उत्तराखंड की सम्मानित जनता!
पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव ऐसे समय में हो रहे हैं जब देश और दुनिया में के सामने अपनी चिन्तायें और चुनौतियां हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां आम लोगों की बुनियादी जरूरतें और उनकी आंकांक्षाओं को पूरा करने का सबसे सबल मंच ससंद है में अब उनके सवाल नहीं उठाये जा रहे हैं, यह सबसे बड़ी चिन्ता का विषय है। देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के लिये वे सवाल ज्यादा मायने रखते हैं जो भूमंडलीकरण से पैदा हुयी कारपोरेट संस्कृति का हित साधन करती है। दुर्भाग्य से संसाधनों और ग्लैमर के बीच लड़ा जा रहा यह लोकसभा चुनाव ऐसे मुद्दों को लेकर लड़ा जा रहा जिसका आम जनता से कोई सरोकार नहीं है। क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के अपने सरोकार और अपनी प्रतिबद्धतायें हैं, इसलिये हमारी प्राथमिकतायें जनता के सवालों को उठाना और उनका समाधान करना है। उत्तराखंड क्रान्ति दल पिछले तीस साल से पोषित अपनी इन प्रतिबद्धताओं को समझते हुये मौजूदा लोकसभा चुनाव में शिरकत कर रहा है। हमें उम्मीद है कि जनता इस चुनाव में ऐसा फैसला लेगी जो उत्तराखंड के नवर्निर्माण का रास्ता तय करेगा।
उत्तराखंड देश का वह भूभाग के जिसकी अपनी विशिष्ट पहचान रही है। पौराणिक काल में मानस खंड और केदारखंड के नाम से जाने जाने वाले इस क्षेत्र का आध्यात्मिक महत्व रहा है। ऋषि-मुनियों की यह तपोभूमि आध्यात्म, ज्ञान, एकता, सर्वधर्म सद्भाव की गंगोत्री का उद्गम स्त्रोत भी रहा है। भगीरथ ने यहां तपस्या कर गंगा को अवतरित किया जो देश की जीवनदायिनी और एकता का संदेश देकर सबकी पूज्य बनी है। भरत से लेकर आदि गुरु शंकराचार्य, अत्रि मुनि से लेकर स्वामी विवेकानन्द, महाऋषि व्यास और महाकवि कालीदास से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर तक और बाद में महादेवी वर्मा तक की एक समृद्ध ज्ञान गंगा का उद्गम और उसे पल्लवित-पुष्पित करने वाला यह क्षेत्र रहा है। इसी हिमालय से आध्यात्म की दीक्षा लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की। गुरु नानक, गुरुगोबिन्द सिंह से लेकर पीरान कलियर जैसे संतों ने इसे अपनी सद्विचारों को पोषित करने की जगह बनाया। इसलिये हिमालय न केवल विशाल है यह उतना ही गहरा भी है। इसका एक व्यापक फलक है जो सभी धर्मों, जातियों, क्षेत्र और भाषा के लोगों के लिये जगह बनाता है। इस समृद्ध विरासत को बचाने की चुनौती सबसे बड़ी है। हिमालय को बचाने की परिकल्पना ही उत्तराखंउ राज्य की मूल परिकल्पना रही है। हमारा मानना है कि हिमालय बचेगा तो देश बचेगा। हिमालय के बिना देश का अस्तित्व नही है।
उत्तराखंड का जहां पौराणिक काल से अध्यात्मिक महत्व रहा है वहीं यहां के निवासियों ने हमेशा देश की रक्षा के लिये एक समृद्ध सैन्य परंपरा को भी जन्म दिया है। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में यहां के रणबांकुरों ने अपनी वीरता से पूरी दुनिया को चकित कर दिया। क्टिोरिया क्रास विजेता गब्बर सिंह और दरवान सिंह नेगी इस पंरपरा के वाहक रहे। आजादी के बाद मेजर सोमनाथ शर्मा और मेजर शैतान सिंह ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। आजादी की लड़ाई में यहां के लोगों की न केवल अग्रणी बल्कि केन्द्रीय भूमिका रही। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने पेशावर मे निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर जो इतिहास रचा वह देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता का महत्वपूर्ण पड़ाव था। बलिदानों से भरी इस धरती ने माधो सिंह भडारी, श्रीदेव सुमन, नागेन्द्र सकलानी, मोलू भरदारी, जयानन्द भारती, गढ़ केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, कुमांउ केसरी बद्रीदत्त पांडेय, विक्टर मोहन जोशी, जय हिन्द का नारा देने वाले राम सिंह धौनी को जन्म दिया। आजादी के पूरे आंदोलन में सल्ट से लेकर सालम की क्रान्तियो और देघाट, चंपावत से लेकर टिहरी रियासत के खिलाफ रंवाई के तिलाड़ी के मैदान तक की शहादते यहां के देश प्रेम की मिशालें रही हैं। आजादी के बाद भी देश भारत-चीन युद्ध रहा हो या भारत-पाक युद्ध, बाग्लादेश का विभाजन रहा हो या श्रीलंका में शान्ति सेना, कारगिल का युद्ध रहा हो या संसद और मुंबई में आतंकियों के खिलाफ आपरेशन, सीमा पर चैकसी और आन्तरिक सुरक्षा में यदि सबसे ज्यादा जानें गई हैं तो पहाउ़ के सपूतों की गई हैं, सबसे ज्यादा मां की गोद सूनी हुयी तो पहाड़ की मांओं की, सबसे ज्यादा संदूर मिटा तो पहाड़ की बहिनों का। हमने कभी भी देश की सेवा के लिये अपने सपूतों के सिरों की गिनती नही की। इस गौरवमयी परंपरा और शहादत के बाद इस क्षेत्र को आजाद भारत में क्या मिला यह सवाल सबसे पहले उठाया जाना चाहिये। यह सवाल भी उठाया जाना चाहिये कि सामरिक दृष्टि से संवेदनशील इस क्षेत्र के विकास के लिये क्या तरीका हो जो यहां की समृद्धि और एक समृद्ध धरोहर को आगे ले जा सके। दुभाग्र्य से यह सवाल आज तो क्या कभी नहीं उठाया गया। यह आज नहीं हमेशा की जरूरत है। इन सवालों को और ज्यादा दिन नहीं टाला जाना चाहिये। यह सवाल राज्य बनने के आठ साल भी क्यों उठाया जा रहा है इस पर भी विचार किया जाना जरूरी है। इसी सवाल को हम इस लोकसभा चुनाव में उठाना चाहते हैं। वह इसलिये भी कि ये कभी राजनीतिक दलों के एजेंडे में नहीं रहे हैं।
इन तमाम सवालों की अभिव्यक्ति ही उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना थी। असल में उत्तराखंड में सत्तर के दशक में स्थानीय संसाधनों पर लूट के खिलाफ लोगों में नई चेतना का संचार हुआ। यहां जंगलों के बीच रहने वाली जनता के हक-हकूकों केा छीना जाने लगा। स्टार पेपर और बिजोरिया जैसे शरमायेदारों को तीस साला एग्रीमेंट पर जंगल लीज पर दे दिये गये। इससे पहाउ़ में भारी अंसतोष पैदा हुआ। युवा और छात्र शक्ति ने मिलकर उस समय जंगलों को बचाने के लिये व्यापक आंदोलन चलाया। इससे जो नई चेतना का संचार हुआ वह बाद में आपातकाल में लोगों की भागीदारी के रूप में एक ताकतवर राजनीतिक उभार के रूप में सामने आया। यही चेतना बाद में यहां उन आंदोलनों का मंच बना जो यहां की समस्याओं को लेकर किये जाते रहे। कुल मिलाकर अपने को छले जाने की पीड़ा आंदोलन के रूप में सामने आने लगी। असल में इस तरह का असंतोष पृथक राज्य की अवधारणा ही थी लेकिन यह हमेंशा टुकड़ों और अले-अलग समस्याओं तक ही सीमित रही। वर्ष 1969 में ऋषिवल्लभ सुन्दरियाल के नेतृत्व में पहली बार राज्य की मांग सड़कों पर आयी। बाद में सुन्दरियाल जी और सांसद त्रेपन सिंह नेगी के नेतृत्व में 1972 में यह मांग दिल्ली में रैली के माध्यम से अभिव्यक्त हुयी। हालांकि आजादी से पहले भी इसे प्रशासनिक इकाई बनाये जाने के बारे सोचा जाने लगा था। आजादी के बाद कामरेड पीसी जोशी ने राज्य की बात को बहुत दमदार तरीके से रखा। जब फजली अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन आयोग बना तो लोगों को उम्मीद थी कि उत्तराखंड को इसमें शामिल किया जायेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। साठ के दशक में देश मे कई राज्य बने। उस समय भाषाई पर दक्षिण में राज्यों का निर्माण हुआ। देश में राजनीतिक उतार-चढ़ाव के साथ राज्य की मांग भी धूप-छांव में रही। हमारे राजनीतिक प्रतिनिधियों ने हमेशा इस मांग की उपेक्षा की यहां तक कि आजादी के बाद जितनी भी पार्टियां यहां राजनीतिक करती रही वह राज्य के विरोध में खड़ी रही। असल में इन राजनीतिक दलों के लिये पहाड़ हमेशा एक उपनिवेश रहा यहां के संसाधनों को लूटने का।
उत्तराखंड राज्य और यहां की जनता की आकांक्षाओं को सही दिशा और राजनीतिक दिशा देने का काम उक्रांद ने किया। राज्य की एकमात्र मांग को लेकर 25 जुलाई 1979 को मसूरी में दल की स्थापना हुयी। इसके पहले अध्यक्ष विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. डीडी पन्त रहे। यही वही रास्ता था जो आखिर में राज्य प्राप्ति तक गया। जनता ने पहले पार्टी को पहले ही चुनाव में विधानसभा में भेज दिया। 1980 में रानीखेत से जसवनत सिंह बिष्ट पार्टी के विधायक बनकर उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचे। 1995 में काशी सिंह ऐरी और 19989 में दोनों विधायक बने। यह वह दौर था जब पार्टी ने उन तमाम सवालों को उठाना शुरू किया जिससे यहां की जनता सदियों से छली-ठगी जा रही थी। 1985 से लेकर 1994 में राज्य पा्रप्ति के निर्णायक आंदोलन तक पार्टी ने जमकर संघर्ष किया। पहाड़ के गांधी इन्द्रमणि बडौनी, काशी सिंह ऐरी के नेतृत्व में 23 नवंबर 1987 को दिल्ली के वोट क्लब पर दो लाख से अधिक लोगों की रैली ने दिल्ली में दस्तक दी। 24, 36, 48 और 72 घंटे के उत्तराखंड बंद के अलावा कुमाउं और गढ़वाल कमिश्नरियों के घेराव ने राज्य की प्रासंगिकता को लोगों तक पहुंचाया। वन अधिनियम जैसे काले कानून के खिलाफ लोगों की व्यापक गोलबंदी ने राज्य के सवाल और यहां के संसाधनों पर स्थानीय लोगों के हक की लड़ाई को मजबूत किया। पूरा पहाड़ समझने लगा कि बिना राज्य के पहाड़ का विकास संभव नहीं है। इसके लिये क्षेत्रीय राजनीतिक दल उक्रांद ही इसे आगे ले जा सकता है। इसे जनता ने 1989 के चुनाव में बताया भी। उस समय अविभाजित उत्तर प्रदेश की 19 विधानसभा सीटों में से 11 पर हमारे प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे। इसमें भी वे पांच-सात सौ वोट से ही हारे। अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ संसदीय सीअ से काशी सिंह ऐरी मात्र सात हजार और टिहरी से इन्द्रमणि बडोनी मात्र ग्यारह हजार वोट से हारे। यह एक तरह से राज्य आंदोलन को जनता का समर्थन था। उक्रांद राज्य संघर्ष का ध्वजवाहक बना। लेकिन हमारी ताकत बढ़ने से उन राजनीतिक दलों को वैचेनी होने लगी जो हमेशा राज्य का विरोध करते थे। भाजपा के शीर्ष नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी ने नवंबर 1987 में इस मांग को राष्टद्रोही मांग कहा। लेकिन झग मारकर उन्होंने इस मांग को उलझाने के लिये उत्तरांचल का नारा दे दिया। कांग्रेस जैसी पार्टी जो हमेशा इसके खिलाफ रही वह पहले हिल कोंसिल और बाद केन्द्र शासित राज्य की बात कहकर इस मांग को गलत दिशा देने में लगी रही। 1994 में जब इन्द्रमणि बडोनी के नेतृत्व में राज्य संघर्ष चला तो तब इन्होंने आंदोलन में घुसने की कोशिश की। जब उक्राद आंदोलन लड़ रहा था तब ये लोग इसमें घुसकर इसे कमजोर करने में रहे। मुज्जफरनगर, मसूरी और खटीमा और दिल्ली रैली इसका उदाहरण हैं। कांगे्रस के एक बड़े नेता जहां फर्जी संगठन बनाकर गृह राज्य मंत्री से वार्ता कर रहे थे वहीं भाजपा के एक बड़े नेता और सांसद पहाड के सैनिकों के हथियार चलाने के खतरों को बता रहे थे।
खैर, उत्तराखंड राज्य बना। यह राजनीतिक दलों की कृपा पर नहीं बना। यह जनता की ताकत पर बना। आजादी के पचास साल के आंदोलन में उत्तराखंड के तेरह लोगों की शहादत हुयी लेकिन राज्य संघर्ष के 1994 के मात्र चार माह में 42 लोगों ने अपनी शहादत दी। जिसमें हंसा धनाई और बेलमती चैहान जैसी महिलाओं ने अपनी शहादत दी और मुज्जफरनगर में पहाउ़ की मां-बहिने अपमानित हुयी। बावजूद इसकंे वेशर्म राजनीतिक दल राज्य बनाने का श्रेय लेने में जुट गये। यही त्रासदी पहाड़ के राष्टीय दलों की रही है कि वे कभी जनता के नहीं हुये उनके अपने आका है, उनकी उनके प्रति प्रतिबद्धता है। उत्तराखंड राज्य बनने के आठ साल बाद समस्यायें वहीं खड़ी हैं जहां से राज्य की मांग शुरू हुयी थी। हमारे लिये आज भी राज्य के विकास के सवाल महत्वपूर्ण है। राज्य की तमाम समस्याओं का समाधान न हो पाने का सबसे बड़ा कारण आज भी राजनीतिक दलों की यहां के विकास के बारे में समझ का अभाव रहा है। यह अभाव राज्य की मांग उठते समय भी था और राज्य बनने के आठ साल बाद भी। राज्य बनने के बाद इसके पुनर्निर्माण की जरूरत है जिसे हम अपनी प्राथमिकता मानते हैं। कुछ सवाल हैं जिनका उत्तर यहां की जनता को कभी नहीं मिले। वे सवाल अब भी हैं। ये तब तक नहीं सुलझाये जा सकते जब तक सत्ता में इन्हें समझने वाले लोग न जायें।
उक्राद आज भी इन्हीं मुद्दों को लेकर चुनाव में है जिसके लिये वह पिछले तीस साल से संघर्ष कर रहा है। उत्तराखंड राज्य की मांग सिर्फ एक अलग प्रशासनिक इकाई के गठन की नहीं थी। इसके पीछे हमारी पार्टी का वह दर्शन था जिसके माध्यम से हम भारत के शीर्ष पर एक खुशहाल राज्य का सपना देखते थे। हमारे कुछ नारे थे- ‘‘रहे चमकता सदा शीर्ष पर ऐसा उन्नत भाल बनाओ, उत्तराखंउ को राज्य बनाकर भारत को खुशहाल बनाओ’’, हिमालय रूठेगा, देश टूटेगा’’, बहुत सहा है, अब न सहेंगे, शोषण-दोहन अब न सहेंगे।’’ असल में ये नारे हमारी उस परिकल्पना के राज्य के थे जो जनता का राज्य होगा। लेकिन राज्य बनने के इन आठ सालों में दो दलों की सरकार चार मुख्यमंत्रियों के बाद भी तस्वीर सुधरने के बजाए भयावह हुयी है। हिमालय को बचाने की चिन्ता हमारे दर्शन में है। यह हमारा राजनीतिक प्रस्थान बिन्दु भी है। हिमालय को बचाने की कीमत पर हम कुछ भी कर सकते हैं। हिमालय को बचाने का मतलब है यहां के संसाधनों के सही नियोजन पर आधारित विकास। हिमालय को बचाने का मतलब है यहां की समृद्ध सांस्कृतिक, प्राकृतिक धरोहर को बचाना। हिमालय को बचाने का मतलब है यहां जल, जंगल और जमीन की हिफाजत और उसमें स्थानीय लोगों की सहभागिता और उससे पलायन को रोकना। उत्तराखंउ की भाषा, संस्कृति, संसाधन तभी बचेंगे जब इन्हें बचाने वाले लोग यहां रहेंगे। राज्य की मांग के समय यही मांग प्रमुख थी कि यहां के पानी और जवानी को पलायन होने से बचाया जाये। लेकिन राज्य बनने के बाद नाकारा सरकारों और नीति नियंताओं ने इसे और तेज कर दिया। पिछले आठ सालों में सरकार ऐसी नीतियां बनाने में नाकाम रही है जिससे यहां पलायन रुके। भाजपा-कांग्रेस सरकार की नाकामियों को इसी बात से समझा जा सकता है कि उत्तराखंड से आजादी के साठ साल में पचास लाख से अधिक लोगों ने पलायन किया है। आश्चर्य की बात यह है कि इनमें से 23 लाख लोगों ने पिछले एक दशक में पलायन किया है। पिछले 13 सालों में पहाड़ के पौने दो लाख घरों में ताले पड़ गये हैं। यह एक खतरनाक स्थिति है। तेजी के साथ खाली होते गांव और इनमें काबिज होता भू माफिया आने वाले दिनों में पहाड़ के लिये भारी खतरे पैदा करने वाला है। यहां एक नये किस्म के समाज का निर्माण हो रहा है। भीमताल, नोकुचियाताल, भवाली, लमगड़ा, मजखाली से लेकर ऋषिकेश से लेकर बदरीनाथ तक की पूरी जमीनें बिक गयी हैं। यह भी पता करना होगा कि आखिर भूमाफिया के लिये यह खुली छूट किसने दी।
पलायन से सबसे बड़ा सवाल राजनीतिक प्रतिनिधित्व और विकास पर पड़ा है। नये परिसीमन में उत्तराखंउ के दस पर्वतीय जिलों से छह सीटें मैदान के तीन जिलों में समाहित की गयी हैं। यदि उक्रांद ने लड़ाई नहीं लड़ी होती तो यहां नौ सीटें कम हो जाती। परिसीमन का सवाल उक्रांद के मुख्य मुद्दों में से एक है। परिसीमन से पहाड़ को हुये नुकसान के लिये भाजपा और कांग्रेस जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्हीं दोनों पार्टियों के सांसद यहां का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। इन्हीें को परिसीमन आयोग के सामने पक्ष रखना था लेकिन उन्होंने कभी इसें गंभीरता से नहीं उठाया। उका्रंद ने 1992 में अपने बागेश्वर घोषणा पत्र में परिसीमन को जनसंख्या के साथ क्षेत्रफल के आधार पर करने की बात कही थी। हमने उस समय कहा था कि हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड को छोड़कर 10 हजार से लेकर 80 हजार की जनसंख्या पर एक विधान सभा सीट है। जम्मू में 80 हजार, हिमाचल में 60 हजार, मणिपुर 23 हजार, सिक्किम में 10 हजार और अरुणाचल प्रदेश में 21 हजार पर एक विधानसभा सीट थी। इस हिसाब से हमने उत्तराखंड की विधानसभा के लिये 105 से लेकर 120 सीटों का प्रावधान किया था। जब राज्य बना तो 70 सीटें हमें मिली। उस समय केन्द्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार थी और राज्य के प्रस्ताव को समर्थन देकर श्रेय लूटने में कांग्रेस भी लगी थी लेकिन इनको इसका ध्यान नहीं था। बाद में पहाड़ से छह सीटों को यहां से हटाने की साजिश ये लोग करते रहे। हमने परिसीमन आयोग के सामने नैनीताल में प्रदर्शन कियाा तमाम कोशिश के बाद हम तीन सीट बचा पाये। परिसीमन का मुद्दा महत्वपूर्ण है जिसे अब हम कोर्ट में जाकर लड़ रहे हैं। परिसीमन से जुड़ी एक और बात है, वह है जिला और ब्लाक बनाने की। हमने राज्य के लिये अपना जो ब्लू प्र्रिंट तैयार किया था उसमें 23 जिलों का प्रावधान किया था जिसमें मौजूदा जिलों के अलावा पंतनगर, काशीपुर, मंदाकिनी, लैंसडाउन, रामगंगा, रंवाई, प्रतापनगर, नरेन्द्रनगर, विकासनगर और राजधानी क्षेत्र चन्द्रनगर को जिला बनाने की बात थी। हम आज भी इस पर कायम हैं। हम चार कमिश्नरियों का भी लगातार समर्थन करते रहे हैं। इस प्रकार हमने 180 विकास खंडों और पेंसठ तहसीलों का प्रावधान भी उत्तराखंड में रखा था। यह आज भी उसी तरह प्रासंगिक हैं जैसी आज से 25 साल पहले इसलिये जनहित के ये मुद्दे हमारी प्राथमिकता में हैं।
हमारे लिये चन्द्रनगर, गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का सवाल इस चुनाव में प्रमुख है। गैरसैंण सिर्फ राजधानी नहीं बल्कि उत्तराखंड के विकास के विकेन्द्रीकरण का दर्शन भी है। हमने 25 दिसंबर 1993 में जब गैरसैंण का नाम वीर चनद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चन्द्रनगर रखा तो हम उसे पहाड़ के बीच एक ऐसी राजधानी देखना चाहते थे जो सबकी पहुंच और अपने शासन का अहसास कराने वाली हो। 1994 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित कोशिक समिति ने राज्य के सभी हिस्से और वर्गों के लोगों से राजधानी के सवाल पर राय मांगी। 68 प्रतियात लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में थे। लेकिन जब राज्य बना तो अंतरिम सरकार भाजपा की बनी। उस भाजपा की जिसने हर कदम पर हमेशा राज्य का विरोध किया। उसने सबसे पहला काम राज्य का नाम बदलना और दूसरा राजधानी के लिये अलोकतांत्रिक तरीके से राजधानी चयन आयोग का गठन करने का काम किया। दीक्षित आयोग भाजपा ने बनाया बाद मे कांग्रेस ने उसे आगे बढ़ाया। तमाम कुतर्कों और किसी तरह इससे लोगों का ध्यान हटाने के लिये राजनीतिक दलों ने 11 बार इसका कार्यकाल बढ़ाया। अब इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है लेकिन यह सरकार उस रिपोर्ट की सिफारिशों को इसलिये नहीं सार्वजनिक करना चाहती है क्योंकि उसे भी लगता है कि इसमें गैरसैंण के पक्ष में ही फैसला होगा। हमें दीक्षित आयोग की संस्तुति से कोई लेना-देना नहीं है। हमारे लिये जनता की भावनायें ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। जनता की भावनायें गैरसेंण को राजधानी बनाने के पक्ष में है इसलिये गैरसैंण से कम में हम किसी बात को स्वीकार नहीं करेंगे। राजधानी का सवाल और शीघ्र गैरसैंण बनाने की बात हमारे ऐजेंडे में है।
जैसा मैंने पहले भी कहा कि पहाड़ में संसाधनों को बचाने का सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। यह सभी राजनीतिक दलों के एजेंडे में होना चाहिये था। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता। ये दल पहाड़ के जंगल और नदियों को जितनी जल्दी हो सके नफाखोरों के हवाले कर देना चाहती हैं। यही कारण है इस समय राज्य में दो सौ से ज्यादा बांध प्रस्तावित हैं। इनमें से 700 किलोमीटर की सुरंगे निकलनी हैं। बिजली प्रदेश बनाने के लिये लोगों को डुबाने की साजिश इन सरकारों और पार्टियों ने की है। ताजुब्ब की बात तो यह है कि इन पार्टियों के नेता सीधे बांध निर्माण कपंनियों के लिये दलाली में उतर आये हैं। भाजपा के एक बड़े नेता ने कपकोट में बांध बनाने वाली कंपनी के समर्थन में जिस तरह जनता का रुख अख्तियार किया वह नेताओं के चरित्र को समझने के लिये काफी है। इतना ही नहीं भाजपा और कांग्रेस बांधों के सवाल पर जिस तरह एक साथ नफाखोरों के पक्ष मे खड़ी होती है वह यह समझने के लिये काफी है कि इनके लिये राज्य की जनता की कीमत क्या है। आपको यह जानकर ताजुब्ब होगा कि टिहरी बांध बनाने वाली दो बड़ी कंपनियों थापर और जेपी ने यहां की बड़ी जमीनों पर भी कब्जा कर दिया। पिछले दिनों उच्च न्यायालय ने उन पर 11 करोड़ और सात लाख का जर्माना लगाया है और उनकी बेदखली के आदेश दिये हैं। इन बांध माफियाओं के आतंक को इसी बात से समझा जा सकता है पिछले दिनों रेड्डी नाम के एक कंपनी मेनेजर को तो एक पार्टी ने टिहरी से चुनाव लड़ने तक का न्यौता दे दिया था। इन सवालों को उठाने और जनता की तकलीफों को समझने और उन्हें मुद्दा बनाने के लिये इस चुनाव में उक्रांद ने अपनी भागीदारी की है।
रोजगार का सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। राज्य में जब पहली चुनी हुयी सरकार कांग्रेस की बनी तो उसका नेतृत्व विकास की समझ रखने वाले नारायण दत्त तिवारी को सौंपाी गयी। बताया गया कि उनके आने से क्षेत्र में नई क्रान्ति आ जायेगी। रुद्रपुर और हरिद्वार में सिडकुड की स्थापना और पूंजीपतियों को सब्सिडी पर उद्योग लगाने के आमंत्रित किया गया। कहा गया कि यहां 70 प्रतिशत युवाओं को रोजगार मिलेगा। यहां बड़ी संख्या में उद्योगपति आये। आज बड़ी संख्या में सब्सिडी डकार कर इनके जाने का सिलसिला शुरू हो गया है। यहां जो उद्योग हैं वे भी पैकिजिंग उद्योग बन कर रह गये हैं। सरकार ने कृषि योग्य जमीनों को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया और स्थानीय जनता रोजगार के लिये दर-दर भटक रही है। पिछले दिनों रुद्रपुर से भागी हीरो होंडा इसका उदाहरण है। इन दो पार्टियों की सरकारों के पास कोई उद्योग नीति नहीं है। इनकी नीतियां हमेशा पूंजीपतियों का हित साधने वाली रही हैं। पर्वतीय क्षेत्र के कुटीर उद्योग दम तोड़ रहे हैं। रोजगार के सवाल को हमने प्रमुखता से रखा है। हमारा मानना है कि राज्य में जो भी उद्योग लगें उनमें जब तक स्थानीय लोगों को लाभ नहीं मिलता तब तक उन्हें किसी प्रकार के प्रोत्साहन की जरूरत नहीं हैं। अविभाजित उत्तर प्रदेश में काशीपुर और भीमताल में उद्योग लगाने के लिये जिस तरह पूंजीपतियों को बुलाया गया वे यहां की जमीनों पर कब्जा और सब्सिडी खाकर भाग गये आज यहां के सभी उद्योग बंद हो गये हैं। भीमताल में तो उन भवनों मे रिसार्ट बन गये हैं। यही सिडकुड और अन्य उद्योगों में होने की आशंका है। उक्रांद यहां उद्योगों के लिये अचछा माहौल बनाते हुये उसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करना चााहता है। मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों के लिये स्पष्ट और जनपक्षीय उद्योग नीति बनाना पार्टी की प्राथमिकताओं मे है।
राजनीतिक दल हमेशा उत्तराखंड को देवभूमि कहते रहे हैं। वे हमेशा इसी जुमले से पहाड़ का बलात शोषण भी करते रहे हैं। पिछले एक दशक से भय मुक्त समाज देने वाले और रामराज्य की बात करने वाले लोगों के नेतृत्व में जिस तरह अपराध ने पहाड़ चढ़ा है वह राज्य मे अब तक रही सरकारों की नाकामी को बताने के लिये काफी है। आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि इस समय अपराधों में उत्तराखंड का अठारवां स्थान है। यह ने केवल चैंकाने वाला है बल्कि पीड़ादायक भी है। मैं कुछ ऐसी घटनाओं का जिक्र करना चाहता हूं जो प्रदेश में अपराध की प्रवृत्ति और उसके दायरे को समझने के लिये काफी है। वर्ष 2006 से जिस तरह के अपराध घटे हैं वह हमारे राजनेताओं के तमाम दावों और देवभूमि की बातों को समझने के लिये बहुत हैं। वर्ष 2006 में हल्द्वानी के पास हल्ूचोड़ के डाॅन बास्को स्कूल के एक छात्र को विद्यालय परिसर में ही पीट-पीटकर मार डाला। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की एक शिक्षिका का अश्लील वीडियो बनाया गया। गढ़वाल विश्वविद्यालय की एक छात्रा का एमएमएस बनाकर वितरित किया गया। हरिद्वार में सत्ता पक्ष के तीन नेताओं को एक कार में एक महिला के साथ आपत्तिजनक स्थितियों में पकड़ा गया, बाद में उस महिला की दिल्ली में संदिग्ध हालत में लाश मिली। इस एक साल के भीतर लमगड़ा विकास खंड में एक ही महीने में सात हत्यायें हुयी। भैसियाछाना विकास खंड में एक स्कूली लड़की को उसके गांव में ही चाकू से गोद कर हत्या कर दी गयी। यहीं एक मंदिर के बाबा को भी मार डाला। चैखुटिया विकास खंड में एक सप्ताह के भीतर तीन हत्यायें हुयी। इनमें एक बाप ने अपनी बेटी और एक बेटे ने अपने बाप की हत्या की वहीं गांव में दुकान करने वाले एक विकलांग को भी अपराधियों ने मौत के घाट उतार दिया। गोपेश्वर में एक सप्ताह के भीतर महिलाओं के दो अश्लील वीडियो बनाये गये। ताड़ीखेत विकास खंड के पांडेकोटा गांव की लड़की दीपा बिष्ट को अपराधी उसके गांव के बाहर से उठा ले गये दूसरे दिन उसकी लाश दिल्ली के मंडावली में मिली। अभी हाल में लालकुंआ का प्रीति हत्याकांड सबसे ताजा है जिसमें पुलिस ने अपराधियों को पकड़ने की बजाए इन्हें पकड़े की मांग करने वाले लोगों को ही जेल भेज दिया। ये कुछ उदाहरण मैंने इसलिये दिये कि इस सरकार की असलियत को सब लोग समझे। यह समझना इसलिये भी जरूरी है क्योकि राज्य में भाजपा का नेतृत्व सेना के ईमानदार और देश के सफलतम मुख्यमंत्राी कर रहे हैं। इन अपराधों को राजनीतिक संरक्षण का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रीति हत्यांकांड की सीबीआई की जांच की मांग कर रहे लोगों को पुलिस ने राष्ट्रदा्रेह की धाराओं में अन्दर कर रखा है। इनमें एक परिवार के चार सदस्य हैं इनमें दो महिलायें भी शामिल हैं। यह सरकार कितनी जनविरोधी है इसका पता इस बात से भी लगता है निर्दोषों को संगीन धाराओं में जेल भेजने वाले पुलिस इंस्पेक्टर को सरकार ने विशेष पदक से सम्मानित किया है। यह सरकार छोटे-मोटे अपराधों पर भी अंकुश लगाने में नाकाम रही है। लेकिन उसे राज्य में जनआंदोलन करने वाले तमाम लोग राष्ट्रद्रोही दिखाई दे रहे हैं। सरकार ने केन्द्र से तराई में अतिरिक्त पुलिस बल के लिये 16 सौ करोड़ रुपये का पैकेज मांगा। द्वाराहाट, सोमेश्वर और तराई में आंदोलन कर रहे लोगों को जिन धाराओं में बंद किया गया वह लेकतांत्रिक व्यवस्था को शर्मसार करने वाला है। पहाड़ में बढ़ रहे अपराधों से यहां का सामाजिक समरसता को भारी नुकसान पहुंच रहा है। इस चुनाव में इसकी अनदेखी करना ठीक नहीं है। आप सब लोग इन अपराधों को हिसाब मांगिये। विश्वास मानिये यह बिल्कुल आपकी गर्दन के पास आने वाला है। इसके जिम्मेदार राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन और बिजली-पानी की तमाम समस्यायें राज्य में मुह-बांये खड़ी हैं। राष्टीय दलों के राजनीतिक एजेंडे में ये सवाल नहीं उठाये गये हैं। वे इन सवालों को उठाने का नैतिक साहस भी खो चुके हैं। उन्हें राज्य के विकास की न तो कोई समझ है और न इच्छाशक्ति। यही कारण है कि जब राज्य की मांग के लिये आंदोलन चल रहा था तब पर्वतीय विकास का बजट 650 करोड़ रुपये था। उस समय एक बात जोर से उठाई गई कि यदि सरकार इस बजट का समस्याओं की प्राथमिकता के आधार पर खर्च कर दे तो हम राज्य की मांग छोड़ देंगे। लेकिन आज राज्य बनने के आठ साल बाद यह योजनागत बजट 4200 करोड़ तक पहुंच गया लेकिन विकास का ढर्रा वही बना रहा। आज भी खडंजे और रास्ते ही बन रहे हैं। विकास को जनपक्षीय बनाने और एक बेहतर उत्तराखंड राज्य और बेहतर समाज बनाने की हमारी प्रतिबद्धता में कभी कोई कमी नहीं रही है। हमारे लिये चुनाव लड़ना कभी सत्ता प्राप्ति का अभीष्ट नहीं रहा। अपने राजनीतिक सफर में पार्टी ने सत्ता के लिये किसी अनुचित रास्ते या गलत संयाधनों का इस्तेमाल नहीं किया। राजनीतिक अपसंस्कृति के खिलाफ हमारा अभियान जारी है। हमने गांधीजी की इस सूक्ति को अपना राजनीतिक आधार माना है कि साध्य को प्राप्त करने के लिये साधनों की पवित्रता आवश्यक है। इसलिये राजनीतिक दलों के तमाम संसाधनों के बीच इस लोकसभा चुनाव में हमारी उपस्थिति जनता के सवालों को उठाना और उसके लिये एक वैचारिक और नीतिगत आधार तैयार करना है। लोग हमसे पूछ सकते हैं कि पिछले तीन साल से हम भी इस सरकार के साथ हैं। यह ठीक है लेकिन हमने कभी जनता के मुद्दों के साथ कोई समझौता नहीं किया। हम भाजपा के साथ सत्ता में भागीदार अपने राजनीतिक स्वाथो्रं के लिये नहीं बल्कि अपने नौ मुद्दों के साथ थे। इन पर सदन के अन्दर और बाहर हमारा विरोध लगातार जारी रहा। राजनीति में साथ आने का मतलब सिद्धान्तों का एक हो जाना नहीं होता है। हमारे अपने मुद्दे हैं। हमें नहीं लगता कि भाजपा हमारे मुद्दों के साथ न्याय कर सकती है।
इन तमाम सवालों को लेकर उक्रांद अपने तरीके से सोचता है और उसका जनपक्षीय समाधान चाहता है। हमारे साथ छल किया है राजनीतिक दलों ने उसका प्रतिकार करने का समय भी यह है, क्योकि-
1. हमने गैरसैंण, चन्द्रनगर को राजधानी बनाने की बात कह तो इन पार्टियों ने हमें राजधानी चयन आयोग बनाकर छला।
2. हमने स्थानीय लोगों के संसाधनों को मजबूत करने की बात कही तो इन्होंने जल, जंगल और जमीन बेचने का काम शुरू कर दिया।
3. हमने रोजगार के लिये उद्योगपतियों के साथ जनपक्षीय समझौता करने को कहा तो इन्होंने सारी जमीनें उनके हवाले कर दी और हमारे बेरोजगार दर-दर की ठोकरें खाने का मजबूर हैं।
4. परिसीमन पर हमारे इन दलों की नासमझाी का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ा है।
5. इन दलों में आयी अपसंस्कृति ने अपराध को घर-घर पहुंचा दिया है।
मुझे उम्मीद है कि सुविज्ञ मतदाता पहाड़ के ज्वलंत सवालों को अपनी चिंता में शामिल करते हुये इस लोकसभा चुनाव में इन राष्टीय दलों की खबर लेंगे। यही समय है पहाड़ को सही दिशा देने का उसे सुरक्षित हाथों में सौंपने का। आइये राज्य के नवर्निर्माण में भागीदारी करें।
धन्यवाद, आपका
पुष्पेश त्रिपाठी
जै हिन्द, जय भारत, जय उत्तराखंड!