प्रवासियों से आमजन को मिला हौसला
Story Update : Tuesday, August 09, 2011 12:01 AM
कर्णप्रयाग। उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण के पक्ष में प्रवासी उत्तराखडि़यों के समर्थन ने स्थानीय लोगों में उत्साह की नई लहर पैदा कर दी है। वहीं विदेश में रहे पहाड़वासियों ने भी गैरसैंण को लेकर अपनी मुहिम छेड़ दी है।
गैरसैंण के लिए जनसंगठनों के आंदोलन पर राजनीतिक दलों की चुप्पी जहां गले से नहीं उतर रही वहीं प्रवासी उत्तराखंडियों का संचार क्रांति के माध्यम से गैरसैंण राजधानी के लिए समर्थन पहाड़ के आमजन को हौंसला दे रहा है। 90 के दशक में कौशिक समिति और रुड़की इंजीनियरिंग कालेज के भूवैज्ञानिकों के सर्वे में गैरसैंण को उपयुक्त मानने के बाद भी दीक्षित आयोग ने इसे हासिए पर ला दिया था। लेकिन अन्य राज्यों और विदेश में रह रहे अपनों की हुंकार ने राजधानी गैरसैंण के लिए एक बार फिर उम्मीदों के दिए जला दिए हैं।
उत्तराखंड व गैरसैंण के लिए जनसंघर्ष की दास्तां
गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए 1952 में पीसी जोशी ने पोलित ब्यूरो अधिवेशन में प्रस्ताव रखा।
सन 1964 में पर्वतीय राज्य परिषद का गठन किया गया।
70 के दशक में गैरसैंण के समर्थन में टिहरी के तत्कालीन सांसद त्रेपन सिंह के नेतृत्व में प्रदर्शन।
सन 1974 में उत्तराखंड के पूर्व छोर असकोट से पश्चिमी छोर आराकोट तक पदयात्रा।
सन 1979 में उक्रांद का गठन।
23 नवंबर 1987 को त्रिवेेंद्र पंवार और धीरेंद्र भदोला ने उत्तराखंड की मांग पर लोकसभा की दर्शक दीर्घा में पर्चे फेंके।
25 जुलाई 992 को उक्रांद ने राजधानी गैरसैंण का औपचारिक शिलान्यास कर वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चंद्रनगर की स्थापना।
सन 1994 में रमाशंकर कौशिक समिति ने गैरसैंण राजधानी बनाने पर सहमति जताई।
24 अगस्त 1994 मोहन पाठक और मनमोहन तिवारी संसद में कूदे।
23 सितंबर 1998 राज्य विधेयक में संशोधनों के विरोध में लखनऊ विधानसभा में नारेबाजी।
सन 1992 से वर्ष 2000 तक उक्रांद ने किया रैलियों का आयोजन।
वर्ष 1994 से 2004 तक बाबा मोहन उत्तराखंडी ने उत्तराखंड राज्य और गैरसैंण राजधानी को लेकर 13 बार तथा उत्तराखंड संघर्ष समिति ने167 दिन का क्रमिक अनशन।
2004 में देहरादून विधानसभा में गैरसैंण राजधानी की मांग पर नारेबाजी। 2005 में उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष मोर्चा ने गैरसैंण से बागेश्वर तक पदयात्रा की।
2007 से जनसभाओं एवं धरने के माध्यम से प्रवासी उत्तराखंडी संस्थाएं गढ़वाल सभा, कुर्माचंल परिषद, उत्तरांचल महासभा मुंबई, बुरांस मुंबई, मेरु पहाड़ और मेरा उत्तराखंड दिल्ली, गैरसैंण राजधानी के लिए समर्थन की अलख जगाए हुए हैं।
प्रवास में रहने के बाबजूद उत्तराखंड एवं गैरसैंण के लिए सभी प्रवासी संस्थाआें का संघर्ष जारी रहेगा। गढ़-कुमाऊंनी भाषा, बोली और रीति-रिवाजों के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए सक्रिय रूप से कार्य करने की जरूरत है।
----- गीतेश सिंह नेगी संस्थापक प्रवासी उत्तराखंडी संस्था बुरांस मुंबई