Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन

Facts Freedom Struggle & Uttarakhand Year wise- आजादी की लडाई एव उत्तराखंड तथ्य

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विनोद सिंह गढ़िया:
[justify]11 जनवरी उत्तराखंड के इतिहास का महत्वपूर्ण दिन है। इसी दिन 1948 में टिहरी रियासत में राजशाही से मुक्ति पाने के संघर्ष में नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी शहीद हुए। आजादी की लड़ाई के दो मोर्चे थे। अंग्रेजी गुलामी और रियासतों में राजाओं के जुल्मी राज से मुक्ति पाना। अंग्रेजों से मुक्ति तो 15 अगस्त 1947 को हो गई, पर टिहरी में राजशाही के दमन से निजात पाने की जद्दोजहद चलती रही।

30 मई, 1930 में उत्तरकाशी के रवाईं क्षेत्र में जलियांवाला कांड की तरह तिलाड़ी गोलीकांड हुआ। इस षड्यंत्र को रच टिहरी रियासत ने जुल्म करने में अपने औपनिवेशिक प्रभुओं की बराबरी करने की कोशिश की। 25 जुलाई 1944 को 84 दिन के अनशन के बाद श्रीदेव सुमन की शहादत हुई। इन बलिदानों के बाद भी टिहरी में जनता पर शाही दमन जारी रहा। सभी राजनीतिक अधिकार राज दरबार में बंधक थे। नाममात्र की खेती पर भी राजा ने भारी कर थोप दिए थे। किसानों पर होने वाले जुल्म के विरुद्ध दादा दौलतराम और नागेंद्र सकलानी के नेतृत्व में किसानों को संघर्ष के लिए संगठित किया गया। युवा नागेंद्र सकलानी देहरादून में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए। डांगचौरा के किसान आंदोलन में पुलिस बड़ी मुश्किल से उन्हें गिरफ्तार कर सकी। लंबे अरसे तक वह राजा की कैद में रहे। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. शिव प्रसाद डबराल ‘चारण’ की पुस्तक ‘उत्तराखंड का इतिहास’ भाग-6 में ‘टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास’ (1815-1949) में नागेंद्र सकलानी के पत्रों के अनुसार जेल में फटे-पुराने और गंदे कंबल दिए जाते थे। भीषण ठंड में कपड़ों के अभाव में बंदी सो भी नहीं पाते थे। सकलानी एक पत्र में लिखते हैं कि ऐसा प्रयत्न किया जाता था कि राजनीतिक बंदी दरबार के सम्मुख घुटने टेक दें। राजशाही की अन्यायकारी व्यवस्था का अंदाजा नागेंद्र सकलानी और दादा दौलत राम द्वारा 10 फरवरी 1947 को जेल में किए गए अनशन की मांगों से होता है। कई मांगों में से उनकी एक मांग यह थी कि या तो मुकदमे वापस हों या सुनवाई ब्रिटिश अदालत में हो। अंग्रेजों के न्याय के पाखंड को भगत सिंह और उनके साथी पहले ही बेपर्दा कर चुके थे। टिहरी के राजनीतिक बंदी यदि उनकी अदालत में इंसाफ की कुछ उम्मीद देख रहे थे तो समझा जा सकता है कि रियासत में न्याय किस कोटि का रहा होगा। उक्त अनशन का समाचार फैलने पर देशी राज्य लोक परिषद, कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी, टिहरी राज्य प्रजामंडल आदि ने तत्काल राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग की। मजबूरन राजा ने घोषणा की कि 21 फरवरी 1947 को राजनीतिक बंदियों को मुक्त कर दिया जाएगा।
ब्रिटेन की संसद में प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली जून, 1948 से पहले भारत से अंग्रेजी राज के रुखसत होने का ऐलान कर चुके थे। जिस समय जवाहरलाल नेहरू के आह्वान पर देसी राज्यों की कई रियासतों के प्रतिनिधि संविधान सभा में हिस्सा लेने आ रहे थे, लगभग उसी वक्त टिहरी का राजा टिहरी गढ़वाल मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर एक्ट पर दस्तखत कर राजशाही के विरुद्ध उठने वाले प्रतिरोध को कुचलने का नया इंतजाम कर रहा था। राजा देश में चल रही हलचल को अनदेखा कर, दमनकारी राज कायम रखना चाहता था पर प्रजा हर हाल में शाही गुलामी से मुक्ति पाना चाहती थी।
मुक्ति की चाह और सकलानी के साहस के चलते टिहरी रियासत में सकलाना से शुरू होकर जगह-जगह आजाद पंचायतें कायम होने लगीं। आजाद पंचायतों ने राज कर्मचारियों को खदेड़ दिया, पटवारी चौकियों पर कब्जा कर लिया, शराब की भट्टियां तोड़ डालीं और राजधानी टिहरी पर कब्जा करने के लिए सत्याग्रही भर्ती करने शुरू किए। कीर्तिनगर में नागेंद्र सकलानी ऐसी ही आजाद पंचायत के गठन के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से गए थे। 10 जनवरी 1948 को उनकी अगुवाई में कीर्तिनगर में सभा हुई। राजा के न्यायालय पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर आजाद पंचायत की स्थापना की घोषणा कर दी गई। 11 जनवरी को राजा के एसडीओ ने पुलिस के साथ न्यायालय पर कब्जा करना चाहा तो लोगों ने उन्हें बंधक बनाने की कोशिश की। एसडीओ के आदेश पर आंसू गैस के गोले छोड़े गए। गुस्साई जनता ने न्यायालय भवन पर आग लगा दी। भयभीत एसडीओ जंगल की तरफ भागने लगा। नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी उसे पकड़ने दौड़े तो एसडीओ की गोली से दोनों शहीद हो गए।
पेशावर विद्रोह के नायक कामरेड चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में शहीदों का जनाजा टिहरी ले जाया गया और राजाओं के श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार किया गया। पुत्र को गद्दी सौंपने पर भी राज्य पर नियंत्रण रखने वाला राजा नरेंद्र शाह टिहरी के अंदर नहीं घुस सका। प्रजामंडल की अंतरिम सरकार बनी और 1949 में टिहरी का भारत में विलय हो गया। कामरेड नागेंद्र सकलानी और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य मोलू भरदारी की शहादत टिहरी राजशाही के ताबूत में अंतिम कील साबित हुई।
विडंबना है कि जिस राजशाही से मुक्ति पाने के लिए इतनी शहादतें हुई, पहली लोकसभा से लेकर चौथी लोकसभा तक और फिर दसवीं लोकसभा से लेकर आधी चौदहवीं लोकसभा और बीच के थोड़े अंतराल को छोड़ वर्तमान पंद्रहवीं लोकसभा में उसी राज परिवार के वारिस जनता के प्रतिनिधि बनकर पहुंचते रहे हैं।
कामरेड नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत ना केवल टिहरी रियासत के विरुद्ध निर्णायक शहादत थी, बल्कि यह जनता की मुक्ति के संघर्ष और कम्युनिस्ट आंदोलन की बलिदानी, क्रांतिकारी परंपरा का भी एक प्रेरणादायी अध्याय है।
प्रस्तुति-इन्द्रेश मैखुरी
साभार : अमर उजाला  [/justify]

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
कुमाऊं का स्वतंत्रता संग्राम
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उत्तराखंड में स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन की प्रारंभिक शुरुआत 1857 के दौर में एक तरह से काली कुमाऊं (वर्तमान चम्पावत जनपद ) से  हो चुकी थी। वहां की जनता ने अपने वीर सेनानायक कालू महरा की अगुवाई में विद्रोह कर ब्रिटिश प्रशासन की जड़ें एक तरह से हिला ही दी थीं। देखा जाय तो उत्तराखण्ड के स्वतंत्रता संग्राम के विद्रोहियों में कालूमहर व उसके दो अन्य साथियो का नाम ही सबसे पहले आता है।

वर्ष 1870 में अल्मोड़ा में डिबेटिंग क्लब की स्थापना के बाद 1871 में संयुक्त प्रान्त का पहला हिन्दी साप्ताहिक अल्मोड़ा अखबार  का प्रकाशन होने लगा।1903 में गोविन्दबल्लभ पंत और हरगोविन्द पंत के प्रयासों से अल्मोड़ा में स्थापित हैप्पी क्लब के माध्यम से नवयुवकों में राष्ट्रीय भावना का जोश भरने का काम होने लगा।  प्रारम्भिक दिनों में अल्मोड़ा अखबार  बुद्धिबल्लभ पंत के संपादन में निकला बाद में मुंशी सदानंद सनवाल 1913 तक इसके संपादक रहे। इसके बाद जब बद्रीदत्त पांडे इस पत्र के संपादक बने तो कुछ ही समय में इस पत्र ने राष्टी्रय पत्र का स्वरुप ले लिया और उसमें छपने वाले महत्वपूर्ण स्तर के समाचार और लेखों से यहां की जनता में शनैः-शनैःराष्ट्रीय चेतना का अंकुर फूटने लगा। 1916 में नैनीताल में कुमाऊं परिषद् की स्थापना होने के बाद यहां के राजनैतिक,सामाजिक व आर्थिक विकास से जुड़े तमाम सवाल जोर-शोर से उठने लगे।

वर्ष1916 में महात्मा गांधी के देहरादून और 1929 में नैनीताल व अल्मोड़ा आगमन के बाद यहां के लोगों में देश प्रेम और राष्ट्रीय आंदोलन का विकास और तेजी से होने लग गया था।  इसी दौरान विक्टर मोहन जोशी,राम सिंह धौनी, गोविन्दबल्लभ पंत, हरगोविन्द पंत, बद्रीदत्त पांडे, सरला बहन,शान्तिलाल त्रिवेदी, मोहनलाल साह, ज्योतिराम कांडपाल और हर्षदेव ओली जैसे नेताओं ने कुमाऊं की जनता में देश सेवा का जज्बा पैदा कर आजादी का मार्ग प्रशस्त करने में जुटे हुए थे। 1926 में कुमाऊं परिषद् का कांग्रेस में विलय हो गया। 1916 से लेकर 1926 तक कुमाऊं परिषद् ने क्षेत्रीय स्तर पर कुली बेगार,जंगल के हक हकूकों व भूमि बन्दोबस्त जैसे तमाम मुद्दों के विरोध में आवाज उठाकर यहां के स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1921 में उत्तरायणी के मेले पर बागेश्वर में बद्रीदत्त पांडे व अन्य नेताओं के नेतृत्व में कुमाऊं के चालीस हजार से अधिक लोगों ने कुली बेगार के रजिस्टर सरयू नदी की धारा में बहा दिये और इस कुप्रथा को हमेशा के लिए खतम करने  की शपथ ली। कुमाऊं का यह पहला और बड़ा असहयोग आंदोलन था। 1922 से 1930 के दौरान ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जंगलों में जनता के अधिकारों पर लगायी गयी रोक के विरोध में जगह जगह आन्दोलन हुए और जंगलों व लीसाडिपो में आगजनी कर तथा तारबाड़ नष्ट करके जनता ने भारी असन्तोष व्यक्त किया।
गांधी जी जब 1929 में कुमाऊं आये तो जगह जगह उनकी यात्राओं और भाषणों से यहां की जनता में और तेजी से जागृति आयी। 1930 में देश के अन्य जगहों की तरह कुमाऊं में भी अद्भुत क्रांति का दौर शुरु हुआ। इसी बीच अल्मोड़ा से देशभक्त मोहन जोशी ने स्वराज्य कल्पना के प्रचार हेतु स्वाधीन प्रजा नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया था। ब्रिटिश हुकूमत के विरोध में आवाज उठाने पर इस पत्र पर जुर्माना लगा दिया गया और स्वाभिमान के चलते जुर्माना अदा न करने पर इस पत्र का प्रकाशन बन्द हो गया।

1930 में ही नमक कर को तोड़ने में डांडी यात्रा में गांधी जी के साथ ज्योतिराम कांडपाल भी शामिल हुए। इसी वर्ष कई जगहों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की कोशिसें भी की गयी जिसमें बहुत से स्वयंसेवकों को लाठियां तक खानी पड़ीं। 25 मई 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका के भवन पर झण्डा फहराने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी धारा 144 लगने और लाठी चार्ज किये जाने के बाद भी भीड़ का उत्साह कम नहीं हुआ देशभक्त मोहन जोशी व शांतिलाल त्रिवेदी गम्भीर रुप से घायल हो गये तब सैकड़ों की संख्या में संगठित महिलाओं के बीच श्रीमती हरगोविन्द पंत श्रीमती बच्ची देवी पांडे व पांच अन्य महिलाओं ने तिरंगा फहरा दिया। 1932-1934 के मध्य कुमाऊं में मौजूद जाति-पाति व वर्ण व्यवस्था को दूर करने का कार्य भी हुआ और अनेक स्थानों पर समाज सुधारक सभाएं आयोजित हुईं। संचार तथा यातायात के साधनों के अभाव के बाद भी स्वतंत्रता संग्राम  की लपट तब यहां के सुदूर गांवां तक पहुंच गयी थी इसी वजह से 1940-41 के दौरान यहां व्यक्तिगत सत्याग्रह भी जोर शोर से चला।

1942 का वर्ष कुमाऊं के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। 8 अगस्त 1942 को जब मुम्बई में कांग्रेस के प्रमुख कार्यकर्त्ताओं के साथ ही गोविन्द बल्लभ पंत की गिरफ्तारी हुई तो इसके विरोध में सम्पूर्ण कुमाऊं की जनता और अधिक आंदोलित हो गयी। ‘भारत छोड़ो‘ आंदोलन को कुचलने के लिए स्थानीय नेताओं व लोगों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां की गयीं। जगह-जगह जुलूस निकालने और हड़ताल के साथ ही डाक बंगले व भवनों को जलाने तथा टेलीफोन के तारों को काटने की घटनाएं सामने आयीं। अल्मोड़ा नगर में स्कूली बच्चों ने पुलिस पर पथराव भी किया।अंग्रेजों द्वारा आजादी के सेनानियों के घरों को लूटने व उनकी कुर्कियां करने तथा उन्हें जेल में यातना देने के इस दमन चक्र ने आग में घी का काम कर दिया।

वर्ष 1942 के 19 अगस्त को देघाट के चौकोट, 25 अगस्त को सालम के धामद्यौ तथा 5 सितम्बर को सल्ट के खुमाड़ में जब ‘भारत छोड़ो‘ आंदोलन के तहत सैकड़ो ग्रामीण जनों ने उग्र विरोध का प्रदर्शन किया तो भीड़ को नियंत्रित करने ब्रिटिश प्रशासन के पुलिस व सैन्य बलों ने निहत्थी जनता पर गोलियां बरसायीं जिसके कारण इन जगहों पर नौ लोग शहीद हुए और दर्जनों लोग घायल हुए। सोमेश्वर की बोरारौ घाटी में भी आजादी के कई रणबांकुरो पर पुलिस ने दमनात्मक कार्यवाही की और चनौदा के गांधी आश्रम को सील कर दिया था।

चन्द्रशेखर तिवारी
दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून।
मोबा. 8979098190

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