Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन
Give Employment Not Ebriety 1984 - "नशा नहीं, रोजगार दो" आन्दोलन 1984
पंकज सिंह महर:
इसके आगे समाचार पत्र ने आंदोलन का विश्लेषण किया है, जो आपके समक्ष प्रस्तुत है-
चुनाव के लिये सुरा-शराब के बड़े व्यापारियों से पैसा जुटाने वाले तमाम राजनैतिक दल इस आंदोलन में आने से कतराते हैं, क्षेत्रीय दल, उत्तराखण्ड क्रान्ति दल, जिसका एक्मात्र विधायक प्रदेश की विधानसभा में है, एक अपवाद है। उ०सं०वा० ने भी कोई विशेष तवज्जो राजनैतिक दलों को नहीं दी है, वाहिनी द्वारा चुनावी राजनैतिक दलों को निरर्थक घोषित करने के बाद ऎसी आशा धूमिल हो जाती है कि चुनावी राजनैतिक दल झूठे मन से भी अपने सहयोग का हाथ आगे बढ़ायेंगे। बावजूद इसके कि इस तरह के प्रचंड जनांदोलन से उनके अस्तित्व पर संकट आ पड़ा है।
सबसे ज्यादा असमंजस सत्ताधारी दल कांग्रेस (ई) को है, सुरा-शराब के खिलाफ जन भावना की जानकारी राजनैतिक दलों की तरह कांग्रेस को भी थी। लेकिन उसकी ओर से समस्या के निराकरण की कोई कोशिश नहीं की गई, लेकिन एक बार आंदोलन शुरु हुआ तो कांग्रेस भी हरकत में आ गई। पहले उसने आरोप लगया कि वाहिनी तो सुरा वालों की एजेन्ट है, शराबबंदी कांग्रेस ने लागू करवाई है और वह इस आंदोलन को आगे बढायेगी। सुरा के खिलाफ आंदोलन बढ़ा तो उसने पैंतरा बदला और खुलेआम कहना शुरु कर दिया कि "शराब दो-वोट लो"। नैनीतल में उसने पर्यटन की आड़ ली, उधर कांग्रेस के अल्मोड़ा सांसद का कहना है कि उग्रवादियों ने आंदोलन हथिया लिया है, वे क्यों नहीं हथिया सके? इस बारे में संभवतः वह कुछ नहीं कह सके, इस बीच अनुभवी राजनेता नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाकर उ०प्र० भेज दिया गया है, वे पहाड़ में आंदोलन को निष्क्रिय बनाने का हर संभव प्रयास करेंगे, क्योंकि आगामी चुनावों को दृष्टिगत रखते हुये कोई जोखिम लेना वो पसंद नहीं करेंगे।......
पंकज सिंह महर:
...ऎसे प्रयास भी हो रहें है, अल्मोड़ा नगर में कांग्रेस के युवा तत्वों को प्रशासन द्वारा पूरी छूट दी गई है कि वो आंदोलन का हरसंभव विरोध करें। सत्ताधारी दल की रणनीति यही है कि सारे मामले को घपले में डाल दिया जाय, ताकि आंदोलन में जनता किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाये तथा सुरा-शराब लाबी पहले की तरह शक्तिशाली हो जाये। इस स्थिति में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी और उसके सहयोगी संगठनों के लिये यह जरुरी हो जाता है कि वे आंदोलन की रणनीति बनाने में सावधानी बरतें। जनप्रतिनिधियों से बहस में उलझने के बजाय जनाधार मजबूत करें, राष्ट्रीय-अंर्तराष्ट्रीय और व्यवस्था परिवर्तन संबंधी समस्याओं को फिलहाल पीछे रखकर सुरा-शराब आंदोलन को ही आगे बढ़ाये। यदि वे सुरा-शराब को गौंण कर रातों-रात जनता की राजनैतिक चेतना विकसित करने का विचार रखते हैं तो वे गलत हैं। क्योंकि इससे देहात की हजारों-हजार जनता आंदोलन से उदासीन होती चली जायेगी और शहरों के पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवान ही आंदोलन में साथ रह जायेंगे। यह उन्हें मानना होगा कि जबसे उन्होंने देहात की जमीन छोड़ी है और धरने-अनशन के रुप में नगरों में ज्यादा ध्यान दिया है, उन्होंने अपनी शक्ति क्षीण ही की है। क्योंकि उनकी आधी ताकत तो निहित स्वार्थों के प्रतिरोध में ही नष्ट हो रही है। इसमें दो राय नहीं है कि यह आजादी के बाद पहाड़ में सर्वाधिक सशक्त आंदोलन है और इसकी सफलता-असफलता ही काफी हद तक पहाड़ के भविष्य के निर्माण में सहायक होगी।
इति!
पंकज सिंह महर:
संभवतः इसी आंदोलन के दौरान हीरा सिंह राणा जी ने यह गीत लिखा होगा।
सुरा- शराबैल हाय मेरी मौ , लाल कै दी हो,
छन दबलौं ठन ठन गोपाल कै दी हो,
न पियो, नै पियो, कौ सबुले , कैकी नि मानी ,
साँची लगौनी अक्ला- उम्र दघोडी नि आनी,
अफ्फी मैले अफ्फु हैणी जंजाल कै दी हो,
छन डबलौं ठन ठन
गोपाल कै दी हो
पंकज सिंह महर:
करना ही होगा एक इंतखाब।
आदमी की जिंदगी या सुरा-शराब।।
नैनीताल के मौन आन्दोलनकारी अवस्थी मास्साब इस आन्दोलन के दौरान उक्त पंक्तियों को तख्ती में लिखकर अपनी आदतानुसार गले में लटकाकर घुमते थे।
हेम पन्त:
शराब उत्तराखण्ड के मस्तक पर एक कलंक की तरह दिखता है... गैर पहाङी लोगों ने इस बात से सम्बन्धित कई मुहावरे भी गढ लिये हैं. इसी वर्ष "नशा नहीं रोजगार दो" आन्दोलन की 25वीं सालगिरह मनाई गई. मुख्य आयोजन इस आन्दोलन की जन्म्भूमि बसभीङा में 2 फरवरी को हुआ.
इस मुख्य आन्दोलन के अलावा पहाङ के युवा व महिलायें शराब के विरोध में समय-समय पर आन्दोलन चलाते रहते हैं. लेकिन नेतृत्व की कमी, शराब माफिया के षङयन्त्र व मीडिया के असहयोग के कारण यह आन्दोलन किसी निर्णायक मन्जिल तक कम ही पहुंच पाते हैं.
शराब बन्दी की बात आने पर पिथौरागङ के अमर छात्रनेता निर्मल जोशी "पण्डित" को नही भुलाया जा सकता. 27 मार्च 1998 को पिथौरागढ में शराब के ठेके उठने थे. इन ठेकों के खिलाफ अपने पूर्व घोषित आन्दोलन के अनुसार उन्होने आत्मदाह किया. 16 मई 1998 को जिन्दगी मौत के बीच झूलते हुए अन्ततः उनकी मृत्यु हो गयी. इस समय शराब पहाङ की नयी व पुरानी पीढी को खोखला कर रही है इसलिये अब नये "पण्डित" की और "नशा नहीं रोजगार दो" जैसे जनआन्दोलन की जरूरत महसूस होती है.
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