Author Topic: Our Dream Distric New Tehri Uttarakhand,सपनों के शहर में अपनों की तलाश  (Read 10838 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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दोस्तों नई टिहरी हमारे  सपनो का सहर बनाने की बात की गयी थी जब पुरानी टिहरी से लोगों को विश्थापित किया गया था लेकिन आज वे सपने टूटकर चूर-चूर हो गए हैं,क्यों की यहं ऐसा कुछ भी नहीं है!

 जैसा की पुरानी टिहरी मैं लोग अपना जीवन ब्यतीत करते थे,इस टोपिक के जरिये हम पुरानी और नई टिहरी के बारे मैं जानकारी देंगे की कहाँ लोग ज्यादा ख़ुशी का माहोल था पुरानी या नई टिहरी !


Devbhoomi

 M S JAKHI

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ऐतिहासिक पुरानी टिहरी शहर डूबने के साथ ही कभी राष्ट्रीय स्तर तक इसकी पहचान के रूप में जानी जाने वाली सांस्कृतिक गतिविधियां भी खत्म हो गई। इसके एवज में मास्टर प्लान के तहत बसाए गए नई टिहरी शहर में न तो पुरानी टिहरी जैसी रौनक है, न ही सांस्कृतिक और खेल गतिविधियां। कंक्रीट के इस नीरस शहर में मनोरंजन के लिए लोग तरस जाते हैं।

पुरानी टिहरी, जिसे गांव का शहर भी कहा जाता था, में हर तरफ चहल-पहल रहती थी। सांस्कृतिक, खेल व अन्य सामाजिक गतिविधियों से गुलजार इस शहर में वक्त कब गुजर गया, पता ही नहीं चलता था। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विभिन्न खेल प्रतियोगिताएं या मेले शहर में समय-समय पर कोई न कोई आयोजन होता रहता था। रामलीला, बसंतोत्सव, मकर संक्रांति पर लगने वाला मेला शहर की रौनक में चार चांद लगा देते थे।

दीपावली या अन्य पर्वो पर सामूहिक कार्यक्रम शहर में होते थे, लेकिन बांध की झील में पुरानी टिहरी के डूबने के साथ ही शहर की यह पहचान भी खत्म हो गई। पुरानी टिहरी के बाशिंदों को मास्टर प्लान के तहत बने नई टिहरी शहर में बसाया गया, लेकिन इसमें वह बात कहां, जो उस शहर में थी।

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नई टिहरी में, न रौनक, न वह मेल- जोल और न ही वे सांस्कृतिक गतिविधियां, जब भी याद आती है, नई टिहरी में बस गए बुजुर्गो की आंखें नम हो जाती हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर नई टिहरी में पनप रही बंद दरवाजे की संस्कृति और आधुनिक रहन-सहन का बढ़ता चलन लोगों के दिलों की दूरियां बढ़ा रहा है।

सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य इस शहर में वर्ष 2001 में उत्तरांचल शरदोत्सव हुआ। उसके बाद एकाध बार नगरपालिका द्वारा शरदोत्सव का आयोजन तो किया गया, लेकिन इसके बाद यहां न कोई सांस्कृतिक और न ही कोई सामूहिक कार्यक्रम आयोजित हुए हैं। मास्टर प्लान में कल्चर सेंटर का प्राविधान था, लेकिन इसके लिए भी कोई पहल अब तक नहीं हुई है।

 पुरानी टिहरी जैसा मेल-जोल भी यहां नहीं। वहां लोग पैदल घूमने निकलते, तो परिचितों से मुलाकात होती और फिर परिवार, समाज, राजनीति जैसे मसलों पर रायशुमारी भी होती, लेकिन नई टिहरी की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां पैदल चलना भी आसान नहीं है, सीढि़यों के इस शहर में चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते लोग हांफ जाते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक संस्था त्रिहरी से जुड़े महिपाल नेगी कहते हैं कि नई टिहरी में सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना होनी चाहिए।

 सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए समाज को आगे आना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी निराशा जताई कि अब लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत की जड़ों को भूलने लगे हैं।

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क्यों उन लोगों को वो सपने दिखाए थे,जिन सपनों की लोग आज तक तलाश कर रहे हैं और पुरानी टिहरी में लोग कितने खुश थे और आज यहाँ इन लोगों को विश्थापित करके इनके साथ जो अन्याय किया गया है !

उसका जम्मेदार कौन हैं,खुद वो लोग या उत्तराखंड की सरकार,नहीं इसके जम्मेदार खुद वो लोग हैं जिन्होंने यहाँ बसने का फैसला लिया हैं!

 क्या तब भूल गए थे अपने रीती रिवाज जब इन लगों नोटों के बण्डल थमाए गए थे तब कहाँ गयी थी आपके रीती-रिवाज और इनकी संसकिरती, नोटों की लालच में आकर इन लोगों ने वो सब कुछ खो दिया है जो इन लोगों को पुरानी टिहरी ने दिया था !

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नई टिहरी की स्थापना तब हुई जब भागीरथी पर विशाल टिहरी हाईडेल प्रोजेक्ट का निर्माण शुरू हुआ। नदी पर बांध बांधने तथा विशाल जलाशय टिहरी झील के बनने से पुरानी टिहरी के वासियों का पुर्नवास इस नये शहर में हो गया। अब नई टिहरी अपनी नई संस्कृति तथा अपना एक नया इतिहास रचने की प्रक्रिया में है।

 नये शहर में एक नई जीवन शैली, एक नई सोच तथा एक नई दृष्टि दिखायी पड़ती है। एक ओर समुदाय का अपनी विरासत तथा परंपरा की ओर गहरा लगाव है, दूसरी ओर वह उत्तराखंड की उन्नति एवं संपन्नता की दिशा में अग्रसर है।

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टिहरी बांध परियोजना  के कारण विस्थापित हुए लोगों को नई टिहरी के रूप में रह
ने को नई जगह मिली जरूर है, पर अब भी यहां कई बरस बीतने के बाद न तो पहले जैसा सामुदायिक जीवन है और न ही पहले जैसी रौनक। जब टिहरी बांध परियोजना से ऐतिहासिक पर्वतीय शहर टिहरी के डूबने की नौबत आई, तो सरकार ने इस शहर के लोगों के पुनर्वास के लिए कुछ गांवों को हटाकर नई टिहरी नाम से नए शहर को आबाद करने का फैसला किया।

पर शहर के लोगों से बात करने पर पता लगा कि सरकार ने नया शहर बसाने में चाहे कितना ही पैसा खर्च किया हो, गांववासियों को चाहे अपने खेत-चारागाह ही क्यों न छोड़ने पड़े हों, पर नए शहर में न ही पहले जैसा सामुदायिक जीवन है और ना ही पहले जैसी रौनक।

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सीढ़ियों ने बढ़ाईं परेशानियां,बुजुर्गों के लिए

क्यों जब नोटों के बण्डल लेकर जा रहे थे तब नहीं सीचा था तब कहाँ थे ये बुजुर्ग, एक ही परिवार के लोगों को भी कई जगह अलग-अलग बसा दिया गया है।

 कुछ लोग इसे सीढ़ियों का शहर कहते हैं। एक वकील आर. एस. डोटियाल ने बताया कि मुझे इस बात का गिला है कि कचहरी पहुंचने के लिए मुझे 1,068 सीढि़यां चढ़कर जाना होता है।

इस कारण बुजुर्ग लोगों का तो बाहर आना-जाना वैसे ही कम हो गया है और घुटनों के दर्द जैसी स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ गई हैं। यही वजह है कि कारों पर निर्भरता बढ़ी है।

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नए शहर में पानी व यातायात जैसी बुनियादी सुविधाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं है, जबकि जलाशय बनने के बाद आसपास के महत्वपूर्ण गांवों व शहरों से दूरियां बढ़ गई हैं।

प्रताप नगर व रैका पट्टी जैसे क्षेत्र में कई गांवों की शिकायत है कि उनके लिए महत्वपूर्ण स्थानों की दूरियां बढ़ जाने के कारण उनकी स्थिति टापूनुमा हो गई है।

 इससे किराया व समय अधिक लगता है। यहां पहुंचते-पहुंचते दैनिक जरूरत की वस्तुएं बहुत महंगी हो जाती हैं। जलाशय पास ही बना है पर रैका पट्टी के गांवों का जल-संकट पहले जैसा बना हुआ है

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टिहरी की सिंगोरी की अभी भी अपनी अलग पहचान

टिहरी के डूबने से भले ही इसका भूगोल खत्म हो गया हो, लेकिन आज भी टिहरी की विश्व प्रसिद्ध मिठाई सिंगोरी की दीवानगी कम नहीं हुई है। झील में समाने के बाद पुरानी टिहरी की कई ऐतिहासिक वस्तुएं व शैलियां विलुप्त हो गई, लेकिन टिहरी के लोगों के दिलों में सिंगोरी के लिए वही आत्मीयता और चाहत है।

दीपावली हो या ईद बिना सिंगोरी के आज भी नई टिहरी में त्योहार अधूरा ही समझा जाता है। बाजारवाद ने भले ही पहाड़ी शहर में नए-नए गिफ्ट और पैकेट वाली मिठाईयां पहुंच गई हों, लेकिन आज भी स्थानीय लोगों के घरों में सिंगोरी की पहले जैसी पैठ है। पुरानी टिहरी से मिठाई का व्यवसाय करने वाले मदन सिंह चौहान बताते हैं कि पुरानी टिहरी से लेकर आज तक सिंगोरी के प्रति लोगों का लगाव बना हुआ है।

 त्योहारों के आते ही सिंगोरी की मांग काफी बढ़ने लगती है, उनका कहना है कि पुरानी टिहरी में लोगों में इस मिठाई के प्रति विशेष लगाव था। बदलते समय के साथ ही लोगों में आधुनिक मिठाई का प्रचलन बढ़ गया है, लेकिन सिंगोरी की अपनी अलग पहचान है।

श्री चौहान बताते है पुरानी टिहरी में उनके पिताजी इस मिठाई को बनाते थे। सिंगोरी मिठाई बनाने में काफी समय लगता है, क्योंकि इस मिठाई को मालू के पत्ते में पैक किया जाता है। मालू के पत्ते पुरानी टिहरी में आसानी से मिल जाते थे।

 नई टिहरी में इनके पेड़ न होने से इन्हें काफी दूर से लाना पड़ता है। खास बात यह कि पुरानी टिहरी में जो सिंगोरी मिठाई बनती थी, उसे लोग अपने दूर-दराज में रह रहे रिश्तेदारों को भेजते थे। इससे उन लोगों तक अपनी माटी की सौंधी खुशबू का अहसास होता था।

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ये थी पुरानी टिहरी

जब से यह पानी की चादर ओढ़ी है तुमन,कुछ खबर ही नहीं रहती तुम्हारी,अच्छा पहले बताओ क्या अब भी मीठा है तेरे तीन धारे का पानी
नहीं-नहीं अब शायद खारा हो गया होगा वह
तुझे क्या पता बहुत आंसू बहे हैं टिहरी तेरे लिए
हां ज्यादातर आंखें बूढ़ी थीं तो क्या

अच्छा बता क्या पहले जैसी महकती है तेरे मालू के पत्तो में लिपटी सिंगौरी
इस बार तेरी क्लोन नई टिहरी से लाया था दो पैकेट
लेकिन सच बताऊं घर और बाहर के खाने जैसा फर्क था उसमें

अच्छा जरा यह तो बता तेरी भागीरथी के ऊपर बना पुल ठीक तो है ना
बहुत याद आता है वह पुल
बस से गुजरते हुए भागीरथी में गिरते सिक्कों की वह खन-खन
देख तो जरा श्रद्धा के सिक्के कब लालच की पोटली में बदल गए पता ही नहीं चला

अच्छा चनाखेत का चौड़ा सा मैदान कैसा है? घास तो नहीं उगी ना उस पर?
बहुत याद आती है चनाखेत में 15 अगस्त पर बच्चों की वह जोशीली परेड
मैंने यहां दिल्ली में भी देखी हैं कई परेड़ें
लेकिन कई-कई मील चलकर आने वाले बच्चों जैसा वह जोश कहां

 

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