इस आंदोलन पर नैनीताल समाचार ने दिनांक १ सितम्बर, 1984 को "पहाड़ आंदोलित है" शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी, इसमें इस आंदोलन का सम्पूर्ण विवरण भी है।
उसी से साभार टंकित
उत्तराखण्ड का इतिहास बताता है कि राजशाही (1815) काल तक इस क्षेत्र में शराब का आम जनता के बीच प्रचार-प्रसार लगभग नहीं के बराबर था। इस क्षेत्र में शौक, जोहारी, जाड़, मार्छा, जौनसारी, थारु, बिक्सा जनजातियों में ही शराब परम्परागत रुप से जुड़ी होने के बावजूद अंग्रेज काल से पूर्व यहां शराब का चलन बहुत कम था। ब्रिटिश काल में 1880 के बाद सरकारी शराब की दुकानें खुलने के साथ ही यहां पर शराब का प्रचलन शुरु हुआ।
पहाड़ों में छावनियों, हिल स्टेशनों की स्थापना के बाद इस प्रक्रिया को गति मिली, फिर भी उत्तराखण्ड के तीन-चार शहरों-कस्बों को छोड़कर शराब का प्रचलन नहीं बढ़ा। 1822-23 में कुमाऊं(तत्कालीन सम्पूर्ण उत्तराखण्ड) से शराब, दवाओं और अफीम का सम्मिलित राजस्व 534 रुपया था, 1837 में 1300 रुपया, 1872 में 18,673 रुपया और 1882 में 29,013 रुपया तक गया। 1882 में जब यह कहा जाने कि यहां पर शराब का प्रचलन बढ़ने लगा है तो तत्कालीन कमिश्नर रामजे ने लिखा था कि "ग्रामीण क्षेत्रों में शराब का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता है और मुझे आशा है कि यह कभी नहीं होगा, मुख्य स्टेशनों के अलावा शराब की दुकानें अन्यत्र खुलने नहीं दी जायेंगी"। इससे पहले 1863-73 की अपनी रिपोर्ट में बैकेट ने लिखा था कि कुमाऊं में शराब पीने का प्रचलन नहीं है।
ब्रिटिश काल में शराब का प्रचलन बढ़ने के साथ ही शराब को एक आवश्यक बुराई मान कर इस क्षेत्र में शराब के खिलाफ बराबर प्रतिरोध भी होता रहा। जिला समाचार, अल्मोड़ा नें 1 जून, 1925 के अपने सम्पादकीय में लिखा कि "हमें बड़े शोक के साथ लिखना पड़ता है कि कुमाऊं प्रान्त में दिन पर दिन शराब का प्रचार बढ़ता जाता है, ९० प्रतिशत लोग इसके दास बन गये हैं, सरकार अपनी आमदनी नहीं छोड़ सकती है और दुकानदार अपनी रोजी नहीं छोड़ सकते, तो क्या लोग अपनी आदत नहीं छोड़ सकते? छोड़ सकते हैं, छुड़वाये जा सकते हैं।