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Some Ideal Village of Uttarakhand - उत्तराखंड राज्य के आदर्श गाव!

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Anil Arya / अनिल आर्य:
यहां हर घर में पैदा होता है एक अफसर
देवेंद्र पांड
बागेश्वर। कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
ये लाइनें खंतोली गांव के उन युवाआें पर सटीक बैठती हैं जिन्होंने किसी भी स्कूल से सात किमी दूर रहते हुए भारत की सरकारी सेवाओं में सबसे ऊंचा मुकाम पाया। गांव छोड़कर सड़कों की तरफ भाग रहे लोगों को आईना दिखाया कि सुविधाओं से प्रतिभा नहीं प्रतिभाएं सुविधाओं को जन्म देती हैं।
तमाम सुविधाओं के अभाव में इस गांव के छह लोग केंद्रीय प्रशासनिक सेवा के उच्च पदों तक पहुंचे तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं। सात सौ लोगों के इस गांव में लगभग हर घर से एक अधिकारी निकला है। कुमाऊं में बिजली की रोशनी पहुंचाने वाले पहले इंजीनियर रामचंद्र पंत के गांव में आज भी प्रतिभाओं की कमी नहीं।
कांडा-विजयपुर मार्ग से तीन किमी दूर खंतोली गांव में भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव उसी तरह है जैसे पहाड़ के और गांवों में है। इन अभावों के बावजूद यह गांव कुछ अलग है। इस गांव में इतनी प्रतिभाएं हैं की अंगुली में नहीं गिनी जा सकतीं। देश का शायद ही कोई सेवा क्षेत्र हो जिसका कोई बड़ा पद खंतोली के हिस्से न आया हो। खंतोली से निकली प्रतिभाओं की बात करें तो इसमें एक आईएएस, एक आईएएस एलाइड, दो आईएफएस और एक आईईएस है। सफलता की कहानी यहीं खत्म नहीं होती पांच पीसीएस भी हैं और तीन वैज्ञानिक भी। इसमें दो वैज्ञानिक देश के परमाणु केंद्रों में काम कर रहे हैं। देश की सीमाओं की रक्षा के लिए इस गांव ने एक ब्रिगेडियर, तीन विंग कमांडर और एक कमांडेंट भी दिया है। चिकित्सा और इंजीनियरिंग में भी गांव के युवाओं का बड़ा योगदान है। गांव के पांच युवा डाक्टर और 30 इंजीनियर हैं।
कुमाऊं में बिजली पहुंचाने का काम भी इसी गांव के इंजीनियर रामचंद्र पंत के निर्देशन में हुआ। शिक्षा और संगीत के क्षेत्र में भी खंतोली के नाम बड़ी उपलब्धि है। गांव के आठ लोग महाविद्यालयों में प्रोफेसर हैं तो संगीतज्ञ चंद्रशेखर पंत के नाम पर नैनीताल में संगीत विद्यालय चल रहा है। देश की आजादी में देवी दत्त पंत, नारायण दत्त पंत, हरि दत्त पंत, कीर्ति बल्लभ पंत, पूर्णानंद पंत, चंद्र शेखर पंत, पुरुषोत्तम का नाम भुलाया नहीं जा सकता। सेवानिवृत्त शिक्षक दयाधर पंत बताते हैं कि गांव की सफलता का सबसे बड़ा कारण है लोगों का गांव से जुड़े रहना।
वह कहते हैं गांव में अधिकारियों की कोई कमी नहीं लेकिन हर अधिकारी आज भी गांव से जुड़ा है। समय-समय पर गांव आकर यही अधिकारी गांव में शिक्षा ले रहे युवाओं को आज भी ऊर्जा और आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहे हैं।
epaper.amarujala

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
यहां हर घर में पैदा होता है एक अफसर

Village Khanti- District Bageshwar Uttarakhand

बागेश्वर। कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो। ये लाइनें खंतोली गांव के उन युवाआं पर सटीक बैठती हैं जिन्होंने किसी भी स्कूल से सात किमी दूर रहते हुए भारत की सरकारी सेवाओं में सबसे ऊंचा मुकाम पाया। गांव छोड़कर सड़कों की तरफ भाग रहे लोगों को आईना दिखाया कि सुविधाओं से प्रतिभा नहीं प्रतिभाएं सुविधाओं को जन्म देती हैं। तमाम सुविधाओं के अभाव में इस गांव के छह लोग केंद्रीय प्रशासनिक सेवा के उच्च पदों तक पहुंचे तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं। सात सौ लोगों के इस गांव में लगभग हर घर से एक अधिकारी निकला है। कुमाऊं में बिजली की रोशनी पहुंचाने वाले पहले इंजीनियर रामचंद्र पंत के गांव में आज भी प्रतिभाओं की कमी नहीं। कांडा-विजयपुर मार्ग से तीन किमी दूर खंतोली गांव में भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव उसी तरह है जैसे पहाड़ के और गांवों में है। इन अभावों के बावजूद यह गांव कुछ अलग है। इस गांव में इतनी प्रतिभाएं हैं की अंगुली में नहीं गिनी जा सकतीं। देश का शायद ही कोई सेवा क्षेत्र हो जिसका कोई बड़ा पद खंतोली के हिस्से न आया हो। खंतोली से निकली प्रतिभाओं की बात करें तो इसमें एक आईएएस, एक आईएएस एलाइड, दो आईएफएस और एक आईईएस है। सफलता की कहानी यहीं खत्म नहीं होती पांच पीसीएस भी हैं और तीन वैज्ञानिक भी। इसमें दो वैज्ञानिक देश के परमाणु केंद्रों में काम कर रहे हैं। देश की सीमाओं की रक्षा के लिए इस गांव ने एक ब्रिगेडियर, तीन विंग कमांडर और एक कमांडेंट भी दिया है। चिकित्सा और इंजीनियरिंग में भी गांव के युवाओं का बड़ा योगदान है। गांव के पांच युवा डाक्टर और 30 इंजीनियर हैं। कुमाऊं में बिजली पहुंचाने का काम भी इसी गांव के इंजीनियर रामचंद्र पंत के निर्देशन में हुआ। शिक्षा और संगीत के क्षेत्र में भी खंतोली के नाम बड़ी उपलब्धि है। गांव के आठ लोग महाविद्यालयों में प्रोफेसर हैं तो संगीतज्ञ चंद्रशेखर पंत के नाम पर नैनीताल में संगीत विद्यालय चल रहा है।

देश की आजादी में देवी दत्त पंत, नारायण दत्त पंत, हरि दत्त पंत, कीर्ति बल्लभ पंत, पूर्णानंद पंत, चंद्र शेखर पंत, पुरुषोत्तम का नाम भुलाया नहीं जा सकता। सेवानिवृत्त शिक्षक दयाधर पंत बताते हैं कि गांव की सफलता का सबसे बड़ा कारण है लोगों का गांव से जुड़े रहना। वह कहते हैं गांव में अधिकारियों की कोई कमी नहीं लेकिन हर अधिकारी आज भी गांव से जुड़ा है। समय-समय पर गांव आकर यही अधिकारी गांव में शिक्षा ले रहे युवाओं को आज भी ऊर्जा और आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहे हैं।

Devbhoomi,Uttarakhand:
देवशाल को आदर्श गांव बनाने की कवायद हुई शुरू



गुप्तकाशी। ऊखीमठ ब्लाक की ग्राम पंचायत देवशाल में नागलीला पौराणिक परंपराओं के साथ संपन्न हो गई। समापन पर ग्रामीणाें ने यक्षराज जाख देवता की विधि-विधान से पूजा-अर्चना की।


 इसके बाद धार्मिक आयोजन के अध्यक्ष मुरलीधर देवशाली और ग्राम प्रधान विनोद देवशाली की अध्यक्षता में ग्रामीणाें की एक बैठक आयोजित की गई। बैठक में निर्णय लिया कि गांव को आदर्श गांव बनाया जाएगा।



वक्ताआें ने कहा कि गांव को आदर्श गांव बनाने के लिए सामूहिक प्रयास जरूरी हैं। सबसे पहले गांव में शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाएगा। साथ ही कोई भी व्यक्ति गांव में अपशब्दाें का प्रयोग नहीं करेगा। इस मौके पर युवाआें ने गांव के बुजुर्गों को माला पहनाकर सम्मानित किया। यह भी निर्णय लिया गया कि गांव में सामाजिक सहभागिता के कार्यक्रमाें का दायित्व युवक मंगल दल के पास रहेगा।


 जो भी आदर्श गांव बनाने के लिए बनाए गए नियमाें का उल्लंघन करेगा उससे पांच सौ रुपये अर्थदंड वसूला जाएगा। बैठक में युमंद अध्यक्ष कीर्तिधर देवशाली, कैलाश, मनोहर देवशाली, हर्षवर्धन, ललित, गोदांबरी देवी ने भी विचार रखे।


Source Amarujala

Devbhoomi,Uttarakhand:
गांव बना मिसाल, कौन उठाए मशाल

चिपको आंदोलन की जन्म भूमि रैणी उदास है। वृक्ष मित्र गौरा के सपने अधूरे रह गए और उनकी कल्पनाओं के रंग धूसर। पर्यावरण संरक्षण की मिसाल बने गांव में आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस मशाल को कौन थामे? आगे बढ़ने की आपाधापी में 120 में से 65 परिवार शहरों में जा बसे। वजह भी साफ दिखायी देती है। इंटर कालेज 12 किलोमीटर दूर है और निकटतम अस्पताल 37 किलोमीटर।

चमोली जिले के रैणी गांव के लिए संघर्ष कोई नया शब्द नहीं है। इसी गांव की गौरा देवी ने वर्ष 1974 में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में नई क्रांति का सूत्रपात किया। वन माफिया से जंगलों को बचाने के लिए वृक्षों से लिपटने की यह मुहिम चिपको आंदोलन के नाम से जानी गई। बाद में इसी आंदोलन को प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट ने आगे बढ़ाया।

इसके लिए वर्ष 1986 में भारत सरकार ने गौरा को प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार से भी नवाजा। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद जिले का यह दूरस्थ गांव उपेक्षित ही रहा।

गौरा की सहयेागी 67 वर्षीय बाली देवी अपनी पीड़ा बयां करने से नहीं चूकतीं ' गौरा कहती थी कि गांव समाज को बचाना है तो जंगलों को बचाना होगा। पर आज सरकार रैणी को भूल गयी है। गांव में पीने का पानी नही है। रास्ते भी टूट गये हैं। इसीलिए लोग लगातार गांव छोड रहे हैं।'


ग्राम प्रधान रणजीत सिंह राणा का दर्द भी अलग नहीं है। वे कहते हैं 'गौरा देवी का सपना था कि गांव में पुस्तकालय व वन संग्रह केन्द्र खुले। ये सब तो दूर इंटर की पढाई के लिये भी युवाओं को 12 किमी दूर तपोवन जाना पडता है।'

 ग्रामीण चंद्र मोहन सिंह फोनिया याद करते हैं कि 1991 में अपनी मृत्यु से पहले गौरा ने कहा था 'मैने तो थोड़ा कार्य किया है नौजवान अधिक जोर लगाकर इसे पूरा करें।' लेकिन गांव में जब नौजवान ही नहीं रहेंगे तो काम कौन पूरा करेगा।

Source Dainik Jagran

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
75 साल के हयात ने अकेले बनाई 9 किमी सड़क

पहाड़ काटकर रास्ता बनाने वाले बिहार के दशरथ मांझी की तरह उत्तराखंड के हयात सिंह अब तक नौ किमी सड़क बनाकर सरकार के लिए नजीर पेश रहे हैं।

रोज सुबह 8 बजे निकल जाते हैं घर से
उम्र है 75 साल और उनका काम है रास्ते बनाना। रोज सुबह 8 बजे सब्बल (लोहे की लंबी और नुकीली रॉड) और बेल्चा लेकर निकलते हैं। दोपहर तीन बजे तक शरीर का पसीना निचोड़कर जमीन खोदते हैं और तब कहीं साल-छह महीने में एक मार्ग तैयार होता है।

जिस काम के लिए नेता जनता से वोट मांगते हैं, वो काम हयात सिंह अकेले अपने फौलादी इरादों के दम पर कर रहे हैं।
पणकोट गांव के हैं हयात सिंह। अब तक ढाई से तीन किलोमीटर लंबे चार रास्ते बना चुके हैं।

हर रास्ते की चौड़ाई करीब तीन से साढ़े तीन फीट है। लोक निर्माण विभाग से बेलदार पद से रिटायर इस बुजुर्ग ने नौकरी के बाद ही रास्ते बनाने का लक्ष्य तय किया और आज भी अपना मकसद पूरा करने को वह अकेले निकलते हैं।

एक और खासियत यह कि अगर कहीं पर रास्ता खराब दिखाई दे तो वो उसे भी ठीक करने में जुट जाते हैं। शमशान घाट को जोड़ने वाला रास्ता उन्हीं की देन है। हवालबाग विकासखंड के अंतर्गत आने वाला पणकोट गांव रानीखेत से करीब 28 किमी दूर है।

मुख्य सड़क से गांव पहुंचने में दो किमी पैदल चलना पड़ता है। हयात सिंह बताते हैं कि जब रिटायर हुए तब आसपास के गांवों को जोड़ने के लिए छोटे-छोटे रास्तों का अभाव था। पुराने मार्ग क्षतिग्रस्त हो गए थे। चरवाहों के जंगल जाने के लिए तक रास्ते सही नहीं थे।

गांव के लोगों ने नेताओं से संपर्क मार्ग रास्ते बनाने की गुहार लगाई, लेकिन मार्ग बनने तो दूर, खराब रास्तों की हालत तक नहीं सुधारी गई। इसीलिए उन्होंने अकेले यह बीड़ा उठाया।

आज भी हयात सिंह रोज सुबह उठते हैं और नाश्ता करने के बाद आठ बजे बेल्चा, सब्बल पकड़कर मार्ग बनाने में जुट जाते हैं। इस कार्य के लिए उन्हें कहीं से भी किसी तरह का सहयोग नहीं है। उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुंच चुके यह बुजुर्गवार कहते हैं कि अब अंतिम सांस तक इसी तरह रास्ते बनाता रहूंगा।

ये संपर्क मार्ग बनाए हैं
उजगल से केस्ता - तीन किमी
पणकोट-शमशानघाट मार्ग - दो किमी
पणकोट-जंगल मार्ग - डेढ़ किमी
पणकोट-चारढुंगा मार्ग - ढाई किमी

मांझी ने पहाड़ काटकर बनाया था रास्ता
दशरथ मांझी ‘माउंटेन मैन’ के तौर पर मशहूर हैं। वह बिहार के गया जिले के गहलौर गांव के रहने वाले थे। मांझी ने 1960 से लेकर 1982 के बीच 22 साल हथौड़ा और छेनी चलाकर पहाड़ का सीना चीरकर रास्ता बनाया था। गहलौर से अतरी और वजीरगंज ब्लाक के अस्पताल में जाने के लिए 80 किमी का सफर तय करना पड़ता था।

मांझी की पत्नी गिरकर घायल हो गयी थी। उन्हें समय पर उपचार नहीं मिल पाया, जिससे उनकी मौत हो गई। उनकी पत्नी जैसा दूसरे के साथ नहीं हो, इसके लिए मांझी ने गांव की पहाड़ी को चीरकर रास्ता बनाने ठान ली।

उन्होंने पहाड़ को चीरकर 360 फीट लंबा और 30 फीट चौड़ा रास्ता बना दिया। इसके बाद उनके गांव से अस्पताल की दूरी मात्र तीन किमी रह ! (source amar ujala)

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