Author Topic: Our Dream Distric New Tehri Uttarakhand,सपनों के शहर में अपनों की तलाश  (Read 10809 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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परंपरा और प्रयोग की अनोखी जुगलबंदी



गले में ढोल, हाथ में छाले और मन में कुछ कर गुजरने की तमन्ना, यह पहला परिचय है टिहरी जिले के सोहन लाल का। उन्होंने पहाड़ के विलुप्त हो रहे पारंपरिक वाद्य यंत्रों को फिर से जिंदा करने का न केवल बीड़ा उठाया, बल्कि उसमें कामयाब भी रहे। नतीजा यह है कि आज वो अकेले नहीं हैं। उनके साथ 30 लोगों की टीम है।

टिहरी जिले के देवप्रयाग ब्लाक के पुजार गांव के सोहन लाल ने पिता और मामा से वाद्य यंत्र बजाने की कला सीखी। वादन से खर्च न चलते देख सोहन ने एक एनजीओ का हाथ थाम लिया। सोहन वहां नुक्कड़ नाटकों और जन जागरूकता रैलियों में काम करने लगे। उन्हें 1995 में रीच के एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला जिसमें उत्तराखण्ड के 100 से अधिक पारंपरिक वाद्य यंत्रों की जुगलबंदी करायी गई।

आइडिया सोहन को भा गया। उन्होंने ढोल से आगे बढ़कर सभी वाद्य यंत्रों की एक ऐसी जुगलबंदी तैयार करने का संकल्प लिया जो उत्तराखण्ड के हर छोर की धुनों को एक साथ बिखेर सके। इसके लिए पहले विलुप्त हो रहे सभी पारंपरिक वाद्य यंत्रों को बजानेवालों को एकत्र करना शुरू किया। उन्हें पांच छ: लोगों की ऐसी टीम मिल गई जो होटलों की नौकरी छोड़ उनका साथ देने को तैयार हो गयी।

वर्ष 1997 में सोहन लाल ने पहले गढ़वाली आकेस्ट्रा की नींव रखी। इसे नाम दिया गया चंद्रबदनी लोक कला मंच हिरणिसिंगी नाद। सोहन लाल ने नये-नये प्रयोग किए । ढोल दमाऊ के साथ कुमाउंनी शहनाई, जौनसारी रणसिंगा और देसी कैसियों भी बजाया गया। नये ताल और ध्वनियां बनाई गईं। आकेस्ट्रा के लिए व्याकरण भी तैयार किया। परिणाम आने लगे और प्रदेश से बाहर से भी बुकिंग मिलने लगीं।

लोगों की डिमाण्ड को देखते हुए आर्केस्ट्रा टीम ने शादी विवाह, देवपूजन और अन्य समारोहों के लिए अलग-अलग पैकेज तैयार किये हैं। बारात के पैकेज में धुंयाल ताल से लेकर गढ़छाल ताल बजती है और सौंधियार एवं मंगल बढ़ई भी इसमें शामिल हैं।  सोहन लाल के हाथों के छाले और उसके साथियों के गलों की फूली हुई नसें देखकर पता लगता है कि लोक धुनों को जिंदा रखना कितना मुश्किल काम है।

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नागों की भूमि यानी नागणी

देवभूमि उत्तराखंड में पर्वतों से लेकर घाटियों तक हर जगह की अपनी अलग-अलग विशेषता व ऐतिहासिक महत्व है। अधिकांश जगहों के नाम वहां की परंपराओं, मान्यताओं, कार्यो के कारण पड़े हैं। नागणी भी ऐसी जगह है, जिसे नागों की भूमि कहा जाता है। यहां कृषि कार्य तभी निर्विघ्न संपन्न होते हैं, जब नागदेवता का स्मरण कर रोट भेंट किया जाता है।

जनपद के चम्बा प्रखंड के अंतर्गत नागणी क्षेत्र की एक विशेष पहचान है। इसे वर्तमान में भले ही जनांदोलनों की कर्मभूमि के रूप में जाना जाता हो, लेकिन पौराणिक मान्यताओं व बुजुर्गो के अनुसार नागणी को नागों की भूमि भी कहा जाता है। कहा जाता है कि एक समय था जब इस क्षेत्र में भारी संख्या में नागों का वास था, तभी यहां का नाम नागणी पड़ा। नागणी बड़े भू-भाग में फली समतल जगह है।

 यहां सिंचित खेती की जाती है। मध्य में हेंवल नदी बहती है। माना जाता है कि कई दशक पूर्व तक यहां भारी संख्या में नाग रहते थे, जिस कारण लोगों को यहां कृषि कार्य करने में दिक्कतें आती थी। हालांकि नागों ने कभी किसी को काटा नहीं, लेकिन लोग डर के मारे अकेले खेतों में नहीं जाते थे। अंत में किसानों ने यहां नाग देवता और भूम्याल देवता की पूजा शुरू की। उसके बाद धान गेंहू, की बुवाई या रोपाई जैसे कृषि कार्य शुरू करने से पूर्व उनका स्मरण कर रोट भेंट चढ़ाना शुरू किया।

 तब से नाग सिर्फ कभी-कभी दिखाई देते हैं। भूलवश किसी किसान ने स्मरण कर रोट भेंट नहीं चढ़ाया, तो उन्हें खेतों में छोटे-छोटे नाग ही दिखाई देंगे। हालांकि यह किसी को काटते नहीं है फिर भी यह अपशगुन माना जाता है। यदि किसी ने उन्हें मारने का प्रयास किया, तो वे बड़ी संख्या में यह प्रकट हो जाते हैं।

 नागणी के पास पहाड़ी पर एक गुफा है। कहा जाता है कि काफी पहले नागराजा अर्थात् नागों के राजा इसी गुफा में रहते थे और नीचे स्थित खेतों की निगरानी करते थे। सिंचाई के समय वे खेतों में निगरानी के लिए आते थे। नागणी के शूरवीर सिंह, कुंदन सिंहलाल, बलवंत सिंह आदि का कहना है कि नई पीढ़ी के लाग इसे न माने लेकिन यही हकीकत है।

नागणी में भंडारगांव, नारंगी, बसाल, स्यूंटा, छोटा स्यूटा आदि गांव के लोगें के सिंचित खेत है। बात सिर्फ कृषि कार्य की नहीं है नागणी में खेती के अलावा नहर, मकान आदि भी बनाना होता है, तो नाग देवता का स्मरण जरूरी है तभी वह कार्य निर्विघ्न संपन्न हो सकता है।

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                        टिहरी बांध विस्थापितों को भूमिधरी हक मिले
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टिहरी बांध परियोजना के विभिन्न पुनर्वास स्थलों से संबंधित समस्याओं के लिए गठित दिनकर समिति ने रिपोर्ट सिंचाई मंत्री मातबर सिंह कंडारी कौ सौंप दी है। रिपोर्ट में बांध विस्थापितों को भूमिधरी अधिकार देने समेत अनेक संस्तुतियां की गई हैं।

समिति ने विस्थापित स्थलों में वन्य जीवों से सुरक्षा के लिए दीवार निर्माण, कृषि भूखंडों का सुधारीकरण, पुनर्वास स्थलों पर परिसंपत्तियों का रखरखाव करने, पेयजल की व्यवस्था करने, आवासीय तथा कृषि भूखंडों में जल निकासी की समस्या का समाधान तथा पुनर्वासित ग्रामों को राजस्व ग्राम घोषित करने की संस्तुति की है।

 समिति की संस्तुतियों पर सिंचाई मंत्री मातबर सिंह कंडारी ने कहा कि समिति द्वारा संस्तुत आवश्यक कार्यो की लागत 71 करोड़ रुपए अनुमानित है, जो अब तक के पुनर्वास पर हुए खर्च का पांच प्रतिशत है। समिति की संस्तुतियों को जल्द लागू किया जाएगा। रायवाला एलीफेंट कोरीडोर के संबंध में भी जल्द निर्णय किया जाएगा।

गौरतलब है कि दस अक्टूबर 2009 को सिंचाई मंत्री मातबर सिंह कंडारी की अध्यक्षता में बैठक हुई थी, जिसमें टिहरी बांध विस्थापितों के पुनर्वास स्थलों के स्थलीय निरीक्षण कर समस्याओं के समाधान के लिए सिंचाई विभाग के अधीक्षण अभियंता एके दिनकर की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया गया।

 कमेटी ने छह बार विभिन्न पुनर्वास स्थलों का निरीक्षण किया और गुरूवार को सिंचाई मंत्री को विस्तृत रिपोर्ट अपनी संस्तुतियों के साथ प्रस्तुत की।

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जिंदगी की भीख मांग रहे बांध प्रभावित
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आखिर टिहरीवासी कब तक टीएचडीसी से जिंदगी की भीख मांगते रहेंगे, इस सवाल का जवाब वर्तमान हालात को देखते हुए अनुत्तरित सा लगने लगा है। यकीन नहीं, तो बांध प्रभावित क्षेत्र के गांवों में पहुंचकर ग्रामीणों का दर्द देखा जा सकता है। टीएचडीसी तो साल दर साल बांध से मालामाल हो रहा है वहीं बांध प्रभावितों को उसने भगवान भरोसे छोड़ा हुआ है।टिहरी बांध को लेकर आखिर अब और कितने गांवों को टीएचडीसी द्वारा झील में डूबा दिया जाएगा यह सवाल आज बांध झील से सटे दर्जनों गांवों के ग्रामीणों के जेहन में हर समय कौंधता रहता है।

टिहरी बांध निर्माण की शुरूआत में पहले ऐतिहासिक पुरानी टिहरी शहर को हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में सिर्फ देखने भरने के लिए छोड़ दिया और फिर करीब सौ से अधिक गांवों के लोगों को अपनी दशकों पुरानी पुश्तैनी जमीन व घरों से महरूम कर दिया। बांध झील से सटे गांवों के लोग पिछले कुछ समय तक तो जैसे तैसे जीवन यापन कर रहे थे, लेकिन टीएचडीसी द्वारा पिछले माह झील के जल स्तर को आरएल 832 तक पहुंचा देने के बाद तो बांध प्रभावित गांवों के ग्रामीणों की तो जैसे सामत ही आ गई।

 भिलंगना घाटी के दर्जनों गांवों की तस्वीर हम पहले बयां कर चुके हैं, वहीं अब भागीरथी घाटी के बांध प्रभावित गांवों की तस्वीर सामने लाने को मुहिम चलाई जा रही है। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू तो यह है कि टीएचडीसी के मनमाने रवैये के चलते आज न तो प्रदेश सरकार ही कुछ कर पा रही है और न अन्य कोई। टीएचडीसी के आगे जहां अब प्रदेश सरकार की एक भी नहीं चली वहीं ऐसे में बांध प्रभावितों के हितों की पूरी तरीके से अनदेखी की जा रही है।टिहरी जिले की सीमा से सटा बांध प्रभावित गांव बधाण भी टीएचडीसी की खामियों का रोना रो रहा है।

यहां यह बता दें कि लगभग सभी आंशिक बांध प्रभावित गांवों में झील के जल स्तर बढ़ने के बाद कमोवेश एक जैसे हालात बने हुए हैं। इन गांवों में जहां अब टीएचडीसी की ओर से ग्रामीणों को सिर्फ कृषि भूमि का ही मुआवजा दिया गया है। इससे जहां प्रभावित ग्रामीणों की रोजी-रोटी छिन गई, वहीं अब उनके आवासीय भवन झील की परिधि में आ जाने या फिर झील पानी के कटाव के कारण इन गांवों में भूस्खलन के बाद कई भवनों के भरभरा जाने की संभावनाएं ज्यादा बलवती हो गई हैं। 120 परिवारों वाले बधाण गांव को टीएचडीसी द्वारा पूर्व में आंशिक डूब क्षेत्र में रखा गया है। आज यदि इस गांव में कोई जाकर देखे तो हालात पता चल जाएंगे।

बांध प्रभावितों के प्रति टीएचडीसी का रवैया देखें तो 120 परिवारों में से अब तक सिर्फ गांव के 41 परिवारों को बांध विस्थापन क्षेत्र पथरी में कृषि प्लाट आवंटित किए गए हैं। बाकी परिवारों की अब तक कारपोरेशन द्वारा सुध नहीं ली गई।पिछले माह झील का जलस्तर बढ़ने के बाद गांव के नीचे भूस्खलन होना शुरू हो गया। ऐसे में अब जहां गांव को खतरा पैदा हो गया है वहीं यह गांव किसी भी दशा में रहने लायक नहीं रह गया है। ग्रामीणों के मुताबिक झील जलस्तर के बढ़ने के कारण गांव के करीब 22 परिवारों के मकानों पर दरारें आ गई हैं, जबकि अन्य आवासीय मकान पूरी तरह से खतरे की जद में आ गए हैं।

बधाण गांव के ग्राम प्रधान किशोरी लाल ने बताया कि पहले ही टीएचडीसी ने गांव की पूरी कृषि भूमि को झील में डूबो दिया और अब वह ग्रामीणों के आशियानों को भी खतरा बन गया है। उन्होंने बताया कि पूर्व में टीएचडीसी की ओर से गांव के कुछ परिवारों को कृषि भूमि का आवंटन किया गया और उसके बाद अब तक कई साल गुजरने के बाद न तो छूटे परिवारों को कृषि भूमि ही मिली और अब न मकानों का मुआवजा देने की बात की जा रही है।

 क्षेत्र पंचायत सदस्य श्यामलाल ने बताया कि इस संबंध में वह टीएचडीसी व पुर्नवास विभाग के कई चक्कर काट चुके हैं, लेकिन ग्रामीणों की समस्या का समाधान करने की दिशा में कोई भी दिलचस्पी नहीं ले रहा है। उन्होंने बताया कि ग्रामीण बड़ी विकट समस्या में हैं और टीएचडीसी का यदि यही रवैया रहा तो ग्रामीण आंदोलन करेंगे।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6776806.html

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पुनर्वास किए बिना क्यों डुबो दिए गांव
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उत्ताराखंड दैवीय आपदा का विकराल कोप झेलने को विवश है। दैवीय आपदा के कारण टिहरी झील का स्तर 832 मीटर तक पहुंचा और जान-माल को भारी नुकसान हुआ। इसके लिए टीएचडीसी तथा पुनर्वास निदेशालय के अफसरों के बीच हुई साठगांठ को जिम्मेदार माना जा रहा है। करीब 50 हजार की आबादी टिहरी झील के कोप तथा अफसरों की लापरवाही से सड़क पर है और दो वक्त की रोटी व एक अदद छत के लिए तरस रही है।

टिहरी झील से होने वाले पुनर्वास की मानीटरिंग सिंचाई विभाग करता है। सिंचाई मंत्री मातबर सिंह कंडारी बार-बार कह रहे हैं कि टिहरी झील में आरएल-820 मीटर तक जल भराव की अनुमति 2007 में दी गई थी, उसके बाद कोई अनुमति टीएचडीसी को नहीं दी गई। 820 मीटर तक के भी आठ ऐसे बड़े कार्य हैं, जो अभी नहीं किए गए हैं। इनमें चिन्यालीसौड़, घोन्टी, डोबरी चांटी पुलों का निर्माण, जर्जर पीपलडाली पुल की मरम्मत, मदन नेगी रोपवे की मरम्मत, उपुसिंराई और रोलाकोट का पुनर्वास, भल्डियाना रोपवे का निर्माण समेत कुछ गांवों का पूरी तरह पुनर्वास शामिल है।

टीएचडीसी द्वारा प्रचारित किया जा रहा है कि आरएल-830 स्तर तक के सभी पुनर्वास कार्य किए जा चुके हैं, जो गलत साबित हुआ। हालांकि मौका आने पर टीएचडीसी ने आरएल-832 स्तर तक झील में पानी भर दिया जिससे टिहरी तथा उत्तारकाशी के गांवों तथा कस्बों की पचास हजार आबादी पर मानव जनित आपदा टूट पड़ी।

टीएचडीसी ने पहले प्रचारित किया कि सुप्रीम कोर्ट से आरएल-830 तक स्तर ले जाने की अनुमति मिल गई है। बाद में यह दावा झूठा निकला तो आरएल-826 तक की अनुमति राज्य सरकार से मिलने का दावा किया गया। दरअसल पुनर्वास निदेशालय की मिलीभगत से एक फाइल चलाई गई थी। तीन सहायक अभियंताओं की रिपोर्ट में आरएल-826 तक पुनर्वास कर लिए जाने का दावा किया गया था। इस फाइल का फर्जीवाड़ा यह था कि सहायक अभियंताओं और निदेशालय के नोडल अधिकारी की रिपोर्ट में हस्ताक्षर के साथ दिनांक नहीं हैं। एक खास बात यह है कि फाइल में पुनर्वास निदेशक की संस्तुति वाला पन्ना गायब है। आरोप हैं कि पुनर्वास निदेशालय के अफसरों ने टीएचडीसी के साठगांठ कर 830 मीटर तक जल भराव की अनुमति दे दी थी। जब इसे लेकर हल्ला होने लगा और झील का स्तर 825 तक पहुंचने पर ही त्राहि-त्राहि मच गई तो निदेशक का अनुमति पत्र फाइल से गायब कर दिया गया।

टीएचडीसी के लिए अतिवृष्टि एक मुफीद अवसर लेकर आई थी। इस मौके का फायदा उठाकर टीएचडीसी अपने व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए किसी भी स्तर तक जाने को तैयार थी। यहां सवाल यह उठता है कि टीएचडीसी का तो उत्ताराखंड से कोई लगाव नहीं है। अधिक से अधिक पानी भरना उसके व्यावसायिक हितों की रक्षा करता है लेकिन पुनर्वास निदेशालय के अधिकारी टीएचडीसी की हां में हां क्यों मिला रहे थे। सवाल यह भी उठता है कि टीएचडीसी के साथ मिलीभगत करने वाले निवर्तमान पुनर्वास निदेशक की जिम्मेदारी तय क्यों नहीं की जा रही है।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6781942.html

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ताजा हुई पुरानी टिहरी की यादें
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ओशो मल्टी सर्विस के सौजन्य से नई टिहरी के सामुदायिक मिलन केन्द्र में डूब गए पुरानी टिहरी शहर व उसके आस-पास के क्षेत्रों की फोटो प्रदर्शनी लगाई गई है, जिसमें एक बार फिर पुरानी टिहरी की याद ताजा हुई। आगामी 15 नवंबर तक लोगों के लिए यह प्रदर्शनी लगी रहेगी।

गुरुवार को प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए टिहरी क्षेत्र के विधायक किशोर उपाध्याय ने कहा कि इस प्रदर्शनी के माध्यम से पुरानी टिहरी की स्मृति नई पीढ़ी में होगी। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रयासों को जनसहयोग से आगे बढ़ाया जा सकता है। विधायक ने कहा कि पुरानी टिहरी शहर के अलावा आसपास के डूब क्षेत्रों का नई टिहरी में सांस्कृतिक केन्द्र बनाया जाएगा। उन्होंने इसके लिए दो लाख रूपये विधायक निधि से देने की घोषणा की है। फोटो प्रदर्शनी में बड़ी संख्या में लोगों ने प्रतिभाग किया। इस अवसर पर प्रदर्शनी के आयोजक मनोज रांगड़ ने कहा कि उन्होंने बचपन टिहरी में बिताया है और उनका उस शहर से लगाव रहा है। पुरानी टिहरी को कभी कोई भूल न पाए, इसलिए पुरानी टिहरी की याद को ताजा करने के लिए यह प्रदर्शनी लगाई गई है। इस अवसर पर रघुनाथ सिंह राणा, कमल सिंह महर, महीपाल सिंह नेगी, रामप्रसाद चमोली, विक्रम कठैत, गिरीश घिल्डियाल आदि उपस्थित थे।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6894848.html

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अस्तित्व खो रही टिहरी रियासत की धरोहरें
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कभी टिहरी रियासत की शान समझी जाने वाली धरोहरें अब अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। गढ़वाल के इतिहास के इन झरोखों पर अब उपेक्षा की परत चढ़ती जा रही है। परगनों के पंचायत स्थलों से लेकर मंदिरों तक को ना तो पुरातत्व विभाग ने अपनाया है और ना ही पर्यटन विभाग इनमें छिपी संभावनाओं को समझ सका है। उत्तरकाशी जिले में टिहरी रियासत के समय की धरोहरें बिखरी पड़ी हैं।

इनमें राजगढ़ी स्थित राजा की कोठी प्रमुख है। राजशाही के दौरान रवांई परगने की बैठकें यहीं हुआ करती थीं। हवेलीनुमा इस इमारत की विशेष बनावट के चलते अपना अलग आकर्षण रहा, लेकिन अब यह पूरी तरह खंडहर में तब्दील हो चुकी है। उपला टकनौर व बाड़ाहाट परगने में भी पंचायतें होती थी और राजा या उनके प्रतिनिधि उनमें शामिल हुआ करते थे। उपला टकनौर की पंचायत हर्षिल में हुआ करती थी।

 लेकिन अब ये पंचायत स्थल भी अपना अस्तित्व खो चुके हैं। गंगोत्री व यमुनोत्री मंदिर सहित जिले के सभी पौराणिक मंदिरों भी टिहरी रियासत के संरक्षण में थे। जिनमें उत्तरकाशी स्थित विश्वनाथ मंदिर, भैरव मंदिर, गोपेश्वर मंदिर, कालेश्वर मंदिर गंगनानी स्थित त्रिवेणी संगम आदि पौराणिक धरोहरें शामिल हैं। ये सभी रियासत की टेंपल बोर्ड के संरक्षण में है जो अभी भी अस्तित्व में हैं। लेकिन दोनों धामों को छोड़कर अन्य सभी धरोहरों के संरक्षण की दिशा में कोई कोशिश नहीं की गई। इन धरोहरों की देखरेख के लिए जो लोग तैनात किए गए थे।

वे ही अपने स्रोतों से इनका रखरखाव करते रहे। टेंपल बोर्ड की ओर से इस काम के लिये मिलने वाली धनराशि ऊंट के मुंह में जीरे से भी कम साबित होती है। जिले में इन पौराणिक धरोहरों पर पुरातत्व विभाग की भी नजरे इनायत नहीं हुई है। वहीं पर्यटकों के लिए आकर्षण की संभावनाएं समेटने के बावजूद पर्यटन विभाग अपनी कार्ययोजना में इन्हें शामिल नहीं कर सका है।

 इनमें से कुछ तो इतनी जर्जर हो गई हैं कि आने वाले दिनों में उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इतिहासकार उमा रमण सेमवाल बताते हैं कि रियासत काल में धरोहरों को इस तरह से तैयार किया गया था कि वे भविष्य में भी उपयोगी साबित हों। अनेक जगहों पर तो इनका उपयोग तो किया गया लेकिन रखरखाव नहीं हो सका इसीलिए ये नष्ट होने की कगार पर पहुंची हैं।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6935715.html

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टिहरी विस्थापित भाग दो में रहने वाले सुनील चौहान बताते हैं कि 'हमारी पहचान आज भी विस्थापितों की है। ग्राम पंचायत नहीं होने के कारण यहां कोई विकास कार्य नहीं हो रहा है। हम लोग ग्राम प्रधान नहीं चुन सकते और ग्राम प्रधान ही नहीं होगा तो यहां के लोग अपनी छोटी-बड़ी समस्या किसे सुनाएंगे। रोजगार गारंटी योजना से लेकर विभिन्न पेंशन योजना का भी लाभ हम लोगों को नहीं मिलता। हमें बेद्घर कर शहरों को रोशन किया जा रहा है। यहां के अंधेरे को कोई देखने वाला नहीं है।'े पथरी सहित टिहरी विस्थापितों को जहां भी बसाया गया उन सभी की यही स्थिति है। सुनील चौहान की पत्नी दुर्गा चौहान कहती हैं 'हम पहाड़ में अच्छे थे। वहां २७ नाली जमीन थी। खेती अच्छी हो जाती थी। परिवार का पालन पोषण ठीक से हो जाता था। यहां दो एकड़ जमीन मिली उसे दो भाइयों में बांटा गया। कुछ नहीं बचा। ऊपर से जंगली जानवर फसल नष्ट कर देते हैं। हर साल महाजनों से कर्ज लेना पड़ता है। ब्याज बढ़ता जा रहा है। रहने के लिए द्घर नहीं मिला। अस्थायी भवन के एक कमरे में ही दोनों भाइयों के परिवार रहते हैं। द्घर का मुआवजा आज तक नहीं मिला।'
इन विस्थापितों की समस्या सिर्फ राजस्व ग्राम का दर्जा न मिलना ही नहीं है बल्कि भाग दो, तीन और चार के कई परिवारों को आज तक मुआवजा राशि नहीं मिली है। ये परिवार अब तक पथरी में बने अस्थायी भवन में रह रहे हैं। एक-एक कमरे में कई परिवार रहते हैं। दस सालों से इनकी यहीं जिंदगी है। खाना खुले आसमान में बनाना पड़ता है। बारिश हुई तो चूल्हे की आग बुझ जाती है और उस दिन पूरे परिवार को भूखे सोना पड़ता है। टिहरी विस्थापितों की समस्या पर कोई भी सरकार ध्यान नहीं देती। जबकि इनकी जमीन पर बनी टीएचडीसी के पॉवर प्लांट से रोजाना कंपनी और सरकार को करोड़ों का लाभ हो रहा है। टिहरी विस्थापितों की समस्या को दूर करने के लिए राज्य की विधानसभा में भागीरथी विकास प्राधिकरण अधिनियम पारित किया गया था। इस अधिनियम में स्पष्ट किया गया है कि बिजली कंपनी से राज्य को मिलने वाली रॉयल्टी (१२ फीसदी बिजली) की २० प्रतिशत राशि प्रभावितों पर खर्च की जाएगी। कानून तो बना दिए गए लेकिन सरकार और जनप्रतिनिधि अपने ही बनाए कानून का पालन करने में अक्षम हैं। इसका २० फीसदी प्रभावितों पर खर्च करने की बात आती है तो राज्य सरकार बांध कंपनी और केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराने लगती है।

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नाव का संचालन बंद अब नापनी होगी दूरी


नई टिहरी: ढुंगमंदार क्षेत्र के ग्रामीणों का आवागमन घोंटी में लगी एक नाव के सहारे है,लेकिन टिहरी इस समय टिहरी बांध की झील का  पानी कम होने के कारण इसका संचालन बंद हो गया है। अब क्षेत्र के 27 गांव की करीब 40 हजार की जनता को अब 40 किमी की अतिरिक्त दूरी तय करनी पड़ रही है।

पिछले अप्रैल माह से यहां बोट बंद हो गई है इससे क्षेत्र के पिपोला, घोंटी, ननवा, सैंण, लासी, चौंदाणा, मुसांकरी, थात, सारपुल सहित 27 गांवों के ग्रामीणों आवागमन की समस्या से जूझना पड़ रहा है। अब उन्हें घनसाली होकर आना पड़ रहा है। लम्बी दूरी तय करने के साथ ही ग्रामीणों को 50 रूपए अतिरिक्त किराया भी देना पड़ रहा है।


स्कूली छात्रों को इससे सबसे ज्यादा परेशानी हो रही ह पिपोल गांव व आस-पास के गांव के छात्र जहां वोट से कुछ ही समय में राइंका पटागली व घुमेटीधार पहुंचते थे अब उन्हें लम्बा तय करना पड़ रहा है। बारिश होने के बाद जब झील का जलस्तर बढ़ेगा तभी ही यहां पर नाव का संचालन हो पाएगा।

पहले लोग नाव से सीधे घोंटी तक पहुंच जाते थे लेकिन अब उन्हें बस से पहले घनसाली और उसके बाद फिर घोंटी आना पड़ता है। अब उन्हें 40 से 50 किमी की अतिरिक्त दूरी तय करने के साथ ही धन व समय का नुकसान उठाना पड़ता है।
जल्द हो पुल का निर्माण
 Source Dainik Jagran

 

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