Author Topic: Freedom Fighters From Uttarakhand- उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी  (Read 18943 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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स्वतंत्रता सेनानी भवानी दत्त जोशी

बनारस विश्वविद्यालय से बी. एस-सी. करने के बाद मैं 1955 में एक दिन यों ही अल्मोड़ा की माल रोड में घूम रहा था तो एम्बेसडर होटल के नीचे जिला सूचना केन्द्र से एक सौम्य सुदर्शन व्यक्ति भीतर से निकले। वास्कट तथा सफेद टोपी पहने वे बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी लगे थे।

 परंतु उस समय मुझे पता नहीं था कि वे कौन थे। दो साल बाद जब मैं गर्मियों की छुट्टियों में घर की ओर जा रहा था तो ताऊ जी के बड़े पुत्र बिशन दा के घर पर लखनऊ में वही सज्जन मिल गये।

तब भाभी जी ने बताया कि भुवन (असली नाम भवानी दत्त जोशी) उनकी दीदी के पुत्र थे। भवानीदत्त जी अल्मोड़े जिले के सूचना अधिकारी थे। सन् 1961 में भाभी जी के प्रयास से मेरी शादी भाभी जी की भतीजी से हो गई और तब से भुवनदा या भवानीदत्त जी से लखनऊ मेरी ससुराल या भाभी जी के निवास अथवा अल्मोड़ा में यदाकदा मुलाकात होती रहती थी।

पत्नी से ज्ञात हुआ कि वे पक्के कांग्रेसी, गांधीवादी हैं और स्वतंत्रता सेनानी रह चुके हैं। चरखा कातना और उसी के सूत के कपड़े बनवा कर पहनना उन्हें अच्छा लगता है। उनके बेटे और अन्य परिचितों के द्वारा जो सूचना मुझे मिल पाई उसी के आधार पर आगे भवानीदत्त जी के जीवन पर जो कुछ पा सका वह आगे दिया जा रहा है।

भवानीदत्त जी जन्म संभवतः सन् 1904 में हुआ था। वे अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना के पास दिगौली गाँव में मनोरथ जोशी के घर पैदा हुए थे। उनके बाल्यकाल में ही उनके पिता का देहांत हो गया था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा उनके नाना शंभुदत्त जोशी के संरक्षण में अल्मोड़ा में हुई थी। वहीं से सन 1921 में उन्होंने रामजे कॉलेज, जो उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अधीन था, से इंटर साइंस की परीक्षा पास की थी।

सन् 1921 में अल्मोड़ा सहित सम्पूर्ण कुमाऊँ में कुली उतार और कुली बर्दायश के विरुद्ध भारी आंदोलन हुआ था। विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पांडे, हरगोविन्द पंत आदि कांग्रेसी बागेश्वर में इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। भवानी दत्त जी भी तभी से कांग्रेस और सविनय अवज्ञा आंदोलन को सहयोग देने लगे थे।

 उनके नानाजी डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर थे और उनके लिये भवानीदत्त जैसे पढ़े-लिखे युवक को सरकारी नौकरी दिलाना कुछ भी कठिन न था। किंतु सन 1929 में महात्मा गांधी के नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी और बागेश्वर आगमन के बाद वे पूरी तरह कांग्रेस के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे और समाजसेवा, सविनय अवज्ञा आंदोलन, सत्य, अहिंसा, चरखा चलाना, खादी पहनना आदि में प्रवृत्त होकर पूरी लगन से आंदोलन को समर्पित हो गये।

इस समय उनके ऊपर पत्नी, माँ, दो छोटे भाइयों और तीन बहनों का भार था। उनकी डाँवाडोल स्थिति को पटरी पर लाने के लिये उनके नाना ने फिर से उनको नौकरी पर लगाने के लिये बहुत कोशिश की पर किसी भी तरह उनको राजी न कर पाने के कारण हार कर अपने ही प्रयास से उनके लिये अल्मोड़े की बाजार में एक किराने की दुकान खुलवा दी थी।

 पर उनके जैसा सरल और दुनियादारी से अनभिज्ञ आदमी कितने दिन तक दुकान चला सकता था ? उनके परिचित, यार-दोस्त और सम्बन्धी सामान उधार ले जाते तो मना करने में इन्हें बहुत ही संकोच होता था। उधार चुकाना लोग न जानते थे, वसूली करना इन्हें न आता था। दूसरे या तीसरे साल में ही दुकान पर ताला लग गया। व्यवसाय से छुट्टी पा जाने के बाद ये कैलास-मानसरोवर की यात्रा पर चले गये।

अछूतोद्धार में उनका सराहनीय योगदान रहा था और इस कारण उनको सामाजिक बहिष्कार का भी शिकार होना पड़ा था। यह बहिष्कार अल्मोड़े के रूढ़िवादी संकीर्ण समाज के बीच उनके परिवार के लिये बड़ा ही दुःखदायी रहा था। चर्खे पर सूत या ऊन की कताई करने, सत्य और अहिंसा के धर्म का पालन करते हुए पूरी ईमानदारी और धर्मपरायणता से वे परिवार के साथ कष्टों को साहसपूर्वक झेलते रहे।

 उनके मामा जगन्नाथ जोशी और मामी ने उनकी सदा यथाशक्ति सहायता की। महात्मा गांधी जी द्वारा उन्हें भेजे गये एक पोस्टकार्ड से ज्ञात होता है कि अछूतोद्धार और चर्खे के काम में वे कितना अधिक व्यस्त रहने लगे थे।

सन् 1940 में उनको कांग्रेस द्वारा संचालित ग्राम सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत विलेज ऑर्गेनाइजर या सुपरवाइजर का काम दिया गया और वे गाँवों में जाकर समाजसेवा का काम करने लगे। परिवार की देखभाल करने वाला कोई और न होने के कारण पंत जी ने इनको ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन से हट कर काम करने को बाध्य किया था। सन् 1945 में वे दिल्ली क्लॉथ मिल में काम करने लगे थे।

 इनकी ईमानदारी और सत्यपरायणता देखते हुए बिरला की एक कम्पनी में ईंटों के भट्टों और कोयले, लोहे तथा सीमेंट का हिसाब-किताब देखने के काम पर नियुक्त कर दिया गया। वहीं से इन्होंने अपने एक छोटे भाई एवं छोटी बहन की शादी करवा दी और इन भाई को काम पर लगा कर व्यवस्थित भी कर दिया। 1946 में अपने एकमात्र पुत्र को छोड़कर इनकी पत्नी परलोक सिधार गई थी।

देश को आजादी मिलने के बाद मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत ने इन्हें प्रदेश में पहला जिला सूचना अधिकारी बनाकर नैनीताल में नियुक्ति करवा दी। फिर वे अल्मोड़ा तथा पौड़ी गढ़वाल में नियुक्त रहे।

जिला सूचना अधिकारी रहते हुए उन्हें पूरे उत्तराखंड की यात्रा का अवसर मिला। मुनस्यारी, जौलजीवी, धारचूला, पिथौरागढ़, बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे स्थान तब तक मोटर सड़क से नहीं जुड़े थे और लम्बी यात्राओं में सात आठ दिन तक लग जाते थे। अतः उन्होंने अपने इकलौते बेटे को नैनीताल में रखवा दिया। वह मात्र 1956-57 में ही उनके साथ रह सका।

सोलह सालों की लम्बी अवधि तक निरंतर पैदल यात्रायें करते हुए उन्होंने जिले के लगभग हर गाँव तक पहुँच कर निःस्पृह भाव से काम किया, किन्तु उनकी सेवायें नियमित नहीं मानी गईं। 1961-62 में उन्हें उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा साक्षात्कार के निमित्त लखनऊ बुलाया गया था। आयोग ने उनको ‘सहायक’ सूचना अधिकारी के पद पर रेग्युलर करने की सिफारिश की।

तब उन्होंने तत्काल त्यागपत्र दे डाला। साल भर बाद उनको फिर से जिला सूचना अधिकारी के पद पर वापस ले लिया गया। कुछ और दिनों तक वे इसी पद पर काम करते रहे किंतु सरकार द्वारा उनकी कर्तव्यनिष्ठा के प्रति दिखायी गयी उदासीनता से व्यथित होकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था। सेवाकाल यथेष्ट न होने के कारण उन्हें पेंशन पाने की सुविधा भी नहीं मिल पायी थी।

भवानीदत्त जोशी जी के स्वभाव, कार्यशैली, सरलता और ईमानदारी की विवेचना कर पाना कदाचित संभव नहीं हो पायेगा। वे ऐसे ही पुरुषों में से थे जो ईश्वर की कृपा पाते रहे, शांति से रहे और अपने आप में संतुष्ट भी।

 एक बार उन्हें 90,000 रुपयों का एक पे ऑर्डर प्राप्त हुआ। शायद कोई एरियर रहा होगा। उन्हें संदेह हुआ कि यह भुगतान ठीक नहीं है। वे विभाग के सेक्रेटरी के पास पहुँच गये और बताया कि यह भुगतान गलत हो रहा है।

सेक्रेटरी ने कहा – जोशी जी मिल रहा है तो ले लीजिये। उन्होंने यह धन हल्द्वानी में मकान बनाने में लगा दिया था। किन्तु उनके नौकरी छोड़ देने के बाद में सन् 1984-85 के दौरान प्रदेश के ऑडिटर जनरल से उक्त रकम को वापस करने की माँग गई। तब उनके बेटे ने क्रमशः किश्तों में सारी रकम लौटाई।

वे डॉ. राजेन्द्रप्रसाद, विनोबा भावे, पं गोविन्द बल्लभ पंत, लाल बहादुर शास्त्री, हेमवतीनन्दन बहुगुणा आदि के सम्पर्क में भी रहे। आजादी के बाद उन्होंने कुछ समय गांधी स्मारक निधि के कामों में भी हाथ बँटाया। उनकी नजर में कुछ अनियमिततायें आई और इसकी सूचना तत्कालीन राष्ट्रपति, जो गांधी स्मारक निधि के चेयरमैन भी थे, को देना जरूरी हो गया था।

 अपने दो साथियों के साथ राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली गये थे। ये बतलाते थे कि दोनों साथी साहस खो बैठे और रास्ते से लौट गये थे। राजेन्द्र बाबू उस समय जमीन पर बैठे कर चर्खे पर सूत कात रहे थे। उन्होंने जोशी जी की सारी बातें ध्यान से सुनीं।

 जब लालबहादुर शास्त्री जी केन्द्र में बिना विभाग के मंत्री थे, तब जोशी जी ने शास्त्री जी से दिल्ली जाकर पहाड़ के विकास के संबंध में काफी बातें की थीं। इन बड़ी-बड़ी हस्तियों से मिल कर बेझिझक समस्याओं पर बातचीत करना उनकी निर्भीकता को ही दर्शाता है।

वे सुबह तीन साढ़े तीन बजे ही उठ जाते थे और शौच तथा स्नान के बाद पूजा, वन्दना और पूरी गीता का पाठ करते थे। यह नियम वे रेलमात्रा अथवा बस में यात्रा के समय भी पूरी तरह निभाते थे। पूजा के उपरांत हठयोग, आसन आदि करते और तब दस पन्द्रह मिनट तक चर्खे पर सूत कातते थे।

अपना भोजन वे स्वयं बनाया करते थे। प्याज, लहसुन, चाय और माँस का सेवन उन्होंने कभी भी नहीं किया था। नौकरी से मुक्ति पा जाने के बाद वे अपने गुरु श्री श्री 1008 नानतिन बाबा के पास ही ज्यादा समय व्यतीत करते थे।

उनके निजी खर्चे कम ही होते थे, किन्तु दूसरों की सहायता और साधु-सन्तों की सेवा पर वे नियमित रूप से खर्च करते थे। काम छूटने के पश्चात ऐसा कर पाना कठिन हो गया था। एक बार सहारनपुर में उनके पुत्र ने उन्हें गांधी आश्रम से रजाई लेने के लिये 60 रु. दे दिये।

 कई दिन बीत जाने के बाद भी रजाई न आने पर बेटे ने पूछा तो उन्होंने बताया कि सारे रुपये उन्होंने हल्द्वानी के गांधी आश्रम को भेज दिये थे, जहाँ से उन्होंने एक कम्बल किसी बाबा के लिये उधार में खरीदा था।

कुछ समय के लिये वे पनुवानौला के आगे आँवलघाट नामक जगह पर एक गुफा में एकांतवास के लिये चले गये थे। जब वे उपवास के कारण एकदम अशक्त हो गये तो निदान वहाँ से निकले। मगर पास ही सड़क पर बेहोश हो गये। कुछ महिलाओं ने उनकी सेवा की तथा उन्हें हल्द्वानी भिजवा दिया।

वे अकसर रामपुर के पास मिलक जाया करते थे, जहाँ पर नानतिन बाबा एक तालाब बनवा रहे थे। इसकी जिम्मेदारी जोशी जी को ही सौंपी गयी। सन् 1988 में मिलक में ही उनकी तबीयत बिगड़ गई। उनके पुत्र को सूचना मिली तो वे उन्हें घर ले आये। डॉक्टर ने प्रोस्टेट का कैंसर बताया। पर वे एक स्थान पर टिक ही नहीं पाते थे। इसी आवाजाही में वे दिवंगत हो गये।

जीवन भर वे किसी भी तरह के प्रलोभन से दूर ही रहे। बुढ़ापे में आय का कोई साधन न रहने के कारण अवश्य उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों को दी जाने वाली पेंशन की कोशिश की, पर बनारसीदास जी ने उनको पेंशन के बदले हल्द्वानी के पास ही दस एकड़ भूमि ले लेने की सलाह दी। उन्हें लगा कि शायद उनको बहलाने की कोशिश की जा रही है और उन्होंने इस मामले को बिल्कुल ही भुला दिया।


http://nainitalsamachar.in/freedom-fighter-bhawani-dutt-joshi/

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                                         आचार्य नरदेव शास्त्री (१८८०-१९८० )
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  आचार्य नरदेव शास्री उन ब्यक्तियों में थे जो अहिन्दी भाषी होते हुए भी  आजीवन संसकिरत वाड्मय और हिंदी की सेवा में ही लगे रहे और जिन्होने अपना  कार्य क्षेत्र अपनी जन्म भूमि को न बनाकर उत्तर भारत को ही बनाया है !

 नरदेव शास्त्री का जन्म अक्टोबर सन १८८० को हैदराबाद रियासत के साटम   स्थान में एक मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुवा था उनकी मात्री भाषा  मराठी थी और उनका जन्म कानाम नरसिहं राव था !यही नरसिहं राव बाद में नरदेव  बन गे और एक समय ऐसा आया जबकि समस्त हिंदी प्रेमियों में नरदेव शास्त्री  के नाम से विख्यात हो गया ! 

नरदेव शास्त्री की प्रारम्भिक शिक्षा डी ए वी,कोलेज लाहौर में हुई जो आर्य  समाज की एक प्रमुख संस्था थी लाहौर में रहकर उनहोंने पंजाब विश्वविद्यालय  की शात्री -पर्क्ष सम्मान उतीर्ण की और बाद में कलकत्ता के प्रशिध  विद्वान  पंडित सत्यव्रत स्माशार्मी के निरिक्षण में वेदों का प्रणय किया !

 वेद्तिर्थ पर्क्ष पास कर ने के उपरान्त नरदेव पुनह लाहौर चले गए और आर्य  समाज के प्रमुख नेता श्र्धानंद के साथ मिलकर शिक्षा के क्षेत्र में मिलकर  सुधर करने के कार्य किये,महत्मा मुंशी राम आर्य समाज के उन नेताओं में से  थे जो देश को एक नया मोड़ देना चाहते थे !

अथ उन्होंने हरिद्वार के  समीपवर्ती शिवालिक पर्वत की पवित्र उप्थ्या में "गुरुकुल कांगड़ी " की  स्थापना की ,इस संस्था का मुख्य उद्देश्य हिंदी के माध्यम से भारतीय और  पाश्चात्य सिधान्तों का समन्वय करने वाली शिक्षा पद्धति को शुरू करना था !
 

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कुमाऊं कमिश्नरी में सर्व प्रथम जेल यात्रा करने वाला महान स्वतंत्रता सेनानी मोहन सिंह मेहता                             ==================================================
 
  स्वतंत्रता संग्राम क समय भारत माता की स्वतंत्रता के लिए कुमाऊं कमिश्नरी  से सर्व प्रथम जेल जाने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी मोहन सिंह मेहता का  जन्म १८९७  में अल्मोड़ा जिले के वजुला ग्राम (कत्युर) में हुआ था !   

  मोहन सिंह मेहता जी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में हुई तत्पश्चात उन्होंने  अल्मोड़ा रामजे हाईस्कूल में शिक्षा प्राप्त की है,सन १९१५ में वे तकनिकी  शिक्षा अर्जित करने के लिए कानपुर विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए वहां  उन्होंने एक वर्ष ही अध्ययन किया !

  क्यूंकि एकाएक उनकी विचारधाराओं में परिवर्तन हुआ सन १९१६ में उन्होंने  स्कूल छोड़कर राजनितिक कार्य कर्मों में भाग लेना प्रारम्भ किया अल्मोड़ा  में स्थापित होमरूल लीग की शाखा की सदस्यता प्राप्त की और इसी सत्र में  मोहन सिंह मेहता ने कुमाऊं परिषद् में सदस्यता प्राप्त की और कुमाऊं  परिषद् की शाखाएं,कुमाऊं के कई स्थानों पर खोली गई !    जनवरी १९२१ के कुली उतार,कुली बेगार और कुली बर्दायास  कुप्रथाओं के  विरुद्ध सफल आन्दोलन में मोहन सिंह मेहता ने सक्रिय भाग लिया सरकारी  कर्मचारी मेहता जी की भ्रष्टाचार विरोधी निति से नाराज थे अथ सरकारी  कर्मचारियों ने उन्हें बिर्टिश शासन का घोर विरोधी बताकर उनकी रिपोर्ट कर  दी !

  मार्च १९२१ को उनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी किया गया और उन्हें गिरफ्तार  किया गया उनकी गिरफ्तारी का समाचार पाते ही १२-१३ मील से जनता पैदल चलकर  मेहता जी के दर्शनार्थ आई स्थान-स्थान पर उनकी आरती उतारी गई,जुलाई १९२१   को उन्होंने जमानत लेकर जेल की यात्रा की यह बिर्टिश कालीन कुमाऊं  कमिश्नरी के स्वतंत्रता सैनानियों में प्रथम राजनितिक गिरफ्तारी थी अर्थात  कुमाऊं कमिश्नरी के समस्त स्वतंत्रता सैनानियों में देश की स्वतंत्रता के  लिए सर्व प्रथम जेल जाने का गौरव उन्हं प्राप्त हुआ था !


M S JAKHI

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                                                 सत्यग्राही सैनिक ज्योतिराम कांडपाल
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                            संघठन के द्वारा ही प्रगति पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है
                          केवल प्रस्ताओं से प्रांत में ब्यापक सत्याग्रह होना और सफलता अर्जित करना कठिन बात है !
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ज्योति राम कांडपाल का जन्म १८९३ में बिच्च्ला चौकोट के पैन्ठ्ना नामक  गाँव में हुआ था,उने पिता का नाम कमलापति कांडपाल था ज्योतिराम की  प्रारम्भिक शिक्षा बिच्च्ला चौकोट में स्तिथ स्याल्दे स्कूल हुई थी  !

उन्होंने जूनियर हाईस्कूल पास कर अध्य्यापन कार्य के लिए प्रशिक्षण  प्राप्त किया तत्पश्चात अध्यापन कार्य के माध्यम से अल्मोड़ा जिले के  पिछड़े क्षेत्र तीनों चौकोटों में जागृति फैलाने की चेष्टा की !ज्योति राम  स्याल्दे तथा गुमटी के प्राइमरी के स्कूलों में अध्यापक रहे !

  ज्योतिराम कांडपाल की चौखुटिया में एक दूकान थी सन १९२९ में एक दिन जब वे  अपनी दुकान में बैठे हुए थे,तो एक महत्वपूर्ण घना घटी,जिसने उनके जीवन को  एक नया मोड़ प्रदान किया घना इस प्रकार है --की बदरीनाथ जाने वाले एक  अपरिचित यात्री ने ज्योतिराम कांडपाल को चौखुटिया में उनकी दूकान पर  उन्हें एक पत्र दिया!

   दिन भर कार्य में ब्यस्त रहने के कारण उन्होंने रात्री मं विश्राम के समय  उस पत्र को पड़ा!पत्र में केवल इतना ही लिखा था ------हमें तुमारी  आवश्यकता है,ज्योतिराम इस पत्र को पड़कर स्तब्ध रह गए,अंत में कफी  सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने बद्रीनाथ जाने का निश्चय किया !

   अथ वे दुसरे दिन बद्रीनाथ जाने वाले यात्री जी खोज में बद्रीनाथ की  यात्रा पर चले गए,लेकिन बद्री नाथ पहुँचने पर भू उस ब्यक्ति का पता नहीं  चल सका,उसके बाद ज्योतिराम ने उस ब्यक्ति की खोज हेतु कई स्थानों की  यात्रा की !

और अंत में मेरठ पहुंचे जहां उनकी भेंट महात्मा गांधी से हुई  उन्होंने गांधीजी को उस पत्र को दिखाया! और पत्र को पड़कर गांधी जी ने  मुस्कराते हुए खा हमें तुम्हारी आवश्यकता है !गांधी जी के साथ ज्योतिराम  की यह प्रथम मुलाक़ात थी !


M S JAKHI

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सन १९२९ में महत्मागांधी ने अपने स्वास्थ्य सुधार तथा खाड़ी प्रचार के लिए  कुमाऊं इ कई स्थानों की महत्वपूरण ऐतिहासिक यात्रायें की थी,उनकी इस  यात्रा से ज्योतिराम अत्यधिक प्रभावित हुए !अथ वे रचनात्मक कार्यों में  गांधी जी का हाथ बंटाने के लिए एक वर्ष का अवकास लेकर साबरमती आश्रम में  चले गए !

  ज्योति राम हिंदी साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे साबरमती आश्रम में उनका  ध्यान अध्यात्मक की ओर अधिक था,सौभाग्य्वास आश्रम में सुरेन्द्र जी  अध्यात्मक के पंडित थे,महात्मा गाँधी समय -समय पर अनेक शंकाओं का समाधान  उन्हीं से करवाते थे !

 ज्योति राम सुरेन्द्र जी के शिष्य बन गए ज्योति राम भारत माता के एक सच्चे  सपूत थे,वे संघ्थ्नात्मक शक्ति में अधिक विश्वास रखते थे,उनका कहना था  ---संघठन के द्वारा ही प्रगति के पथ पर अग्रसर हवा जा सकता है,केवल  प्रस्ताओं से प्रांत में ब्यापक सत्याग्रह होना और सफलता अर्जित करना कठिन  बात है ! 

सन १९३० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह संचालित किया गया  था,नमक सत्याग्रह में सम्पूरण भारत वर्ष के ७८ ब्यक्तियों ने गांधी जी के  साथ साबरमती से डांडी तक की प्रसिद्ध ऐतिहासिक यात्रा में भाग लिया !

  इन सभी ब्यक्तियों को गांधी जी ने "सत्याग्रही सैनिक" की संज्ञां दी,और  उनके नम्बर भी निर्धारित किये गए,इस सत्याग्राही सेना में  उत्तराखंड के  तीन सत्याग्रही सैनिको ने भाग लिया इनके नाम ज्योतिर्म कांडपाल,भैरव  जोशी,और खड़क बहादुर थे !

 इन में से ६८ वें नम्बर के स्त्याग्राही सैनिक ज्योतिराम कांडपाल और ७०  वें नम्बर के सत्य्याग्रही सैनिक भैरव जोशी दोनों विच्च्ला चौकोट  के  निवासी थे अथ यह विच्च्ला चौकोट के लिए विशेस गौरव की बात है कि उसने अपनी  प्राकिर्तिक सौन्दर्य से सुसजित भूमि में महान सपूतों को जन्म दिया !

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नमक सत्य्यग्रह कि अवधि में बिर्टिश सरकार नए दमन निति का आश्रय लिया अथ  नमक -कर का उलंधन कर सरकार ने नमक के भंडारों पर धावा बोलना मिर्त्यु का  आलिंगन करना ही था,क्योंकि सरकार ने धरासना नमक डिपो पर अधिकार करने के  लिए आने वाले सत्यय्ग्र्हियो पर लोहे के सिरों वाली पांच फिट लम्बे डंडे  से प्रहार किया ! 

जससे उनकी खोपड़ियां फटने लगी तथा कंधे टूटने लगे,और उनके स्वेट खादी  वस्त्रों पर रुधिर फैल गया ,सत्याग्रही वेहोश होकर धरती पर गिर पड़े  ,ज्योतिराम द्वारा करादी केम्प से अल्मोड़ा कांग्रेश कमिटी के नाम भेजे  गये २९/०४/३० के पत्र से भी इस स्तिथि पर प्रकाश पड़ता है !

  नमक सत्याग्रह में भाग  लेने के पश्चात सकुशल लौटकर ज्योतिराम चौकोटों में  जागृति फैलाने और खादी का प्रचार जन-साधारण को स्वावलंबी बनाने के लिए  देघाट में उद्योग मंदिर कि स्थापना की,इस मंदिर के निर्माण में चौकोट  निवासियों ने तन-मन-धन से योगदान दिया !

 देघाट उद्योग मंदिर में खादी प्रचार के लिए तकलियाँ और चरखे चलाने लगे तथा  रोगियों के इलाज के लिए एक दवाखाना भी खोला गया जहां से रोगियों को मुफ्त  में दवा बित्रित की जाती थी,सन १९३२ में जन-सधारण में जागृति का केंद्र  होने के कारण बिर्टिश सरकार ने देघाट उद्योग मन्दिर को जब्त कर दिया  ,कुमाऊं का कमिश्नर पौड़ी से होते हुए देघाट  आया और उसने उद्योग मंदिर का  टाला तोड़कर उसने सामान जब्त कर लिया था !

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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बोरा पंचतत्व में विलीन
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हल्द्वानी: देश की आजादी के एक परवाने ने गुरुवार देर रात्रि प्राण त्याग दिए। शुक्रवार को चित्रशिला घाट रानीबाग में राजकीय सम्मान के साथ स्वतंत्रता सेनानी को अंतिम विदाई दी गई।

अशोक विहार छोटी मुखानी निवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी त्रिलोक सिंह बोरा ने गुरुवार रात्रि अंतिम सांस ली। वह 89 वर्ष के थे। शुक्रवार को राजकीय सम्मान के साथ श्री बोरा के पार्थिव शरीर को चित्रशिला घाट रानीबाग ले जाया गया। यहां एसडीएम अशोक जोशी व तहसीलदार प्रत्यूष सिंह ने पार्थिव शरीर पर पुष्प चक्र अर्पित किए। साथ ही पुलिस कर्मियों ने हवा में गोलियां दाग कर सलामी दी। इस दौरान शहर भर के तमाम प्रबुद्ध नागरिक मौजूद रहे। चिता को मुखाग्नि स्व.बोरा के ज्येष्ठ पुत्र ने दी। अंतिम यात्रा में स्व. बोरा के पुत्रगण प्रदीप बोरा, राजेंद्र बोरा, विजय, अजय, बार एसोसिएशन के अध्यक्ष राम सिंह बसेड़ा, समाजसेवी मोहन सिंह बोरा, भवान सिंह नयाल, हेम पांडे सहित सैकड़ों लोग मौजूद रहे।

झडे के अपमान पर धुन दिया था कमिश्नर को

हल्द्वानी: मूल रूप से अल्मोड़ा निवासी त्रिलोक सिंह बोरा पढ़ाई के दौरान ही आजादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर प्रतिभाग करने लगे थे। वर्ष 1942 में जीआईसी अल्मोड़ा में 12 वीं के छात्र श्री बोरा ने अंग्रेज कुमाऊं कमिश्नर को भी नहीं बख्शा। दरअसल तत्कालीन कमिश्नर ने भारतीय झंडे का अपमान किया था। इससे गुस्साए श्री बोरा ने अपने तीन-चार साथियों के साथ कमिश्नर को धुन दिया। इस पर स्थानीय कोर्ट में उन पर अभियोग चला और चार वर्ष का कारावास व 100 रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई। श्री बोरा के दामाद व पूर्व जिला शासकीय अधिवक्ता (डीजीसी) जीवन सिंह महरा बताते हैं कि उस समय सौ रूपए का जुर्माना बहुत अधिक था। ऐसे में उन्हें छह माह की अतिरिक्त सजा काटनी पड़ी थी। श्री बोरा 1942 से 1946 तक पहले अल्मोड़ा फिर बरेली जेल में रहे। जेल जाने से उनकी पढ़ाई छूट गई और एक साल बाद आजादी मिली। इसके बाद उन्होंने पुलिस विभाग ज्वाइन कर लिया। वर्ष 1975 से तीन वर्ष तक वह रामनगर थाने के इंचार्ज भी रहे।


http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7146613.html

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अब अलग नहीं रहेगी स्व.गढ़वाली की प्रतिमा


    



तहसील परिसर में स्थापित स्व.वीर चंद्र गढ़वाली की आदमकद प्रतिमा अब अलग-थलग नहीं पड़ी रहेगी। तहसील प्रशासन ने इस प्रतिमा को भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड की ओर से तहसील परिसर में बनाए जा रहे पार्क के भीतर स्थापित करने का निर्णय लिया है।


आठ मार्च वर्ष 1997 को तहसील परिसर में स्थापित स्व. वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की आदमकद प्रतिमा जल्द ही नए रूप में नजर आएगी। तहसील प्रशासन ने इस प्रतिमा को तहसील परिसर में बन रहे पार्क के भीतर स्थापित करने का निर्णय लिया है। इस संदर्भ में जल्द ही विभिन्न राजनीतिक दलों के लोगों से विचार-विमर्श का निर्णय लिया गया है।


तहसील परिसर में स्थापित स्व.वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की प्रतिमा वर्तमान में अलग-थलग पड़ी हुई है। खास मौकों पर ही इस प्रतिमा व इसके इर्द-गिर्द उगी झाड़ियों को हटाया जाता है। बल्कि, पिछले कुछ महीनों से प्रतिमा के सामने का हिस्सा धरना स्थल बनकर रह गया है। प्रतिमा जीर्ण-क्षीण हालत में है व इसका जीर्णोद्धार होना भी काफी जरूरी है।


'क्षेत्र के तमाम राजनीतिक दलों से जुड़े लोग सहमत हो जाते हैं तो प्रतिमा को निर्माणाधीन पार्क के भीतर स्थापित कर दिया जाएगा। इससे जहां प्रतिमा की सुरक्षा होगी, वहीं पार्क की शोभा पर भी चार चांद लगेंगे।



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स्वतंत्रता संग्रामी भवान सिंह धानक का भावपूर्ण स्मरण
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महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व.भवान सिंह धानक की 95वीं जयंती पर भावपूर्ण स्मरण किया गया। इस अवसर पर बतौर मुख्य अतिथि विधायक गोविंद सिंह कुंजवाल ने स्व.धानक को भारत मां का सच्चा सपूत बताया।

उन्होंने कहा कि देश के लिए अपनी जान की बाजी लगाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की बदौलत आज की पीढ़ी आजादी से सांस ले पा रही है। स्व.धानक ने वर्षो जेल में रहकर उन अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लिया, जिनके राज में कभी सूर्यास्त नहीं होता था। आजादी के बाद कई वर्षो तक सरकारी पेंशन लेने से इंकार करने वाले स्व.भवान सिंह धानक जैसे सैकड़ों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की वजह से आजादी के इतिहास में सालम का नाम दर्ज है। उन्होंने लोगों से स्व.धानक के पदचिह्नों पर चलने की अपील की। इससे पूर्व यहां से 20 किमी दर बरम पहुंचने पर श्री कुंजवाल का ग्रामीणों ने ढोल-नगाड़ों से स्वागत किया। मुख्य अतिथि ने स्व.धानक के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की एवं दीप जलाकर समारोह का उद्घाटन किया। राजकीय इंटर कालेज पुभाऊं की बालिकाओं ने सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किए। समारोह को चंद्र सिंह बिष्ट, सुरेश उप्रेती, राजेंद्र जोशी, पान सिंह धानक, सत्यनारायण कन्नौजिया, प्रताप सिंह नेगी, खड़क सिंह धानक, किशन नेगी ने भी संबोधित किया। इस अवसर पर स्व.धानक के पुत्र किशन सिंह धानक, राम सिंह धानक, प्रकाश धानक, सचिन धानक, डुंगर सिंह बोरा, धन सिंह नेगी उपस्थित थे। समारोह की अध्यक्षता धरम सिंह धानक एवं संचालन जीत सिंह धानक ने की।

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स्वतंत्रता सेनानी कंसल की राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि
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    नैनीताल: स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व नैनीताल आर्य समाज के संस्थापक रहे बांके लाल कंसल की शुक्रवार को पाइंस श्मशान घाट पर राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि की गई। इसमें सैकड़ों लोगों ने शिरकत कर उन्हें अंतिम विदाई दी। स्वतंत्रता सेनानी के निधन पर नगर पालिका में शोक सभा के बाद अवकाश घोषित कर दिया गया।
स्वतंत्रता सेनानी कंसल का गुरुवार देर रात निधन हो गया था। शुक्रवार को उनके निधन की खबर मिलते ही मल्लीताल स्थित उनके आवास पर श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लगा रहा। जिला प्रशासन की ओर एडीएम ललित मोहन रयाल ने स्व. कंसल के पुत्र सुबोध कंसल को अंत्येष्टि के लिए 5 हजार की धनराशि व तिरंगा प्रदान किया।
पूर्वाह्न 11.15 उनकी शवयात्रा शुरू हुई। शवयात्रा मल्लीताल बाजार से माल रोड होते हुए तल्लीताल पहुंची। तिरंगे में लिपटे पार्थिव शरीर को वाहन से पाइंस श्मशान घाट ले जाया गया। जहां सीओ अरुणा भारती व मल्लीताल कोतवाली प्रभारी भूपेंद्र धौनी के नेतृत्व में पुलिस टुकड़ी ने उन्हे सलामी दी। उनका अंतिम संस्कार वैदिक रीति-रिवाजों से किया गया। स्व. कंसल के पुत्रों सुबोध कंसल व अशोक कंसल ने मुखाग्नि दी।
 विधायक खड़क सिंह बोहरा, मंडलायुक्त कुणाल शर्मा, वीसी प्रो. वीपीएस अरोड़ा, पालिकाध्यक्ष मुकेश जोशी, पूर्व विधायक डा. नारायण सिंह जंतवाल, आर्य समाज के मंत्री माधवानंद मैनाली, उक्रांद महामंत्री प्रकाश पांडे, भाजपा नेता दिनेश आर्य, प्रमोद बिष्ट, जिला बार एसोसिएशन अध्यक्ष हरिशंकर कंसल, राजीव लोचन साह, नैनीताल बैंक के चेयरमैन अनिमेष चौहान, कूर्माचल बैंक सचिव मनोज साह, एईडी डा. डीके मथेला, तिब्बती नेता पेमा सिथर, श्रीराम सेवक सभा पूर्व अध्यक्ष गिरीश जोशी, उपसचिव जगदीश बवाड़ी, मल्लीताल व्यापार मंडल अध्यक्ष किशन नेगी, डीएसए महासचिव गंगा प्रसाद साह, कांग्रेस नेता गोपाल बिष्ट, मंडी समिति हल्द्वानी के पूर्व सभापति संजीव आर्य, भाजपा जिलाध्यक्ष भुवन हर्बोला, अल्मोड़ा सीडीओ डीएस गब्र्याल आदि ने स्व. कंसल को श्रद्धांजलि दी।

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