर बिना घड़ी के सूना पड़ा था। इसके लिए वह काफी समय से प्रयासरत थे। श्री सेमवाल ने घड़ी मंगाने के लिए सहयोग पर टीएचडीसी का आभार जताते हुए बताया कि एक-दो दिन में घंटाघर की धड़कन सुनाई देगी।

 

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